ना जाति का टकराव। ना वर्ग संघर्ष की कोई आहट। बल्कि सांस्कृतिक और धर्म का टकराव। २०१४ के सत्ता परिवर्तन का सच यही है । यानी आजादी के बाद पहली बार राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन ने सियासी तौर पर ही नहीं बल्कि देश के भीतर सामाजिक राजनीतिक समझ की ही एक ऐसी लकीर खिंची है जो विकास को पुनर्भाषित करना चाहती है। इसके दायरे में धर्म और सांस्क़तिक राष्ट्रवाद है। यानी पूंजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के आसरे जिस विकास की परिकल्पना नरेन्द्र मोदी ने चुनाव से पहले प्रधानमंत्री बनने के लिये की । वह सोच प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जमीन पर उतार पायेंगे या फिर धर्म और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आंधी में पूंजी पर टिके विकास के परखच्चे उड़ जायेंगे। क्योंकि हिनदू धर्म और सांस्कृतिक राषट्रवाद के जो नारे संघ परिवार की हर बैठक में लग रहे हैं। जो चर्चा संघ से जुड़े हर संगठन में हो रही है, वह भारत को हिन्दु सभ्यता से जोड़ रही है और उस दौर के विकास की रेखा के सामने मौजूदा विकास के सपने थोथे है। इसे कहने में हिन्दु राष्ट्र की कल्पना संजोये लोग कतरा भी नहीं रहे है। हैदराबाद में दो दिन पहले विहिप के केन्द्रीय प्रन्यासी मण्डल एवं प्रबंध समिति के संयुक्त अधिवेशन में धर्मांतरण की व्याख्या स्वामी विवेकानंद के जरीये यह कहकर की जाती है कि हिन्दू समाज से एक मुस्लिम या ईसाई बने इसका मतलब यह नहीं है कि एक हिन्दू कम हुआ बल्कि इसका मतलब हिन्दू समाज का एक और शत्रु बढा। सिर्फ विवेकानंद ही नहीं बल्कि कांग्रेस के बाद अब बीजेपी जिस तरह महात्मा गांधी को आत्मसात कर रही है और खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह महात्मा गांधी को अपनी नायाब व्याख्या का हिस्सा बना रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान को स्वस्थ बारत के गांधी के सपने से जोड़ रहे है, इस बीच में अगर विहिप महात्मा गांधी को यह कहकर याद करता है कि गांधी ने कहा, भारत में ईसाई मिशनरी के प्रयास का उद्देश्य है कि हिन्दुत्व को जड़मूल से उखाड़कर उसके स्थान पर दूसरा मत थोपना। तो २०१४ के बीतते बीतते यह सवाल तो देश के सामने आ ही खड़ा हुआ है कि २०१४ का सत्ता परिवर्तन सिर्फ पूर्ण बहुमत की सरकार का बनना या काग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलो के हाशिये पर चले जाना महज चुनावी हार नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के भीतर जो विपन्नता है, उसे धर्म और सास्कृतिक विपन्नता के तौर पर देखने का वक्त आ गया है। क्योंकि मौजूदा सरकार संघ परिवार से निकली राजनीतिक ताकत है। और संघ परिवार के भीतर उसी वक्त वह सारे सवाल गूंज रहे हैं, जिस पर आजादी के
बाद से हर सियसत ने मौन धारण किया। राजनीति ने जरुरी नहीं समझा और खुद बीजेपी या नरेन्द्र मोदी ने भी विकास के जिस चेहरे को सामने रखा वह उसी आवारा पूंजी के ही आसरे है जिसमें कालेधन की उपज खूब होगी। समाज में विषमता खूब बढ़ेगी। अपराध या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने का मतलब सिर्फ कमजोर को दबाना होगा। ताकतवर के लिये कहा यही जायेगा कि न्याय अपना काम कर रहा है । यानी सत्ता पाना और सत्ता को अपने अनुकुल बनाने की समझ से लेकर सत्ता गंवानी ना पड़े इसके लिये नीतियों को पोटली ही सुशासन को परिभाषित करेगी।
लेकिन इसी दौर में जिस विचारधारा की गूंज राजनीति में होने लगे या सत्ता में जो धारा सबसे ज्यादा ताकतवर हो चली हो अगर उसके भीतर यह सवाल कुलबुला रहे हों कि आजादी के वक्त बडी तादाद में हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। उस वक्त राम, श्रीकृष्ण, हरेराम, सीताराम सरीखे हिन्दु शब्द लोगों ने हड्डियो तक गुदवा लिये। ताकि हिन्दु धर्म ना छूटे। तब डर था। भय था । लेकिन सत्ता सियासी रोटिंया ही सेंकती रही। आजादी के पहले से और सत्तर के दशक के आते आते तो ग्रामीण-आदिवासियों को झुंड में ईसाई बनाया गया। सरकारे गांव तक पहुंच नहीं पायी तो ग्रामीण पिछड़े इलाकों में ईसाई मिशनरियों की दस्तक हुई। स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा और रोजगार के लेकर भूख मिटाने के रास्ते गिरजाघर से निकलने लगे। तब डर या भय नहीं फेल होते राज्य में दो जून की रोटी और राहत का सवाल था। हर्षोउल्लास के बीच खुलेआम धर्म परिवर्तन का जो दौर सत्तर के दशक में शुरु हुआ वह नब्बे के दौर तक रहा।
लेकिन कभी कोई सवाल धर्म परिवर्तन को लेकर नहीं उठा। तो फिर अब क्यो। यह तर्क और यह सवाल अगर समूचे संघ परिवार की जुबां पर है तो फिर सवालो की इस आंधी में चुनावी लोकतंत्र कोई रास्ता खोजेगी या उसका इंतजार होगा या फिर आने वाले वक्त सत्ता विकास की सोच को पलटने के लिये मजबूर होगी जहां रामराज्य का सपना देखना होगा। मौजूदा सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार नहीं है, जब बहुमत ना आ पाने कास दर्द हो और सत्ता में बने रहने की चाहत तले रामराज्य भी राजनीतिक सपने में तब्दील किया जा सके। बल्कि २०१४ में तो बहुमत वाली। आरएसएस की विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने वाली। रामराज्य को सपने को असल जिन्दगी में उतारने की ट्रेनिग पायी स्वयंसेवकों की सरकार है। और यह सपने कैसे छोड़े जा सकते है या फिर जिस धर्म या जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दायरे में ही समूची शिक्षा बीते ९० बरस से पढी जाती रही हो। या कहें पढायी जाती रही हो। उसे मौजूदा वक्त में ना उठाये तो उसका विस्तार होगा कैसे। वैसे भी राजनीतिक तौर पर जब २०१४ के सत्ता परिवर्तन से पहले संघ परिवार को तात्कालीन सत्ता ने ही आंतक के कटघरे में खडा करने में कोताही नही बरती तो फिर अब तो उसकी विचारधारा वाली सरकार है। और इस वक्त भी खामोश रहे तो सरकारो को बदलने या सत्ता परिवर्तन पर ही संघ परिवार की व्याख्या हमेशा होती रहेगी। क्या इस सोच को तोड़ा जा सकता है कि सत्ता में कोई भी रहे कांग्रेस या बीजेपी दोनो हालात में हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना ही आदर्श सोच हो सकती है। दरअसल यह सवाल स्वयंसेवकों के हैं कि सत्ता बदलने से अगर संघ परिवार के प्रति देश का नजरिया बदलता है तो फिर राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने की जरुरत है। शायद इसीलिये मोदी सरकार को कोई परेशानी ना हो या वोटर यह ना सोचने लगे कि एक खास नजरिये से देश को हांका जा रहा है इसलिये संघ परिवार के चालिस से ज्यादा संगठन अपने अपने क्षेत्र में विचारधारा के तहत काम करते रहेंगे। लेकिन पहली बार संघ परिवार को के भीतर यह सवाल बड़े होने लगे हैं कि कांग्रेस की तर्ज पर विकास का मतलब विकास की अंधी गली नही होनी चाहिये। यानी सरकार की नीतियां सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के बहुसंख्यक तबके को प्रभावित करें। यानी सिर्फ मोदी सरकार की नीतिया मनमोहन सरकार से इतर है। यह काफी नहीं है बल्कि जिस सामाजिक शुद्दीकरण का सवाल आरएसएस उठाता रहा है उस लकीर पर सरकार खुद चले। यानी अनुशासन और ईमानदारी होनी चाहिये। लेकिन मोदी सरकार के विकास के सपने तले अगर अनुशासन का मतलब बाबूओं के सुबह बिना देरी
नौ बजे दफ्तर पहुंचने से हो या इमानदारी का मतलब नेता-मंत्री के चार्टेड में सफर ना करने से हो या फिर घूस लेते मंत्रियों के बेटों को पार्टी फंड में घूस की रकम जमा रकाने से हो तो संकेत साफ है कि पहली बार संघ की
विचारधारा का पाठ पढने वालों के ही शुद्दीकरण की जरुरत आ पड़ी है।
ऐसे में चुनाव से पहले भ्रष्टाचार के दल दल में मनमोहन सरकार के जो सवाल नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे या देश के करोडों युवाओं को उपभोक्ता बनाने के जो सपने पैदा कर रहे थे, वह संघ की विचारधारा के सामने अगर अब टकराते हुये दिखायी दे रहे हैं तो इसका मतलब क्या निकाला जाये। क्या २०१४ के चुनाव के दौर में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर सक्रिय इसलिये हुआ क्योकि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी तमाम भी विकास की उन्हीं अनकही लकीरों को खींच सके जो अभी तक कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दल खींचते आ रहे थे। क्योंकि सवाल वोटरों को एक छत तले लाने का था। या फिर विकास की अंधी गली के असल नुमाइन्दों [कारपोरेट और उघोगपति] को यह भरोसा दिलाया सके की राजनीतिक सत्ता के जरीये बीजेपी भी उनका हित साध सकती है। यानी पूंजीपति यह ना सोचे की हिन्दुत्व की धारा सत्ता में आने के बाद उसका ही बंटाधार कर देगी । हो जो भी अब सवाल उस टकराव का है जहा ग्रामीण आदिवासी इलाकों में विकास होना है। न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने के साथ साथ बड़े बड़े उघोग लगाने हैं। थके-हारे गांवों को स्मार्ट गांव में बदलना है। धर्म से आगे दो जून
की रोटी की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी है। जिससे कोई भी छोटी मोटी सुविधा के नाम पर संख्याबल जोडकर यह ना कहे कि उसके धर्म के लोगों को धर्मानुसार ही विकास करना है या धर्मानुसार सरकारें काम कर रही है और उन पर ध्यान नहीं दे रही है। मोदी सरकार को तो विकास के लिये देश की खनिज संपदा से लेकर भूमि अधिग्रहण के वैसे रास्ते खोलने ही होंगे जो कॉरपोरेट को धर्म की दुकान से बड़ा कर दें। जो विकास की अनूठी लकीर में भारत के बाजार और उपभोक्ताओ को चकाचौंध कर दें। दरअसल, संघ के स्वयंसेवकों के पाठ से यह बिलकुल उलट है। लेकिन बीजेपी सरकार बिना संघ परिवार की सक्रियता के बन नहीं सकती। और संघ की सक्रियता अगर सरकार बना सकती है तो फिर सरकार को नायक होने का सपना दिकाकर अपनी विचारधारा को नीतियों में क्यो नहीं बदल सकती। इसलिये धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण होता है यह कहने में उसे कोई हिचक नहीं है। घरवापसी से देश धर्म से जुड़ता है, यह कहने में उसे कोई परेशानी नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि सरकार और संघ के रास्ते एक सरीखे दिखेंगे कब या संघ के रास्तों के बीच चुनावी रास्ते अंडगा डालेंगे कब। और दोनो का असर होगा क्या। दरअसल २०१५ संघ के इन्हीं रास्तों की प्रयोगशाला है। जिस पर मोदी सरकार को चलना है या नहीं। इस पर मुहर उसी जनता को लगाना है जो एक तरफ विदेशी पूंजी पर टिके विकास के नारों को नकार रही है, तो दूसरी तरफ प्रचीन भारत के गौरवमयी क्षणों में रामराज्य का सपनों को
सुनते-देखते हुये थक चुकी है।
Tuesday, December 30, 2014
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विकास की अंधी गली या रामराज्य का अनूठा सपना ? |
Friday, December 26, 2014
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अब दिल्ली की बारी ! |
सपने जगाने वाली सियासत से बचायेगा कौन ?
