Saturday, March 7, 2015

तख्त-ताज उछालने का सपना अधूरा ही रह जायेगा ?


“आप” से कोई बड़ा होकर नहीं निकला। जो बड़े दिखायी दे रहे थे वह सभी अपना और अपनों का रास्ता बनाने में कुछ ऐसे फंसे कि हर किसी की हथेली खाली ही नजर आ रही है। हालांकि टकराव ऐसा भी नहीं था कि कोई बड़े कैनवास में आप को खड़ा कर खुद को खामोश नहीं रख सकता था। लेकिन टकराव ऐसा जरुर था जो दिल्ली जनादेश की व्याख्या करते हुये हर आम नेता को खास बनने की होड़ में छोटा कर गया। दिल्ली जनादेश के दायरे में राजनीति को पहली बार जीतने की राजनीति से ज्य़ादा हारे हुये की राजनीति पर खुली चर्चा हुई। यानी आम आदमी पार्टी क्या कर सकती है इससे ज्यादा मोदी की अगुवाई में बीजेपी के बढ़ते कदम को रोका कैसे जा सकता है, इसकी खुली व्याख्या जब न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर शुरु हुई तो जीत की डोर को थामे “आप”का हर प्रवक्ता आर्थिक नीति से लेकर एफडीआई और हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना से लेकर संघ के एजेंडे को रोका कैसे जा सकता है, इसका पाठ पढाने से नहीं चूका। इतना ही नहीं बिहार, बंगाल और यूपी के होने वाले विधानसभा चुनाव में “आप” की राजनीति को भी क्षत्रपो से बडा कर आंका गया। किसान-मजदूर का सवाल भी बजट के वक्त जब उभरा तो “आप” के प्रवक्ता खुल कर न्यूज चैनलों में यह बहस करते नजर आये कि रास्ता कैसे सही नहीं है और रास्ता कैसे सही हो सकता है । जाहिर है लोकसभा चुनाव के वक्त 90 फिसदी की जमानत जब्त और दिल्ली चुनाव में 96 फीसदी की जीत ने “आप” के भीतर इस सवाल को तो हमेशा से बड़ा बनाया कि जो राजनीति वह करना चाह रहे है उसमें जीत हार से आगे की राजनीति मायने रखती है। और इसी बडे कैनवास को समझने के लिये दिल्ली के जनादेश का कैनवास जब सामने आया तो वह उस बडे कैनवास को भी पीछे छोड़ गया, जिसे आम आदमी पार्टी के भीतर राजनीतिक तौर पर हर कोई जी रहा था। किसानों को कैसे हक दिलाये जा सकते हैं। कैसे भूमि अधिग्रहण के नये तरीके इजाद किये जा सकते हैं। कैसे देश में गांव से पलायन रोका जा सकता है। कैसे विकास की समानता को मिटाया जा सकता है। कैसे कारपोरेट की राजनीति के साथ संगत को खत्म किया जा सकता है। कैसे  आम आदमी की भागेदारी सत्ता के साथ हो सकती है। पुलिस सुधार, न्याय में सुधार से लेकर बजट बनाने की रुपरेखा भी बदलने की जरुरत देश में क्यों पड़ी है।

यह तमाम बाते ऐसी है जिसकी चर्चा “आप” के बनने के दिन से होती रही। जरा कल्पना किजिये सिर्फ दिल्ली ही नहीं देश के किसी भी हिस्से के “आप” के दफ्तर में कोई पहुंचे और चुनावी राजनीति से इतर देश के हालात पर ही बात हो। इतना ही नहीं चुनाव लड़ने के वक्त भी चुनावी राजनीतिक मशक्कत पर बात करने से ज्यादा क्षेत्र के हालात और उन हालातों से लोगो को सामूहिक तौर पर गोलबंद करते हुये हालातों से परिचित कराने के तौर तरीको पर बात हो। स्वराज के लागू होने की मुश्किलों पर बात हो। राजनीतिक सत्ता पर कुंडली पारे राजनीतिक दलो को हराने पर खामोशी बरती जाये और “आप” के भीतर चर्चा इस बात को लेकर हो कि कैसे
संसदीय राजनीति को लोकतंत्र का तमगा देकर तमाम दागी और अपराधी चुनावी जीत के साथ सफेदपोश हो जाते हैं। लोकतंत्र के विशेषाधिकार को पा जाते है। और इनके सामने संवैधानिक परिपाटी भी छोटी पड़ जाती है। इस सच को किस राजनीति से सामने लाया जाये। इतना ही नहीं मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये खुद को चुनावी राजनीति में इस तरह सामने लाया जाये जिससे चुनाव में पूंजी या कहे कारपोरेट की दखल बंद हो। और कोई भी सत्ता चुनावी जीत के हिस्सेदारो को हिस्सा देने में ही पांच बरस ना गुजार दें। यानी जो “आप” अपने जन्म काल से जिन बातो को सोच रही थी और लगातार समाज में विषमता पैदा करने वाले की सत्ता के तख्त और ताज को उछालने का खुल्लमखुल्ला ऐलान करने से नहीं चूक रही थी अगर वही आप दिल्ली जनादेश की आगोश में खोने लगे तो होगा क्या। असल में केजरीवाल दिल्ली में सिमटेंगे तो नेतृत्व की डोर थामगे कौन। यानी जिस आप में नेतृत्व का सवाल 2012 से 2014 तक कभी उभरा नहीं, वहां अगर पार्टी की डोर और सीरा नजर आने लगे तो “आप” में टकराव का रास्ता आयेगा ही क्योकि हर कोई आईने के सामने खुद की तस्वीर देखेगा ही ।

