मोदी के लिये विहिप के 30 हजार कार्यकर्ता बनारस की खांक छान रहे हैं
नरेन्द्र मोदी के लिये विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण तोगडिया को चाहे आरएसएस ने खामोश कर दिया हो लेकिन बनारस का सच यही है कि नरेन्द्र मोदी के लिये बनारस शहर ही नहीं बल्कि जिले की हर गली में विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता ही घूम रहे हैं। और खास बात यह है कि अय़ोध्या आंदोलन के दौर में विहिप के जिस नेता ने 6 दिसंबर 1992 को लेकर समूची रणनीति बनायी थी, विहिप के वही नेता बनारस में मोदी के जीत का मंत्र भी फूंक रहे हैं। मोदी की जीत के लिये व्यूह रचना बनाते विहिप के अंतराष्ट्रीय महामंत्री चंपत राय लगातार विहिप के सैकड़ों कार्यकर्ताओं को अयोध्या आंदोलन के दौर से इतर जाति और मजहब से इतर कैसे चुनावी जीत साधी जा सकती है, इसकी बिसात बिछा रहे है । जिस तरह की बिसात विहिप बनारस में बना रहा है, उसने पहली बार इसके संकेत दे दिये हैं कि किसी भी राजनीतिक दल से कई कदम आगे चलते हुये किसी भी सामाजिक संगठन का राजनीतिक प्रयोग कैसे किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि विहिप के लिये 2014 गोल्डन जुबली का साल है और जन्माष्टमी के दिन अपनी स्वर्णजंयती मनाने से पहले विहिप ने राजनीतिक तौर पर जिस तरह की व्यूह रचना समूचे बनारस में बिछा दी है, उसके बाद मोदी हर-हर या घर-घर पहुंचे या ना पहुंचे लेकिन हर वोटर के घर विहिप राजनीतिक दस्तक देकर यह एहसास करा रहा है कि पहली बार जातीय समीकरण भी टूट रहे हैं और मजहब के नाम पर सियासत भी खत्म हो रही है क्योंकि संघ परिवार का सामाजिक बराबरी का चिंतन लेकर मोदी बनारस से चुनाव जीत कर पीएम बनने जा रहे हैं।
बनारस के लिये विहिप की चुनावी व्यूह रचना प्रखंड से पूर्वा तक की है। यानी करीब 30 हजार से ज्यादा विहिप से जुड़े लोग बनारस के सबसे छोटे गांव यानी पूर्वा तक पहुंचेंगे, जहां ना बिजली पहुंची है और ना ही सड़क यानी विकास की कोई धारा जगा नहीं पहुंची है, वहां मोदी के लिये विहिप वोट के लिये दस्तक दे रहा है। दरअसल बनारस लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की पांच सीटे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में विहिप के दस प्रखंड काम कर रहे हैं। यानी कुल 50 प्रखंड । हर प्रखंड के अंदर दस खंड काम करते हैं। यानी पांच सौ खंड और हर खंड में दस न्याय पंचायत है यानी पांच हजार पंचायत और हर न्याय पंचायत में दो से पांच ग्राम सभा है। यानी औसत करीब पन्द्रह हजार ग्राम सभा और हर ग्राम सभा में 2 से 10 छोटे गांव यानी पूर्वा हैं। यानी पचास हजार से ज्यादा छोटे बड़े गांव तक में विहिप की दस्तक 5 से 10 मई के दौरान हो जायेगी।
दरअसल संघ का यह अपने का नायाब राजनीतिक प्रयोग है जिसे विहिप के कार्यकर्ता मोदी के पीएम पद के उम्मीदवार बनते ही अमली जामा पहनाने में लगा गये। बनारस में बीजेपी को सिर्फ यही काम सौपा गया है कि वह एक बूथ,दस यूथ के तहत काम करे। यानी हर बूथ पर दस युवा कैसे मौजूद रहेंगे, उसके लिये अपनी राजनीतिक इकाई को संघ ने लगा दिया है। आरएसएस के स्वयंसेवक एक पन्ना,एक स्वयंसेवक के तहत काम कर रहे है। यानी वोटर लिस्ट के हर एक पन्ने को हर एक स्वयंसेवक ने संभाला है। जिसमें हर वोटर को लेकर समूची जानकारी हासिल करने में स्वयंसेवक लगे हुये हैं। वही विहिप का काम बनारस में सबसे विस्तृत और सबसे जटिल है। दिल्ली से बनारस के लिये विशेष रुप से भेजे गये राजीव गुप्ता के मुताबिक 20 अप्रैल तक विहिप ने पहला लक्ष्य पा लिया। यानी 50 प्रखंड और 500 खंड में काम पूरा हो चुका है। पांच हजार न्याय पंचायतों में से तीन हजार पंचायत भी कवर हो चुकी हैं, जो पांच अप्रैल तक पूरी हो जायेगी। आखिरी चरण में 5 मई से 10 मई तक विहिप का कार्यकर्ता हर गांव के हर दरवाजे पर दस्तक दे चुका होगा।
दरअसल, बनारस को संघ परिवार ने अगर विहिप के जरीय चुनावी प्रयोगशाला बनाया है तो विहिप के पचास वर्ष के उत्सव की तैयारी के लिये भी संघ इसी प्रयोगशाला के दायरे में उन्हीं मुद्दो को राजनीतिक तौर पर मथ रहा है, जिसे वाजपेयी सरकार के दौर में हाशिये पर रख दिया गया था। बेहद महीन तरीके से मोदी की चुनावी जीत की बिछती बिसात पर राजनीतिक तौर पर सक्रिय वोटरो के सामने संघ परिवार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और धारा 370 के साथ कश्मीरी पंडितों का सवाल भी उछालने में लगे हैं। विहिप के चंपत राय अगर मोदी की जीत के साथ हिन्दूस्तान की उस परिकल्पना को विहिप कार्यकर्ताओं के सामने परोस रहे है जिसके आसरे आरएसएस के सामाजिक शुद्दीकरण राजनीतिक शुद्दीकरण में बदल जाये तो काशी प्रांत के संगठन मंत्री मनोज श्रीवास्तव का मंत्र अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और धारा 370 को खत्म कर कश्मीरी से भगाये गये पंडितों की वापसी के मौके के तौर पर मोदी के जीत को अंजाम देने में लग गये हैं। यानी पहली बार संघ परिवार चुनाव के मौके को अपने एजेंडे में राजनीतिक तौर पर ढालने की तैयारी भी कर रही है और उसे लगने भी लगा है कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर सक्रिय हुई राजनीति का लाभ संघ को मिलेगा। इसलिये बनारस के पन्नालाल मार्ग पर बने केसर भवन में मोदी की चुनावी जीत की बिसात पर यह नारे लगने लगे है कि "अयोध्या में राम मंदिर सुनिश्चित है । धारा 370 का खात्मा होगा । आतंकवाद और नक्सलवाद अपने चरम पर है। देश की सीमाएँ असुरक्षित है । सीमा पर हमारे जांबाज़ जवानों के सिर काट दिया जाता है। आए दिन चीन द्वारा भारत के अन्दर कई किलोमीटर तक घुसपैठ करता है। करोडों बांग्लादेशी हमारे देश में घुसपैठ करते हैं। परंतु हमारी केन्द्र की लचर सरकार चुपचाप इस प्रकार के सभी अपमान सहती रहती है इसलिए भारत के नौजवानों ने देश में परिवर्तन लाने के लिए मन बना लिया है । इसलिए जातिवादी और मजहब की राजनीति करने वालों की दुकानें इस लोकसभा चुनाव में बन्द हो चुकी हैं। "
तो पहली बार आरएसएस की विचारधारा संघ परिवार की राजनीतिक बिसात पर प्यादा है । और संघ का चुनावी प्रयोग सफल हुआ तो प्यादा बने विचार को वजीर के तौर पर उभरना है। और संघ के लिये यह प्रयोगशाला इसलिये उसकी अपनी है क्योकि विकास पुरष नरेन्द्र मोदी काशी में उमडे जमसैलाब से ही लबालब है। जहां विकास की कोई धारा पहुंची नहीं उन गलियों में मोदी या बीजेपी नहीं बल्कि विहिप के नौजवान धूल फांक रहे हैं और आरएसएस की ताकत यही है जिसके आगे मोदी भी नतमस्तक हैं।
Tuesday, April 29, 2014
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बनारस में मोदी के लिये संघ परिवार उतरा मैदान में |
Sunday, April 27, 2014
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आजादी के बाद पहली बार क्यों टकरा रहे हैं नेहरु परिवार और संघ परिवार |
बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के निशाने पर नेहरु परिवार है। यानि जिस परिवार को कभी संघ परिवार ने निशाने पर नहीं लिया, जिस परिवार को लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर वाजपेयी और आडवाणी तक खामोश रहे। या कहें सीधे टकराव कभी मोल नहीं लिया उस समूची राजनीतिक धारा से अलग पहली बार नरेन्द्र मोदी ने सोनिया, राहुल और प्रियंका पर सीधे हमला क्यों कर दिया है। और मोदी के हमले को लेकर वही संघ परिवार खामोशी से मंद मंद क्यों मुस्कुरा रहा है जो संघ परिवार गोलवरकर से लेकर देवरस तक के दौर में नेहरु परिवार को सीधे निशाने पर हमेशा लेने से बचता रहा। इतिहास के पन्नों को पलटे तो महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएएस को लेकर सरदार पटेल का रुख उतना नरम कभी नहीं था जितना संघ परिवार बताता है बल्कि नेहरु का रुख संघ को लेकर नरम जरुर हुआ। और उसका खुला नजारा चीन के साथ युद्द के बाद नेहरु का संघ परिवार के पक्ष में खुलकर बोलना । और 1963 की वह तस्वीर तो हर किसी को याद आ सकती है जब 26 जनवरी 1963 को गणतंत्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवकों ने हिस्सा लिया । उस वक्त नेहरु ने बकायदा सरसंघचालक गुरु गोलवलकर से संघ के स्वयंसेवकों गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने कहा था । और सिर्फ दो दिन के वक्त में संघ के साढे तीन हजार स्वयंसेवक गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक हुये थे। उस वक्त पहली बार खुली चर्चा यही हुई थी कि संघ को राष्ट्रवादी संस्था के तौर पर नेहरु सरकार ने भी मान्यता दी थी। जबकि नेहरु के काल में ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में प्रतिबंध लगाया गया था ।
दरअसल, नेहरु परिवार से संघ परिवार की करीबी की एक वजह कमला नेहरु के गुरु स्वामी अखंडानंद का होना भी था । रामकृष्ण मिशन से जुडे स्वामी अखंडानंद कमला नेहरु के गुरु थे। और स्वामी अंखडानंद से गुरु गोलवरकर की करीबी थी। और कमला नेहरु की मृत्यृ के बाद नेहरु ने स्वामी अखंडानंद से ही वार्षिकी श्राद्ध करवाने को कहा। साथ ही एक अस्पताल खुलवाने का जिक्र किया। जिस पर उस वक्त गुरु गोलवरकर की सहमति से स्वामी अखंडानंद ने सहमति दी। हालांकि स्वामी अखंडानंद रामकृष्ण मिशन से जुडे थे। सवाल सिर्फ नेहरु परिवार से संघ परिवार की करीबी भर का नहीं है। सवाल यह भी है कि जिस तर्ज पर मौजूदा दौर में संघ परिवार को लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी सीधे निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे हैं। वैसी हालत इससे पहले कभी थे नहीं। भ्रष्टाचार और देश को अपनी सत्ता में बदलने वाली इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी खडे हुये और गुजरात से बिहार तक आंदोलन शुरु हुआ और उसके बाद आपातकाल देश को देखना पड़ा । तब भी जेपी के पीछे आरएसएस आकर खड़ा हुआ था लेकिन इंदिरा ने भी कभी संघ परिवार को सीधे निशाने पर नहीं लिया । जेपी ने भी अपने आंदोलन के दायरे में आरएसेस को क्लीन चीट देदी । और इंदिरा ने भी जेपी पर निशाना साधने के लिये पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का जेपी के लिये जरीये खोलने का भी आरोप लगाया संघ को निशाने पर इंदिरा ने भी तब नहीं लिया। जबकि इमरजेन्सी के दौर में ही संघ परिवार राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुआ था और तब के सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने बकायदा जेपी से मिलकर इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने की व्यूह रचना की थी। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की जीत और इंदिरा की हार के बाद जो पहला बयान संघ परिवार की तरफ से आया था, उसमें इंदिरा के खिलाफ कोई आवाज नहीं थी। बालासाहेब देवरस ने तब जनता सरकार को यही सलाह दी थी कि देश की जनता ने इमरजेन्सी को लेकर इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया अब बदले की भावना से कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिये । देवरस की इंदिरा को लेकर टिप्पणी फारगेटगेट एंड फारगीव उस वक्त यह बहुत लोकप्रिय हुई थी । असल में सिर्फ संघ परिवार ही नहीं बल्कि नेहरु परिवार ने भी इससे पहले संघ परिवार पर किसी भी निजी टिका टिप्पणी को महत्व नहीं दिया । श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सहायक रहे मौली चन्द्र शर्मा जब जनसंघ छोड काग्रेस के करीब हुये तो नेहरु के साथ बातचीत में एक बार उन्होने गुरुगोलवरकर पर यह कहकर चोट की कि गोलवरकर में स्वयंसेवक का कोई भाव नहीं है। गोलवरकर कोसा की शर्ट पहनते हैं। रईसी से रहते हैं। इसपर नेहरु ने ही मौली चन्द्र शर्मा को यह कहकर खामोश कर दिया कि संघ परिवार के किसी जन पर भी निजी टिप्पणी नहीं होनी चाहिये।
असल में संघ परिवार और नेहरु परिवार कभी टकराये नहीं तो इसका असर संघ के राजनीतिक स्वयंसेवकों पर भी पड़ा। लेकिन वाजपेयी-आडवाणी युग खत्म हुआ और मोदी युग शुरु हुआ तो मोदी के दौर में यह मर्यादा टूट गयी । लेकिन सवाल सिर्फ मोदी युग का नहीं है बल्कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी युग का भी है। जो कभी इस नब्ज को पकड़ नहीं पाये कि संघ राजनीतिक बिसात पर एर ऐसा प्यादा बना कर रखा जा सकता है जिसके आसरे सामाजिक आदर्शवाद वाले हालात से मौका पड़ने पर बीजेपी को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। जैसा 2004 में शाइनिंग इंडिया के दौर में संघ परिवार ने खुद को वाजपेयी -आडवाणी से दूर कर बीजेपी को सत्ता से ही दूर कर दिया। लेकिन तब भी संघ परिवार ने कभी नेहरु परिवार पर सीधा हमला नहीं किया। वाजपेयी सरकार के दौर में नार्थ-इस्ट में संघ के चार स्वयंसेवकों की हत्या हो गयी तो झंडेवालान में संघ के स्वयंसेवक यह कहने से नहीं चूके कि इंदिरा होतीं तो ऐसा नहीं होता लेकिन अब गृह मंत्री आडवाणी हो तो उन्हें स्वंयसेवकों की जान की फिक्र भी नहीं। इसलिये संघ हेक्वार्टर में तब मारे गये स्वयंसेवकों के की तस्वीर पर माल्यार्पण करने पहुंचे आडवाणी को सरसंघचालक सुदर्शन ने कठोर बोल बोले थे ।