सपने विकास के जागे रुबरु गोडसे से लेकर धर्मांतरण से होना पड़ा। सपने भ्रष्टाचार और बाप बेटे की सरकार के खिलाफ जागे रुबरु घोटले की जांच में फंसे रघुवर दास और उमर अब्दुल्ला तक से होना पड़ रहा है। सपने दामाद के खिलाफ जागे तो सरकारी फाइल ने ही धोखा दे दिया। सपने मुंबई में वसूली करने वालों के खिलाफ जागे तो रुबरु वसूली करने वालो के साथ सरकार बनाने और बचाने के खेल से होना पड़ा। अब सपने दिल्ली पर आ टिके हैं क्योंकि पाश कह गये हैं सपनों का मरना सबसे खतरनाक होता है। तो दिल्ली से दिल्ली तक के सपने का इंतजार फिर से जाग रहा है। क्योंकि बदलाव का सपना सबसे पहले दिल्ली ने ही देखा। और २०१३ में सपने को पूरा भी किया। और उसके बाद २०१४ की हवा में बदलाव का सपना कुछ इस तरह उड़ान भरने लगा कि केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर तक की तो सियासत पलट गई। हर जगह कांग्रेस सत्ता में थी और हर जगह अब बीजेपी की सत्ता है या बननी वाली है। कांग्रेस हर जगह बूरी तरह पिटी। और हर जगह भगवा खूब लहराया। अब याद कीजिये तो बदलाव की पहली नींव दिल्ली में ही पड़ी थी और वह साल २०१४ नहीं बल्कि २०१३ था। और जिस कांग्रेस का सूपड़ा साफ जनता ने किया, उसी जनता ने पहला पत्थर कांग्रेस के खिलाफ दिल्ली में ही उठाया। हैट्रिक बनाने वाली शीला दीक्षित दिल्ली में ना सिर्फ खुद हारी बल्कि दिल्ली के इतिहास में कांग्रेस की सबसे बूरी गत दिल्ली ने देखी और कांग्रेस को दिखायी। और उसके बाद का सिलसिला तो मोदी-मोदी के नारो में जिस तेजी से चुनाव में घुमा उसने अर्से बाद देश के तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि कल तक की बीजेपी के गागर में वोटो का सागर यूं ही नहीं समा रहा है। बल्कि किसी पार्टी का कोई चेहरा ऐसा बचा ही नहीं है जिसके आसरे सपने भी पाले जा सकें। तो २०१४ के बीतते ही पहला सवाल हर किसी के जहन में यही आयेगा कि जिस दिल्ली ने काग्रेस की जमी जमायी १५ बरस की सत्ता को उखाड़ फेंका, क्या वही दिल्ली एक बार फिर दिल्ली के तख्त तले दिल्ली सरीखे केन्द्र शासित राज्य के जरीये ही कोई नया सपना दिखा सकती है। या फिर मोदी मोदी की गूंज दिल्ली को भी हड़प लेगी। दिल्ली के सपनों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या साल भर के भीतर दिल्ली के नये सपने मोदी के सपनों को चुनौती दे सकते हैं। या फिर देश के साथ कदमताल करने के लिये दिल्ली तैयार है। देश के साथ कदमताल का मतलब मोदी सरकार है। और नये पैगाम का मतलब मोदी सरकार का विकल्प है।
वैसे बिहार चुनाव से पहले मोदी सरकार का चुनावी विकल्प बनने की तैयारी में जनता परिवार भी खूद को धारदार बना रहा है। लेकिन दिल्ली का सवाल चुनावी विकल्प बनना या बनाना नहीं बल्कि विकास के नाम पर धारदार होती सत्ता को सामाजिक-आर्थिक बिसात पर चुनौती देना और सत्ता में सिमटती जनता की मजबूरी को मुक्त कराना है। यह सवाल दिल्ली के चुनाव में कैसे उठ सकता है या इसे कौन उठा सकता है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन दिल्ली चुनाव का दूसरा मतलब शायद चुनावी प्रबंधन का विकल्प बनान भी हो चला है। जाहिर है ऐसे मोड़ पर दिल्ली के पन्नों को पलटें तो १४ फरवरी २०१४ के बाद तीन महीने तक दिल्ली में हारी कांग्रेस की अगुवाई में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने ही सत्ता संभाली और बीते सात महीनों से बीजेपी की अगुवाई में वही उप-राज्यपाल नजीब जंग ही दिल्ली को चला रहे हैं। यानी जिस शीला दीक्षित के विकास की अंधेरी गली को दिल्ली वालों ने पलट दिया उस दिल्ली वालों के सामने २८ दिसंबर २०१३ से १४ फरवरी २०१४ के बाद अपने दर्द का जिक्र करने वाला आया ही नहीं। और इसी दौर में देश के सारे चुनावी पर्दे बदल गये। तो दिल्ली का मतलब है क्या और होगा क्या।
दरअसल शीला दीक्षित दिल्ली में इसलिये नहीं हारी कि उन्होंने विकास नहीं किया। बल्कि हारीं इसलिये क्योंकि केन्द्र की मनमोहन सरकार के घपले घोटालों की फेरहिस्त के बीच अन्ना आंदोलन ने पहली बार देश के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि सत्ता का मतलब ताकत या राजा बनना नहीं होता। और उसी दौर में जनता ने जैसे ही अन्ना के चश्मे से संसद और सत्ता को देखना शुरु किया तो उसे लगा कि उसकी ताकत तो लोकतंत्र की चौखट पर सत्ता से भीख मांगने के अलावे कुछ है ही नहीं। आंदोलन की सबसे बडी ताकत सत्ताधारियों को सेवक मानने और खुले तौर पर कहने की सोच से उभरी। सत्ता पाना और सरकार चलाने के रुतबे में कांग्रेसियो की आंखें फिर भी ना खुली कि सत्ता उनका जन्मसिद्द अधिकार नहीं है। और सत्ता पाने के लिये लालयित बीजेपी भी कमोवेश उसी अंदाज में निकलना चाह रही थी कि कांग्रेस के बाद सत्ता पाना तो उसका अधिकार है। ध्यान दें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने २०१३ में सत्ता की बात कभी कही ही नहीं और उसी दौर में दिल्ली के तख्तोताज पर नजर जमाये नरेन्द्र मोदी को भी इसका एहसास हुआ कि सत्ता पाने के लिये सत्ता की जगह सेवक होकर चुनाव जीतना ज्यादा आसान है। और दोनों जगहों पर परिवर्तन या सत्ता पलटने में जनता ने सपना देखा कि सत्ताधारी सेवक हो चला है तो साथ सेवक का ही दिया। अपने अपने घेरे में सपने दोनों ने जगाये। केजरीवाल के सपने सत्ता के तौर तरीके बदलकर सत्ता चलाने के थे। नरेन्द्र मोदी के सपने सुविधाओं का पिटारा खोलने वाले रहे। केजरीवाल जनता को भागीदार बनाकर राजा-प्रजा की लकीर को खत्म करने का सपना दिखा रहे थे। मोदी राजा बनकर रात रात भर जाग कर जनता का हित साधने का सपना पैदा कर रहे थे।
केजरीवाल जनता में यह भरोसा जता रहे थे कि सत्ताधारियों को भी सड़क का सिपाही बनाकर रात रात भर खड़ा किया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सत्ताधारियों में अनुशासन और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का वायदा कर जनता को भरोसे में लेते रहे। केजरीवाल भूखे पेट रहकर सत्ता के संघर्ष को जनता से जोड़ने का सपना पाले रहे। और मोदी हर क्षण जनता के दर्द के साथ जुड़कर सत्ता की जमीन और छत दोनो दिलाने के सपने जगाते रहे। दोनों के निशाने पर भ्रष्टाचार था। दोनों की निगाहों में ईमानदारी थी। दोनों ने खुद को पाक साफ साबित करने के लिये सत्ताधारियों को ही निशाने पर लिया। केजरीवाल ने मनमोहन सरकार के कैबिनेट मंत्रियों के भ्रष्टाचार के अनकहे किस्सों से लेकर क्रोनी कैपटलिज्म की अनकही कहानियों को ही सार्वजिक कर कानून चलाने वालो पर चोट कर दी। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की जगह गांधी परिवार और दामाद पर सीधा हमला कर आम जनता की उस नब्ज को छुने की कोशिश की जहां रंक साजा से टकराने की हिम्मत करता हुआ दिखायी थे। दोनों ही अपने अपने घेरे में खूब सफल हुये । और दोनो ने ही देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को ही हराया। लेकिन अब ना तो २०१३ है ना ही २०१४ । अब २०१५ शुरु हो रहा है और संयोग से दिल्ली में टकराना इन्हीं दोनों को है। कांग्रेस नहीं है। गांधी परिवार के अनकहे किस्से नहीं है। भ्रष्ट मंत्रियों की फेहरिस्त नहीं है। राजनीतिक प्रयोग की नयी बिसात है। सपनों को जगाने का जमावड़ा है। चुनाव कैसे जीता जाता है इसकी खुली प्रयोगशाला पार्टी संगठन के नायाब प्रयोग है। हर वोटर के घर तक पहुंचने की ख्वाहिश है। हर वोटर के दिल में सपनों को जगाने की चाहत है और सत्ता हर हाल में मिल जाये इसके लिये सेवको की कतार है। तो फिर दिल्ली के सपने होंगे क्या। क्या सबसे बड़ा सपना यही हो चला है कि दिल्ली में २०१३ की सियासी टकराव की धारा २०१५ में तीन सौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वही आ खड़ी हुई है , जहां उसे नये सपने जगाने होंगे। व्यवस्था बदलने की ठाननी होगी। दूरियां बढाती बाजार व्यवस्था को थामना होगा। विकास के सपने तले जिन्दगी की त्रासदियों के सच को समझना होगा। दो जून की रोटी के लिये संघर्ष और जमा
देने वाली ठंड में बिन छत जीने की मजबूरी वाले हालात किसने खड़े किये उस सियासत से भी टकराना होगा। हक के सवाल सत्ता से बडे होते है, यह मानना होगा। यानी चुनावी बिसात सामूहिकता के संघर्ष का बोध भर ना कराये। वोट के लिये मारा-मारी जिन्दगी सुकुन बनाने के पैकेज पर ना टिके। चुनावी जीत के बाद की सत्ता चंद हाथो के जरीये सपने पूरा करने वाले एहसास पर ना टिके इसके लिये दिल्ली को तैयार होना ही होगा।
