Tuesday, December 23, 2014

डल लेक में बेमौसम कमल खिलाकर जम्मू ने सियासत उलट दी !

चुनावी लोकतंत्र फेल हुआ तो बंदूक थामी। सिस्टम को लेकर गुस्सा चरम पर पहुंचा तो पत्थर उठाया। और जिन्दगी जीने की जरुरतो ने सपनों को जगाया तो वोट डाल कर अंगुली पर लोकतंत्र के उसी चिन्ह से एक ऐसी सियासी लकीर खींच दी, जिसे दिल्ली चाहकर भी भूल नहीं सकती है। क्योंकि वोट से परिवर्तन का सपना तो 1987 के बाद से ही कश्मीरी भूल चुका था। तब दिल्ली की सत्ता ने लोकतंत्र चुरा लिया था। उस वक्त दिल्ली का मतलब कांग्रेस था। और कांग्रेस पर चुनाव चोरी का आरोप कश्मीरी लगाते थे। लेकिन अब दिल्ली का मतलब बीजेपी है। और बीजेपी ने लोकतंत्र को जीने का मंत्र विकास का नारा लगाकर दिया। कश्मीरियों में भी चुनावी सपने जागे और दिल्ली की सत्ता ने भी माना कि 1987 के बाद पहली बार कश्मीरी लोकतंत्र को जीने के लिये चुनावी मैदान में उतरा। बुलेट छोड़ बैलेट को हथियारे बनाने उतरा। सैलाब के जख्मों पर बिना मलहम लगाये और जमा देने वाली ठंड को सहते हुये बिना बंदूक-पत्थर के वोट डालने निकला। संकेत साफ दिखे कश्मीर बदल रहा है।

लेकिन चुनावी परिणामों ने लोकतंत्र की चैौखट पर जीत का सेहरा बांधे दिल्ली की सत्ता को कही बड़ा दर्द दे दिया। क्योंकि आजादी के बाद से कश्मीर को अपने मुताबिक परिभाषा देने की जो सोच जनसंघ ने पाली और श्यामाप्रासद मुखर्जी ने जान गंवा दी उसी सोच की सियासी लकीर खिंचने का सवाल दिल्ली की सत्ता ने जैसे
ही इक्सठ बरस बाद उठाया, वैसे ही कश्मीरियों ने उसी हथियार से दिल्ली को नकार दिया जिस हथियार के आसरे पहली बार बीजेपी सत्ता बनाने की चौखट पर जा पहुंची हैं। गजब की सियासी पारदर्शिता जम्मू-कश्मीर ने दिखायी। 1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू से श्रीनगर जाने के लिये निकले तो परमिट सिस्टम सवाल उठाये। कश्मीर जाने के लिये जिस पहचान पत्र की जरुरत पड़ती थी, उसके खिलाफ आवाज उठायी। और यह सवाल उठाया कि अपने ही देश में पहचान पत्र का मतलब क्या है। जाहिर है आज की तारीख में कश्मीर जाने के लिये कोई पहचान पत्र नहीं चाहिये लेकिन धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा कश्मीर को 1953 में मिल चुका था उसी धारा 370 को लेकर तब आवाज श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में जनसंघ. हिन्दु महासभा और रामराज्य परिषद ने उठायी थी। उसी आवाज को नये तरीके से दिल्ली की सत्ता ने 2014 में उठाया। इस आवाज के खिलाफ कश्मीरी बंदूक उठाता तो मारा जाता, पत्थर उठाता तो भी वही घायल होता लेकिन लोकतंत्र के पैमाने पर जैसे ही उसने वोट के जरीये सवालों को उठाया वैसे चुनाव परिणाम ने भी एक नयी इमानदार परिभाषा जम्मू-कश्मीर को लेकर लिख डाली। पहली बार जम्मू ने अपनी ताकत से नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी में बंटे कश्मीर को इसका एहसास कराया कि सियासी ताकत एकजुटता से मिलती है और डल लेक में चाहे एक भी कमल ना खिला हो लेकिन बेमौसम कमल को कश्मीर के डल में जम्मू खिला सकता है। कमल के फूल को कश्मीर में पंपोश कहते है। और जैसे घाटी डल लेक के बगैर अधूरी है। वैसे ही डल लेक पंपोश यानी कमल के फूल के बगैर अधूरा है। और पंपोश दिसबंर में नहीं अप्रैल से अक्टूबर तक खूब होता है। लेकिन पंपोश का प्रयोग कमल के फूल से कहीं ज्यादा पंबोश के तौर पर होता है। पंबोश कमल के फूल के नीचे की डाली को कहते है जिसे दिल्ली में कमल ककडी के तौर पर जाना जाता है। और इसकी सब्जी बेहद स्वादिष्ट बनती है। यानी सियासी तौर पर जो कमल डल लेक में नहीं खिला वही कमल जम्मू में कुछ इस तरह खिला जिसने कश्मीर की सियासत को डिगा दिया।