याद कीजिये तो वाजपेयी, आडवाणी और जोशी ने कभी इंदिरा से लेकर सोनिया गांधी तक पर सीधा निशाना नहीं साधा। इसके उलट 1971 के युद्द के बाद तो वाजपेयी इंदिरा को दुर्गा कहने से नहीं चूके और इंदिरा गांधी भी वाजपेयी को उस वक्त बधाई देने से नहीं चूकीं, जब जनता पार्टी की सरकार में बतौर विपक्ष मंत्री वाजपेयी ने युनाइटेड नेशन में हिन्दी में भाषण दिया। वाजपेयी ने हिन्दी में भाषण देकर पहली बार देश का सीना गर्व से फुला दिया था। और इंदिरा गांधी ने यूनाइटेड नेशन्स से लौटने पर निजी तौर पर वाजपेयी को बधाई दी थी। इंदिरा से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में कई मौकों पर संघ के राजनीतिक स्वयंसेवक टकराये भी। लेकिन सार्वजनिक तौर पर कभी टिका -टिप्पणी नहीं की । यहां तक की आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त सेना भेजने पर इंदिरा ने वाजपेयी से सलाह भी ली । और वाजपेयी ने सेना ना भेजने की भी सलाह दी । लेकिन खुले तौर पर कभी टकराव नहीं हुआ । संघ परिवार ने भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का समर्थन किया और राजीव गांदी को मिस्टर क्लीन कहने में कोताही नहीं बरती। लेकिन अब टकराव क्यों है और पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी सीधे निशाने पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी सीधे क्यों आ गये हैं। दरअसल, यहीं से असल सवाल शुरु होता है क्योंकि संघ परिवार को पहली बार सीधे तौर पर और किसी ने नहीं नेहरु परिवार ने ही निशाने पर लिया । समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट हो या मालेगांव ब्लास्ट या फिर हैदराबाद ब्लास्ट अगर इन तीन आतंकवादी घटनाओं को याद करें तो संघ परिवार से इन घमाकों के रिश्ते होने के आरोप और किसी ने नहीं बल्कि मनमोहन सरकार ने ही बार बार लगाये । सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने कई बार भाषणों में जिक्र किया और कई बार गृह मंत्री चिदबंरम से लेकर सुशील कुमार शिंदे और कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल से लेकर काग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तक ने आतंकवादी ब्लास्ट को लेकर संघ परिवार को कटघरे में खड़ा किया। गृह मंत्री शिंदे ने तो संघ परिवार पर पाबंदी लगाने के संकेत भी कई बार खुले तौर पर दिये । दरअसल सीधे संघ पर हमले के बाद जिस तरह संघ के स्वयसंवकों की घेराबंदी मनमोहन सरकार ने शुरु की और एक के बाद एक गिरप्तारी शुरु हुईं। उसी के बाद संघ चौकन्ना हो गया। संघ से जुड़े कई लोगों की गिरप्तारी के बाद असीमानांद की गिरफ्तारी और उसके बाद पुलिस ने इन्द्रेश कुमार पर हाथ डाला और जिस तरह संकेत दिये कि आंतकी घटनाओं के मदद्देनजर सरसंघचालक मोह भागवत को भी निशानेने पर लेने से सरकार नहीं चूकी। तभी संघ परिवार में पहली बार यह चर्चा हुई कि बीजेपी अगर सत्ता के लिये दिल्ली में खुद का कांग्रेसीकरण कर रही है और काग्रेस की ही तर्ज पर खुद को सेक्यूलर बताने-दिखाने में लगी रही तो फिर संघ परिवार पर पाबंदी लगाने में मनमोहन सरकार हिचकेगी नहीं ।
इसी दौर में सांप्रदायिकाता विरोधी विल को लाने की तैयारी मनमोहन सरकार ने जिस तरह से की उससे आरएसएस कहीं ज्यादा परेशान हुआ। और खुले तौर पर इस बिल को लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने वकालत की । इन तमाम हालात में संघ को सरसंघचालक मोहन भागवत की गिर्फतारी से लेकर पांबदी तक का डर समाया । और मौजूदा वक्त में संघ परिवार ने माना कि आजादी के बाद नेहरु परिवार के प्रति नरम रवैया रखना उनके लिये अब घातक साबित हो रहा है । असल टकराव यही से शुरु हुआ । और चूकिं सोनिया गांधी हो या राहुल गांधी या फिर मौजूदा काग्रेस उनके लिये बीजेपी में अगर कोई सीधे निशाने पर रहा या घृमा का पात्र बना तो वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी थे । मोदी ने बार बार गुजरात से सोनिया-राहुल गांधी पर निशाना साधा और उन दोनो ने भी मोदी की गुजरात की मोदी सत्ता को संघ की प्रयोगशाला बताने में कोताही नहीं बरती। इन्हीं सबके बीच नरेन्द्र मोदी को जैसे ही पीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया। वैसे ही आरएसएस ने इस सच को समझ लिया कि आजादी के बाद से नेहरु परिवार को लेकर जो मर्यादा बरकरार थी उसका घाटा संघ परिवार को ही हमेशा उठाना पड़ रहा है । और अब सवाल आस्तित्व का है तो फिर मोदी से ज्यादा तीखा हथियार कोई हो नहीं सकता है । क्योकि राजनीतिक तौर पर ही नेहरु परिवार पर निशाना साध कर ही काग्रेस को राजनीतिक तौर पर खत्म किया जा सकता है ।और हो भी यही रहा है नरेन्द्र मोदी अब कही भी मनमोहन सरकार नहीं कहते । बल्कि मनमोहन सिंह की सत्ता को मोदी ने मा-बेटे की सरकार करार दिया है । और पहली बार आरएसएस के प्रचारक से सीएम की कुर्सी तक पहुंचे मोदी पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर अब काग्रेस से कही ज्यादा नेहरु परिवार से टकराते हुये दिख रहे है ।
Friday, April 25, 2014
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कलयुग के महाभारत में काशी कैसे कुरुक्षेत्र बन गयी |
गंगा और बुनकर। एक काशी के आस्तित्व की पहचान तो दूसरा प्रतीक और रोजी रोटी। नरेन्द्र मोदी ने बनारस में पर्चा भरते वक्त इन्ही दो मुद्दों को उठाया। लेकिन इन दोनों मुद्दों के साय में अगर बनारस का जिक्र होगा और वह भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर तो फिर आने वाले वक्त में काशी के भाग्य बदलेंगे या काशी देश की सत्ता परिवर्तन भर का प्रतीक बनकर रह जायेगा। हो जो भी लेकिन सच यही है कि बुनकर मजदूर बन चुका है और गंगा किसी बरसाती नाले में तब्दील हो चली है। दरअसल, गंगा की अविरल धारा अब गंगोत्री से काशी तक सिर्फ लोगों के जहन में ही बहती है। शहर दर शहर, गांव दर गांव। सौ पचास नहीं बल्कि ढाई हजार गांव इसी गंगा पर पूरी तरह आश्रित है और गंगा सिर्फ मां नहीं बल्कि आधुनिक दौर में जिन्दगी भी है। रोजगार है। कारखाना है। उद्योग है। सरकारी योजनाओं को समेटे है गंगा। लेकिन बिगड़े बच्चों की तरह गंगा को मां मानकर भी किसी ने गंगा के उस सच को नहीं देखा जिसके दायरे में गंगा का पानी पीने लायक नहीं बचा और सैंट्रल पौल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड को कहना पड़ा कि कन्नौज, कानपुर, इलाहबाद और काशी में तो गंगा नहाने लायक तक नहीं है।
गंगोत्री से बंगाल की खाडी तक देश के 42 सासंद गंगा किनारे के क्षेत्र से ही चुने जाते हैं। अपने सासंद को चुनने वाले इन 42 लोकसभा क्षेत्रों के करोड़ों वोटरों के लिये सबकुछ गंगा ही है। लेकिन गंगा किसी के लिये कभी मुद्दा नहीं बना। ऐसा भी नहीं है कि राजनेताओं या सरकारों के पास पैसे की कमी है। 1985 में गंगा एक्शन प्लान शुरु हुआ तो विश्व बैंक से लेकर गंगा के लिये काम करने वाले एनजीओ के अपनी थैली खोल दी। 2011 में 7 हजार करोड़ तो विश्व बैंक से आ गया। करीब 10 हजार करोड की मदद पर सहमति दुनियाभर के एनजीओ और सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों से आ गयी। लेकिन काम सिर्फ कागजो पर ही रेंगता रहा। 896 करोड रुपये सीवेज के लिये दिये गये। कानपुर में बहते कूडे को गंगा में गिरने से रोकने के लिये 145 करोड रुपये दिये गये। लेकिन सिवाय संसद से विधानसभा में गंगा सफाई को लेकर गूंज और निराशा के आगे बात कभी बढ़ी नहीं। गंगा के पानी को टिहरी में पठारो से रोक कर भविष्य के गर्भ में प्रकृतिक से खिलवाड़ का रोना भी रोया गया। लेकिन मुनाफे और गंगा तक से कमाई के लोभ ने कभी राजनेताओ के दिल को डिगाया नहीं। लेकिन पहली बार कोई पीएम पद का उम्मीदवार काशी पहुंचकर जब इस भावुकता से बोला कि गंगा ने बुलाया है तो ही काशी आना हुआ तो शाय़द पहली बार राजनीति भी गंगा नहा गई। तो क्या गंगा की तस्वीर मोदी के सत्ता में आने के बादल सकती है। यकीनन कोई भी ठान लें तो गंगा फिर उसी अविरल धारा के साथ जिन्दगी का गीत सुनाती हुई बह सकती है। तो पहला सवाल क्या साबरमति के लाल ने आजादी दिलायी और अब काशी को गंगा लौटाकर मोदी भी गंगा के लाल तो हो ही सकते है। वही बुनकरों को लेकर जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने मार्केटिंग का सवाल उठाया उसने झटके में बनारस के करीब डेढ लाख बुनकरो की दुगती रग पर हाथ रख दिया। क्योंकि बनारस की पहचान सिल्क साड़ी भी है। मुगलिया सल्तनत तक बनारस के बुनकरों के हुनर पर रश्क करती थी। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि मुगलिया सल्तनत की तरह हुनरमंद बुनकर भी अस्त हो गये। अग्रेजों ने मुगलों को खोखला बना दिया तो चीन के सिल्क ने बुनकरो की कमर तोडी। बीते 10 बरस में बनारस के 175 से ज्यादा बुनकरों से आत्महत्या कर ली। बुनकरों के हुनर को चुनौती मशीन ने दी। फिर मशीन भी बिजली की किल्लत में बैठ गई। हथेलियो पर रेंगते हुनर पर पेट की भूख भारी पड़ी और देखते देखते सिर्फ बनारस में 20 हजार से ज्यादा परिवार मजदूरी में लग गयी। खेती से लेकर शहर में बडी बडी अट्टलिकाओ की चमक दमक बरकरार रखने के लिये ईंट और सीमेंट की बोलिया उठाते मजदूरो को रोक कर आज भी पूछ लीजिये हर पांच में एक बुनकर ही निकलेगा। बनारस के जिस राजा तालाब पार बस्ती में एक वक्त करघो का संगीत दिन रात चलता रहता था। वही बस्ती अब सुबह होते ही मजदूरी के लिये निकलती दिखायी पड़ती है। कैसे हुनर लौटेंगे। कैसे पुश्तैनी काम दुबारा बनारस की गलियो में बिखरी पडी बस्तियों के आसरे दुबारा पुरानी रंगत में लौटेगा। भरोसा अब भी किसी को नहीं होता ।
ढाई बरस पहले राहुल गांधी ने सरकारी पैकेज देकर बुनकरो की भूख मिटायी थी। लेकिन चुनाव जीता समाजवादी पार्टी ने और सीएम होकर भी बुनकरों के जख्म में मलहम ना लगा सके अखिलेश यादव। अब पीएम पद के दावेदार मोदी ने हुनरमंद हाथों को दोबारा संवारने के लिये आंखो में सपने जगाये है। सवाल सिर्फ इतना है कि सत्ता की होड के साथ ही सपनो को जोडा गया है । जिसे बनाना या तोडना सिर्फ बनारस के हाथ में नहीं। तय देश को करना है। क्योंकि समूचे देश में ही हर हुनरमंद सियासी चालों तले बार बार ठगा गया है । और मजदूर बनकर जीने को अभिश्पत हो चला है। सपना टूटे नहीं उम्मीद तो की जा ही सकती है। लेकिन जिस तरह पर्चा भरने को ही सियासी ताकत का प्रतीक बना दिया गया । उसमें अगले 18 दिन तक यह मुद्दे मायने रहेंगे भी या नहीं यह देखना भी दिलचस्प होगा। क्योंकि महाभारत 18 दिन ही चला था। और जब युद्द खत्म हुआ तो युद्दभूमि में मौत से भी भयावह सन्नाटा था। घायल और मरे लोगों से पटे पडे युद्द भूमि के आसमान पर चील कौवे मंडरा रहे थे। लेकिन बनारस की राजनीति के अक्स में क्या काशी 2014 के चुनाव का एक ऐसा युद्द स्थल बन रहा है जो महाभारत से कम नहीं है तो फिर मौजूदा वक्त में देश की राजनीतिक सत्ता की दौड में जिस जुनुन के साथ बनारस की गलियो में जन सैलाब उमड़ा। केजरीवाल के साथ सफेद टोपिया और लहराते सफेद झंडो के बाद मोदी के साथ केसरिया रंग से बनारस पटा गया। गगन भेदी नारो के बीच जनसैलाब लोकतंत्र की उस राजनीति को ही हड़पने को बेताब दिखा । जिसमें कोई मुद्दा मायने भी रखता हो या बहस की भी गुंजाइश हो। और अगर मोदी को ताकत जनसैलाब से मिली तो भी गंगा या बुनकर की त्रासदी चुनावी तंत्र में क्या मायने रखती है। हर किसी को चुनावी जीत के लिये अगर भीड़ ही चाहिये तो फिर जीतने के लिये हहर हथकंथे को न्याय युद्द ही मान कर लडा जा रहा होगा । उसमें केजरीवाल इमानदारी या व्यवस्था परिवा रत्न का नारा लगाये और मोदी गंगा की सौगन्ध खाने लगे तो फर्क किसे पड़ता है।
हां, लोकतंत्र का पर्व झटके में बनारस को एक ऐसे सियासी कुरुक्षेत्र में तब्दील करने को आमादा है, जहां महाभारत की आहट दिखायी देने लगी है। मोदी के पर्चा दाखिल करने के ठीक 18 दिन बाद वोटिंग होनी है। और 18 दिन चले महाभारत के बाद के दृश्य को अंधा युग ने बाखूबी खींचा है-टुकडे टुकडे हो बिखर चुकी मर्यादा/उसको दोनो ही पक्षों ने तोडा/ पांड्व ने कुछ कम..कौरव ने कुछ ज्यादा / यह रक्तपात अब समाप्त होना है / यह अजब युद्द है । नहीं किसी की भी जीत /दोनो पक्षों को खोना ही खोना है।
लेकिन वह अंधा युग था। अब कलयुग है । जहा हर किसी को कुछ पाना ही पाना है । तो इंतजार कीजिये अगले 18 दिन के महाभारत का जिसकी मुनादी काशी में हो चुकी है।
Tuesday, April 22, 2014
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तो अच्छे दिन ऐसे आयेंगे... |
सोने का पिंजरा बनाने के विकास मॉडल को सलाम ..