लेकिन यह संभव कैसे है। एक तरफ केन्द्र सरकार अगर खुद को चुनाव जीतने के कारखाने में बदल लेने पर आमादा हो और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी अब चुनाव जीतने की कवायद में खुद को प्रोफेशनल बनाने पर तुली है। तो फिर वह सपने कैसे जागेंगे जिसमें जिक्र स्वराज का होना है। जहां रोजगार और विकास के सपने नहीं चाहिये बल्कि मौजूदा व्यवस्था के तौर तरीको को बदलते हुये राज्य को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठते कदम हो। बिजली-पानी की कीमत वसूली या सडक टैक्स किसी कारपोरेट के मुनाफे से ना जुड़ें। सुशासन का मतलब नौकरशाही की सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक नौकरी भर ना हो। विकास का मतलब किसी भी नीतियों के लागू करने का एलान भर ना हो। योजनाओं को लेकर ब्लू प्रिंट के बगैर देश को बदलने का सपना जगाने का ना हो। हर हाल में चकाचौंध का सपना और सूचना क्रांति के जरीये ज्यादा ज्यादा से माध्यमों से सिर्फ अपनी बात हर किसी के कानों में गूंजाने भर का ना हो। लूटियन्स की दिल्ली में ही नये बरस के जश्न में दिल्ली के पकवानों को बेचने और खाने वालो के बीच फेका हुआ झूठन चुन चुन कर खाने की जद्दोजहद करते लोगो की तरफ आंख मूंद कर अपनी गरम जेब टटोलने भर का ना हो। असल में २०१५ का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहाने वाले जीत के दो नायकों के सपनो का नहीं होना चाहिये बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखाने वाला होना चाहिये। जिसकी उम्मीद की जाये या यह मान कर चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिये दूसरे को जीता दें। और फिर कल कोई दूसरा उड़ान भरे तो उसके पर कतरने के लिये वोट बैंक का आसरा ले लिया जाये। सियासत के ऐसे चुनावी प्रयोग ही बीते साठ बरस का सच है। जनता ऐसे सपनो को देखते देखते थक चुकी है। इसलिये मनाइये कि २०१५ में दिल्ली सरीखा छोटा सा राज्य ही कोई राह दिखा दे तो लोकतंत्र की जय कहा जाये। विदेशी पूंजी और चोखे कारपोरेट के आसरे दिल्ली ना चले बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य , पानी, सफर और छत मुहैया कराने के जिम्मेदारी खुद राज्य ले लें तो ही सपने जागेंगे। नहीं तो फिर सपने टूटेंगे। २०१३-२०१४ का भरोसा डिगेगा और जनता का गुस्सा फिर किसी आंदोलन के इंतजार में लोकतंत्र को नये सिरे से जीने का इंतजार करेगा । हो सकता है फिर वहां से कोई नायक निकले जो कहे सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। और देश फिर सपनों की उड़ान भरने लगें।
Wednesday, December 24, 2014
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'भारत रत्न' के एलान से राजधर्म का कर्ज उतर गया ! |
"मेरा एक ही संदेश है कि राजधर्म का पालन करें। राजधर्म....। यह शब्द काफी सार्थक है। मै इसी का पालन कर रहा हूं। पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिये शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता। ना जन्म के आधार पर ना जाति के आधार पर ना संप्रदाय के आधार पर। [ हम भी वही कर रहे हैं साहेब] मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई भी यही करेंगे।"
राजधर्म शब्द भी सियासी कटघरा हो जायेगा, यह न तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने बोलते वक्त सोचा होगा ना ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि २००२ से २०१२ तक राजधर्म के कटघरे में बार बार उन्हें आजमाने की कोशिश होगी। बारस बरस पहले वाजपेयी के सिर्फ साठ सेकेंड के इस वक्तव्य ने नरेन्द्र मोदी के सामने राजधर्म का इम्तिहान बार बार रखा। और हर बार गुजरात चुनाव जीतने के बाद भी राजधर्म शब्द ने २०१२ तक मोदी का पीछा भी नहीं छोड़ा। और दस बरस तक यह ऐसा सवाल बना रहा जो बार बार वाजपेयी और मोदी के नाम का एकसाथ जिक्र होते ही हर जुबा पर बरबस आया ही। संयोग देखिये जैसे ही बुधवार की सुबह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने का ऐलान हुआ, वैसे ही राजनीतिक गलियारे में पहला शब्द यही गूंजा कि चलो राजधर्म का कर्ज आज उतर गया। लेकिन भारत रत्न के एलान के साथ ही मोदी के लिये कहे गये राजधर्म शब्द का दायरा भी बड़ा हो गया और २००२ में जिस राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुये वाजपेयी जी यह बोलते बोलते बोल गये थे कि, ‘मैं भी राजधर्म का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं।’तो भारत रत्न वाजपेयी के राजधर्म को भी समझना जरुरी है, जिन्हें संसद के भीतर पहली बार बोलते हुये सुनने के बाद १९५९ में नेहरु भी यह कहने से नहीं चुके थे कि यह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा गांधी ने भी जिस वाजपेयी को सराहा और आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई सरकार की कश्मकश से आहत जेपी से पटना मिलने गये जिस वाजपेयी ने पत्रकारों को मुहावरे में जबाब देकर मोरारजी देसाई सरकार के बारे में सबकुछ कह दिया और जेपी भी वाजपेयी की साफगोई पर खुश हुये बिना ना रह सके वह मुहावरे वाला बयान था, उधर कुंड, इधर कुंआ बीच में धुआं ही धुआं। [ दरअसल उस वक्त सूरज कुंड और पटना में जेपी के घर कदम कुआं के बीच मोरारजी सरकार झूल रही थी ] यूं वाजपेयी पर तो वीपी और चन्द्रशेखर भी तब मुरीद हुये जब आडवानी की रथयात्रा के दौर में वाजपेयी विदेश यात्रा पर निकल गये। लेकिन राजधर्म के दायरे में वाजपेयी का असली इम्तिहान तो अयोध्या कांड के वक्त हुआ। ५ दिसंबर १९९२ को वाजपेयी के भाषण ने राजधर्म की लकीर पर चलने वाले वाजपेयी को अयोध्या में धर्मराज के तौर पर देखा समझा। वाजपेयी ने १५ मिनट के भाषण में जो कहा वह २००२ के राजधर्म पर भारी था। हजारों हजार कारसेवकों को संबोधित करते हुये वाजपेयी बोले,
‘सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिया है उसका अर्थ मै बताता हूं। वो कारसेवा रोकना नहीं है। सचमूच में सुप्रीम कोर्ट ने हमे अधिकार दिया है कि हम कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही पैदा नहीं है। कल कारसेवा
करके अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय की अवहेलना नहीं होगी। कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का सम्मान किया जायेगा। ये ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक अदालत में वकीलों की बेंच फैासला नहीं करती आपको निर्माण का काम बंद रखना पड़ेगा। मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आप भजन कर सकते हैं। कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है। और कीर्तन के लिये तो और भी लोगो की आवश्यक्ता होती है। और भजन कीर्तन खड़े खड़े तो हो नहीं सकता। कब तक खड़े रहेंगे। वहां नुकीले पत्थर निकलते हैं तो उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता। तो जमीन को समतल करना होगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।’
जाहिर है राजधर्म के यह सवाल अब इतिहास के पन्नों में खो गये से लगे। लेकिन देश भी तो बनते बनते बनता है। और आजादी के ६७ बरस के दौर में भारत रत्न समयकाल से तो कम ही मिले। ६७ बरस में ४५ भारत रत्न। और राजधर्म का सवाल तो इसलिये भी बड़ा है क्योकि राजनेताओं ने खुद को ही भारत रत्न माना। सबसे पहले तो नेहरु ने ही खुद को १९५५ में भारत रत्न से नवाज दिया। इस लीक पर इंदिरा गांधी भी
चली और १९७१ में उन्होने भी खुद को भारत रत्न के सम्मान से नवाजे जाने में कोताही नहीं बरती। वैसे इस राह पर राजीव गांधी तो नहीं चले लेकिन राजीव गांधी की मौत से निकली कांग्रेसी सत्ता की कमान थामे पीवी नरसिंह राव ने पीएम बनते ही राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करार दिया। यूं पीवी नर्सिमह राव ने हिम्मत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी भारत रत्न देने के ऐलान के साथ दिखायी। लेकिन नेताजी का मामला विवादों में घिर गया । क्योंकि नेताजी के अधिकांश अनुयायी यह मानते है कि उनकी मृत्यु की कथा मनगढंत और संदेहास्पद है। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया। और एक बहुत बड़े वर्ग को ध्यान में रखकर इसे ४ अगस्त १९९७ को रद्द भी कर दिया गया। लेकिन तब भाजपा ने मुद्दा उठाया कि नेताजी की मौत से जुड़ी सारी फाइलें सार्वजनिक की जायें। लेकिन नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने की हिम्मत ना तो वाजपेयी ने दिखायी ना ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिखा पा रहे हैं। और राजधर्म राजा बनते ही हर किसी से कई मुद्दो पर चूका। लेकिन १३ दिन और १३ महीने की सरकार गंवाने के बाद जब तीसरी बार वाजपेयी राजा बने तो संसद में यह कहने से नहीं चूके कि बहुमत होता तो राम मंदिर, धारा ३७० और कॉमन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में नहीं डालते।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के बाद जवाब देते हुये वाजपेयी ने खुले तौर पर कहा,