“आप” के भीतर से आवाज आ रही है कि केजरीवाल दिल्ली दायरे में रहना चाहते है । मयंक गांधी बीएमसी चुनाव लड़ना चाहते हैं। आशीष खेतान अपने कद को बड़ा करना चाहते हैं। योगेन्द्र यादव हरियाणा का प्रभारी बनना चाहते हैं। संजय सिंह संगठन पर घाक जमाये रखना चाहते हैं। शालिनी भूषण सगंठन सचिव सलाहकार बनना चाहती हैं। कुमार विश्वास इधर-उधर में ना बंटकर सेतु बनकर उभरना चाहते हैं जिससे उन्हें “आप” में नंबर दो मान लिया जाये। यानी हर किसी का अपना नजरिया “आप” को लेकर खुद को कहा फिट करना है इसपर ही हो चला है। तो फिर बडे सपनों को देखकर पूरा करने का सपना किस दिल में हो सकता है। अगर हर दिल ही तंगदिल है। दरअसल सतहीपन सिर्फ पद को लेकर नहीं उभरा बल्कि जिन मुद्दो को बडा बताया गया वह मुद्दे भी छींटाकशी से आगे जाते नहीं। एक कहता है पचास पचास लाख के चार चेक की जांच लोकपाल से हो । दूसरा कहता है जब चेक आये थे तो आप ही ने पीएसी में बैठकर दस लाख से ज्यादा के चेक की जांच करने के नियम भी बनाये और खुद ही चेक पास भी किये । और अब चेक जांच का जिक्र भी कर रहे हो। एक कहता है कि बीजेपी/कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को “आप” का टिकट देकर आपने पार्टी लाइन त्याग दी । तो दूसरी तरफ से आवाज ती है कि 2013 में तो आपने सवाल नहीं उठाया । खुद ही उस वक्त टिकट दिये और 2015 में आपत्ति का मतलब क्या है। जबकि 2013 में 16 उम्मीदवार बीजेपी/कांग्रेस से निकल कर “आप” में शामिल होकर टिकट पा गये थे। और 2015 में यह आंकडा 13 उम्मीदवारों का रहा । फिर सवाल उठाने का मतलब क्या है। असल में “आप” के भीतर जो सवाल टकराव की वजह रहे वह पद , पावर और अधिकार
क्षेत्र के साथ साथ अपने अपने दायरे में अपनो के बीच अपने कद की मान्यता पाने का भी है। तो सवाल तीन है पहला “आप” जैसे ही केजरीवाल केन्द्रित हुई वैसे ही हर कद्दावर कार्यकर्ता ने अपने दायरे में अपना केन्द्र बनाकर खुद को घुरी बनाने की कोशिश शुरु की । दूसरा, दिल्ली जनादेश ने हर कद्दावर को जीत के मायने अपने अपने तरीके से समझा दिये और हर किसी की महत्वाकांक्षा बढ गयी । तीसरा, “आप” को केजरीवाल की छांव से मुक्त कैसे किया जा सकता है इसके लिये “आप” के भीतर ही “आप” को मिलने वाली मदद के दायरे को तोड़ने की भी पहल हुई । यानी टकराव सिर्फ पद-कद-पावर भर का नहीं रहा बल्कि “आप” जिस रास्ते खड़ा हुआ है, उन रास्तों को कैसे बंद किया जा सकता है मशक्कत इसपर भी शुरु हुई । यानी “आप” में शामिल तमाम लोग अपने अपने घेरे में चाहे बडे हो लेकिन “आप”  को संभालने या झुक कर “आप” के कैनवास को ही बढाने की दिशा में कोई हाथ उठा नहीं। दिल्ली जनादेश ने केजरीवाल को अगर जनादेस के बोझ तले दबा दिया तो दिल्ली से बाहर विस्तार देखने वालो की उडान “आप” को अपने पंखों पर लेकर उड़ने के लिये इस तरह मचलने लगी कि जिस उम्मीद को जगाये “आप” उड़ान भर रहा था ब्रेक उसी पर लग गयी ।क्योंकि सत्ता तो आम आदमी की होनी थी। सत्ता में बैठे सेवक का जुड़ाव सड़क पर खड़े होकर तय होना था । संघर्ष के रास्ते जो बड़ा होता वही बड़ा बनता। मुद्दों को पारंपरिक राजनीति के दायरे से बाहर निकाल कर जिन्दगी से जोड़ कर लोगों के राजनीतिक सपनो को उडान देने ही तो केजरीवाल निकले थे । फिर अपने भरोसे उडान देने का सपना कैसे नेताओ ने पाला और इस भरोसे को कैसे तोड़ दिया कि राजनीतिक सफलता सत्ता पाने भर से नहीं होगी बल्कि सत्ता पाने को तौर तरीको से लेकर सत्ता को आखरी व्यक्ति से जोड़ने से होगी। तो सबसे बड़ा सवाल हर जहन में यही होगा कि अब “आप” का विस्तार होगा कैसे । और केजरीवाल जब 15 मार्च को इलाज के बाद दिल्ली लौटेंगे तो वह कहेंगे क्या या करेंगे क्या । और उनके करने-कहने पर ही “आप” इसलिये टिकी है क्योंकि “आप” का मतलब अब ना तो योगेन्द्र यादव की बहुमुखी छवि है और ना ही भूषण परिवार का अब कोई कथन । योगेन्द्र यादव वापस समाजवादी जन-परिषद में लौटेंगे नही। समाजवादी जन परिषद के उनके साथ जो राजनीतिक बदलाव का सपना पाले योगेन्द्र की ताकत तले “आप” में शामिल हो गये वह अपने बूते पार्टी
बनाकर चलाने की ताकत कऱते नहीं है। तो योगेन्द्र के लिये “आप” से बाहर का रास्ता अभी है भी नहीं। तो अपनी स्वतंत्रता से वह किसानों के बीच काम करें या इंतजार करें कि “आप” को लेकर आगे कौन सा नया रास्ता केजरीवाल बनाते हैं।