एक ने देश को लूटा, दूसरा देश को लूटने नहीं देगा। एक ने विकास को जमीन पर पहुंचाया। दूसरा सिर्फ विकास की मार्केटिंग कर रहा है। एक ने भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहायी। दूसरा रोक देगा। कुछ ऐसे ही दावों-प्रतिदावों या आरोप प्रत्यारोप के साथ राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के भाषण लगातार सुने जा सकते हैं। लेकिन नेताओं की तमाम चिल्ल-पों में क्या देश की जरुरत की बात कहीं भी हो रही है। क्या किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता के पास कोई ऐसा मॉडल है, जिसके आसरे देश अपने पैरों पर खड़ा हो सके। ध्यान दें तो आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री 1991 में खींची, उसके बाद सबसे प्रभावी तबका पैसे वाला समाज बनता चला गया। मिडिल क्लास का विस्तार भी इसी दौर में हुआ और वाजपेयी सरकर ने भी आर्थिक सुधार का ट्रैक टू ही अपनाया। बीते दस बरस मनमोहन सिंह ने बतौर पीएम देश को विकास का वही माडल दिया, जिसमें खनिज संसाधनों की लूट, खादानों के जरीये विकास का खाका, पावर प्लाट से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण की बात थी। यानी विकास के इस मॉडल ने भ्रष्टाचार को इस अबाध रुप से फैलाया, जिसके दायरे में मंत्री से लेकर नौकरशाह और कारपोरेट से लेकर शासन व्यवस्था तक आये। लेकिन विकास के इस मॉडल को किसी ने नहीं नकारा और सभी ने सिर्फ इतना ही कहा कि गवर्नेंस फेल है। या फिर रिमोट से चलने वाला पीएम नहीं होना चाहिये। तो विकास का मौजूदा मॉडल हर किसी को मंजूर है। जिसमें सड़कें फैलते फैलते गांव तक पहुंचे। गांव शहर में बदल जायें। शहरों में बाजार हो। बाजार से खरीद करने वाला बीस फीसदी उपभोक्ता समाज हो। और देश के बाकी 80 फिसदी के लिये सरकारी पैकेज की व्यवस्था हो। यानी राजनीतिक दलों की सियासत पर टिके लोग जो वोट बैंक बनकर सत्ता की मलाई खाने में ही पीढ़िया गुजार दें। और हर बांच बरस बाद लोकतंत्र का नारा ही बुंलद लगने लगे। अब सवाल है 2014 के चुनाव के शोर में विकास के जिस मॉडल की गूंज है उसमें नये शहर बनाने की होड जबकि सवाल गांव को पुनर्जीवित करने की उठनी चाहिये। शहर दर शहर कारों की बढती संख्या ही विकास का प्रतीक है। जबकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर कोई चर्चा नहीं है। पेट्रोल के बोझ तले देश के जीडीपी को आंका जा रहा है। सड़क भी टोल टैक्स पर जा टिका है। यानी अब सफर भी राज्य के दायरे से बाहर हो चला है। जिसके पास पैसा है वही सफर कर सकता है। स्वच्छता गायब है। पानी,इलाज, शिक्षा बाजार के हवाले किया जा चुका है। सरकार जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। और कोई माडल यह कहने को तैयार नहीं है कि न्यूनतम जरुरतों को उत्पाद में तो नहीं बदलना चाहिये। इसीलिये देश में शहर दर शहर पांच सितारा अस्पताल खोलने पर जोर है लेकिन गांव गांव डिस्पेन्सरी का कोई जिक्र नहीं हो रहा है।
दरअसल, देश में इतनी विविधता है कि मॉडल के दो चेहरे भी जनता को मान्य हैं और दोनों एक दूसरे का विरोध करते हुये भी सत्ता तक पहुंचा देते हैं। याद कीजिये सात बरस पहले बंगाल में सिंगूर से नंदीग्राम तक में किसानों की जमीन को लेकर आंदोलन हुआ। जिस ममता ने टाटा को नैनो कार के लिये सिंगूर में जगह नहीं दी, वह बंगाल में किसान मंजदूर के संघर्ष के आसरे सत्ता तक पहुंच गयी और उसी टाटा के नौनो को जिस मोदी ने गुजरात में जगह दी। उसी गुजरात के विकास मॉडल ने मोदी को पीएम पद का दावेदार बना दिया। तो कौन सा मॉडल सही है यह सवाल ममता और मोदी को लेकर या बंगाल -गुजरात को लेकर बांटा तो जा सकता है लेकिन क्या देश के सामने विकास का कौन सा मॉडल होना चाहिये इस पर सिर्फ ममता या मोदी का जिक्र कर खामोशी बरती जा सकती है। ध्यान दें तो देश में विकास की असमान नीतियो ने मौसम को ही बदल दिया है। लेकिन किसी भी माडल में बिगड़ते प्राकृतिक परिस्थितियों को संभालने या प्राकृति के साथ खिलवाड़ वाली योजनाओ पर रोक की कोई आवाज उठायी नहीं गयी है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। य़ा फिर बेमौसम बरसात और ठंड ने किसानो के सामने खेती पर टिकी जिन्दगी जीने को लेकर ही नयी चुनौती खड़ी कर दी है उस पर कोई मॉडल किसी राजनीतिक दल की चर्चा में नहीं है। खेती की जमीन कही इन्फ्रस्ट्रक्तर के नाम पर कही योजनाओं के नाम पर तो कही रिहाइश के लिये हथियायी जाने लगी। मनमोहन सिंह की सत्ता के दौरान ही 9 फीसदी खेती की जमीन किसानो से छिन ली गयी। करीब तीन करोड़ किसान निर्माण मजदूर में बदल गये। इसी दौर में लाखों किसानों ने देश भर में खुदकुशी कर ली। महाराष्ट्र में 53 हजार किसानों की विधवाएं जीवित हैं। लेकिन आज भी खुदकुशी करने वाले किसान की विधवा को मुआवजा तबतक नहीं मिलता जबतक जमीन के पट्टे पर उसका नाम ना हो। और जमीनी हकीकत है कि विधवाओं के नाम पर जमीन होती नहीं। खुदकुशी करने वाले किसान के बाप या भाई के पास जमीन चली जाती है। विधवा को वहां भी संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन किसी राजनीतिक दल के मॉडल में यह कोई प्राथमिकता नहीं कि किसानी कैसे बरकरार रहे। इसके उलट स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार पर किसानो के विकल्प के सवाल जरुर है। विकास के किसी मॉडल ग्रामीण-आदिवासियों के लिये कितनी जगह है, यह 1991 में बही आर्थिक सुधार की हवा ने ही दिखा दिया था। जबकि झारखंड से लेकर उडिसा और बंगाल से मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र, कर्नाटक तक के आदिवासी बहुल इलाको की खनिज संपदा तक पर देश के जिन टॉप दस उघोगपतियों के प्रोजक्ट चल रहे हैं। वह मनमोहन सिंह के दौर में बहुराष्ट्रीय उघोग का तमगा पा गये। रोजगार से निपटने के लिये मनरेगा लाया गया। भूख से निपटने के लिये फूड सिक्यूरटी बिल आ गया। अशिक्षा से निपटने के लिये 14 बरस तक मुफ्त शिक्षा का एलान हो गया।
अगर हालात को परखे तो कमोवेश ऐसे ही हालात देश के आईआईटी और आईआईएम से निकले छात्रों की संख्या और 8वी कक्षा तक भी ना पहुंच पाने से समझा जा सकता है । इतना ही नहीं देश में विकास के जो हालात है उसमें उच्च शिक्षा पाने वाले देश के सिर्फ साढे तीन फिसदी छात्रों में से भी 63 फिसदी छात्र देश के बाहर रोजगार के लिये चले जाते हैं । जबकि देश के कुल 47 फिसदी बच्चे जो कक्षा एक में दाखिला लेते है उसमें से 52 फिसदी से ज्यादा बच्चे 8वी के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। तो फिर देश में विकास का कौन सा मॉडल देश को पटरी पर लेकर आयेगा। सवाल देश के कुल 6 लाख से ज्यादा गांव के हालात का भी है। क्योंकि शहरो की तादाद जिस तेजी से बढ़ी है, उसमें गांव के सामाजिक आर्थिक हालात को अनदेखा किया जा रहा है। जिस आर्थिक सुधार की हवा में देश का शहरीकरण हो रहा है उसमें समूचे देश में आज की तारीख में दो हजार से कम शहर हैं। जबकि 6 लाख से ज्यादा गांव हैं। और खत्म किये जा रहे गांव को लेकर कोई मॉडल किसी राजनेता के पास नहीं है। बावजूद इसके की नये पनपते शहरो के आर्थिक हालात से अभी भी गांव के हालात अच्छे हैं। बावजूद इसके शहरीकरण पर जोर है। जबकि महाराष्ट्र की पहचान सबसे ज्यादा गरीब शहरियों को लेकर है। जाहिर है ऐसे में सवाल नये मॉडल का है। जो गांव को पुनर्जीवित कर सके। देसी अर्थव्यवस्था के तहत स्वावलंबन ला सके। रोजगार के लिये गांव लौटने के लिये पलायन करने वाले लोगो को लौटा सके।
और अगर ऐसा संभव नहीं है तो फिर कितने बरस हिन्दुस्तान के पास है यह समझना जरुरी है। क्योंकि सामाजिक असमानता देश में तनाव ज्यादा और हताशा ज्यादा फैला रही है । और मौजूदा मॉडल के पास ऐसा कोई हथियार नहीं है जिससे हाशिये के पड़े देश के बहुसंख्यक तबके को आगे बढ़ाने के लिये कोई व्यवस्था किसी माडल में हो। बावजूद इसके जिस मॉडल को देश की सियासत अपनाये हुये है और आर्थिक सुधार के बाद से शहरीकरण कर जेब की ताकत बढ़ाने का जिक्र कर खुश हो रही है, जरा उसके भीतर भी झांक कर देश का भविष्य देख ले। 2023 में भारत के इतने लोग अरबपति हो चुके होंगे कि भारत का नंबर अरबपतियो के मामले में चौथे नंबर पर होगा। तो खुश हुआ जा सकता है। लेकिन इसी दौर में गरीबी की रेखा से नीचे लोगों के आंकड़े में भारत दुनिया में नंबर एक पर होगा सच यह भी है। यानी जिस मॉडल पर देश चल रहा है उसमें 9 बरस बाद भारत गर्व कर सकेगा कि उसके पास 1302 अरबपति होंगे यानी दुनिया में चौथे नंबर पर। और इन्हीं 9 बरस बाद 44 करोड 22 लाख से ज्यादा बीपीएल होंगे और भारत का नंबर गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद में नंबर एक होगा। तो कौन सा मॉडल भारत को चाहिये। जिसमें चंद अरबपतियों पर गर्व किया जाये या ज्यादा गरीबो को लेकर जनसंख्या का रोना रोया जाये। आईआईटी और आईआईएम से निकले दशमलव 2 फीसदी से कम छात्रो की पढ़ाई पर या 27 फीसदी बच्चों की पढाई की व्यवस्था ना कराने पर। किसी एक छात्र को ओबामा के दफ्तर में रखा गया। या किसी अंतरराष्ट्रीय कारपोरेट में किसी एक आईआईएम के छात्र को 100 करोड़ का पैकेज मिल गया। यह मॉडल तो देश को सोने की चिड़िया नहीं बना सकता उल्टे सोने का पिंजरा बनाकर दीन-हीन भारत को कैद जरुर रखा जा सकता है.