"राम मंदिर के निर्माण का जिक्र नहीं है। धारा ३७० को खत्म करने का जिक्र नहीं है। कामन सिविल कोड का जिक्र नहीं है। आपने तो स्वदेशी का भी परित्याग कर दिया। और यह बातें इस तरह कहीं गई जैसे इस बात को कहने वाले बेहद दुखी हैं । वो तो इन बातो की आलोचना करते रहे। हमें इसलिये दोषी ठहराते रहे कि हम राममंदिर बनान चाहते हैं। ३७० खत्म करने की बात कह रहे हैं। तो हम देश की एकता कैसे कायम रखेंगे। शादी ब्याह का सामान कानून भले ही संविधान में लिखा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मोहर लगायी है। आप कैसे कह सकते हो । और आप कहेंगे तो आप देश को तोड़ देंगे। और अगर हम कहते है कि कि यह सारे कार्यक्रम नहीं है। तो यह इसलिये नहीं है क्योंकि हमें बहुमत नहीं है । हमने कुछ छुपने छुपाने की बात नहीं की। हम बहुमत के लिये लड़ रहे हैं। जो जनमत मिला उसने आपको अस्वीकार कर दिया। हमे भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। हम तो बहुमत चाहते थे।"
तो वाजपेयी के राजधर्म के अक्स में भाजपा तो आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है । फिर विकास के दायरे में दिल के मुद्दे सत्ता के लिये खामोश है या फिर दिल बदल गया है क्योंकि देश बदल रहा है। लेकिन राजधर्म तो राजधर्म ही होता है। और राजधर्म निभाते हुये किसी राजा की घर वापसी नहीं होती। ना तो २००२ के राजधर्म की परिभाषा बदली और ना ही राजधर्म निभाने का प्रयास करते वाजपेयी के कथन की भाषा बदली है कि शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं होता । ना जाति के आधार पर । ना जन्म के आधार पर । ना संप्रदाय के आधार पर । शायद इसीलिये वाजपेयी को भारत रत्न के एलान ने राजधर्म के सियासी कटघरे के बारह बरस के वनवास को खत्म कर दिया।
Tuesday, December 23, 2014
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डल लेक में बेमौसम कमल खिलाकर जम्मू ने सियासत उलट दी ! |
चुनावी लोकतंत्र फेल हुआ तो बंदूक थामी। सिस्टम को लेकर गुस्सा चरम पर पहुंचा तो पत्थर उठाया। और जिन्दगी जीने की जरुरतो ने सपनों को जगाया तो वोट डाल कर अंगुली पर लोकतंत्र के उसी चिन्ह से एक ऐसी सियासी लकीर खींच दी, जिसे दिल्ली चाहकर भी भूल नहीं सकती है। क्योंकि वोट से परिवर्तन का सपना तो 1987 के बाद से ही कश्मीरी भूल चुका था। तब दिल्ली की सत्ता ने लोकतंत्र चुरा लिया था। उस वक्त दिल्ली का मतलब कांग्रेस था। और कांग्रेस पर चुनाव चोरी का आरोप कश्मीरी लगाते थे। लेकिन अब दिल्ली का मतलब बीजेपी है। और बीजेपी ने लोकतंत्र को जीने का मंत्र विकास का नारा लगाकर दिया। कश्मीरियों में भी चुनावी सपने जागे और दिल्ली की सत्ता ने भी माना कि 1987 के बाद पहली बार कश्मीरी लोकतंत्र को जीने के लिये चुनावी मैदान में उतरा। बुलेट छोड़ बैलेट को हथियारे बनाने उतरा। सैलाब के जख्मों पर बिना मलहम लगाये और जमा देने वाली ठंड को सहते हुये बिना बंदूक-पत्थर के वोट डालने निकला। संकेत साफ दिखे कश्मीर बदल रहा है।
लेकिन चुनावी परिणामों ने लोकतंत्र की चैौखट पर जीत का सेहरा बांधे दिल्ली की सत्ता को कही बड़ा दर्द दे दिया। क्योंकि आजादी के बाद से कश्मीर को अपने मुताबिक परिभाषा देने की जो सोच जनसंघ ने पाली और श्यामाप्रासद मुखर्जी ने जान गंवा दी उसी सोच की सियासी लकीर खिंचने का सवाल दिल्ली की सत्ता ने जैसे
ही इक्सठ बरस बाद उठाया, वैसे ही कश्मीरियों ने उसी हथियार से दिल्ली को नकार दिया जिस हथियार के आसरे पहली बार बीजेपी सत्ता बनाने की चौखट पर जा पहुंची हैं। गजब की सियासी पारदर्शिता जम्मू-कश्मीर ने दिखायी। 1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू से श्रीनगर जाने के लिये निकले तो परमिट सिस्टम सवाल उठाये। कश्मीर जाने के लिये जिस पहचान पत्र की जरुरत पड़ती थी, उसके खिलाफ आवाज उठायी। और यह सवाल उठाया कि अपने ही देश में पहचान पत्र का मतलब क्या है। जाहिर है आज की तारीख में कश्मीर जाने के लिये कोई पहचान पत्र नहीं चाहिये लेकिन धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा कश्मीर को 1953 में मिल चुका था उसी धारा 370 को लेकर तब आवाज श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में जनसंघ. हिन्दु महासभा और रामराज्य परिषद ने उठायी थी। उसी आवाज को नये तरीके से दिल्ली की सत्ता ने 2014 में उठाया। इस आवाज के खिलाफ कश्मीरी बंदूक उठाता तो मारा जाता, पत्थर उठाता तो भी वही घायल होता लेकिन लोकतंत्र के पैमाने पर जैसे ही उसने वोट के जरीये सवालों को उठाया वैसे चुनाव परिणाम ने भी एक नयी इमानदार परिभाषा जम्मू-कश्मीर को लेकर लिख डाली। पहली बार जम्मू ने अपनी ताकत से नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी में बंटे कश्मीर को इसका एहसास कराया कि सियासी ताकत एकजुटता से मिलती है और डल लेक में चाहे एक भी कमल ना खिला हो लेकिन बेमौसम कमल को कश्मीर के डल में जम्मू खिला सकता है। कमल के फूल को कश्मीर में पंपोश कहते है। और जैसे घाटी डल लेक के बगैर अधूरी है। वैसे ही डल लेक पंपोश यानी कमल के फूल के बगैर अधूरा है। और पंपोश दिसबंर में नहीं अप्रैल से अक्टूबर तक खूब होता है। लेकिन पंपोश का प्रयोग कमल के फूल से कहीं ज्यादा पंबोश के तौर पर होता है। पंबोश कमल के फूल के नीचे की डाली को कहते है जिसे दिल्ली में कमल ककडी के तौर पर जाना जाता है। और इसकी सब्जी बेहद स्वादिष्ट बनती है। यानी सियासी तौर पर जो कमल डल लेक में नहीं खिला वही कमल जम्मू में कुछ इस तरह खिला जिसने कश्मीर की सियासत को डिगा दिया।
तो घाटी के सियासी बिसात पर अब तीन सवाल है। पहला, क्या पहली बार जम्मू के आसरे अब कश्मीर की सियासत को चलना होगा। दूसरा , क्या कश्मीर में आजादी का सवाल अब और तीखा तो नहीं हो जायेगा। तीसरा , धारा 370 के सवाल को बीजेपी जम्मू-कश्मीर की सियासत साध कर नये सिरे से परिभाषित करना चाहेगी। जाहिर है यह तीनो सवाल उस कश्मीर के हक में नहीं है, जिसकी आवाज पीडीपी है। या फिर नेशनल कान्फ्रेंस के ऑटोनामी के सवाल के भी उलट है। और नेहरु की नीति को मान्यता देती कांग्रेस के भी खिलाफ है। तो क्या जम्मू-कश्मीर के पारदर्शी चुनाव परिणमो ने अर्से बाद एक ऐसी सियासी बिसात बिछा दी है जो कश्मीरियों में कश्मीरियत के हक को लेकर भी सपने जगा रही है और बीजेपी के उस सपने को भी हिलोर दे रही है जहा श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना टूटा था। इतना ही नहीं जम्मू के आसरे कश्मीर की सियासत को संसदीय राजनीति के जरीये बांधने की कोशिश बीजेपी की देशी राजनीति ही नहीं बल्कि सीमा पार की सियासत को भी पाठ पढ़ा सकती है। यानी सवाल सिर्फ धारा 370 या कश्मीरियत के अलगावबादी रुख को ठीक करने भर का नहीं है बल्कि सीमा पार से जो सवाल पाकिस्तानी सत्ता की शह पर लश्कर सरीखे संगठन और मुशर्रफ की जुबां से कश्मीर की आजादी के नारे के तौर पर निकलते रहे हैं, उस आंतक को भी जम्मू कश्मीर के चुनावी परिणाम आइना दिखा सकते हैं। सारे समीकरण बीजेपी के अनुकुल है और बीजेपी सत्ता पाने का यह मौका छोड़ेगी भी नहीं। क्योंकि चुनावी जीत के आंकड़े यह नहीं देखते कि बीजेपी के सवालों को घाटी इस हद तक खारिज कर रही है कि 2008 में मिले वोट से भी कम वोट इसबार बीजेपी को मिले । बल्कि आंकड़े यह देख रहे है कि बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा 23 फीसदी। चाहे वह सिर्फ जम्मू के ही क्यों ना हो। तो घाटी का रास्ता बंदूक से निकला नहीं। पत्थरों ने राहत दी नहीं। ऐसे में वोट का लोकतंत्र सियासी जख्मो पर मलहम लगा पायेगा या नहीं अब इम्तिहान इसी का है। क्योंकि जम्मू ने डल लेक में बैमौसम पंपोश यानी कमल के फूल खिला दिया है।
Friday, December 19, 2014
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धर्मांतरण पर संघ का पाठ पीएम कैसे पढें? |
घर वापसी सेक्यूलरिज्म की दृष्टि से बाधक नहीं है। हिन्दुत्व तो दर्शन और व्यवहार दोनों स्तर पर सर्वधर्म सम्भाव के सिद्दांत को लेकर चलता है। जिसका वेद के प्रसिद्द मंत्र," एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति " में सुदंर तरीके से उद्घोष भी है। इसलिये हिन्दुत्व को कभी भी अपनी संख्या वृद्दि के लिये धोखाधड़ी और जबरदस्ती का आश्रय लेना नहीं पड़ा है। धर्मांतरण को लेकर बहस के बीचे यह विचार आरएसएस के हैं और अगर प्रधानमंत्री मोदी को धर्मांतरण पर अपनी बात कहनी है तो फिर संघ के इस विचार से इतर वह कैसे कोई दूसरी व्याख्या धर्मांतरण को लेकर कर सकते हैं। यह वह सवाल है जो प्रधानमंत्री को राज्यसभा के हंगामे के बीच धर्मांतरण पर अपनी बात कहने से रोक रहा है। सवाल यह भी नहीं है कि धर्मांतरण को लेकर जो सोच आरएसएस की है वह प्रधानमंत्री मोदी राज्यसभा में कह नहीं सकते।
