जब कोई सत्ता से लड़ता है तो उसके चेहरे पर चमक आ जाती है। सत्ता अगर लड़ते लड़ते बदल दी जाये तो लड़ने वाले की धमक कहीं ज्यादा तेजी से फैलती है । लेकिन सत्ता के ढहने के बाद अगर कोई ऐसी सत्ता वहीं लडने वाली जनता खड़ी कर दे, जहा सवाल करना भी मुश्किल लगने लगे तो फिर कवि-लेखक ठिठक कर खामोश रहते हुये भाव-शून्य हो जाता है। बीते दो दशको से देश का बहुसंख्यक तबका लड़ ही तो रहा था। लगातार सत्ता से लेखन टकरा रहा था। पहले बाजार खुले। फिर राष्ट्रीय भावनायें भी बाजार में मोल भाव करते नजर आये। उसके बाद नागरिक से बड़ा उपभोक्ता को बना दिया गया। राष्ट्रीय खनिज संपदा की खुलेआम बोली लगने लगी। वामंपथी विचारधारा भी आधुनिक बाजार में शामिल होने के लिये तड़पने लगी। सिंगूर से नंदीग्राम और लालगढ का आंतक सत्ता का नया प्रयाय बना। ध्यान दें तो लेखक फिर भी सत्ता से टकरा रहे थे। लगातार लिखा जा रहा था। मां, माटी, मानुष को लेकर भी सवाल खड़ा करने से लेखक कतराया नहीं। काग्रेस के भ्रष्टाचार, देश में उत्पादन प्रक्रिया का ठप होना, महंगाई की त्रासदी पर हंसती खिलखिलाती लुटियन्स की दिल्ली पर हर किसी ने चोट की। हाथ कभी नहीं कांपे कि चांदी का चम्मच लेकर सियासत गढने वाले नेहरु गांधी परिवार हो या चिदंबरम सरीखे सिक्कों की सियासत करने वालो पर सीधा निशाना साधने से। लाखों टन गेहूं खुले आसमान तले सड़ता था और देश को बाजार में तब्दील करने पर आमादा शासकों लेकर जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर हर वक्त रेंगा। काफी कुछ लिखा गया । कहा गया । सेमिनारों में धज्जियां उड़ाई गईं। संवैधानिक संस्थाओं पर भी सवालिया निशान लगा। सीबीआई से लेकर सीएजी तक सियासत के खेल में बांट दिये गये या फिर बंटे हुये नजर आये। लेकिन पहली बार गुस्सा मंदिर-मस्जिद और मंडल से कई कदम आगे था। क्योंकि सबकुछ मुनाफे में परोसा जा रहा था। कोई सोशल इंडेक्स समाज के लिये बनाया नहीं गया। जिसे जितना कमाना है कमा सकता है। पीएम खादान बांट दें । सीएम योजनाओ के लिये एनओसी बांटे । और करोड़ों के वारे-न्यारे । बीते बीस बरस से यही तो खेल चलता रहा। तो मुनाफे पर आंच आने पर कारपोरेट और औघोघिक घराने भी नाखुश हुये। गवर्नेंस की बात कारपोरेट घराने कुछ इस तरह करने लगे जैसे उन्हे नागरिकों की फिक्र हो। लेकिन इसी दौर में घोटालो के दायरे में नेता, मंत्री,नौकरशाह, कारपोरेट और सिने कलाकारों से लेकर मीडिया के धुरंधर भी फंसे। गुस्सा जनता में था। दिल सुलग रहे थे। गुस्से को सियासत में बदलने का दोतरफा खेल सियासी क्षत्रपों ने बखूबी खेला। कहीं दलित से महादलित तो कही यादव को मुसलमान से जोड़कर तो कही सोशल इंजीनियरिंग का अद्भूत नजारा। जनता ने अपने जनादेश से जैसे मुनाफा बनाने की इस चौसर को उलटा। वैसे ही खामोशी आ गई। मनमोहन का अर्थशास्त्र इतना फ्रॉड था कि जनादेश के बाद उम्मीद, उल्लास, भरोसा जनता में जागना चाहिये था । हर जगह जश्न मनना चाहिये था। लेकिन जनादेश की ताकत से जैसे सत्ता पहले मदहोश थी वैसे ही जश्न पर भी नयी सत्ता ने काबिज होना चाहा। एहसास कमल में जागा। गुलाब या गेंदा की खुशी कमल तले दब गयी। चंपा चमेली की खुशबू भी वातावरण से गायब लगने लगी। तो उल्लास उस समाज से गायब हो गया जो लड़ रहा था। लिख रहा था। जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति के शब्द दे रहा था। सवाल उठ सकते हैं कि लेखन क्या जनता से दूर होता है।