Sunday, April 20, 2014
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कभी साजिश के तहत दिल्ली से गुजरात भेजे गये थे मोदी ! |
'भागवत कथा' के नायक मोदी यूं ही नहीं बने
क्या नरेन्द्र मोदी के विकास माडल के पीछे आरएसएस ही है। क्या आरएसएस के घटते जनाधार या समाज में घटते सरोकार ने मोदी के नाम पर संघ को दांव खेलने को मजबूर किया। क्या अटल-आडवाणी युग के बाद संघ के सामने यह संकट था कि वह बीजेपी को जनसंघ की तर्ज पर खत्म कर दें । और इसी मंथन में से मोदी का नाम झटके में सामने आ गया। क्या आरएसएस ने संघ परिवार के पर कतर कर मोदी को आगे बढाने का फैसला किया। यानी राजनीतिक तौर पर ही संघ परिवार का विस्तार हो सकता है यह देवरस के बाद पहली बार मोहन भागवत ने सोचा। यानी कांग्रेस के खिलाफ जेपी आंदोलन में जिस तरह संघ के स्वयंसेवकों की भागेदारी हुई उसी तरह मोदी के राजनीतिक मिशन को लेकर संघ के स्वयंसेवक देशभर में सक्रिय हो चले हैं। यह सारे सवाल ऐसे हैं, जो नरेन्द्र मोदी के हर राजनीतिक प्रयोग के सामने कमजोर पड़ती आरएसएस की विचारधारा या संघ के विस्तार के लिये मोदी की राजनीतिक ताकत का ही इस्तेमाल करने की जरुरत के साथ खडे हो गये है । और जिस बीजेपी में दिल्ली की सियासत से दूर करने की साजिश के तहत मोदी को अक्टूबर 2001 में गुजरात भेजा वही बीजेपी 12 बरस बाद मोदी के सामने ही छोटी हो गई । इतिहास के इन पन्नो को पलटे को कई सच नये तरीके से सामने आ जायेंगे।
दरअसल गांधीनगर सर्किट हाउस के कमरा नंबर 1 ए से गुजरात का सीएम पद को संभालने वाले नरेन्द्र मोदी अब जिस 7 आरसीआर की उड़ान भर रहे हैं, उसका नजारा चाहे आज सरसंघचालक मोहन भागवत की खुली ढील के जरीये नजर आ रहा हो। लेकिन इसकी पुख्ता शुरुआत 2007 में तब हो गई थी जब मोदी को हराने के लिये संघ परिवार का ही एक गुट हावी हो चला था। और उस वक्त मोदी को और किसी ने नहीं बल्कि सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले बयान ने राजनीतिक आक्सीजन दे दिया था। सोनिया गांधी ने 2007 के चुनाव प्रचार में जैसे ही मौत के सौदागर के तौर पर मोदी को रखा वैसे ही मोदी ना सिर्फ कट्टर हिन्दुवादी और हिन्दु आइकन के तौर पर संघ की निगाहों में चढ़ गये बल्कि राजनीतिक तौर पर भी मोदी को जबरदस्त जीत मिल गयी। और मोदी को समझ में उसी वक्त आया कि 2002 में एचवी शेषाद्री ने उन्हें गुजरात को विकास के नये माडल पर खडा करने को क्यों कहा था। असल में मोदी को राजनीतिक उड़ान देने की शुरुआत भी बीजेपी और संघ से खट्टे-मीठे रिश्तों से हुई । जो बेहद दिलचस्प है । 2001 में प्रमोद महाजन ने राष्ट्रीय राजनीति से दूर करने के लिये नरेन्द्र मोदी को दिल्ली से गुजरात भेजने की बिसात बिछायी । और 23 फरवरी 2002 को राजकोट से उपचुनाव जीतने के बावजूद जिस नरेन्द्र मोदी को संघ परिवार में ही कोई तरजीह देने को तैयार नहीं था । 4 दिन बाद 27 फरवरी 2002 को गोधरा की घटना के बाद वही मोदी संघ परिवार की निगाहों में आ गये । लेकिन सरसंघचालक सुदर्शन भी उस वक्त दिल्ली के झंडेवालान से मोदी से ज्यादा विश्वहिन्दु परिषद और संघ के स्वयंसेवकों पर ही भरोसा किये हुये थे। क्रिया की प्रतिक्रिया का असल सच यह भी है कि मोदी कुछ भी समझ पाते उससे पहले संघ परिवार का खेल गुजरात की सड़कों पर शुरु हो चुका था। और मोदी दिल्ली को जवाब देने से ज्यादा कुछ कर नहीं पा रहे थे। लेकिन उसके तुरंत अक्टूबर 2002 में वाजपेयी के अयोध्या समाधान के रास्ते से विहिप को झटका लगा। वाजपेयी सुप्रीम कोर्ट के जरीये अयोध्या का रास्ता संघ के लिये बनाना चाहते थे लेकिन हुआ उल्टा। विहिप को अयोध्या की जमीन भी छोडनी पड़ी। संघ पहले ही आर्थिक नीतियों से लेकर उत्तर-पूर्व में संघ के स्वयंसेवकों पर हमले से नाराज था। अयोद्या की घटना के बाद तो उसने पूरी तरह खुद को अलग कर लिया। 2004 में संघ परिवार ने खुद को चुनाव से पूरी तरह दूर कर लिया । लेकिन इसी दौर में मोदी को आसरा एचवी शेषाद्रि ने लगातार दिया। मोदी को विकास माडल के तौर पर गुजरात को बनाने की सोच दी।
यह अजीबोगरीब संयोग है कि राजनीतिक तौर पर मोदी ने पटेल समुदाय के जिस केशुभाई और प्रवीण तोगडिया को निशाने पर लिया उसी पटेल समुदाय के युवाओं को ग्लोबल बिजनेस का सपना देकर मोदी ने अपने साथ कर लिया । असल में 2004 के चुनाव में आरएसएस ने जिस तरह की खामोशी बरती और एनडीए सरकार वाजपेयी-आडवाणी की अगुवाई में दोबारा सत्ता में आये इसे लेकर कोई रुची नहीं दिखायी। इसके बाद संघ के भीतर का एक घडा 2007 में मोदी को भी हराने में लग गया। आर्थिक नीतियों से लेकर राममंदिर तक के मुद्दे पर रुठे दत्तपंत ठेगडी से लेकर अशोक सिंघल और तब एमजी वैघ तक नहीं चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी की वापसी सत्ता में हो । लेकिन पहले शेषाद्रि और उसके बाद 2007 में सरकार्यवाह मोहन भागवत ने ही नरेन्द्र मोदी को संभाला । मोहन भागवत ने मोदी के रास्ते के कांटों को अपने एक्सीक्यूटिव पावर के जरीये हटाया। उग्र पटेल गुट के प्रवीण तोगडिया को विश्व हिन्दु परिषद के अंतराष्ट्रीय माडल पर काम करने के लिये गुजरात से बाहर किया गया ।तो एमजी वैघ के बेटे मनमोहन वैघ को भी अखिल भारतीय स्तर पर काम देकर गुजरात से बाहर किया गया। दरअसल 2007 में सोनिया के मौत के सौदागर वाले बयान के बाद पहली बार मोहन भागवत ने ही इस हालात को पकड़ा कि मोदी का गुजरात माडल अगर गांधी परिवार को परेशान कर सकता है तो फिर मोदी के जरीये ही आरएसएस दिल्ली की राजनीति को भी साध सकता है। और इसी के बाद मोहन भागवत ने खुले तौर पर मोदी के हर प्रयोग को हवा देनी शुरु की ।
ध्यान दें तो 2012 में संघ परिवार में से सबसे पहले विहिप के उसी अशोक सिंघल ने मोदी को पीएम पद के लायक बताया जो 2007 से पहले मोदी का विरोध करते थे ।
दरअसल मोहन भागवत ने बतौर सह सरकार्यवाह अपने एक्जूक्टीव पावर का इस्तेमाल कर ना सिर्फ गुजरात को संघ परिवार की बंदिशो से मुक्त किया और 2009 में सरसंघ चालक बनते ही बीजेपी के काग्रेसीकरण से परेशान होकर मोदी को ही तैयार किया कि वह वाजपेयी-आडवाणी के हाथ से बीजेपी को निकालें। लेकिन 2009 में मोदी ने 2012 तक का वक्त मांगा जिससे गुजरात में जीत की हैट्रिक बनाकर दिल्ली जाये। इस दौर में आरएसएस का प्लान मोदी के लिये भविष्य का रास्ता बनाने लगा। संघ का प्लान सीधा था । दिल्ली में बीजेपी के काग्रसीकरण को रोकना जरुरी । वाजपेयी-आडवाणी युग को खत्म करना जरुरी है ।संघ को सक्रिय करने के लिये राजनीतिक मिशन से जोडना जरुरी । विकास माडल के जरीये दिल्ली की सत्ता की व्यूह रचना करना जरुरी । क्योंकि अयोध्या सामाजिक माडल था और उस प्रयोग से भी बीजेपी अपने बूते सत्ता तक पहुंच नहीं पायी थी। तो राजनीतिक मशक्कत करने के लिये एक चेहरा भी चाहिये था। सरसंघचालक भागवत का मानना रहा कि मोदी ही इसे अंजाम देने में सक्षम है ।
तो 2009 में सरसंघ चालक मोहन भागवत हर हाल में दिल्ली की बीजेपी चौकड़ी को ठिकाना लगाना चाहते थे और नरेन्द्र मोदी 2012 से पहले गुजरात छोड़ना नहीं चाहते थे तो नीतिन गडकरी की बतौर बीजेपी अध्यक्ष इन्ट्री कराकर आरएसएस ने पहला निशाना आडवाणी के दिल्ली सामाज्य पर साधा । उसके बाद मोहन भागवत ने मोदी के विकास माडल को ही बीजेपी के भविष्य की राजनीति को साधने के लिये संघ परिवार के भीतर ही राजनीतिक प्रयोग करने शुरु कर दिये । सबसे पहले अय़ोध्या में राम मंदिर को लेकर सक्रिय विश्व हिन्दु परिषद को ठंडा करने के विहिप को संघ प्रचारक देना ही बंद कर दिया। इसके सामानांतर धर्म जागरण का निर्माण किया । धर्म जागरण के जरीये संघ के उन कार्यो को अंजाम देना शुरु किया जो पहले विहिप करता था ।यानी संघ के प्रचारक जो अलग अलग संघ के सहयोगी संगठनों में काम करते थे। वह प्रचारक विहिप के बदले धर्म जागरण में जाने लगें । जिससे मोदी के घुर विरोधी प्रवीण तोगडिया की शक्ति भी खत्म हो गयी और वह विहिप के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष बने भी रहे। इसी तर्ज पर किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ ,आदिवासी कल्याण संघ
सरीखे एक दर्जन से ज्यादा संगठनो को नरेन्द्र मोदी के विकास माडल के अनुसार काम करने पर ही लगाया गया। इतना ही नहीं पहली बार आरएसएस ने स्वय़ंसेवकों को खुले तौर पर राजनीतिक तौर पर सक्रिय करने का दांव भी खेला। और संजय जोशी को दरकिनार करने के लिये मोदी ने जो बिसात बिछायी उस पर आंखे भी संघ ने मूंद ली। जबकि संजय जोशी खुद नागपुर के हैं। बावजूद इसके आरएसएस ने संजय जोशी को खामोश करने के लिये मोदी को ढील भी दी और स्वयंसेवकों को संदेश भी दिया कि मोदी की राजनीतिक बिसात में कोई कांटे ना बोयें। सरसहकार्यवाहक भैयाजी जोशी ने चुनाव के साल भर पहले से ही खुले तौर पर कमोवेश हर मंच पर यह कहना शुरु कर दिया कि हिन्दु वोटरों को घर से वोट डालने के लिये इस बार चुनाव में निकालना जरुरी है क्योंकि बिना उनकी सक्रियता के सत्ता मिल नहीं सकती । और इसे खुले तौर पर बीते 10 अप्रैल को नागपुर में बीजेपी उम्मीदवार गडकरी को वोट डालने निकले सरसंघचालक और सरसहकार्यवाहर कैमरे के सामने यह कहने से नहीं चुके इस बार बडी तादाद में वोट पडंगें । क्योकि परिवर्तन की हवा है । तो मोदी के जरीये परिवर्तन की लहर का सपना आरएसएस ने पहले बीजेपी में फिर संघ परिवार में और उसके बाद देश में देखा था । लेकिन जिस तेजी से संघ की चौसर को अपनी बिसात में मोदी ने बदला है उसके बाद आरएसएस भी मान रहा है कि परिवर्तन देश की राजनीतिक सत्ता में पहले होगा और उसके बाद बीजेपी और संघ परिवार भी बदल जायेगा ।
Thursday, April 17, 2014
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आजादी के बाद मुसलमानों की अग्नि-परीक्षा ! |
1952 में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को जब नेहरु ने रामपुर से चुनाव लड़ने को कहा तो अब्दुल कलाम ने नेहरु से यही सवाल किया था कि उन्हें मुस्लिम बहुल रामपुर से चुनाव नहीं लड़ना चाहिये। क्योंकि वह हिन्दुस्तान के पक्ष में हैं और रामपुर से चुनाव लड़ने पर लोग यही समझेंगे कि वह हिन्दुस्तान में पाकिस्तान नहीं जाने वाले मुसलमानों के नुमाइन्दे भर हैं। लेकिन नेहरु माने नहीं। वह आजादी के बाद पहला चुनाव था और उस वक्त कुल 17 करोड़ वोटर देश में थे। संयोग देखिये 2014 के चुनाव के वक्त देश में 17 करोड़ मुसलमान वोटर हो चुके हैं। लेकिन 1952 में देश के मुसलमानों को साबित करना था कि वह नेहरु के साथ हैं। और 2014 में जो हालात बन रहे हैं, उसमें पहली बार खुले तौर पर मुस्लिम धर्म गुरु से लेकर शाही इमाम और देवबंद से जुड़े मौलाना भी यह कहने में हिचक नहीं रहे कि पीएम पद के लिये दौड़ रहे नरेन्द्र मोदी से उन्हें डर लगता है या फिर मोदी पीएम बने तो फिरकापरस्त ताकतें हावी हो जायेंगी।
तो क्या आजादी के बाद पहली बार देश का मुस्लिम समाज खौफजदा है। या फिर पहली बार भारतीय समाज में इतनी मोटी लकीर नरेन्द्र मोदी के नाम पर खींची जा चुकी है जहां चुनाव लोकतंत्र से इतर सत्ता का ऐसा प्रतीक बन चुका है, जहां जीतना पीएम की कुर्सी को है और हारना देश को है। यानी जितनी बड़ी तादाद में देश की जनता अपने नुमाइन्दो को चुनकर संसद में भेजती उसी प्रकिया पर सवालिया निशान लग रहा है। क्योंकि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में अगर वाकई मुस्लिम समाज सिर्फ मोदी के खिलाफ एकजुट है और यही एकजुटता जातीय समीकरण को तोड़ हिन्दु वोटरों का ध्रुवीकरण कर रहा है तो 2014 के चुनाव का नतीजा कुछ भी हो देश का रास्ता तो लोकतंत्र से इतर जा रहा है इसे नकारा कैसे जा सकता है।