सवाल यह है कि हिन्दुत्व की छवि तोड़कर विकास की जो छवि प्रधानमंत्री मोदी लगातार बना रहे हैं, उसमें धर्मांतरण सरीके सवाल पर जबाब देने का मतलब अपनी ही छवि पर मठ्ठा डालने जैसा हो जायेगा। लेकिन यह भी पहली बार है कि धर्मांतरण के सवाल पर मोदी सरकार को मुश्किल हो रही है तो इससे बैचेनी आरएसएस में भी है। माना यही जा रहा है कि जो काम खामोशी से हो सकता है उसे हंगामे के साथ करने का विचार धर्म जागरण मंच में आया ही क्यों। क्योंकि मोदी सरकार को लेकर संघ की संवेदनशीलता कहीं ज्यादा है। यानी वाजपेयी सरकार के दौर में एक वक्त संघ रुठा भी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ खुलकर खड़ा भी हुआ। लेकिन मोदी सरकार को लेकर आरएसएस की उड़ान किस हद तक है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि सपनो के भारत को बनाने वाले नायक के तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी को सरसंघचालक मोहन भागवत लगातार देख रहे हैं और कह भी रहे हैं। हालांकि इन सबके बीच संघ परिवार के तमाम संगठनों को यह भी कहा गया है कि वह अपने मुद्दो पर नरम ना हों। यानी मजदूरों के हक के सवाल पर भारतीय मजदूर संघ लड़ता हुआ दिखेगा जरुर। एफडीआई के सवाल पर स्वदेशी जागरण मंच कुलबुलाता हुआ नजर जरुर आयेगा और घर वापसी को धर्मांतरण के तौर पर धर्म जागरण मंच नहीं देखेगा।
दरअसल धर्म जागरण मंच की आगरा यूनिट ने घर वापसी को ही जिस अंदाज में सबके सामने पेश किया, उसने तीन सवाल खड़े किये हैं। पहला क्या संघ के भीतर अब भी कई मठाधीशी चल रही हैं, जो मोदी सरकार के प्रतिकूल हैं। दूसरा क्या विहिप को खामोश कर जिस तरह जागरण मंच को उभारा गया, उससे विहिप खफा है और उसी की प्रतिक्रिया में आगरा कांड हो गया। और तीसरा क्या मोदी सरकार के अनुकुल संघ के तमाम संगठनों को मथने की तैयारी हो रही है, जिससे बहुतेरे सवाल मोदी सरकार के लिये मुश्किल पैदा कर रहे हैं। हो जो भी लेकिन संघ को जानने समझने वाले नागपुर के दिलिप देवधर का मानना है कि जब अपनी ही सरकार हो और अपने ही संगठन हो और दोनों में तालमेल ना हो तो संकेत साफ है कि संघ की कार्यपद्दति निचले स्तर तक जा नयी पायी है। यानी सरसंघचालक संघ की उस परंपरा को कार्यशैली के तौर पर अपना चाह रहे हैं, जिसका जिक्र गुरु गोलवरकर अक्सर किया करते थे , " संघ परिवार के संस्थाओं में आकाश तक उछाल आना चाहिये। लेकिन जब हम दक्ष बोलें तो सभी एक लाइन में खड़े हो जायें" । मौजूदा वक्त में मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच मुश्किल यह है कि दक्ष बोलते ही क्या वाकई सभी एक लाइन में खड़े हो पा रहे हैं। वैसे पहली बार आरएसएस की सक्रियता किस हद तक सरकार और पार्टी को नैतिकता के धागे में पिरोकर मजबूती के साथ खड़ा करना चाह रही है यह संघ परिवार के भीतर के परिवर्तनों से भी समझा जा सकता है। क्योंकि मोहन भागवत के बाद तीन स्तर पर कार्य हो रहा है। जिसमें भैयाजी जोशी संघ और सरकार के बीच नीतिगत फैसलो पर ध्यान दे रहे हैं तो सुरेश सोनी की जगह आये कृष्णगोपाल संघ और बीजेपी के बीच तालमेल बैठा रहे हैं। और दत्तात्रेय होसबोले संघ की कमान को मजबूत कर संगठन को बनाने में लगे हैं। यानी बारीकी से सरकार और संघ का काम आपसी तालमेल से चल रहा है।
ऐसे में धर्मांतरण के मुद्दे ने पहली बार संघ के बीच एक नया सवाल खड़ा किया है कि अगर संघ के विस्तार को लेकर कोई भी मुश्किल सरकार के सामने आती है तो फिर रास्ता निकालेगा कौन। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी विकास की जिस छवि के आसरे मजबूत हो रहे हैं, उसके दायरे में देश के वोटरों को बांटा नहीं जा सकता
और धर्मांतरण सरीखे मुद्दे पर अगर प्रधानमंत्री को जबाब देना पड़े तो फिर वोटरों का भी विभाजन जातीय तौर पर और धर्म के आधार पर होगा। यानी एक तरफ संघ का विस्तार भी हो और दूसरी तरफ बीजेपी को सत्ता भी हर राज्य में मिलते चले इसके लिये संघ और सरकार के बीच तालमेल ना सिर्फ गुरु गोलवरकर की सोच के मुताबिक होना चाहिये बल्कि प्रचारक से पीएम बने मोदी दोबारा प्रचारक की भूमिका में ना दिखायी दें, जरुरी यह भी है। यानी पूरे हफ्ते राज्यसभा जो प्रधानमंत्री के धर्मांतरण पर दो बात सुनने में ही स्वाहा हो गया और 18 दिसंबर को तो पीएम राज्यसभा में आकर भी धर्मांतरण के हंगामे के बीच कुछ ना बोले। तो सवाल पहली बार यही हो चला है कि धर्मांतऱण का सवाल कितना संवैधानिक है या कितना अंसवैधानिक है और दोनों हालातों के बीच घर वापसी पर अडिग संघ परिवार की लकीर इतनी मोटी है, जो सरकार को भी उसी लकीर पर चलने को बाध्य कर रही है। ऐसे में संघ का पाठ प्रधानमंत्री कैसे पढ़ सकता है। इसे विपक्ष समझ रहा है या नहीं लेकिन प्रचारक से पीएम बने मोदी जरुर समझ रहे हैं।
Tuesday, December 16, 2014
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16 मई के बाद कितना -कैसे बदला मीडिया पार्ट- 3 |
जन-आंकाक्षाओं तले मीडिया की बंधी पोटली के मायने
बीते सात महीनों में एक सवाल तो हर जहन में है कि देश में मोदी का राजनीतिक विक्लप है ही नहीं। यानी जनादेश के सात महीने बाद ही अगर मोदी सरकार की आलोचना करने की ताकत कांग्रेस में आयी है या क्षत्रपों को अपने अपने किले बचाने के लिये जनता परिवार का राग गाना पड़ रहा है तो भी प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प यह हो नहीं सकते। राहुल गांधी हो या क्षत्रपों के नायक मुलायम, नीतिश या लालू । कोई मोदी का विकल्प हो नही सकता है। क्योंकि सभी हारे हुये नायक तो हैं ही बल्कि जनादेश ने जो नयी आकांक्षायें देश में नये सीरे से जगायी है उसके सिरे को पकड़ने में यह तमाम चेहरे नाकामयाब हो रहे हैं। तो फिर विकल्प का सवाल भी सियासी राजनीति से गायब है। इसलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा हो या चुनावी प्रचार की रैली के लिये राज्यों का दौरा दोनो में कोई अंतर नजर आता नहीं। भाषण हो या फिर सियासत दोनों जगहों पर अंदाज एकसा भी नजर आता है और कभी न्यूयार्क तो कभी सिडनी की एऩआरआई रैली भी देश के चुनावी रैलियों का हिस्सा भाषण की किसासगोई में बन जाती है तो कभी देश की चुनावी रैली अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री की एनआरआई रैलियो में किस्सागोई की तर्ज पर उभर कर प्रधानमंत्री के कद को नये तरीके से गढ़ती हुई लगती है।
लेकिन सवाल है कि लोकप्रिय होने के मोदी के इस अंदाज को देश के सामाजिक-आर्थिक हालात के कटघरे में खड़े करने का साहस करते हुये भी कोई राजनीतिक दल या किसी राजनीतिक दल का कोई नेता उभर नहीं पाता है। ना उभरने या मोदी विरोध करते हुये ताकतवर दिखने से दूर तमाम नेता कमजोर दिखायी देते हैं। क्योंकि सभी ने अपनी साख सत्ता में रहते गंवायी है। तो फिर सत्ता के हर लडाई सिवाय निजी स्वार्थ से आगे किसी नेता की बढ़ भी नहीं पाती है। ऐसे में मीडिया इस राजनीति के सिरे को पकड़े या पूंछ को हाथ में मोदी की लोकप्रियता ही आयेगी और मीडिया की साख का सवाल यही से शुरु होता है।
दरअसल पहली बार जनादेश पाने वाले हो या गंवाने वाले दोनों ने ही मीडिया को चाहे-अनचाहे एक ऐसे हथियार के तौर पर उभार दिया जहां राजनीतिक-टूल से आगे मीडिया की कोई बानगी किसी को समझ आ ही नहीं रही है । मीडिया के प्रचार से जनादेश नहीं बनता लेकिन जनादेश से मीडिया की साख से खुला खिलवाड़ तो किया ही जा सकता है। मीडिया ने मोदी को ना जिताया ना मीडिया ने राहुल गांधी को हराया। तो भी मीडिया उसी राजनीति का सबसे बेहतरीन हथियार बना दिया गया जहां संपादकों और मालिकों के सामने खुद को ताकतवर बनाने के लिये राजनीतिक सत्ता के सामने नतमस्तक होना पड़े । कोई जरुरी नहीं है कि कोई संपादक राजनीतिक सत्ता के विरोध में खडा हो जाये तो उसे मुश्किल होगी। या फिर कोई मीडिया समूह सत्ता पर निगरानी करने के अंदाज में पत्रकारिता करने लगे तो उसके सामने मुश्किल हालात पैदा हो जायेंगे । मुश्किल हालात उसी के सामने पैदा होगें जिसका धंधा मीडिया हाउस चलाते हुये कई दूसरे घंघो को चलाने वाला हो । यानी मुनाफा व्यवस्था का उघोग अगर कोई मीडिया समूह या कोई संपादक-मालिक चला रहा होगा तो उसके सामने तो मुश्किल सामान्य अवस्था में भी होनी चाहिये। लेकिन मीडिया के लिये राजनीतिक ताकत का मतलब यही होता है कि उसके नाजायज धंधों पर सरकार खामोश रहे। या फिर जो सत्ता में आये वह उस मीडिया समूह के मुनाफे पर आंच ना आने दे। हालांकि गलत धंघे या फिर भारत के सामाजिक आर्थिक हालात