लेखन के कोई सरोकार होते ही नहीं। सत्ता बीजेपी को नहीं नरेन्द्र मोदी को मिली है। सत्ता गुजरात के मॉडल को मिली है। सत्ता संघ के सामाजिक शुद्दीकरण के नजरीये को मिली है। सत्ता बदली है तो देश अब बदलेगा। यह उम्मीद और आस सिर्फ नये युग नये भारत के नारे तले दफन की नहीं जा सकती है । इसे बनाना । खड़ा करना। रास्ता दिखाना । लेखन की किसी नयी रचना से इतर कैसे हो सकता है शब्द क्यों थम गये है । तो फिर कागज पर रेंगती कलम की स्याही क्यों सूख गयी है। क्यों लिखा नहीं जा रहा है कि देश के बिगड़ते और खतरनाक हालात में हम ही तो थे जो यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि इस देश को कोई तानाशाह ही पटरी पर ला सकता है । क्योंकि लुटियन्स की दिल्ली तो भोग विलास में डूबी हुई थी। उसमें क्या काग्रेस और क्या बीजेपी। इंडिया इंटरनेशनल काउंसिल की महंगी शराब से लेकर हैबिटेट सेंटर में पांच सितारा अपसंस्कृति का नायाब रंग तो हर किसी ने बीते दो दशको में बार बार देखा है। गोधरा कांड से लेकर गुजरात दंगो और उसके बाद आंतक की गिरफ्त में घायल होते देश के दर्द को भी कैसे हंसी -ठठके में पंच-संस्कृति के मातहत सुख ले-लेकर हवा में उड़ाया गया। यह किसने नहीं देखा सुना। अरुंधति राय की कलम से छलनी होते देश के हालात हर किसी ने पढ़ा। शायद ही कोई संपादक हो जिसके देश को बेच दिये जाने वाले हालात पर अंगुली न रखी हो। लेकिन सत्ता मदमस्त ही रही। क्योंकि उसे जनता ने चुना था। और जनादेश की ताकत का एहसास सत्ता ने ही अन्ना से लेकर बाबा रामदेव तक को जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में कराये। जनता खामोश रही। क्योंकि जनादेश के घोड़े पर सवार सत्ता को जनता ही पलट सकती है।
यह लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन हर दौर में लेखन तो हुआ। लेखक की कलम रुकी तो नहीं । जनादेश को बनाने में लेखन ने कितना काम किया यह आंकलन लुटियन्स की दिल्ली का सबसे सुविचारित सेमिनार का विषय हो सकता है । लेकिन जनादेश के बाद ऐसा क्यो है कि लेखन सत्ता से लडते हुये दिखायी नहीं दे रहा है । लोकतंत्र तो तुरंत जीता है । तो क्या सबकुछ नतमस्तक। यकीनन नहीं । पहली बार जनादेश भारत को बाजार बनने देने से रोकना चाहता है । पहली बार सामाजिक समानता का भाव बहुसंख्यक तबका देखना-समझना चाहता है । पहली बार हुनरमंद युवा तबका देश के भीतर देश को रचना चाहता है । पहली बार एक भूखा भी मर्सिडिज पर घूमते रईसो के पर कटते हुये देखना चाहता है । पहली बार २१ वी सदी की चकाचौंध से इतर गरीब-गुरबो का जिक्र संसद के सेन्द्रल हाल में हो रहा है । पहली बार हाशिये पर पडे तबके को मुख्यधारा से जोडने के सवाल उठ रहे हैं। तो क्या यह संभव है कि जिस मोदी को आसरे देश ने सपने पाले है उस मोदी की आंखों में इन सपनों को पूरा करने का सपना हो। अगर होगा तो फिर क्या संपादक और क्या कारपोरेट या औघोगिक घराने। समाज में जीने का नजरिया तो एक समान हर किसी का लाना ही होगा । यह कैसे संभव है कि देश के राष्ट्रपति का वेतन लाख रुपया हो और देश के टॉप पचास कारपोरेट समेत करीब ८ लाख लोगो के लिये करोड़ रुपये कोई मायने ही ना रखते हो। झांरखंड के चतरा में जो लिट्टी दस पैसे की मिलती हो वह दिल्ली के दिल्ली हाट में पन्द्रह रुपये की हो। जिस बुंदेलखंड , पलामू, बस्तर से लेकर देश के तीन सौ जिलो में एक घर का निर्माण २५ से ३० हजार में हो जाता हो वहीं घर देश के टॉप १०० शहरो में तीस से चालीस लाख तक में बनता हो। मेरठ और गाजियाबाद में दो रुपये से लेकर छह रुपये किलो मिलने वाला लहसून दिल्ली और मुबंई में सौ से डेढ सौ रुपये हो ताजा हो ।