वहीं बड़ा सवाल राष्ट्रीय राजनीतिक दल बीजेपी का भी है। जिसकी राजनीतिक सक्रियता संघ परिवार के आगे ठहर गई है क्योंकि पहली बार बीजेपी कार्यकर्ताओ को नही बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस के स्वयंसेवकों को बूथ जीतो टारगेट दिया गया है। जिसके तहत देश के हर गांव ही नहीं हर बूथ स्तर तक पर स्वयंसेवकों की मौजूदगी है । हर राज्य में प्रांत प्रचारकों के पास एक ऑफ लाइन टैब । जिसमें उनके राज्य के हर संसदीय क्षेत्र का ब्यौरा है। संसदीय क्षेत्र में आने वाले हर गांव की जानकारी है। हर बूथ स्तर के स्वयंसेवकों के पास इलेक्टोरल रॉल है। हर कार्यकर्ता के ऊपर 200 घरों की जिम्मेवारी है। हर घर के वोटरों को बूथ तक लाने का जिम्मा का भी स्वयंसेवकों पर है। तो क्या पहली बार भारतीय राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल रहा है या फिर 2104 का चुनाव देश की तस्वीर संसद के अंदर बाहर पूरी तरह बदल देगा। क्योंकि मोदी जिस उड़ान पर है संघ परिवार की जो सक्रियता है। मुस्लिम समाज के नुमाइन्दो के जो उग्र तेवर हैं,उसमें क्या देश ने इससे पहले जो राजनीतिक गोलबंदी हिन्दुत्व या मंडल कमीशन के जरीये की वह टूट जायेगी। दलितों को लेकर जो नया ताकतवर वोट बैंक बना वह खत्म हो जायेगा।
ध्यान दें तो भारतीय समाज में उदारवादी अर्थव्यवस्था ने मध्यम वर्ग को विस्तार दिया और शहरीकरण ने गवर्नेंस से लेकर कल्याणकारी योजनायें और भ्रष्ट्राचार से लेकर विकास की अवधारणा को ही राजनीति मंत्र में मुद्दे की तर्ज पर बदल दिया। और पहली बार इन्हीं दो दायरे ने देश के भीतर एक ऐसे वोटबैंक को ताकतवर बनाकर खड़ा कर दिया, जहां पारंपरिक वोट बैक ही नहीं बल्कि वोट बैंक से जुडे मुद्दे हाशिये पर जाते हुये दिखायी देने लगे। दरअसल, मोदी इसी माहौल को अपना राजनीतिक हथियार बनाये हुये हैं। विकास को लेकर जो खाका नरेन्द्र मोदी गुजरात माडल के जरीये यूपी-बिहार या कहे समूचे देश में अपने मिशन 272 के तहत रख रहे हैं, वह अपने आप में नायाब है। क्योंकि बीते ढाई दशक में राजनीतिक तौर देश के हर विधानसभा या लोकसभा के चुनावी समीकरणों को देखें तो विकास का खाका बिजली पानी सड़क से आगे निकला नहीं है। कारपोरेट की सीधी पहल राजनीतिक तौर पर इससे पहले कभी हुई है। क्रोनी कैपटलिज्म यानी सरकार या मंत्रियो के साथ औघोगिक घरानो या कारपोरेट का जुडाव इससे पहले कभी खुले तौर उभरा नहीं । लेकिन मोदी ने मौजूदा दौर का राजनीतिककरण जिस तरह बीजेपी की ही राजनीति को बदल कर नये तरीके से रखने का प्रयास किया है, उसमें यह सवाल वाकई बड़ा हो चला है कि 2014 के चुनाव के बाद की राजनीति होगी कैसी। क्योंकि मायावती जिस दलित विस्तार के आसरे सत्ता तक पहुंचती रही या संसद में दखल देने की स्थिति में आयीं, वह मोदी की सियासत को लेकर अगर टूट रहा है तो यह अपने आप में 21वी सदी की सबसे बडा परिवर्तन होगा। क्योंकि अंबेडकर ने हिन्दुत्व व्यवस्था को माना नहीं। संघ की ब्राह्मण व्यवस्था को भी नहीं माना। सीधे कहें तो जातीय व्यवस्था के खिलाफ आंबेडकर सामाजिक बराबरी की व्यवस्था के प्रतीक बने। लेकिन नयी परिस्थिति में रामदास आठवले हो या रामविलास पासवान या रामराज यानी उदित राज। तीनों ही अंबेडकर की थ्योरी छोड संघ परिवार की उस व्यवस्था का साये तले आ खडे हुये, जहां मोदी के विकास की पोटली अंबेडकर के 1956 के धर्मपरिवर्तन से आगे मानी जा रही है। यह गोविन्दाचार्य के सोशल इंजिनियरिंग से भी आगे की सोशल इंजीनियरिंग है। क्योंकि गोविन्दाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग के जरीये मु्द्दों को पूरा करना सिखाया। चाहे कल्याण सिंह के जरीये बाबरी मस्जिद को ढहाना ही क्यो ना हो। लेकिन नरेन्द्र मोदी के दौर में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग सत्ता पाकर हर मुद्दे को अपने अनुकूल परिभाषित करते हुये पूरा करने की सोच है। तो क्या दलित के बाद मंडल आयोग की सिफारिशों से निकले क्षत्रपों की सत्ता भी 2014 के चुनाव में ध्वस्त हो जायेगी। क्योंकि दलित वोट बैंक की ताकत के बाद यादव और कुर्मी ऐसा वोट बैंक है जो एकमुश्त एकसाथ खड़ा रहता है। लेकिन मोदी के मुस्लिम प्रेम की थ्योरी उसे भी तोड़ेगी। और पहली बार कर्नाटक हो या तमिलनाडु या केरल वहा भी बीजेपी दस्तक देगी। यानी दक्षिण के जातीय समीकऱण भी टूटेंगे।
अगर चुनावी हवा का रुख ऐसा है तो इसके मायने मनमोहन सिंह सरकार से जोडने ही होंगे। क्योंकि बीते दस बरस की सत्ता के दौर का सच यह भी है कि पूंजी ने समाज को बाजार से जोड़कर जो विस्तार दिया, उसमें जीने के पुराने तरीके ना सिर्फ बदले बल्कि इसी दौर में 14 करोड़ वोटरों का एक ऐसा तबका भी खड़ा हो गया जिसके लिये नेहरु की मिश्रित अर्थव्यवस्था से लेकर लोहिया का समाजवाद मायने नहीं रखता। जो जेपी या वीपी के आंदोलन से भी वाकिफ नहीं हैं। जिसके लिये अयोध्या या मंडल भी मायने नहीं रखता। जिसके लिये खेती या औगोगिक उत्पादन पर टिकी अर्थव्यवस्था पर बहस भी मायने नहीं रखती। उसकी व्यवस्था में जीने के तौर तरीके बिना रोक टोक के होने चाहि्ये। उसे बाजार का उपभोक्ता बनना भी मंजूर है और सामाजिक ताने-बाने को तोडकर स्वच्छता पाना भी मंजूर है। ध्यान दें तो मनमोहन सिंह के दौर ने इस सोच को विस्तार दिया है और पहली बार मुद्दो को लेकर शहर या ग्रमिण क्षेत्र के विचार भी एक सरीखे होने की राह पर है। यानी 20 से 30 करोड़ के उस भारत के हाथ में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश को सौपा जा चुका है जो समूचे देश को साथ लेकर चलने या जिन्दगी बांट कर चलने को तैयार नहीं है। और वोटरों की फेहहिस्त में भी किस तबके के भरोसे सत्ता तक कितनी कम तादाद में भी पहुचा जा सकता है इसका गणित भी पहली बार उसी लोकतंत्र पर हावी हो चला है जो यह मान कर चल रहा था कि संसद में हर तबके की नुमाइन्दगी इसी से हो सकती है कि हर वर्ग, हर तबके, हर समुदाय का अपना नुमाइन्दा हो। तो 2009 में महज साढे ग्यारह करोड वोट लेकर कांग्रेस सत्ता में पहुंची। और 2014 में इतने ही नये वोटर बढ़ चुके हैं। यानी पुराने भारत को ताक पर रख नये भारत को बनाने का सपना मौजूदा चुनाव का प्रतीक बन चुका है, क्योंकि सवा सौ करोड का देश बराबरी की मांग कर चल नहीं सकता। यह नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह की असफलता का कच्चा-चिट्ठा है। तो आज मुस्लिम तबका दांव पर है कल कोई दूसरा होगा। यही 2014 के चुनाव का नया मिजाज है।
Monday, April 14, 2014
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मोदी का मिशन बनाम संघ का टारगेट |
मोदी को पीएम की कुर्सी चाहे 272 में मिलती हो लेकिन संघ का टारगेट 395 सीटों का है। संघ के इस टारगेट का ही असर है कि अगले एक महीने में मोदी के पांव जमीन पर तभी पडेंगे, जब उन्हें रैली को संबोधित करना होगा। यानी हर दिन औसतन चार से पांच रैली। और यह तेजी मोदी के रैली में इसलिये लायी जा रही है क्योंकि मोदी के पांव जिस भी लोकसभा सीट पर पड़ते हैं, उस क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवकों में उत्साह भी आ जाता है और क्षेत्र में लोग संघ परिवार के साथ संबंध बनाने से भी नहीं चूक रहे। स्वयंसेवकों के लिये टारगेट का नाम बूथ जीतो रखा गया है। इसके तहत कम से कम 395 सीटों पर बीजेपी पूरा जोर लगाएगी। 100 से ज्यादा सीटें ऐसी, जिस पर जीत पक्की। 120-130 सीटें ऐसी, जिन पर थोड़ी मेहनत से ही जीत तो पक्की। यूपी, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड से कम से कम 90 सीटें जीतने का टारगेट। लेकिन पहली बार सवाल सिर्फ पीएम की कुर्सी को लेकर टारगेट का नहीं है बल्कि देशभर में आरएसएस अपने स्वयंसेवकों की संख्या कैसे दुगुनी कर सकती है, नजरें इस पर भी हैं और इसीलिये समूचे संघ परिवार के लिये 2014 का चुनाव उसके अपने विस्तार के लिये इतना महत्वपूर्ण हो चला है और यह मोदी के मिशन 272 पर भी भारी है।
क्योंकि संघ के स्वयंसेवक पहली बार चुनाव में मोदी के लिये वोटरों को घरों से निकालने के नाम पर देश के हर गांव में जा पहुंचे हैं। लोगों से जुड़ाव राजनीतिक तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर है लेकिन आरएसएस के साथ जुड़कर कौन कैसे कितना सहयोग कर सकता है स्वयंसेवकों का समूचा काम इसी पर जा टिका है। असर इसी का है कि हर सुबह हर गांव में संघ का कैप लगने लगा है। चर्चा वर्तमान राजनीतिक माहौल से होते हुये मोदी पर केन्द्रित हो रही है। और संघ के कार्यकर्ताओं की तादाद में लगातार वृद्दि हो रही है। असर इसी का है कि मोदी की रैली ज्यादा से ज्यादा हो संघ का दबाब भी बीजेपी पर है और बीजेपी को भी लगने लगा है कि मोदी की पहुंच जितनी ज्यादा जगहों पर होगी उसे चुनावी जीत उतनी ही ज्यादा जगहों पर मिलेगी। तो रैली के जरीये हर जगह पहुंचा नहीं जा सकता है तो इसके लिये अब तकनीक का आसरा भी बडे स्तर पर लेने की तैयारी है। अगले 30 दिन में दर्जन भर थ्री डी तकनीक के जरीये विजय संकल्प रैली की जायेगी। जिससे 11 मई तक देश के 395 सीटों को मोदी अपनी रैली से तो छू ही लें। लेकिन यहीं से पहली बार नया सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या मोदी पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर संघ परिवार को ही विस्तार दे रहे हैं। या फिर संघ के विस्तार के साथ ही मोदी का मिशन 272 भी पूरा होगा। असल में यह दोनो मिशन 2014 के चुनाव को लेकर जिस तरह घुल-मिल गये हैं, उसमें मोदी के पीछे संघ परिवार है या संघ परिवार के लिये मोदी है। इसी का लाभ मोदी को मिल रहा है। जिसके दायरे में बीजेपी के पुराने कद्दावर नेताओं का कद भी छोटा हो गया है और आडवाणी तक को कहना पड रहा है कि पार्टी उन्हें जो काम देगी उन्हें मंजूर है। और पार्टी का मतलब ही जब मोदी हो चला हो और पार्टी से बड़ा मोदी को बनाने में वहीं आरएसएस हो जो अक्सर सामूहिकता पर जोर देता रहा हो तो संकेत साफ है कि यह अपनी तरह का पहला चुनाव है जब आरएसएस चुनाव के जरीये संघ परिवार का सबसे बडा विस्तार देख रहा है।
बीजेपी यह मान कर चल रही है कि मोदी की लोकप्रियता मोदी की हर रैली से देश भर में बढ भी रही है और जीत भी दर्ज करा देगी। लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिये बीजेपी चाहे लोकसभा के मैदान में कमजोर हो लेकिन आरएसएस ने कैसे कमर कस ली है यह भी अपने आप में नायाब है। क्योंकि संघ के कार्यकर्ताओं के टारगेट 'बूथ जीतो के तहत ही देश के हर गांव में स्वयंसेवकों की मौजूदगी पक्की की गयी है। जहां तक संभव हो हर बूथ स्तर तक पर संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी होनी चाहिये। इसे आरएसएस ने अपनी तरफ से पक्का किया है। वहीं हर राज्य में प्रांत प्रचारकों को एक एक ऑफ लाइन टैब दिया गए हैं, जिसमें उनके राज्य के हर संसदीय क्षेत्र का ब्यौरा भी है और हर गांव की जानकारी भी है। यानी स्वयंसेवकों को पता रहे कि इस बार टारगेट चुनाव में जीत का भी है। इतना ही नहीं हर बूथ स्तर के आरएसएस कार्यकर्ताओं को इलेक्टोरल रॉल पहुंचाए गए हैं। हर स्वयंसेवक के ऊपर 200 घरों की जिम्मेवारी है और उन्हे न सिर्फ इन घरों से संपर्क में रहना है बल्कि उन्हें घऱ से बूथों तक लाने का काम भी करना है। साथ ही प्रोफेशनलों और देश के कोने कोने में मौजूद संघ के संवाद केन्द्रों से फीड बैक भी लगातार जमा किए जा रहे हैं। जिनके जरीये बीजेपी के उम्मीदवारों को बताया जा रहा है कि उन्हे अपने क्षेत्रो में कैसी चुनावी रणनीति बनानी है। यानी बीजेपी से कही ज्यादा सक्रिय आरएसएस है। जो चुनाव को लेकर संघ के एक ऐसे विस्तार को अंजाम देने में लगी है जिसका आधार राजनीति है। यानी अभी तक संघ जिन सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को लेकर राजनीतिक मंथन पर जोर देता था। पहली बार वहीं संघ राजनीतिक मंथन खुद कर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को बदलने का स्टांप पेपर नरेन्द्र मोदी को थमा रहा है। और मोदी विकास का जो खाका खींच रहे हैं, उसके दायरे में संघ परिवार के तमाम सदस्य खारिज हो रहे हैं। स्वदेशी जागरण मंच से इतर कारपोरेट की धड़कन मोदी के साथ जुडी है। आरएसएस की सहयोगी किसान संघ की सोच से इतर से इतर खेती का आधुनिकीकरण बीजेपी के घोषणापत्र का हिस्सा है। भारतीय मजदूर संघ की कोई जरुरत मोदी के विकास मॉडल में नहीं है। देवालय से पहले शौचालय की थ्योरी तले विश्व हिन्दू परिषद का मंदिर राग पहले ही बंद हो चुका है। यानी संघ अपने विस्तार के लिये मोदी को किसी भी हद तक अधिकार देने को तैयार है और मोदी पीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिये संघ की ही सोच को हर हद तक दफन करने को तैयार है।
Wednesday, April 9, 2014
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सर्किट हाऊस के कमरा नं 1 ए से 7 रेसकोर्स की दौड़ तक |
2002 का "अछूत" 2014 में "पारस" कैसे बन गया ?