में कोई संपादक या मालिक करोडों के वारे -न्यारे करता रहे तो संकट तो उसके सामने कभी भी आ सकता है या कहे उसकी पूंछ तो हमेशा सत्ता के पांव तले दबी ही रहेगी। तो फिर मीडिया की एक सर्वमान्य परिभाषा राजनीतिक सत्ता के लिये बेहतर हालात बनाने के इतर क्या हो सकती है । ऐसे हालात तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में खूब देखे गये।
खासतौर से पूंजी पर टिके मीडिया व्यवसाय को जिस बारिकी से आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह ले आये उसमें झटके में मीडिया की पत्रकारिता धंधे में बदली इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नया सवाल मीडिया के दायरे में उस पत्रकारिता का है जो राजनीतिक शून्यता में खूद को भी शून्य मान रहा है। यानी राजनीतिक विकल्प नहीं है तो फिर मीडिया भी कौन सी पत्रकारिता करे। और पत्रकारिता हवा में सत्ता के खिलाफ हो ही क्यों जबकि उसे कोई राजनीतिक दल थामने वाला है ही नहीं। यह सवाल बड़े बड़े संपादको के दिल में है कि लिख कर कौन सा खूंटा उखाड लेंग । क्योंकि मोदी का कोई विकल्प तो है ही नहीं। और मोदी मौजूदा संसदीय राजनीति के संकट के दौर में खुद विकल्प नहीं है। ऐसे में पत्रकारिता खामोश रह कर ही की जाये तो बेहतर है।
दरअसल यह हालात पहली बार दो सवाल साफ तौर पर खडा कर रहे हैं। पहला, मीडिया को हर हाल में एक राजनीतिक ठौर चाहिये और दूसरा पत्रकारिता सत्ता को डिगाने के लिये कभी नहीं होती बल्कि सत्ता किसकी बनानी है उसके लिये होती है। यानी दोनों हालातों में मीडिया को राजनीति या राजनेताओं के दरबार में चाकरी करनी ही है । इस हालात में एक तीसरा पक्ष है कि क्या देश की समूची ताकत ही राजनीतिक सत्ता में तो सिमट नहीं गयी है। और इस लकीर को संपादक-मालिक अपनी पहल से ही मान्यता दे रहे हैं। क्योंकि मीडिया के भीतर ही नहीं राजनीतिक गलियारे में भी आवाज यही गूंजती है कि एक वक्त के बाद संपादक या मालिक या कद्दावर पत्रकार को तो राजनीति का दामन थामना ही है। यानी मीडिया ने भी मान लिया है कि मीडिया के हालात बदतर होने के बाद हर किसी को राजनीति ही करनी है। संपादक हो या मालिक दोनो को संसद में ही जा कर हालात को संभालना या सहेजना होगा। यानी चुनाव लड़ने या राज्यसभा के रास्ते संसद तक पहुंच कर कहीं ज्यादा बेहतर हालात किसी पत्रकार के हो ना हो लेकिन साख गंवाने के बाद साख गंवा चुकी राजनीति के चौखट पर माथे टेकने से पत्रकार की साख लौट सकती है या बढ़ सकती है। यह अजीबोगरीब तर्क मौजूदा
वक्त की नब्ज है। यानी जिस मान को पत्रकारिता करते हुये कोई संपादक नीचे गिराता है उसे उठाने का रास्ता राजनीति का वह मैदान ही बचता है जो राजनीति कभी मीडिया को अपने दरबार में नतमस्तक करती है। ध्यान दें तो पत्रकारिता किसी भी हालात में हो ही नहीं रही है। और यह सवाल जानबूझकर उछाला हुआ सा लगता है कि मनमोहन सरकार के दौर में और मोदी सरकार के दौर में कोई बहुंत बड़ा अंतर आ गया है। दरअसल मीडिया को राजनीतिक सत्ता के दरबार का चाकर किसने और कब कैसे बनाया यह संपादकों की कडी के साथ साथ मीडिया संस्थानों की बढ़ती इमारतों से भी समझा जा सकता है और कद्दावर या समझदार, पैना लिखने वाले संपादकों की राजनीतिक दलों से जुडने के बाद किसी साध्वी या योगी के बयानो को बातूनी अंदाज में व्याख्या करने से भी समझा जा सकता है और मनमोहन सिंह के दौर में कभी विश्व बैंक के मोहरों की राजनीति को देश के लिये हितकारी बनाने वाले सलाहकार पत्रकारों के जरीये भी देखा-परखा जा सकता है। यह वाकई मुश्किल सवाल है कि मौजूदा वक्त में जो कद्दावर पत्रकार सत्ता से चिपटे हुये है, गुनहगार वे हैं या जो पत्रकार इससे पहले की सत्ता के करीब थे गुनहगार वे रहे। हो सकता है गुनहगार दोनों ना लगे और यह सवाल ज्यादा मौजूं लगे कि आखिर पत्रकार सिर्फ पत्रकार होकर ही रिटायर्ड कैसे हो जाये। या फिर मीडिया लोकतंत्र के पहले खम्भे से गलबहिया डाले बगैर अपने चौथे खम्भे के होने का एहसास कैसे कराये। दरअसल यह सारे सवाल 16 मई 2014 के बाद बदले हैं। क्योंकि बीते २०-२२ बरस की पत्रकारिता पर आर्थिक सुधार के बाजारवाद का असर था इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद से २०१४ के लोकसभा चुनाव में पारंपरिक मीडिया को ठेंका दिखाते हुये सामानांतर सोशल मीडिया की भूमिका का प्रभाव जिस तेजी से आंदोलन से लेकर जनादेश तक को सफल बनाने में हुआ उसने पहली बार इसके संकेत भी दे दिये समाचार पत्र या न्यूज चैनल खबरों की पत्रकारिता कर नहीं सकते। और राजनीति को प्रभावित करने वाले विचार इन दोनों माध्यमों के संपादकों के पास तबतक हो नहीं सकते जबतक राजनीति का मैदान सियासी टकराव के दौर में ना आ जाये। यानी राजनीतिक टकराव मीडिया को आर्थिक लाभ देता है। और जनादेश की सियासत मीडिया को पंगु बनायेगी ही ।
तो सवाल है कि दोनों हालात जनता के कटघरे में तो एक से ही होंगे। ऐसे में बिना पूंजी, बिना मुनाफे की सोच पाले सोशल मीडिया धारधार होगा इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। लेकिन सोशल मीडिया बिना जिम्मेदारी या हवा को आंधी बनाने का खुला हथियार भी हो सकता है। जिसके खतरे सतह पर जमे राजनीति के कीचड़ को विकास भी करार दे सकते है और भ्रष्टचार की परिभाषा को धर्म तले आस्था से जोड कर राजनीतिक सत्ता को सियासी पनाह भी दे सकते है । ऐसे में खतरा सिर्फ यह नहीं है कि मीडिया की परिभाषा बदल जाये या पत्रकारिता के तेवर परंपरिक पत्रकारिता को ही खत्म कर दे। खतरा यह भी है मौजूदा संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीको की साख उस लोकतंत्र को ही खत्म कर दें जो देश में तानाशाही व्यवस्था पर लगाम लगाती रही है । एक वक्त इंदिरा गांधी ने जनसमर्थन से पहले काग्रेस को अपने पल्लू में बांधा और फिर कांग्रेसी चापलूस इंदिरा इज इंडिया कहने से नहीं कतराये। और मौजूदा वक्त में विकल्प तलाशते विपक्ष को सत्तादारी बीजेपी में कोई खोट नजर नहीं आ रहा , एक वक्त हिन्दुत्व के धुरधर अच्छे लग रहे हैं। लेकिन
जनादेश के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी खलनायक लग रहे हैं। यह सारे रास्ते आखिर में लोकतंत्र की नयी परिभाषा तो गढेंगे ही। क्योंकि तबतक निगरानी रखने वाला चौथा स्तम्भ भी अपनी परिभाषा बदल चुका होगा। मुश्किल यह है कि लोकतंत्र के हर स्तम्भ ने इस दौर को जन-आकाक्षांओं के हवाले कर अपनी अपनी पोटली बांध ली है।
Friday, December 12, 2014
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जब सत्ता ही देश को ठगने लगे तो...!!! |
एक तरफ विकास और दूसरी तरफ हिन्दुत्व। एक तरफ नरेन्द्र मोदी दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक तरफ संवैधानिक संसदीय राजनीति तो दूसरी तरफ हिन्दू राष्ट्र का ऐलान कर खड़ा हुआ संघ परिवार। और इन सबके लिये दाना पानी बनता हाशिये पर पड़ा वह तबका, जिसकी पूरी जिन्दगी दो जून की रोटी के लिये खप जाती है। तो अरसे बाद देश की धारा उस मुहाने पर आकर थमी है जहां विकास का विजन और हिन्दुत्व की दृष्टि में कोई अंतर नजर नहीं आता है। विकास आवारा पूंजी पर टिका है तो हिन्दुत्व भगवाधारण करने पर जा टिका है । इन परिस्थितियों को सिलसिलेवार तरीके से खोलें तो सत्ताधारी होने के मायने भी समझ में आ सकते हैं और जो सवाल संसदीय राजनीति के दायरे में पहली बार जनादेश के साथ उठे हैं, उसकी शून्यता भी नजर आती है। मसलन मोदी, विकास और पूंजी के दायरे में पहले देश के सच को समझे। यह रास्ता मनमोहन सिंह की अर्थनीति से आगे जाता है।
मनमोहन की मुश्किल सब कुछ बेचने से पहले बाजार को ही इतना खुला बनाने की थी, जिसमें पूंजीपतियों की व्यवस्था ही चले। लेकिन कांग्रेसी राजनीति साधने के लिये मनरेगा और खाद्य सुरक्षा सरीखी योजनाओं के जरिए एनजीओ सरीखी सरकार दिखानी थी। नरेन्द्र मोदी के लिये बाजार का खुलापन बनाना जरुरी नहीं है बल्कि पूंजी को ही बाजार में तब्दील कर विकास की ऐसी चकाचौंध तले सरकार को खड़ा करना है, जिसे देखने वाला इस हद तक लालायित हो जहां उसका अपना वजूद, अपना देश ही बेमानी लगने लगे। यानी ऊर्जा से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और हेल्थ, इंश्योरेंस,शिक्षा,रक्षा से लेकर स्वच्छ गंगा तक की किसी भी योजना का आधार देश की जनता नहीं है बल्कि सरकार के करीब खड़े उधोगपति या कारपोरेट के अलावा वह विदेशी पूंजी है जो यह एलान करती है कि उसकी ताकत भारत के भविष्य को बदल सकती है। और बदलते भारत का सपना जगाये विकास की यह व्यवस्था सौ करोड़ जनता को ना तो भागीदार बनाती है और ना ही भागेदारी की