तो घाटी के सियासी बिसात पर अब तीन सवाल है। पहला, क्या पहली बार जम्मू के आसरे अब कश्मीर की सियासत को चलना होगा। दूसरा , क्या कश्मीर में आजादी का सवाल अब और तीखा तो नहीं हो जायेगा। तीसरा , धारा 370 के सवाल को बीजेपी जम्मू-कश्मीर की सियासत साध कर नये सिरे से परिभाषित करना चाहेगी। जाहिर है यह तीनो सवाल उस कश्मीर के हक में नहीं है, जिसकी आवाज पीडीपी है। या फिर नेशनल कान्फ्रेंस के ऑटोनामी के सवाल के भी उलट है। और नेहरु की नीति को मान्यता देती कांग्रेस के भी खिलाफ है। तो क्या जम्मू-कश्मीर के पारदर्शी चुनाव परिणमो ने अर्से बाद एक ऐसी सियासी बिसात बिछा दी है जो कश्मीरियों में कश्मीरियत के हक को लेकर भी सपने जगा रही है और बीजेपी के उस सपने को भी हिलोर दे रही है जहा श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना टूटा था। इतना ही नहीं जम्मू के आसरे कश्मीर की सियासत को संसदीय राजनीति के जरीये बांधने की कोशिश बीजेपी की देशी राजनीति ही नहीं बल्कि सीमा पार की सियासत को भी पाठ पढ़ा सकती है। यानी सवाल सिर्फ धारा 370 या कश्मीरियत के अलगावबादी रुख को ठीक करने भर का नहीं है बल्कि सीमा पार से जो सवाल पाकिस्तानी सत्ता की शह पर लश्कर सरीखे संगठन और मुशर्रफ की जुबां से कश्मीर की आजादी के नारे के तौर पर निकलते रहे हैं, उस आंतक को भी जम्मू कश्मीर के चुनावी परिणाम आइना दिखा सकते हैं। सारे समीकरण बीजेपी के अनुकुल है और बीजेपी सत्ता पाने का यह मौका छोड़ेगी भी नहीं। क्योंकि चुनावी जीत के आंकड़े यह नहीं देखते कि बीजेपी के सवालों को घाटी इस हद तक खारिज कर रही है कि 2008 में मिले वोट से भी कम वोट इसबार बीजेपी को मिले । बल्कि आंकड़े यह देख रहे है कि बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा 23 फीसदी। चाहे वह सिर्फ जम्मू के ही क्यों ना हो। तो घाटी का रास्ता बंदूक से निकला नहीं। पत्थरों ने राहत दी नहीं। ऐसे में वोट का लोकतंत्र सियासी जख्मो पर मलहम लगा पायेगा या नहीं अब इम्तिहान इसी का है। क्योंकि जम्मू ने डल लेक में बैमौसम पंपोश यानी कमल के फूल खिला दिया है।

1 comment:

Ashutosh Mitra said...

भाई जी, जिस कौम को तुष्टीकरण की आदत पड़ गयी हो वह बदलने वाली नहीं है। अधिक वोटिंग मोदी को रोकने की गरज से हुई है। इसीलिए कहता हूँ। नेता वो अच्छा जो ... तुष्टीकरण पसंद लोगों को डराए... क्योंकि तुष्टीकरण पसंद लोग मुल्क या दल के नहीं तुष्टीकरण के वोटर होते हैं....