नरेन्द्र मोदी ने 6 अक्टूबर 2001 में जब सीएम की कुर्सी संभाली उस वक्त मोदी ने सोचा भी नही था कि जिस सीएम की कुर्सी पर बने रहने के लिये उन्हें विधानसभा की सीट देने के लिये कोई तैयार नहीं है, वही सीएम की कुर्सी 12 बरस बाद उन्हें पीएम की कुर्सी का दावेदार बना देगी। केशुभाई को गद्दी से उतारकर सीएम बने मोदी पहला चुनाव एलिसब्रिज से लड़ना चाहते थे। अहमदाबाद के दिल में बसा एलिसब्रिज ऐसी सीट थी, जो शहरी मिजाज लिये बीजेपी के पक्ष में थी। तो मोदी सेफ सीट सोच कर ही एलिसब्रिज से लड़ना चाहते थे। लेकिन हरेन पांडया ने एलिसब्रिज सीट छोड़ने से इंकार कर दिया। सीट की खोज में नरेन्द्र मोदी ने राजकोट का रास्ता पकड़ा। सोचा पटेल वोट या कहें केशुभाई के गढ़ में उन्हें मदद मिलेगी। राजकोट-2 की सीट वजूभाई वाला ने मोदी के लिये खाली कर दी। सौराष्ट्र के दिल में बसे राजकोट में मोदी ने भी चुनावी वादे पारंपरिक तौर पर ही किये। पानी की सप्लाई महीने में सिर्फ 4 दिन होती थी तो मोदी ने वादा किये कि वह महिने में 22 दिन पानी सप्लाई करवायेंगे। नर्मदा का पानी भी राजकोट तक पहुंचाने का वादा किया। 24 फरवरी 2002 को चुनाव परिणाम आये तो मोदी 14 हजार वोट से चुनाव जीते जरुर थे। लेकिन वजुभाई की तुलना में जीत आधी हो गई थी। और तो और राजकोट के साथ दो अन्य सीटो पर भी उपचुनाव हुये। लेकिन दोनों सीट कांग्रेस ने जीत ली। और मोदी की जीत के बावजूद यह माना जाने लगा कि मोदी के दिन इने-गिने हैं । क्योंकि 2003 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सत्ता खत्म होगी और कांग्रेस की वापसी होगी।
लेकिन सिर्फ तीन दिन बाद ही मोदी की दुनिया ही बदल जायेगी य़ह किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन हुआ यही और 27 फरवरी को साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस-6 को जिस तरह गोधरा में आग के हवाले कर दिया गया और 59 कारसेवक जिन्दा जल गये। उसके अगले दिन से ही गुजरात की तस्वीर बदल गयी। गुजरात देश के केन्द्र में आ गया। 28 फरवरी 2002 की सुबह दिल्ली में वाजपेयी सरकार बजट पेश करने की तैयारी में जुटी थी। और दिल्ली में संघ हेडक्वार्टर झंडेवालान में आरएसएस के सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन लगातार संघ की गुजरात शाखा से संपर्क में थे। 11 बजे संसद में वाजपेयी सरकार ने बजट रखा ही था कि चंद मिनटों बाद ही संघ के हेडक्वार्टर से गोधरा कांड की आलोचना करते हुये कारसेवकों की हत्या का बदला लेने के संकेत देने वाली प्रेस विज्ञप्ति संघ के प्रवक्ता एमजी वैघ ने जारी कर दी। देखते देखते बजट के बोल न्यूज चैनलो पर पीछे छूट गये और गुजरात की आग न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर रेंगने लगी। अहमदाबाद की सड़कों पर विश्व हिन्दू परिषद भगवा लगराते हुये पहुंचने लगे थे। धीरे धीरे अजब सा तनाव पूरे वातावरण में घुलने लगा था। सच यह भी है कि 27 फरवरी को गोधरा की घटना के सामने आने के बावजूद गुजरात का उच्च तबका जो आज मोदी के साथ खड़ा है, वो 27 की रात अहमदाबाद के कर्णावती क्लब में जगजीत सिंह की गजल गायकी में खोया हुआ था। लेकिन 28 परवरी के बाद से गुजरात का नजारा जो बदला उसने नरेन्द्र मोदी की सत्ता को एक ऐसी प्रयोगशाला में बदला, जहां हिन्दुत्व का बोलबाला था। संघ परिवार का गुस्सा था। क्रिया की प्रतिक्रिया का खुल्लम खुल्ला एलान था। कोई रोकने वाला नहीं था। बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजधर्म का पाठ भी संघ के दबाब में भोथरा साबित हो गया। और मोदी चाहे अनचाहे बीजेपी से लेकर संघ परिवार के केंन्द्र में आ खड़े हुये। जहां उन्हें चाहने वाले थे या मोदी के जरीये सियासत साधने वाले और दूसरे तरफ मोदी को नापसंद करने वाले।
ध्यान दें तो मोदी 2002 में बीजेपी से लेकर संघपरिवार की बिसात पर प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं थे। और वाकई अहमदाबाद से 30 किलोमीटर दूर गांधीनगर के सर्किट हाऊस के कमरा नं 1ए में रहने के दौरान नरेन्द्र मोदी को इसका एहसास तक नहीं थी कि जो गुजरात में हो रहा है, वह हालात 12 बरस बाद उन्हें दिल्ली के 7 रेसकोर्स की दौड़ में शामिल कर देंगे। मोदी 4 अक्टूबर को 2001 में जब गुजरात पहुंचे थे तब गांधीनगर के सर्किट हाऊस के कमरा नं 1 को ही अपना घर बनाया। उसके बाद राजकोट से पहला चुनाव लड़ने पहुंचे तो भी सर्किट हाउस का कमरा नं 1 को ही अपनी रिहाइश बनाया। उस वक्त बीजेपी के दिल्ली में बैठे कद्दवर नेता हों या नागपुर में संघ परिवार के वरिष्ठ स्वयंसेवक। विहिप के नेता हो या स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ता, हर कोई मोदी के साथ था या मोदी के पीछे। लेकिन बीते बारह बरस में मोदी के राजनीतिक प्रयोग ने उन्हें जिस तरह 7 रेसकोर्स की दौड़ में लाकर खड़ा कर दिया, उसने मोदी को चाहे सर्किट हाऊस के कमरा नं 1से दूर कर दिया लेकिन मोदी नं 1 बनकर 7 रेसकोर्स की दौड में अकेले हो गये। वडोदरा से बतौर पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा चुनाव के लिये पर्चा भरते मोदी के साथ ना तो कोई बीजेपी का कद्दावर नेता नजर आया। ना ही बीजेपी की विचारधारा। ना ही संघ की सोच। ना ही विहिप की गूंज। सिर्फ मैं ही मैं की सोच से अभिभूत मोदी ने जो काम बतौर सीएम नहीं किया, वह सारे काम पीएम पद के उम्मीदवार बनते ही शुरु कर दिया। घासी जाति हो या चायवाला-पहली बार खुली गूंज पीएम पद के लिये किसी योद्दा की तर्ज पर लड़ते मोदी ने ही किया। बीजेपी को नहीं सीधे वोट मुझे ही मिलेगा यानी कोई उम्मीदवार, कोई पार्टी मायने नहीं रखती, यह गूंज भी मोदी की ही है। संघ के ब्राह्मणवादी सोच में सोशल इंजिनियरिंग भी मोदी ने ही फिट करके बताया कि मिशन 272 का मतलब होता क्या है। 2009 के चुनावी घोषणा पत्र की शुरुआत ही राममंदिर से हुई थी लेकिन 2014 के घोषणापत्र का अंत रामजन्मभूमि पर राममंदिर के साथ हुआ । प्राथमिकताएं मोदी ने ही बदलीं। गुजरात के 6 करोड़ गुजरातियों से आगे सवा सौ करोड़ भारतियों का सवाल अब उठाना है तो वडोदरा से आगे बनारस से चुनाव लड़ने का फैसला भी मोदी ने ही किया। और इसी रास्ते ने पहली भारतीय राजनीति को एक ऐसा नेता दे दिया जिसे 2002 में अछूत समझा जाता था और 2014 में पारस समझा जा रहा है। यानी जो हर हर मोदी कह चुनाव लड़ेगा उसे घर घर मोदी के नाम के वोट भी मिल जायेंगे। लेकिन 7 रेसकोर्स की दौड में निकले मोदी को अभी इंतजार करना पड़ेगा, क्योंकि बनारस में में हर कोई कहता है, जल में कुभ्भ कुभ्भ में जल है, बाहर भीतर पानी / फूटा कुभ्भ जलहिं समाना, यह तत कथ्यौ ज्ञानी।
Tuesday, April 8, 2014
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खामोश वोटरों से ना पूछे वोट किसे देंगे ? |
मुज़फ्फरनगर दंगों के साए में 10 अप्रैल का इंतज़ार
अगर दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर निकलता है तो पहली बार यूपी का रास्ता मुजफ्फरनगर दंगों से होकर निकल रहा है। यूपी की कुल अस्सी लोकसभा सीट पर मुकाबला तीन या चार कोणीय है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद और नरेन्द्र मोदी के पीएम उम्मीदवार होने के बाद हर सीट पर मुकाबला आमने सामने का हो यह और कोई नहीं यूपी का मुसलमान चाह रहा है। सवाल तीन हैं। क्या मुस्लिमों की यह सोच बीजेपी को लाभ पहुंचायेगी। क्या यूपी में जातीय समीकरण टूट जायेंगे। क्या मुस्लिम बीजेपी को रोकने के लिये दूसरे हर दल के उम्मीदवार को मौलाना मान कर वोट देगा। यह ऐसे तीखे सवाल हैं, जो मुजफ्फरनगर से लेकर बनारस की गलियों तक में गूंज रहे हैं। बीजेपी को लाभ यानी मोदी का नाम लेकर अमित शाह के बदला लेने की थ्योरी का मतलब है क्या। यह दिल्ली की सीमा पार करते ही मेरठ से लेकर सहारनपुर के बीच बेहद खामोशी से रेंगती है। यानी वह दस सीटें, जहां दस अप्रैल को वोट पड़ने हैं, उसके समीकरण बेहद तीखे और सीधे हैं। पूरा इलाके के साठ फीसदी लोग गन्ने की खेती से जुड़े हैं। यानी गुड से लेकर चीनी और शराब बनाने तक के लिये गन्ने के इस्तेमाल जहा भी जिस तरह होता है, उसमें धर्म मायने नहीं रखता। पेट की भूख या कहे रोजगार हर किसी को साथ जोड़कर काम कराता रहा है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पहली बार सामाजिक आर्थिक ताना बाना टूटा तो चुनाव की दस्तक ने इस टूटे हुये ताने बाने के बीच की लकीर को जिस उम्मीद में और चौडा कर दिया कि वोट देकर न्याय का सुकून तो पा सकते हैं। जाट-गुर्जर और मुसलमान ही यहां टकराये। गुर्जर कम और जाट ज्यादा। दूसरी तरफ मुसलमान। मुसलमान ने अपने राजनीतिक रहनुमा के तौर पर पारपरिक तौर पर कांग्रेस को देखा। अयोध्या कांड से समाज दरकाया तो मुलायम पहले मौलाना बने और कांग्रेस से मुसलमान छिटका। लेकिन यादवों की भीड़ में मुसलमान मौलाना मुलायम की चौखट पर ही तमाशा बना तो उसे मायावती अच्छी लगी। दलित वोट के साथ जैसे ही मुसलमान खड़ा हुआ मायावती को यूपी की गद्दी मिल गयी। पश्चिमी यूपी ही नही बल्कि समूचे यूपी में बीते बीस बरस का सच यही रहा कि मुसलमान सामाजिक सुकून,आश्रय, और आर्थिक सौदेबाजी में भटकता रहा। इस दरवाजे से उस दरवाजे और उस दरवाजे से इस दरवाजे। हालात यह बन गये कि जातीय समीकरण में जैसे ही मुस्लिम जिस तरफ सरका उसे जीत मिल गयी। लेकिन पहली बार मुस्लिम समाज उस न्याय को खोज रहा है जहां उसे दंगों के दौरान धोखा मिला। दंगों के बाद सियासी रंग ने डराया और अब वही चुनावी समीकरण उसके घाव को हरा कर रहे हैं, जिसे कभी वह सुकून के तौर पर देखता था। तो बीजेपी के पक्ष में मुसलमान अगर जाने को तैयार नहीं है तो वह करेगा क्या और बीजेपी के बोल अमित शाह ही तय करेंगे तो फिर चुनावी जीत-हार का रास्ता बनता किसके लिये है।
यह सवाल समूचे यूपी में बड़ा होता जा रहा है। यूपी की 28 लोकसभा सीट ऐसी हैं, जहां 20 फिसदी से ज्यादा मुसलिम वोटर हैं। यानी इन 28 सीटों पर दलित या यादव के साथ मुसलिम वोटर हो लिया तो बीजेपी की हार तय है। लेकिन इन्हीं 28 सीटो में से 19 सीट ऐसी भी है सहा जातिय समीकरण टूटे यानी दलित,ठाकुर,पटेल और ओबीसी बीडेपी की पक्ष में एकजुट होकर टूटे तो मुस्लिम वोट बैंक भी कुछ नहीं कर पायेगा। तो पहली बार यूपी में मुस्लिम चाह रहे हैं कि जातीय समीकरण बने रहें,जिससे वह अपने वोट के जरिए निर्णायक हालात बना दें कि कौन जीतेगा कौन हारेगा। लेकिन टूसरी परिस्थिति कहीं ज्यादा दिलचस्प हो चली है। कांग्रेस और आरएलडी यानी अजित सिंह के साथ चुनाव मैदान में है तो जाट वोट जो अजित सिंह की बपौती माना जाता रहा है, उसमें मुजफ्फरनगर दंगों के हालात सेंध लगा रहे हैं। जाट वोटरों को लगने लगा है कि मुस्लिमों के अनुकूल हालात अगर चुनाव के बाद बने तो फिर मुस्लिम दंगों का बदला लेने से नहीं चूकेंगे। और चूंकि पश्चिमी यूपी में खेत खलिहान के मालिक जाट हैं, जिस पर रोजगार के लिये मुसिलम काम करते रहे हैं तो उस पर भी आंच आ सकती है। यानी चुनाव में वोट किसे दें या किसे ना दें यह उस पारंपरिक रोजगार यानी रोजी रोटी से जा जुड़ा है, जहां चुनाव ने इससे पहले कभी सेंध लगायी नहीं थी। जाट वोटर को बीजेपी में दम दिखायी दे रहा है क्योंकि मुस्लिमों के लिये बीजेपी या कहे मोदी खलनायक के तौर पर है। तो दंगा के हालात पहली बार उस जातीय समीकरण को तोड़ रहे हैं, जिसे मुसलिम पहली बार बरकरार रखना चाहता है। बीजेपी इस हालात से खुश है क्योंकि उसे वाजपेयी सरकार के दौर से ठीक पहली अयोध्या कांड के आसरे बनी राजनीतिक जमीन का वो चेहरा याद आ रहा है जब 55 से ज्यादा सीटो पर बीजेपी जीती थी। बीजेपी का अपना गणित फिर उन्हीं हालात को देख रहा है। लेकिन पहली बार बीजेपी का गणित धर्म के आसरे समाज को बांटने के बदले दंगों से उपजे आक्रोश को अपने हक में करने की राजनीति को हवा दे रहा है। ऐसे में मुस्लिम समाज वोट बैंक में तब्दील होकर भी अपने आप में अभी अकेला है। और उसे चुनावी समर में अपना कोई नायक दिखायी दे नहीं रहा है। कांग्रेस फिसलन पर है। मौलाना मुलायम को यादवों की फ्रिक ज्यादा है और यूपी में छोटे बड़े सौ से ज्यादा दंगे समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान हो चुके हैं, जिसमें चालीस जगहों पर यादव और मुसलमान ही टकराये और दोनो का ही दावा रहा कि सरकार उनकी है।