कोई व्यवस्था खड़ा करती है। यानी हालात बदलेंगे या बदलने चाहिये, उसमें जनता की भागेदारी वोट देने के साथ ही खत्म हो गयी और अब सरकार की नीतियां भारत को विकसित बनाने की दिशा में देश से बाहर समर्थन चाहती है।
बाहरी समर्थन का मतलब है विदेशी निवेश। और विदेशी निवेश का मतलब है देशवासियों तक यह संदेश पहुंचाना कि आगे बढ़ने के लिये सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती बल्कि जमीन से लेकर खनिज संपदा और जीने के तरीकों से लेकर रोजगार पाने के उपायों में भी परिवर्तन करना होगा। क्योंकि सरकार तबतक कुछ नहीं कर सकती जब तक देश नहीं बदले । बदलने की इस प्रक्रिया का मतलब है खनिज संपदा की जो लूट मनमोहन सिंह के दौर में नजर आती थी वह नरेन्द्र मोदी के दौर में नजर नहीं आयेगी क्योंकि लूट शब्द नीति में बदल दिया जाये तो यह सरकारी मुहर तले विकास की लकीर मानी जाती है। मसलन जमीन अधिग्रहण में बदलाव, मजदूरों के कामकाज और उनकी नौकरी के नियमों में सुधार, पावर सेक्टर के लिये लाइसेंस में बदलाव, खादान देने के तरीकों में बदलाव, सरकारी योजनाओं को पाने वाले कारपोरेट और उद्योगपतियों के नियमों में बदलाव। यहां यह कहा जा सकता है कि बीते दस बरस के दौर में विकास के नाम पर जितने घोटाले, जितनी लूट हुई और राजनीतिक सत्ता का चेहरा जिस तरह जनता को खूंखार लगने लगा उसमें परिवर्तन जरुरी था। लेकिन परिवर्तन के बाद पहला सवाल यही है कि जिस जनता में जो आस बदलाव को लेकर जगी क्या उस बदलाव के तौर तरीकों में जनता को साथ जोड़ना चाहिये या नहीं। या फिर जनादेश के दबाव में जनता पहली बार इतनी अलग थलग हो गयी कि सरकार के हर निर्णय के सामने खड़े होने की औकात ही उसकी नहीं रही और सरकार बिना बंदिश तीस बरस बाद देश की नीतियों को इस अंदाज से चलाने, बदलने लगी कि वह जो भी कर रही है वह सही होगा या सही होना चाहिये तो यही से एक दूसरा सवाल उसी सत्ता को लेकर खड़ा होता है जिसमें पूर्ण बहुमत की हर सरकार के सामने यह सवाल हमेशा से रहा है कि देश का वोटिंग पैटर्न उसके पक्ष में रहे जिससे कभी किसी चुनाव में सत्ता उसके हाथ से ना निकले या सत्ता हमेशा हर राज्य में आती रहे। कांग्रेस का नजरिया हमेशा से ही यही रहा है। इसलिये राजीव गांधी तक कांग्रेस की तूती अगर देश में बोलती रही और राज्यों में कांग्रेस की सत्ता बरकार रही तो उस दौर के विकास को आज के दौर में उठते सवालों तले तौल कर देख लें। यह बेहद साफ लगेगा कि कांग्रेस ने हमेशा अपना विकास किया।
यानी विकास का ऐसा पैमाना नीतियों के तहत विकसित किया, जिससे उसका वोट बैंक बना रहे। चाहे वह आदिवासी हो या मुसलमान। किसान हो या शहरी मध्यवर्ग। अब इस आईने में बीजेपी या मोदी सरकार को फिट करके देख लें। जो नारे या जो सपना राजीव गांधी के वक्त देश के युवाओं ने देखा उसे नरेन्द्र मोदी चाहे ना जगा पाये हों लेकिन सरकार चलाते हुये जिस वोट बैंक और हमेशा सत्ता में बने रहने के वोट बैंक को बनाने का सवाल है तो बीजेपी के पास हिन्दुत्व का ऐसा मंत्र है जो ऱाष्ट्रीयता के पैमाने से भी आगे निकल कर जनता की आस्था, उसके भरोसे और जीने के तरीके को प्रभावित करता है। लेकिन यह पैमाना कांग्रेस के एनजीओ चेहरे से कहीं ज्यादा धारदार है। धारदार इसलिये क्योंकि कांग्रेस के सपने पेट-भूख, दो जून की रोजी रोटी के सवाल के सामने नतमस्तक हो जाते हैं लेकिन हिन्दुत्व का नजरिया मरने-मारने वाले हालात में जीने से कतराता
नहीं है।
इसकी बारीकी को समझें तो दो धर्म के लोगों के बीच का प्रेम कैसे लवजेहाद में बदलता है और मोदी सरकार की एक मंत्री रामजादा और हरामजादा कहकर समाज को कुरेदती है। फिर ताजमहल और गीता का सवाल रोमानियत और आस्था के जरीये संवैधानिक तौर तरीको पर अंगुली उठाने से नहीं कतराता। और झटके में सत्ता का असल चेहरा वोट बैंक के दायरे को बढाने के लिये या फिर अपनी आस्थाओं को ही राष्ट्रीयता के भाव में बदलने के लिये या कहें राज्य नीति को ही अपनी वैचारिकता तले ढालने का खुला खेल करने से नहीं कतराता। और यह खेल खेला तभी जाता है जब कानून के रखवाले भी खेलने वाले ही हों। यानी सत्ता बदलगी तो खेल बदलेगा। और इस तरह के सियासी खेल को संविधान या कानून का खौफ भी नहीं हो सकता है क्योंकि सत्ता उसी की है। यानी अपने अपने दायरे में अपराधी कोई तभी होगा जब वह सत्ता में नहीं होगा। याद कीजिये तो कंधमाल में धर्मातरण के सवाल पर ही ग्राहम स्टेन्स की हत्या और बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह का दोषी होना। 2008 में उडीसा में ही धर्मांतरण के सवाल पर स्वामी लक्ष्मणनंदा की हत्या। ऐसी ही हालत यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड, कर्नाटक, केरल ,गुजरात में धर्मांतरण के कितने मामले बीते एक दशक के दौर में सामने आये और कितने कानून के दायरे में लाये गये। जिनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हुई हो। ध्यान दें तो बेहद बारीकी से धर्म और उसके विस्तार में दंगों की राजनीति ने सियासत पर हमला भी बोला है और सियासत को साधा भी है। चाहे 1984 का सिख दंगा हो या 1989 का भागलपुर दंगा। या फिर 2002 में गुजरात हो या 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे। असर समाज के टूटन पर पड़ा और आम लोगो की रोजी रोटी पर पड़ा। लेकिन साधी सियासत ही गयी। तो फिर 2014 में सियासत की कौन सी परिभाषा बदली है । दरअसल पहली बार गुस्से ने सियासत को पलटा है। और विकास को अगर चंद हथेलियों तले गुलाम बनाने की सोच या मजहबी दायरे में समेटने की सोच जगायी जा रही हो तो यह खतरे की घंटी तो है ही। क्योंकि राष्ट्रवाद की चाशनी में कभी आत्मनिर्भर होने का सपना जगाने की बात हो या कही हिन्दुत्व को जीने का पैमाना बताकर सत्ता की राहत देने की सौदेबाजी का सवाल, हालात और बिगडेंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और यह हालात आने वाले वक्त में सत्ता की परिभाषा को भी बदल सकते है इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।
Friday, December 5, 2014
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16 मई के बाद कितना- कैसे बदला मीडिया- पार्ट 2 |
बरस भर पहले राष्ट्रपति की मौजूदगी में राष्ट्रपति भवन में ही एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने अपने पच्चीसवें जन्मदिन को मना लिया। वहीं हर तरह के कद्दावर तबके को आमंत्रित कर लिया। तब कहा गया कि मनमोहन सिंह का दौर है कुछ भी हो सकता है। एक बरस बाद एक न्यूज चैनल ने अपने एक कार्यक्रम के 21 बरस पूरे होने का जश्न मनाया तो उसमें राष्ट्रपति समेत प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट के अलावे नौकरशाहों, कारपोरेट, बालीवुड से लेकर हर तबके के सत्ताधारी पहुंचे। लगा यही कि मीडिया ताकतवर है। लेकिन यह मोदी का दौर है तो हर किसी को दशक भर पहले वाजपेयी का दौर भी याद आ गया । दशक भर पहले लखनऊ के सहारा शहर में कुछ इसी तरह हर क्षेत्र के सबसे कद्दावर लोग पहुंचे और तो और साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी समेत पूरा मंत्रिमंडल ही नहीं बल्कि संसद के भीतर एक दूसरे के खिलाफ तलवारे भांजने वाला विपक्ष भी सहारा शहर पहुंचा था। और इसी तर्ज पर संसद के भीतर मोदी सरकार को घेरने वाले कांग्रेसी भी दिल्ली के मीडिया समारोह में पहुंचे।
सवाल हो सकता है कि मीडिया को ताकत सत्ता के साथ खडे होकर मिलती है या फिर सत्ता को ताकत मीडिया का साथ खड़ेहोने से मिलती है। या फिर एक दूसरे की साख बनाये रखने के लिये क्रोनी कैपिटलिज्म का यह अद्भूत नजारा समाज में ताकतवर होते मीडिया की अनकही कहानी को कहता है। हो जो भी लेकिन मीडिया को बार बार अपने तरीके से परिभाषित करने की जद्दोजहद सत्ता भी करती है और सत्ता बनने की चाहत में मीडिया भी सरोकार की भाषा को नये तरीके से परिभाषित करने में रम जाता है । इस मुकाम पर विचारधारा के आसरे राजनीति या आम -जन को लेकर पत्रकारिता या फिर न्यूनतम की लड़ाई लडते देश को चकाचौंध के दायरे में समेटने की चाहत ही मीडिया को कैसे बदलती है यह 16 मई के जनादेश के बाद खुलकर सामने आने भी लगा है। जाहिर है ऐसे में मीडिया की भूमिका बदलने से कही आगे नये तरीके से परिभाषित करने की दिशा में बढ़ेगी और ध्यान दें तो 16 मई के जनादेश के बाद कुछ ऐसे ही हालात हो चले हैं। 16 मई के जनादेश ने मीडिया
