Thursday, April 17, 2014

आजादी के बाद मुसलमानों की अग्नि-परीक्षा !

1952 में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को जब नेहरु ने रामपुर से चुनाव लड़ने को कहा तो अब्दुल कलाम ने नेहरु से यही सवाल किया था कि उन्हें मुस्लिम बहुल रामपुर से चुनाव नहीं लड़ना चाहिये। क्योंकि वह हिन्दुस्तान के पक्ष में हैं और रामपुर से चुनाव लड़ने पर लोग यही समझेंगे कि वह हिन्दुस्तान में पाकिस्तान नहीं जाने वाले मुसलमानों के नुमाइन्दे भर हैं। लेकिन नेहरु माने नहीं। वह आजादी के बाद पहला चुनाव था और उस वक्त कुल 17 करोड़ वोटर देश में थे। संयोग देखिये 2014 के चुनाव के वक्त देश में 17 करोड़ मुसलमान वोटर हो चुके हैं। लेकिन 1952 में देश के मुसलमानों को साबित करना था कि वह नेहरु के साथ हैं। और 2014 में जो हालात बन रहे हैं, उसमें पहली बार खुले तौर पर मुस्लिम धर्म गुरु से लेकर शाही इमाम और देवबंद से जुड़े मौलाना भी यह कहने में हिचक नहीं रहे कि पीएम पद के लिये दौड़ रहे नरेन्द्र मोदी से उन्हें डर लगता है या फिर मोदी पीएम बने तो फिरकापरस्त ताकतें हावी हो जायेंगी।

तो क्या आजादी के बाद पहली बार देश का मुस्लिम समाज खौफजदा है। या फिर पहली बार भारतीय समाज में इतनी मोटी लकीर नरेन्द्र मोदी के नाम पर खींची जा चुकी है जहां चुनाव लोकतंत्र से इतर सत्ता का ऐसा प्रतीक बन चुका है, जहां जीतना पीएम की कुर्सी को है और हारना देश को है। यानी जितनी बड़ी तादाद में देश की जनता अपने नुमाइन्दो को चुनकर संसद में भेजती उसी प्रकिया पर सवालिया निशान लग रहा है। क्योंकि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में अगर वाकई मुस्लिम समाज सिर्फ मोदी के खिलाफ एकजुट है और यही एकजुटता जातीय समीकरण को तोड़ हिन्दु वोटरों का ध्रुवीकरण कर रहा है तो 2014 के चुनाव का नतीजा कुछ भी हो देश का रास्ता तो लोकतंत्र से इतर जा रहा है इसे नकारा कैसे जा सकता है।

वहीं बड़ा सवाल राष्ट्रीय राजनीतिक दल बीजेपी का भी है। जिसकी राजनीतिक सक्रियता संघ परिवार के आगे ठहर गई है क्योंकि पहली बार बीजेपी कार्यकर्ताओ को नही बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस के स्वयंसेवकों को बूथ जीतो टारगेट दिया गया है। जिसके तहत देश के हर गांव ही नहीं हर बूथ स्तर तक पर स्वयंसेवकों की मौजूदगी है । हर राज्य में प्रांत प्रचारकों के पास एक ऑफ लाइन टैब । जिसमें उनके राज्य के हर संसदीय क्षेत्र का ब्यौरा है। संसदीय क्षेत्र में आने वाले हर गांव की जानकारी है। हर बूथ स्तर के स्वयंसेवकों के पास इलेक्टोरल रॉल है। हर कार्यकर्ता के ऊपर 200 घरों की जिम्मेवारी है। हर घर के वोटरों को बूथ तक लाने का जिम्मा का भी स्वयंसेवकों पर है। तो क्या पहली बार भारतीय राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल रहा है या फिर 2104 का चुनाव देश की तस्वीर संसद के अंदर बाहर पूरी तरह बदल देगा। क्योंकि मोदी जिस उड़ान पर है संघ परिवार की जो सक्रियता है। मुस्लिम समाज के नुमाइन्दो के जो उग्र तेवर हैं,उसमें क्या देश ने इससे पहले जो राजनीतिक गोलबंदी हिन्दुत्व या मंडल कमीशन के जरीये की वह टूट जायेगी। दलितों को लेकर जो नया ताकतवर वोट बैंक बना वह खत्म हो जायेगा।