लेकिन मामला जब थानों में पहुंचा तो जमीन मुसलमानो को ही गंवानी पड़ी। क्योंकि हर थाने में थानेदार यादव ही हैं। यह हालात मायावती के प्रति राजनीतिक प्रेम मुसलिमों में जगाते जरुर हैं। लेकिन मायावती का संकट पहली बार बीजेपी को लेकर नरेन्द्र मोदी के अपने जातीय समीकरण होना है। मोदी घासी जाति के हैं। यूपी के जातीय समिकरण में मोदी ओबीसी के बीच बैठते हैं। और जिस तरह कि सोशल इंजीनियरिंग इस बार मोदी के नाम से लेकर टिकटों के बंटवारे तक में बीजेपी में की है, उसने जातीय समीकरण की इस थ्योरी के मायने ही बदल दिये हैं, जो बीस बरस पहले मंडल-कमंडल की राजनीति से निकले थे। दलित और ओबीसी को पहली बार बीजेपी के भीतर से दिल्ली का लालकिला दिखायी देने लगा है । और इस हालात ने बीजेपी के बीतर ब्रह्ममणो को लेकर कुछ नये सवाल पैदा कर दिये है जो लखनउ ,कानपुर से लेकर बनारस और गोरखपुर तक में हेगामा खडा किये हुये है। ब्रह्मणों को लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई बीजेपी को पिछडी जातियों के नये रहनुमा के तौर पर तो खड़ा नहीं कर देगी। फिर जिस तरह मुरली मनमोहर जोशी की सीट बदली गयी, लालजी टंडन को घर बैठाया गया । कलराज मिश्रा को भी पूर्वाटल के दरवाजे पर चुनाव लडने बेजा दिया गया । उससे ब्रह्मण नाखुश जरुर है । लेकिन बीजेपी हो या संघ परिवार या फिर मोदी सभी इस हकीकत से भी वाकिफ है कि ब्रह्ममणो के पास बीजेपी के अलावे कोई और विकल्प है नहीं। लेकिन बीजेपी के सामने मुश्किल यह है कि यूपी की दस सीट रामपुर,मोरादाबाद,बिजनौर,ज्योतिबा फुले नगर, सहारनपुर,मुजफ्फरनगर, बलरामपुर,बहराइच,बरेली और मेऱठ में तीस फीसदी से ज्यादा मुसलमान हैं और इन दस सीटों से लगी 22 सीटों पर मुसलिम समाज का ताना-बाना हिन्दुओं से वैसे ही जुड़ा है, जिसका जिक्र बनारस की गलियों में गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर होता है। बावजूद इसके इन सीटों पर अभी तक बीजेपी नेताओं के कुल 18 रैलियों में विकास से ज्यादा स्वाभिमान और हिन्दुत्व वाद की थ्योरी को ही परोसा गया। चूंकि बीजेपी हर मायने में सबसे आगे चल रही है और मोदी खुले तौपर पीएम के उम्मीदवार से आगे निकल कर बतौर पीएम ही अपने वक्तव्यों को रख रहे हैं तो पहली बार बीजेपी रैलियो में कह रही है। या कहें जिस तरह खुद को रख रही है वही सच भी है और चुनावी तिकडमों में उसे बदलने वाले हालात भी इसबार उसके साथ नहीं हैं। तो ऐसे हालात की नयी गूंज आजमगढ़ से लेकर बनारस की गलियो में सुनायी देने लगी है। आजमगढ एकदम बनारस से लगा हुआ है औक बनारस में मोदी है तो आजमगढ में मुलायम सिंह यादव।
सामान्य तौर पर यह समीकरण दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। लेकिन जिस तरह बनारस में मुलायम की घेराबंदी मुस्लिम कर रहे हैं और पहली बार उलेमा के उम्मीदवार के पक्ष में अपना दल भी खड़ा हो गया है और बीएसपी को भी संदेस भेजा जा रहा है कि मुलायम को हराने के लिये मुकाबला त्रिणोणीय न बनाये उसने बनारस को लेकर भी नये समीकरण बनाने शुरु कर दिये हैं। क्योंकि बनारस की गलियो में चाहे वह अस्सी घाट हो या गोधुलिया । हर जगह दो ही सवाल है । पहला नरेन्द्र मोदी पीएम पद के उम्मीदवार है तो बनारस का कायाकल्प मोदी कर सकते हैं। अगर वह चुनाव जीत जाये। और दूसरी आवाज धीमी है मगर सुनायी देने लगी है कि बनारस को ही यह मौका मिला है कि वह मोदी को संसद ना भेज गुजारात लौटा दें। जिससे बनारसी संस्कृति पर आंच ना आये। असर इसी का है कि मुलायम सिंह यादव अपने खिलाफ हर उम्मीदवार को टोह रहे हैं और बनारस में कांग्रेसी अजय राय को बीजेपी ने अभी से ही मोह लिया है। यह टोगना या मोहना सौदेबाजी की प्रतीक है। लेकिन सियासत की बिसात पर पहली बार पंडित और मौलाना दोनो समझने लगे हैं कि 2004 में जामा मसजिद के जिस शाही इमाम बुखारी ने बीजेपी के लिये अजान लगायी थी वही शाही इमाम बुखारी 2014 में अगर कांग्रेस के लिये अजान लगा रहे हैं तो यह सब बेमतलब है। और चुनावी जीत-हार के रास्ते को हर हाल में उन्हीं सामान्य वोटरों की अंगुलियो के निशान से गुजरना है, जिसने जीत हार के लिये बार बार अपनी ही उंगुलियो को घायल किया है। तो वोट किसे कौन देगा यह सवाल पूछते ही पहली बार यूपी में हर चेहरा दहशत के साथ ही खामोश हो जाता है। लेकिन चर्चा कीजिये तो सियासत की परते उघाड़कर अपने लहुलूहन पेट-पीठ को दिखाने से नहीं चूकता ।
Thursday, April 3, 2014
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2014 के चुनावी लोकतंत्र में फर्जी वोटर का तंत्र |
2014 के आम चुनाव में उतने ही नये युवा वोटर जुड़ गये हैं, जितने वोटरों ने देश के पहले आमचुनाव में वोट डाला था। यानी 1952 का हिन्दुस्तान बीते पांच बरस में वोट डालने के लिये खड़ा हो चुका है। 2014 में 2009 की तुलना में करीब साढ़े दस करोड नये वोटर वोट डालेंगे। और 1952 के आम चुनाव में कुल वोट ही 10 करोड 59 हजार पड़े थे। जाहिर है पहली नजर में लग सकता है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का विस्तार बीते छह दशक में कुछ इस तरह हुआ है, जिसमें आजादी के बाद छह नये हिन्दुस्तान समा गये हैं। क्योंकि 1952 में कुल वोटरों की तादाद महज 17 करोड 32 लाख 12 हजार 343 थी। वहीं 2014 में वोटरों की तादाद 81 करोड़ पार कर गयी है। जाहिर है इतने वोटरों के वोट से चुनी हुई कोई भी सरकार हो, उसे पांच बरस तक राज करने का मौका मिलता है और अपने राज में वह कोई भी निर्णय लेती है तो उसे सही माना जाता है। इतना ही नहीं सरकार अगर गलत निर्णय लेती है और विपक्ष विरोध करता है तो भी सरकार यह कहने से नहीं चूकती कि जनता ने उन्हें चुना है। अगर जनता को गलत लगेगा तो वह अगले चुनाव में बदल देगी। लोकतंत्र के इसी मिजाज को भारतीय संसदीय राजनीति की खूबसूरती मानी जाती है।
लेकिन लोकतंत्र के इसी मिजाज में अगर यह कहकर सेंध लगा दी जाये कि वोट डालने वाले लोग की बडी तादाद फर्जी होते हैं। या फिर जो पूरी मशक्कत चुनाव आयोग वोटर लिस्ट को तैयार करने में पांच बरस तक लगाता है उसी चुनाव आयोग के मातहत काम करने वाले बूथ लेवल अधिकारी [ बीएलओ ] फर्जी वोटर कार्ड बनवाने से लेकर फर्जी वोट डाले कैसे जायें-इसके उपाय बताने में लग जाता है तो लोकतंत्र का अलोकतांत्रिक चेहरा ही सामने आयेगा। नियम के मुताबिक देखें तो किसी भी वोटर के लिये वोटर आईकार्ड बनवाने के लिये पहचान पत्र और निवास का पता जरुर चाहिये। लेकिन दिल्ली-एनसीआर[ नोएडा, गाजियाबाद, गुडगांव, फरीदाबाद] में राष्ट्रीय न्यूज चैनल आजतक के स्टिंग आपरेशन के जरीये जो तथ्य उभरे उसने लोकतंत्र के पर्व को ही दागदार दिखा दिया। चुनाव आयोग की माने तो फ्रि और फेयर चुनाव के लिये वोटर लिस्ट का सही होना सबसे जरुरी है। और इसमें सबसे बडी भूमिका बीएलओ यानी बूथ लेबव अधिकारी की ही होती है । जिसके हिस्से में में एक या दो पोलिग बूथ आते हैं। और बीएलओ चूकि स्थानीय सरकारी कर्मचारी होता है तो वोटर लिस्ट तैयार करने में उसे इलाके के लोगों का फ्रेंड, फिलास्फर और गाईड माना जाता है । लेकिन यही बीएलओ अगर रुपये लेकर फर्जी वोटर कार्ड बनाने में जुट जाये। फर्जी वोट डालने वालो को बताने लगे कि कैसे वोट डालने के बाद्गुली पर लगी स्यायी को कैसे मिटाया जा सकता है। नीबू या पपीते के दूध से। या फिर जिस कैमिकल से मिटाया जा सकता है, वह कहां मिलता है तो पहली सवाल यह उठ सकता है कि यह तो कमोवेश हर क्षेत्र में होता है लेकिन इसके जरीये चुनावी लोकतंत्र पर कैसे अंगुली उठायी जाये ।
तो यहां से एक दूसरी परिस्थितियां सामने आये कि दिल्ली के गांधीनगर इलाके में बने वोटर कार्ड के फार्म में निवास के पते पर बेघर लिखकर भी वोटर आईकार्ड बन जाता है। और 30 हजार से ज्यादा आईकार्ड ऐसे भी है जो एक ही व्यक्ति के नाम से दर्जन भर वोटर कार्ड बने हुये हैं। इतना ही नहीं थोक में फर्जी वोटर कार्ड बनाकर चुनाव के वक्त वोट डलवाने के ठेकेदार भी एन चुनाव के वक्त प्रत्याशियों के दरवाजे को खटखटाने को तैयार हैं। जो ज्यादा पैसा बहायेगा उसे वोट डलवाने की जिम्मेदारी भी यह ठेकेदार ले लेते हैं। और इन सबसे एक कदम और आगे वाली स्थिति यह है कि जिस प्राइवेट कंपनी को वोटर आईकार्ड लेमिनेशन का ठेका मिलता है वह भी वोटरों के सौदागरो से सीधे धंधा करने को तैयार है। यानी जितने वोटआईकार्ड चाहिये मिल जायेंगे । सिर्फ तस्वीरें देनी हैं। फर्जी वोटर की फर्जी तस्वीर कई एंगल से ले कर एक ही फर्जी वोटर के हवाले कई वोटर आईकोर्ड दिये जा सकते हैं। और चूंकि इस बार चुनाव भी नौ फेज में हो रहे हैं। यहां तक की बिहार और यूपी में तो अलग अलग क्षेत्रों में हर हफ्ते वोट डाले जायेंगे। तो अंगुली के निशान मिटाने का वक्त भी है और फर्जी वोट डालने के लिये राज्य से बाहर जाना ही नहीं है। मुश्किल यह नहीं है कि चुनाव आयोग इस पर रोक नहीं लगा सकता या राजनेता इससे परेशान हैं। और सवाल यह भी नहीं है कि देश भर में फर्जी वोटरों को लेकर देश का कोई भी आम वोटर अनभिज्ञ हो। लेकिन पहली बार 2014 के चुनाव में फर्जी वोटरों की तादाद को लेकर जो नयी परिस्तितियां सामने आयी हैं, वह डराने वाली हैं। क्योंकि 2009 की तुलना में 11 करोड़ नये वोटर इस बार वोट डालने के लिये तैयार है । और देश में सरकारे कितने वोट से बन जाती है यह 2009 की यूपीए सरकार को ही देख कर समझा जा सकता है । 2009 में कांग्रेस को सिर्फ साढ़े ग्यारह करोड़ वोट मिले थे। वही बीजेपी को साढ़े आठ करोड़ वोट मिले थे । देश के दर्जन भर क्षत्रपो में सवा करोड से ज्यादा वोट पाने वाला कोई नहीं था। अब जरा कल्पना किजिये कि जो ग्यारह करोड नये वोटर इस बार वोट डालने के लिये तैयार है उसमें कितनी फर्जी हो सकते है ।