के उस तबके को दरकिनार कर दिया जो राजनीति को विचारधारा तले परखते थे। पहली बार जनादेश के आइने में मीडिया की समूची रिपोर्टिंग ही पलटी और यह सीख भी देने लगी कि विचारधारा से आगे की जरुरत गवर्नेंस की है, जो मनमोहन सरकार के दौर में ठप थी और जनादेश ने उसी गवर्नेंस में रफ्तार देखने के
लिये नरेन्द्र मोदी के पक्ष में जनादेश दिया। यह जनादेश बीजेपी को इसलिये नहीं मिला क्योंकि गवर्नेंस के कठघरे में बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इसी लिये नरेन्द्र मोदी को पार्टी से बाहर का जनादेश मिला। यानी देश के भीतर सबकुछ ठप होने वाले हालात से निपटने के लिये जनादेश ने एक ऐसे नायक को खोजा जिसने अपनी ही पार्टी की धुरधंरों को पराजित किया । और पहली बार मीडिया बंटा भी। बिखरा भी। झुका भी। और अपनी ताकत से समझौता करते हुये दिखा भी। यह सब इसलिये क्योंकि राजनीति के नये नये आधारों ने मीडिया की उसी कमजोर नसों को पकड़ा जिसे साधने के लिये राजनीति के अंतर्विरोध का लाभ मीडिया ही हमेशा उठाता रहा। सरकारी सब्सिडी के दायरे से न्यूज प्रिंट निकल कर खुले बाजार आया तो हर बडे अखबारों के लिये हितकारी हो गया। छोटे-मझौले अखखबारो के सामने अखबार निकालने का संकट आया। समझौते शुरु हुये। न्यूज चैनल का लाइसेंस पाने के लिये 20 करोड़ कौन सा पत्रकार दिखा सकता है, यह सवाल कभी किसी मीडिया हाउस ने सरकार से नहीं पूछा। और पत्रकार सोच भी नहीं पाया कि न्यूज चैनल वह पत्रकारिता के लिये शुरु कर सकता है।
पैसे वालों के लिये मीडिया पर कब्जा करना आसान हो गया या कहें जो पत्रकरिता कर लोकतंत्र के चौथे खम्मे को जीवित रख सकते थे वह हाशिये पर चले गये। इस दौर में सियासत साधने के लिये मीडिया ताकतवर हुआ। तो सत्ता के ताकतवर होते ही मीडिया बिकने और नतमस्तक होने के लिये तैयार हो गया। और जो मीडिया कल तक संसदीय राजनीति पर ठहाके लगाता था वही मीडिया सत्ता के ताकतवर होते ही अपनी ताकत भी सत्ता के साथ खड़े होने में ही देखने समझने लगा। और पहली बार मीडिया को नये तरीके से गढने का खेल देश में वैसे ही शुरु हुआ जैसे खुदरा दुकाने चकाचौंध भरे मॉल में तब्दील होने लगी। याद कीजिये तो मोदी के पीएम बनने से पहले यह सवाल अक्सर पूछा जाता था कि मीडिया से चुनाव जीते जाते तो राहुल कब के पीएम बन गये होते। यह धारदार वक्तव्य मीडिया और राजनीतिक प्रचार के बीच अक्सर जब भी बोला जाता है तब खबरों के असर पडने वाली पत्रकारिता हाशिये पर जाती हुई सी नजर आने लगती। लेकिन पत्रकारिता या
मीडिया की मौजूदगी समाज में है ही क्यों अगर इस परिभाषा को ही बदल दिया जाये तो कैसे कैसे सवाल उठेंगे। मसलन कोई पूछे, अखबार निकाला क्यों जाये और न्यूज चैनल चलाये क्यों जाये।
यह एक ऐसा सवाल है जिससे भी आप पूछेंगे वह या तो आपको बेवकूफ समझेगा या फिर यही कहेगा कि यह भी कोई सवाल है । लेकिन 2014 के चुनाव के दौर में जिस तरह अखबार की इक्नामी और न्यूज चैनलों के सरल मुनाफे राजनीतिक सत्ता के लिये होने वाले चुनावी प्रचार से जा जुडे है उसने अब खबरों के बिकने या किसी राजनीतिक दल के लिये काम करने की सोच को ही पीछे छोड़ दिया है। सरलता से समझे लोकसभा चुनाव ने राह दिखायी और चुनाव प्रचार में कैसे कहा कितना कब खर्च हो रहा है यह सब हर कोई भूल गया । चुनाव आयोग भी चुनावी प्रचार को चकाचौंध में बदलते तिलिस्म की तरह देखने लगा। तो जनता का नजरिया क्या रहा होगा। खैर लोकसभा चुनाव खत्म हुये तो लोकसभा का मीडिया प्रयोग कैसे उफान पर आया और उसने झटके में कैसे अखबार निकलाने या न्यूज चैनल चलाने की मार्केटिंग के तौर तरीके ही बदल दिये यह वाकई चकाचौंध में बदलते भारत की पहली तस्वीर है। क्योंकि अब चुनाव का एलान होते ही राज्यों में अखबार और न्यूज चैनलों को पैसा पंप करने का अनूठा प्रयोग शुरु हो गया है। लोकसभा के बाद हरियाणा , महाराष्ट्र
में चुनाव हुये और फिर झारखंड और जम्मू कश्मीर । महाराष्ट्र चुनाव के वक्त बुलढाणा के एक छोटे से अखबार मालिक का टेलीफोन मेरे पास आया उसका सवाल था कि अगर कोई पहले पन्ने को विज्ञापन के लिये खरीद लेता है तो अखबार में मास्ट-हेड कहां लगेगा और अखबार में पहला पन्ना हम दूसरे पन्ने को माने या तीसरे पन्ने को जो खोलते ही दायी तरफ आयेगा। और अगर तीसरे पन्ने को पहला पन्ना मान कर मास्टहेड लगाते हैं तो फिर दूसरे पन्ने में कौन सी खबर छापे क्योकि अखबार में तो पहले पन्ने में सबसे बड़ी खबर होती है। मैंने पूछा हुआ क्या । तो उसने बताया कि चुनाव हो रहे हैं तो एक राजनीतिक दल ने नौ दिन तक पहला पन्ना विज्ञापन के लिये खरीद लिया है। खैर उन्हें दिल्ली से निकलने वाले अखबारों के बार में जानकारी दी कि कैसे
यहां तो आये दिन पहले पन्ने पर पूरे पेज का विज्ञापन छपता है। और मास्ट-हेड हमेशा तीसरे पेज पर ही लगता है और वही फ्रंट पेज कहलाता है । यह बात भूलता तब तक झारखंड के डाल्टेनगंज से एक छोटे अखबार मालिक ने कुछ ऐसा ही सवाल किया और उसका संकट भी वही था। अखबार का फ्रंट पेज किसे बनायें। और वहां भी अखबार का पहला पेज सात दिन के लिये एक राजनीतिक दल ने बुक किया था। यानी पहली बार अखबारों को इतना बड़ा विज्ञापन थोक में मिल रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन बात सिर्फ विज्ञापन तक नहीं रुकी।
अगला सवाल था कि इतने विज्ञापन से तो हमारा साल भर का खर्च निकल जायेगा। तो इस पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों छापा जाये। बहुत ही मासूमियत भरा यह सवाल भी था और जबाव भी। और संयोग से कुछ ऐसा ही सवाल और जबाब कश्मीर से निकलते एक अखबार के पहले पन्ने पर उर्दू में पूरे पेज पर विज्ञापन छपा देखा। जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर के साथ घाटी का चेहरा बदलने का सपना था। अजीबोगरीब लगा। उर्दू के शब्दों के बीच मोदी और पूरे पेज के विज्ञापन के लालच में संपादक का सवाल, क्या करें। इतना बड़ा विज्ञापन। इससे तो अखबार के सारे बुरे दिन दूर हो जायेंगे। और विज्ञापन छाप रहे हैं तो पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों लिखें। वैसे भी चुनाव तो होते रहते हैं। नेता बदलते रहते हैं। घाटी में कभी तो कुछ बदला नहीं। तो हम किसी से कुछ मांग तो नहीं रहे सिर्फ विज्ञापन चुनाव तक है। पैसे एंडवास में दे दिये गये हैं। सरकारी विज्ञापनों के तो पैसे भी मांगते मांगते मिलते हैं तो हमने सोचा है कि घाटी में क्या होना चाहिये और जनता किन मुश्किलों में है और इसी पर रिपोर्ट फाइल करेंगे। यानी नेता भ्रष्ट हो या आपराधिक छवि का। पार्टी की धारा कुछ भी हो। पार्टी की धारा कुछ भी हो। आतंक के साये से चुनावी उम्मीदवार निकला हो या आतंक फैला कर चुनाव मैदान में उतरा हो। बहस कही नहीं सिवाय सपने जगाने वाले चुनाव के आइने में लोकतंत्र को जीने की। असर यही हुआ कि पूंजी कैसे किसकी परिभाषा इस दौर में बदल कर सकारात्मक छवि का अनूठा पाठ हर किसी को पढ़ा सकती है, यह कमोवेश देश के हर मीडिया हाउस में हुआ। इसका नायाब असर गवर्नेंस के दायरे में भ्रष्ट मीडिया हाउसों पर लगते तालो के बीच पत्रकार बनने के लिये आगे आने वाली पीढ़ियो के रोजगार पर पड़ा। मनमोहन सिंह के दौर की आवारा पूंजी ने चिटफंड और बिल्डरों से लेकर सत्ता के लिये दलाली करने वालों
के हाथो में चैनलों के लाइसेंस दिये। मीडिया का बाजार फैलने लगा। और 16 मई के बाद पूंजी, मुनाफा चंद हथेलियों में सिमटने लगा तो मीडिया के नाम पर चलने वाली दुकाने बंद होने लगी। सिर्फ दिल्ली में ही तीन हजार पत्रकार या कहें मीडिया के कामगार बेरोजगार हो गये। छह कारपोरेट हाउस सीधे मीडिया
हाउसो के शेयर खरीद कर सत्ता के सामने अपनी ताकत दिखाने लगे या फिर मीडिया के नतमस्तक होने का खुला जश्न मनाने लगे। जश्न के तरीके मीडिया के अर्द्ध सत्य को भी हडपने लगे और सत्ता की ताकत खुले तौर पर खुला नजारा करने से नहीं चूकी। यानी पहली बार लुटियन्स की दिल्ली सरीखे रेशमी नगर की तर्ज पर हर राज्य की राजनीति या तो ढलने लगी या फिर पारंपरिक लोकतंत्र के ढर्रे से उकता गयी जनता ही जनादेश के साये में राजनीति का विकल्प देने लगी । और मीडिया हक्का बक्का होकर किसी उत्पाद [ प्रोडक्ट ] की तर्ज पर मानने लगा कि अगर वह सत्ता के कोठे की जरुरत है तो फिर उसकी साख है । यानी जिन समारोहों को, जिन सामाजिक विसंगतियों और जिस लोकतंत्र के कुंद होने पर मीडिया की नजर होनी चाहये अगर वह खुद ही समारोह करने लगे। सामाजिक विसंगतियों को अनदेखा करने लगे और लोकतंत्र के चौथे पाये की जगह खुद को सत्ता की गोद में बैठाने लगे या खुद में सत्ता की ठसक पाल लें, तो सवाल सिर्फ पत्रकारिता का है या देश का। सोचना तो पड़ेगा।