ध्यान दें तो भारतीय समाज में उदारवादी अर्थव्यवस्था ने मध्यम वर्ग को विस्तार दिया और शहरीकरण ने गवर्नेंस से लेकर कल्याणकारी योजनायें और भ्रष्ट्राचार से लेकर विकास की अवधारणा को ही राजनीति मंत्र में मुद्दे की तर्ज पर बदल दिया। और पहली बार इन्हीं दो दायरे ने देश के भीतर एक ऐसे वोटबैंक को ताकतवर बनाकर खड़ा कर दिया, जहां पारंपरिक वोट बैक ही नहीं बल्कि वोट बैंक से जुडे मुद्दे हाशिये पर जाते हुये दिखायी देने लगे। दरअसल, मोदी इसी माहौल को अपना राजनीतिक हथियार बनाये हुये हैं। विकास को लेकर जो खाका नरेन्द्र मोदी गुजरात माडल के जरीये यूपी-बिहार या कहे समूचे देश में अपने मिशन 272 के तहत रख रहे हैं, वह अपने आप में नायाब है। क्योंकि बीते ढाई दशक में राजनीतिक तौर देश के हर विधानसभा या लोकसभा के चुनावी समीकरणों को देखें तो विकास का खाका बिजली पानी सड़क से आगे निकला नहीं है। कारपोरेट की सीधी पहल राजनीतिक तौर पर इससे पहले कभी हुई है। क्रोनी कैपटलिज्म यानी सरकार या मंत्रियो के साथ औघोगिक घरानो या कारपोरेट का जुडाव इससे पहले कभी खुले तौर उभरा नहीं । लेकिन मोदी ने मौजूदा दौर का राजनीतिककरण जिस तरह बीजेपी की ही राजनीति को बदल कर नये तरीके से रखने का प्रयास किया है, उसमें यह सवाल वाकई बड़ा हो चला है कि 2014 के चुनाव के बाद की राजनीति होगी कैसी। क्योंकि मायावती जिस दलित विस्तार के आसरे सत्ता तक पहुंचती रही या संसद में दखल देने की स्थिति में आयीं, वह मोदी की सियासत को लेकर अगर टूट रहा है तो यह अपने आप में 21वी सदी की सबसे बडा परिवर्तन होगा। क्योंकि अंबेडकर ने हिन्दुत्व व्यवस्था को माना नहीं। संघ की ब्राह्मण व्यवस्था को भी नहीं माना। सीधे कहें तो जातीय व्यवस्था के खिलाफ आंबेडकर सामाजिक बराबरी की व्यवस्था के प्रतीक बने। लेकिन नयी परिस्थिति में रामदास आठवले हो या रामविलास पासवान या रामराज यानी उदित राज। तीनों ही अंबेडकर की थ्योरी छोड संघ परिवार की उस व्यवस्था का साये तले आ खडे हुये, जहां मोदी के विकास की पोटली अंबेडकर के 1956 के धर्मपरिवर्तन से आगे मानी जा रही है। यह गोविन्दाचार्य के सोशल इंजिनियरिंग से भी आगे की सोशल इंजीनियरिंग है। क्योंकि गोविन्दाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग के जरीये मु्द्दों को पूरा करना सिखाया। चाहे कल्याण सिंह के जरीये बाबरी मस्जिद को ढहाना ही क्यो ना हो। लेकिन नरेन्द्र मोदी के दौर में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग सत्ता पाकर हर मुद्दे को अपने अनुकूल परिभाषित करते हुये पूरा करने की सोच है। तो क्या दलित के बाद मंडल आयोग की सिफारिशों से निकले क्षत्रपों की सत्ता भी 2014 के चुनाव में ध्वस्त हो जायेगी। क्योंकि दलित वोट बैंक की ताकत के बाद यादव और कुर्मी ऐसा वोट बैंक है जो एकमुश्त एकसाथ खड़ा रहता है। लेकिन मोदी के मुस्लिम प्रेम की थ्योरी उसे भी तोड़ेगी। और पहली बार कर्नाटक हो या तमिलनाडु या केरल वहा भी बीजेपी दस्तक देगी। यानी दक्षिण के जातीय समीकऱण भी टूटेंगे।

अगर चुनावी हवा का रुख ऐसा है तो इसके मायने मनमोहन सिंह सरकार से जोडने ही होंगे। क्योंकि बीते दस बरस की सत्ता के दौर का सच यह भी है कि पूंजी ने समाज को बाजार से जोड़कर जो विस्तार दिया, उसमें जीने के पुराने तरीके ना सिर्फ बदले बल्कि इसी दौर में 14 करोड़ वोटरों का एक ऐसा तबका भी खड़ा हो गया जिसके लिये नेहरु की मिश्रित अर्थव्यवस्था से लेकर लोहिया का समाजवाद मायने नहीं रखता। जो जेपी या वीपी के आंदोलन से भी वाकिफ नहीं हैं। जिसके लिये अयोध्या या मंडल भी मायने नहीं रखता। जिसके लिये खेती या औगोगिक उत्पादन पर टिकी अर्थव्यवस्था पर बहस भी मायने नहीं रखती। उसकी व्यवस्था में जीने के तौर तरीके बिना रोक टोक के होने चाहि्ये। उसे बाजार का उपभोक्ता बनना भी मंजूर है और सामाजिक ताने-बाने को तोडकर स्वच्छता पाना भी मंजूर है। ध्यान दें तो मनमोहन सिंह के दौर ने इस सोच को विस्तार दिया है और पहली बार मुद्दो को लेकर शहर या ग्रमिण क्षेत्र के विचार भी एक सरीखे होने की राह पर है। यानी 20 से 30 करोड़ के उस भारत के हाथ में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश को सौपा जा चुका है जो समूचे देश को साथ लेकर चलने या जिन्दगी बांट कर चलने को तैयार नहीं है। और वोटरों की फेहहिस्त में भी किस तबके के भरोसे सत्ता तक कितनी कम तादाद में भी पहुचा जा सकता है इसका गणित भी पहली बार उसी लोकतंत्र पर हावी हो चला है जो यह मान कर चल रहा था कि संसद में हर तबके की नुमाइन्दगी इसी से हो सकती है कि हर वर्ग, हर तबके, हर समुदाय का अपना नुमाइन्दा हो। तो 2009 में महज साढे ग्यारह करोड वोट लेकर कांग्रेस सत्ता में पहुंची। और 2014 में इतने ही नये वोटर बढ़ चुके हैं। यानी पुराने भारत को ताक पर रख नये भारत को बनाने का सपना मौजूदा चुनाव का प्रतीक बन चुका है, क्योंकि सवा सौ करोड का देश बराबरी की मांग कर चल नहीं सकता। यह नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह की असफलता का कच्चा-चिट्ठा है। तो आज मुस्लिम तबका दांव पर है कल कोई दूसरा होगा। यही 2014 के चुनाव का नया मिजाज है।

2 comments:

tapasvi bhardwaj said...

A little complex to understand

Unknown said...

superb exilent......mudde kii aatma ko pakada lekh