अगर दिल्ली और एनसीआर को ही देश में बने वोटर आईकार्ड का आधार बनाया जाये तो मौजूदा वक्त में 25 फिसदी वोटर आईकार्ड फर्जी हो सकते है । दिल्ली के मतदाता जागरुक मंच के अध्यक्ष ओ पी कटारिया की माने तो फर्जी वोटरो की तादाद चालिस फिसदी तक हो सकती है । और मौजूदा हालात में चुने हुये नुमान्दे ही दुबारा भी चुने जाये इसके लिये शुरु से ही भिडे रहते है । यानी सरकार की नीतिया या किसी राजनेता की जनता के बीच कैसी भागेदारी है यह मायने नहीं रखता बल्कि कैसे फर्जी वोटर और फर्जी आईकार्ड की व्यवस्था हो जाये । इसी पर सारा श्रम लगता है । हरियाणा सरकार के मंत्री सुखबीर कटारिया के खिलाफ चुनाव आयोग की पहल ने दो सवाल पैदा कर दिये है । पहला अगर वोट की तादाद ही चुनाव में जीत हार तय करती है तो फिर फर्जी वोट के जुगाड के तरीके पैदा करना ही राजनेता का असल काम हो चला है । और दूसरा , चुनाव आयोग जिस जमीनी स्तर पर वोटर कार्ड के लिये निचले लेबल के दिकारियो को लगाता है उन्हे खरीदने से लेकर उपर तक के अधिकारी अगर मंत्रियो और पार्टियो के लिये काम करने लगे तो फिर चुनाव का मतलब होगा क्या। ये दोनों सवाल हरियाणा के मंत्री सुखबीर कटारिया के खिलाफ मामला दर्ज होने से उभरा है। क्योंकि बीएलओ हो या ईआरओ [ इलेक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आफिसर ] दोनों की भूमिका ही फर्जी वोटरआई कार्ड बनवाने में खुकर सामने आयी है। और दागी नेताओं की नयी भागेदारी फर्जी वोटर के जरीये चुनाव जीतने के भी सामने आये है । महत्वपूर्ण यह भी है कि फर्जी वोटर आईकार्ड की शिकायत पर चुनाव आयोग ने तेजी से काम भी किया है । और देश भर में फर्जी वोटर आईकार्ड को खारिज करने की तादाद भी बीते पांच बरस में एक करोड से ज्यादा की है । लेकिन नया सवाल यह उभरा है कि फर्जी वोटर की शिकायत के बाद जिन वोटरआई कार्ड को चुनाव आयोग ने खारिज करने का निर्देश दिया उसे रद्द करने भी वही अधिकारी काम पर लगे जो फर्जी कार्ड बनाने में लगे है । आम वोटरो की शिकायत जो इसी दौर में सामने आयी है वह भी चौकाने वाली है क्योंकि वोटर आईकार्ड होने के बावजूद सही वोटरों के नाम भी उनके अपने ही क्षेत्र से इसी दौर में गायब हो गया। वैसे एक सच यह भी है जमीनी स्तर पर या कहे पहले स्तर पर जिन बीएलओ को वोटर आईकार्ड बनवाने के लिये काम पर लगाया जाता है उन्गे एक बरस में तीन हजार रुपये मिलते हैं। और प्रति फोटो कार्ड के चार रुपये। अब जरा कल्पना कीजिये जिस लोकतंत्र के नाम पर देश में सरकारे बदलती है। या कहे सत्ता मिलने के बाद करोडों-अरबो के वारे न्यारे नीतियों के नाम पर होते हो वहां वोट खरीदने या फर्जी वोटर की कीमत कोई भी सत्ता में आने के लिये क्या कुछ नहीं करेगा। फिर मौजूदा वक्त में देश में जब राजनीतिक तौर पर भ्रष्टाचार मुद्दा हो। भ्रष्टाचार के दायरे में केन्द्रीय मंत्री से लेकर नौकरशाह और कारपोरेट से लेकर मीडिया का एक वर्ग भी आ रहा हो। तो सवाल यही है कि जिस चुनाव के जरीये देश में सत्ता बनती बिगडती हो जब उसी चुनावी तंत्र में घुन लग गयी हो तो उसे सुधारने का रास्ता होगा क्या। क्या सिर्फ चुनाव आयोग की कडाई से हालात सुधर जायेगें या फिर भ्रष्ट होते संस्थानों को कानूनी दायरे में कडाई बरतने भर से सुधार आ जायेगा । या कहे नेता सुधार जाये या सत्ता ईमानदार हो जाये तो हालात ठीक हो जायेंगे। दरअसल मुश्किल यही है कि देश में समूचा संघर्ष सत्ता पाने के लिये ही हो रही है और राजनीतिक सत्ता को ही हर व्यवस्था में सुधार का आधार माना जा रहा है ।
यानी समाज लोभी है और लोभी समाज को ठीक करने की जगह जब राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल खेला जा रहा हो तो फिर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र पर दाग लगने से बचायेगा कौन यह अभी तो अबूझ पहेली है । क्योकि देश तो 2014 के आम चुनाव में ही लोकतंत्र का पर्व मनाने निकल पड़ा है। जहां चुनाव आयोग 3500 करोड खर्च करेगा। और तमाम राजनीतिक दल 30,500 करोड़ । और यह कल्पना के परे है कि फर्जी वोटर के तंत्र पर कितना कौन खर्च कर रहा है या करेगा ।
Tuesday, April 1, 2014
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जनादेश के जश्न से पहले कद्दावर नेताओं की तिकड़म |
1977 में देश की सबसे कद्दावर नेता इंदिरा गांधी को राजनारायण ने जब हराया तो देश में पहली बार मैसेज यही गया कि जनता ने इंदिरा को हरा दिया। लेकिन राजनारायण उस वक्त शहीद होने के लिये इंदिरा गांधी के सामने खड़े नहीं हुये थे बल्कि इमरजेन्सी के बाद जनता के मिजाज को राजनारायण ने समझ लिया था। लेकिन इंदिरा उस वक्त भी जनता की नब्ज को पकड़ नहीं पायी थीं। और 52 हजार वोट से हार गयीं। राजनारायण 1971 में इंदिरा से हारे थे और 1977 में इंदिरा को हरा कर इतिहास लिखा था। लेकिन उसी रायबरेली में इस बार सोनिया गांधी के खिलाफ किसी कद्दावर नेता को कोई क्यों खड़ा नहीं कर रहा है यह बड़ा सवाल है। तो क्या 2014 के चुनाव में जनता की नब्ज को हर किसी ने पकड़ लिया है इसलिये कद्दावर नेताओ के खिलाफ कोई शहीद होने को तैयार नहीं है या फिर जिसने जनता की नब्ज पकड़ ली है वह कद्दावर के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने को तैयार है। यह सवाल पांच नेताओं को लेकर तो जरुर है। रायबरेली में सोनिया गांधी, बनारस में नरेन्द्र मोदी,लखनऊ में राजनाथ सिंह, आजमगढ़ में मुलायम सिंह यादव और अमेठी में राहुल गांधी ।
हर नेता का अपना कद है। अपनी पहचान है। लेकिन पहली बार इन पांच नेताओं के खिलाफ कौन सा राजनीतिक दल किसे मैदान में उतार रहा है हर किसी की नजर इसी पर है। यानी कद्दावर नेता के खिलाफ कद्दावर नेता चुनाव मैदान में उतरेंगे या कद्दावर के सामने कोई नेता शहीद होना नहीं चाहता इसलिये कद्दावर हमेसा कद्दावर ही नजर आता है। 2014 के चुनाव को लेकर यह सवाल बड़ा होते जा रहा है। राहुल गांधी के खिलाफ बीजेपी स्मृति इरानी को उतारा है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने अभी तक किसी कद्दावर के नाम का एलान किया नहीं है। सोनिया गांधी के खिलाफ भी बीजेपी ने खामोशी बरती है। सपा ने तो उम्मीदवार ना उतारने का एलान इस खुशी से किया जैसे उसके सियासी समीकरण की पहली जीत हो गयी। राजनाथ के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने जावेद जाफरी को उतारकर लखनवी परंपरा को ही बदल दिया है। मुलायम के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी अभी तक खामोश हैं।
तो क्या पहलीबार कद्दावर नेताओं को घेरने के लिये उम्मीदवारों के एलान में देरी हो रही है या फिर सियासी जोड-तोड मौजूदा राजनीति में कद्दावर को बचाने में जुटी हुई है। यह सावल इसलिये बड़ा है क्योंकि राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति इरानी के लड़ने का मतलब है बीजेपी में ऐसा कोई नेता नहीं जो ताल ठोक कर राहुल गांधी को चुनौती दें। क्योंकि स्मृति इरानी को हारने में ही लाभालाभ है। स्मृति फिलहाल राज्यसभा की सदस्य हैं। और चुनाव हार भी जाती हैं तो राज्यसभा की सीट पर आंच आयेगी नहीं। वैसे बीजेपी में हर बड़ा नेता अमेठी में चुनाव लडने की एवज में राज्यसभा की सीट मांग रहा था। लेकिन स्मृति को तो कुछ देना भी नहीं पड़ा। और चुनाव राहुल गांधी के खिलाफ लड़ रही है तो प्रचार मिलेगा ही। और राहुल गांधी के लिये स्मृति इरानी का लडना फायदेमंद भी साबित होगा क्योंकि स्मृति की पहचान कही ना कही टीवी सीरियल कलाकर से जुडी हुई हैं और अमेठी में ताल ठोंक रहे आप के कुमार विश्वास भी मंचीय कवि हैं तो तो झटके में राहुल बनाम कलाकार-अदाकार का केन्द्र अमेठी हो गया। यानी अमेठी 77 वाले हालात से दूर है जब गांधी परिवार के सबसे ताकतवर बेटे संजय गांधी अमेठी में चुनाव हारे थे। लेकिन उस वक्त भी संजय गांधी के खिलाफ खडे उम्मीदवार को कोई नहीं जानता था उल्टे जनता के फैसले को बडा माना गया था। वहीं सोनिया गांधी को लेकर कोई रणनीति किसी के पास नहीं है। रायबरेली में 37 बरस पहले इंदिरा गांधी हारी थीं। लेकिन रायबरेली में सोनिया गांधी हार सकती है यह 2014 में कोई मानने को तैयार नहीं है। इसलिये रायबरेली में कोई कद्दावर नेता शहीद होना भी नहीं चाहता। बीजेपी की उमा भारती हो या आप की शाजिया इल्मी दोनों ने ही रायबरेली से कन्नी काटी। और बीजेपी ने जिसे मैदान में उतारा वह विधायक का सीट भी नहीं जीत सकता। सपा छोड कर बीजेपी में शरीक हुये अजय अग्रवाल को सोनिया के खिलाफ उतार कर बीजेपी ने साफ कर दिया कि मोदी के खिलाफ वह कांग्रेस से किसी कद्दावर काग्रेसी नेता को मैदान में देखना नहीं चाहती। तो सवाल तीन हैं। बीजेपी ने अमेठी और रायबरेली को वाकओवर दिया। तो बनारस में उम्मीदवार के एलान को लेकर रुकी कांग्रेस भी मोदी को वाकओवर दे देगी। या फिर पीएम पदत्याग से बना सोनिया का कद आज भी हर कद पर भारी है। या सोनिया 2014 के चुनाव में महज एक प्रतीक है। क्योंकि राहुल दौड़ में है। हो जो भी लेकिन गांधी परिवार सरीखी सुविधा बाकि कद्दावर नेताओ के लिये तो बिलकुल ही नहीं है। राजनाथ या मोदी को लेकर राजनीतिक दलों की बिसात उलट है। राजनाथ हो या नरेन्द्र मोदी सत्ता के लिये दोनो ही रेस में हैं। दोनो को पता है कि लखनऊ या बनारस से जीत का मतलब दोनों नेताओ के लिये होगा क्या । इसलिये मोदी के खिलाफ चुनावी गणित को ठोक बजाकर हर दल देख रहा है और राजनाथ को हर दल ने अपने उम्मीदवारों के आसरे घेरने का प्रयास किया है। लखनऊ में चुनावी जीत हार मुस्लिम और ब्राहमण वोटरों पर ही टिकी है । 5 लाख से ज्यादा मुस्लिम और -करीब 6 लाख ब्रह्ममण वोटर लखनऊ में हैं। और राजनाथ के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने जैसे ही फिल्मी कलाकार जावेद जाफरी को उतारा वैसे ही कई सवाल सियासी तौर पर उठे। क्या आप मुसलिम वोटर को अपने साख देख रहा है। वहीं बाकी तीनों दल यानी सपा, बीएसपी और कांग्रेस तीनों माने बैठे हैं कि मुस्लिम वोटर अगर उनके साथ आता है तो जीत उन्हीं की होगी क्योंकि तीनो ही दलो के उम्मीदवार ब्राह्णमण हैं।
ऐसे में राजनाथ का नया संकट यही है कि अगर ब्राहमण वोटर बीजेपी से छिटका या राजनाथ से छिटका तो राजनाथ मुश्किल में पड जायेंगे क्योंकि जातीय समीकरण के लिहाज राजपूतों की तादाद लखनउ में 80 हजार से भी कम है । लेकिन मुस्लिम उम्मीदवार के मैदान में उतरने से राजनाथ को लाभ है कि मुस्लिम वोटर अगर जावेद जाफरी में सिमटा तो कांग्रेस, सपा और बीएसपी के लिये यह घातक साबित होगा। वहीं राजनाथ से उलट बिसात मोदी को लेकर बनारस में हर राजनातिक दल की है क्योंकि वहां केजरीवाल को सामने कर सीधी लड़ाई के संकेत हर राजनीतिक दल की लगातार खामोशी दे रही है। बनारस में हर कोई बनारसी दांव ही चल रहा है। मोदी बनारस में मोदी से ही लड़ रहे हैं। मोदी का कद बीजेपी से बडा है । मोदी पीएम पद के उम्मीदवार है। 2014 में सरकार बीजेपी की नहीं मोदी की बननी है। सोमनाथ से बाब विश्वानाथ के दरवाज में मोदी यूं ही दस्तक देने नहीं पहुंचे हैं। यह सारे जुमले मोदी को मोदी से ही लड़ा रहा है इसलिये नया सवाल यही हो चला है कि मोदी के खिलाफ कांग्रेस मैदान में उतारेगी किसे। नजरें हर किसी की है। कांग्रेस के पांच नेता दिगग्विजय सिंह , आनद शर्मा , प्रमोद तिवारी , राशीद अल्वी और पी चिंदबरम अभी तक जिस तरीके से मोदी को चुनौती देने के लिये अपने नाम आगे किये है और काग्रेस हाईकमान ने कोई गर्मजोशी नहीं दिकायी उससे अब नये संकेत उभरने लगे है कि मोदी को घेरने के लिये क्या हर राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार को उतारने से बनारस में बच रहे है । क्योकि मोदी के खिलाफ केजरीवाल चुनाव लडने की मुनादी कर चुके है और वोट बिखरे या कटे नहीं इसपर खास ध्यान हर राजनीतिक दल दे रहा है ।
बनारस में जितनी तादाद यहा ब्राह्मण की है उतने ही मुसलमान भी हैं। और पटेल-जयसवाल को मिला दें तो इनकी तादाद भी ब्रह्मण-मुसलमान के बराबर हो जायेगी। तो १६ लाख वोटरों वाले काशी में मोदी के शंखनाद की आवाज को खामोश तभी किया जा सकता है जब जाति और धर्म का समीकरण एक साथ चले। और यह तभी संभव है जब मुलायम-मायावती एक तरीके से सोचें और कांग्रेस मोदी को ही मुद्दा बनाकर केजरीवाल की परछाई बन जायें। असल में कांग्रेस की खामोशी या उम्मीदवार खड़ा करने को लेकर देरी इसकी संकेत देने लगी है कि वोटों के समीकरण और मोदी की परछाई को ही मोदी के खिलाफ खड़ा करने की एक नयी सियासत कांग्रेस भी बना रही है और आजमगढ पहुंचे मुलायम सिंह यादव भी बनारस में आजगढ की हवा बहाने में लगे हैं। यानी मुसलिम वोटर के गढ में मुलायम खुद के मौलाना होने का तमगा लेने पहुंचे हैं और बनारस के कबीरपंथी सोच में मोदी सेंध लगाने पहुंचे हैं। सवाल सिर्फ इतना है कि पहली बार कद्दावर नेताओं की तिकड़मी राजनीति के सामने उसी जनादेश को छोटा कर आंका जा रहा है जो जनादेश नेताओं के कद्दावर बनाता है। तो आजादी के बाद चुनावी इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पन्ना लिखा जा रहा है 2014 में । क्योंकि जनादेश तिकडमी कद्दावरों को धूल चटायेगा और धूल से कुर्सी तक पहुंचायेगा। इसके लिये सिर्फ इंतजार करना पड़ेगा।