कोई तो अर्तव्यवस्था होगी । कोई तो सिस्टम होगा जिसे बदलने का ख्वाब पाले नंगे बदन , नंगे पांव एवीएम मशीन तक जनता पहुंची हो । जिसने सपने पाले कि जनादेश के बाद कोई तो होगा जो दुनिया को बता सके कि कि हिन्दुस्तान में कई हिन्दुस्तान है । किसी को जातीय समीकरण में उलझाया गया । तो किसी को मंदिर मस्जिद के दायरे में बांधा गया। किसी को मुनाफा बनाने का नशा दे दिया गया । तो किसी को पांच सितारा जीवन जीने के लिये मदमस्त कर दिया गया । मनमोहन सिंह की इक्नामी ने जीवन के उल्लास को ही जीवन का समूचा सच करार दे दिया। कौन लोग थे जो पीएमओ में बैठे थे । बीते बीस बरस में कितने राजनेता और कितने नौकरशाह नार्थ-साउथ ब्लाक में फाइलों पर टिका टिप्पणी करते रहे। चिड़िया बैठाते रहे । जिन्होने भारत को कभी देखा ही नहीं । कैसे देश के लिये नीतियों बनायी गयी। यह धृतराष्ट्र की तर्ज पर मनरेगा पर उड़ाये गये ३५ हजार करोड से भी समझा जा सकता है और हर पेट को भरने के लिये करीब एक लाख करोड के सालाना बजट से भी समझा जा सकता है । और तो और मुनाफा बनाने में लगे कारपोरेट व औघोगिक घरानो को हर बरस ३ से ४ लाख करोड़ की दी जा रही सब्सिडी के सच से भी समझा जा सकता है कि अब जनादेश के बाद रास्ता निकलना क्या चाहिये। कैसे बाजार की हवा ने बारत की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी चौराहे पर बेच कर मुनाफा बना लिया। लेकिन मुश्किल तो थमी कलाम और जनादेश से सड़क पर घर घर और हर हर कहकर डराने वाले हाथों का है। और संयोग से अर्से बाद जनादेश ने मौका दिया है लेखन तीक्ष्ण हो। तीखा हो। जो डराने और जुनूनी सियासी हवा को थाम सके। नहीं तो सत्ता की हवा भी जहरीली हो सकती है । तीस बरस बाद जनादेश बेलगाम है। उसे पूरी ताकत मिली है। और आजादी के बाद जनादेश का नजारा कांग्रेस को मटियामेट कर दूसरी आजादी का नारा भी दे रहा है। लेकिन संसदकी चौखट पर मथा टेक कर देश को साधने का संकल्प लेने वाले मोदी भी अकेले ना तो समाज को बांध सकते है ना ही देश को साध सकते हैं। क्योंकि जनादेश देश का है और जनादेश किसी को गुलाम नहीं बनाता।और आजादी जब छिनती नहीं और सत्ता से लडने वाले के चेहरे पर जब चमक आ जाती है तो फिर फैज को याद करना क्या बुरा है... तो बोल कि लब आजाद है तेरे , बोल जुंबा अब तक तेरी है, बोल कि सच जिंदा है अब तक , बोल कि जो कहना है कह ले..
Thursday, May 22, 2014
बोल के लब आजाद हैं तेरे...जो कहना है कह ले
Posted by Punya Prasun Bajpai at 3:38 PM
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10 comments:
lazwaaab.......
lazwaaab.......
lazwaaab.......
Beautiful
Beautifully written
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.05.2014) को "धरती की गुहार अम्बर से " (चर्चा अंक-1621)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
Tumko kya lagta hai....saare desh me nange pair ghoomne wale sangh ke swayamsevako se jyada Bharat dekha hai tumne?? Yaad rahe...Modi rajniti me aane se pehle 20 saal swayamsevak rahe hain....unko Bharat ki samajh tumse bahut jyada achchi hai....Isiliye jab wo bolte hain to desh hi nahi duniya sunti hai....Aur tum likhte ho to kejru " bahut krantikari" bolta hai....
ऐसी सत्ता वहीं लडने वाली जनता खड़ी कर दे, जहा सवाल करना भी मुश्किल लगने लगे तो फिर कवि-लेखक ठिठक कर खामोश रहते हुये भाव-शून्य हो जाता है।
बहूत अच्छी और सच्ची बात ....
दरअसल बेलगाम घोडे घातक ही होते हैं
कुछ पंक्तियां सत्य को उजागर करती हुईं---लेकिन सत्ता के ढहने के बाद----लडने वाली जनता खडी कर दे----कवि-लेखक ठिठक कर खामोश रहते हुए भाव-शून्य हो जाते हैं.
क्योंकि,जनादेश देश का है---जनता का गुस्सा सातवेंआसमान पर---रेंगा.,जन है तो जनादेश भी है
सच तो यह है,जनादेश हर जन का है.जन है तो मोदी हैं,गुजरात का मोडल है---कण-कण से पहाड बन तो जाता है,परंतु जब -जन ढहने लगते हैं तो जमीनोदस्त हो जाते हैं पहाड भी.
Sir really very strong article ..
Aapki soch aur bhasha dono behad umda hoti hai.. to aap aise hi bolte rahiye aur likhte rahiye ...apne aur hamare liye...
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