Wednesday, October 29, 2014

सियासत का फिल्मी सिनेमा है 'कालाधन', जो हमेशा हिट होती है

ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्विस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे। 1989 में स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी
पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौड़ी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी । तो अब पहला सवाल यही है कि क्या विदेशों में जमा कालेधन की कौडी भर भी भारत में आ पायेगी या फिर सिर्फ सपने ही दिखाये जा रहे हैं।

क्योंकि 25 बरस पहले के वीपी के जोश की ही तरह 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी भी कालेधन को लेकर कुछ इसी तर्ज पर चुनावी समर में निकले । 25 बरस पुरानी राजनीतिक फिल्म एक बार फिर चुनाव में हिट हुई। मोदी भी पीएम बन चुके हैं लेकिन वीपी के दौर की तर्ज पर मोदी के दौर में भी अब एकबार फिर यह सवाल
जनता के जहन में गूंज रहा है कि आखिर कैसे विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस आयेगा। जबकि किसी भी सरकार ने कालेधन को वापस लाने के लिये कोई भूमिका अदा की ही नहीं। यहा तक की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जिन 627 बैंक धारकों के नाम सौपे गये उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसल ब्लोअर ने निकाले। जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे। और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये या नहीं, पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी रही। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दोर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियों में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है जो सत्ता
में आने के लिये स्विस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्विस बैंक को एक मजबूरी करार देती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बड़ा पाया तो राजनीति ही होगी। क्योंकि कालाधन के कटघरे में राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर या बडे मीडिया हाउस से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरधंरों के नाम फेरहिस्त में होने के खुले संकेत मिल रहे हो तब सरकार किसी की हो और पीएम कोई भी हो वह कर क्या सकता है।

सबसे मुश्किल सवाल तो यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के पीछे वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने दो दशक पहले ही कालेधन का खुला जिक्र कर दिया था । और मौजूदा वक्त में कारपोरेट पूंजी के आसरे चुनाव लड़ने और जीतने वाले नेताओं की फेहरिस्त उसी तरह सैकडों में है जैसे कालाधन सेक्यूलर छवि के साथ देश के सामने आ खड़ा हुआ है। खामिया किस हद तक है या राजनीतिक मजबूरी कैसे कालाधन या भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक है इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि राज्यसभा के चालीस फीसदी सांसद अभी भी वैसी समितियों के सदस्य है जिन समितियों को उनके अपने धंधे के बारे में निर्णय लेना है यानी एक वक्त किंगफिशर के मालिक राज्यसभा सदस्य बनने के बाद नागरिक उड्डयन समिति के सदस्य हो गये और उस वक्त सारे निर्णय किंग फिशर के अनुकूल होते चले गये। इतना ही नहीं मनमोहन सरकार के दौर में 2012-13 के दौरान लोकसभा के क्यश्चन आवर को देखे तो सांसदो के साठ फीसदी सवाल कारपोरेट और औघोगिक
घरानो के लिये रियायत मांगने वाले ही नजर आयेंगे। और देश का सच यही है कि 2007 के बाद से लगातार कारपोरेट और औघोगिक घरानों को टैक्स में हर बरस रियायत या कहे सब्सीडी 5 से 6 लाख करोड़ तक की दी जाती है। इसी तर्ज पर खनन से जुडी कंपनियों की फेरहिस्त का दर्न-ओवर देश में सबसे तेजी से बढता
है। और देश को राजस्व का चूना खनन के कटघरे में ही सरकार की ही नीतियां लगाती है। तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि बीते लोकसभा चुनाव में बार बार विदेशी बैंकों में जमा 500 अरब डालर के कालेधन का जो जिक्र किया गया वह कालाधन कभी भारत आयेगा भी या फिर देश को महज सियासत का फिल्मी सपना
दिखाया गया।

5 comments:

Unknown said...
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Unknown said...

Honesty and Dignity are very expensive things, which foolish people looks from BJP/Congress.Indian people become sentimentals and always loves dramas movie, thats why foolish/baseless movies enter 100 crore club in india, while original stories hardly make it count.this Lok sabha election can be compared with Sharukh khan Movie, with huge budget, heavy focus on starcast, and much spent on the marketing and makeover, but no story.And people enjoy that movie and sharukh earn 300 Crore. Same is case in Politics.

Soon you will see Marketing and strategy executive being hired by political parties officially and being paid much higher then industry.

It is just an starting of Commercialization in political system.

Anonymous said...

जैसे ही दिल्ली में विधान सभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई "आप-तक" पे युगपुरुष कचरावाल पे विशेष दिखाए जाने लग गए, कचरावाल को फिर से क्रन्तिकारी साबित करना शुरू कर दिया है....कहीं नवीन जिंदल और फोर्ड फाउंडेशन का काला धन "आप-तक" में तो नहीं आ रहा?? वैसे बहुत रिएक्शन आ रहा होगा आज कल।

Darshan jangra said...

आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार- 31/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 42
पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,

Unknown said...

Vajpee ji aap jaise patrkar ko bhi ab rozi-roti ke liye bhad bikau media channel AAj Tak ke sath chalana pad raha hai.lekin majboori samjh se pare nahi hai, aapne Zee news choda ab kahna tak channel chode ge.