क्योंकि केजरीवाल के सामने अब सिर्फ दिल्ली चुनौती नहीं है । बल्कि पहली बार केजरीवाल को 2012 की उस भूमिका में फिर से आना है जिस भूमिका को जीते हुये वह स्वराज से लेकर देश भर में राजनीतिक व्यवस्था के बदलाव का सपना पाले हुये थे। दिल्ली में भ्रष्टाचार पर नकेल, महिला सुरक्षा के लिये तकनीकी एलान और क्रोनी कैपटलिज्म की नब्ज दबाने का काम तो केजरीवाल दिल्ली की सत्ता से भी कर सकते है। लेकिन सिर्फ दिल्ली के जरीये राष्ट्रीय संवाद बन पाये यह भी संभव नहीं है और राष्ट्रीय संवाद नहीं बनायेगें तो वही कारपोरेट और वही मीडिया उसी राजनीति के चंगुल में “आप”को मसलने में देर भी नहीं लगायेगा। यानी केजरीवाल अगर अब सामाजिक-आर्थिक विषमता से मुनाफा बनाते पूंजीपतियों और उनके साथ खड़े राजनीतिक दलों को सीधे राजनीतिक निसाने पर लेकर नये संघर्ष की दिशा में बढ़ते है तो फिर दुबारा देश भर के जन-आंदोलन से जुडे समाजसेवी और कार्यतकर्त्ओ का समूह भी संघर्ष के लिये तैयार होगा। क्योंकि मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा है ही नहीं जो मुनाफे की पूंजी तले राज्य के विकास को देखने से हटकर कोई नयी
सोच रख सके । और दिल्ली प्रयोग दूसरे राज्यो में हुबहु चल नहीं सकता । तो आने वाले वक्त पर “आप” के निशाने पर चाहे बिहार हो या निगाहो में चाहे पंजाब हो । स्वराज या आम आदमी की सत्ता से इतर जहा भी देखने की कोशिश  होगी वहा टकराव खुद से होगा ही । क्जयोकि तख्त और ताज उछालने का मिजाज सत्ता पाने के बाद के बदलाव को तखत् पर बैठकर या ताज पहनकर नहीं किया जा सकता । और खुद के बदलाव के तौर तरीके ही अब पार्टी के भीतर के संघर्ष को खत्म कर सकते है । क्योंकि योगेन्द्र-प्रशांत अगर यह ना समझ पाये कि केजरीवाल चाहे दिल्ली में केन्द्रित होकर काम करना चाह रहे है लेकिन वह उनके लिये कठपुतली नहीं हो सकते तो फिर केजरीवाल को समझना होगा कि दिल्ली में “आप” को खपा कर वह खर्च कर सकते हैं। लेकिन राजनीतिक व्यवस्था बदलने के लिये तख्त-ताज को उछालने की नयी मुनादी ही “आप” को जिन्दा भी रखेगी और विस्तार के साथ सत्ता भी दिलायेगी। क्योंकि तब सत्ता योगेन्द्र या प्रशांत या केजरीवाल की ना होगी । आम आदमी के उम्मीद की होगी।

5 comments:

tapasvi bhardwaj said...

Aise hi likhte rahiye sir..... padkar accha lagta h....main aapse disagree hota hn bahut baar....par aapki presentations ki taarif kiye bina nahi reh pata

tapasvi bhardwaj said...

Insian railways Budget & general budget ko lekar bhi kuch likiye please....please...i really want to read it

Ashutosh Mitra said...

प्रभू,
तख्त-ताज उछालने के लिए किसी और मुल्क की ज़मीन खोजनी होगी। इस मुल्क में राजनीतिक क्रांतियां करने का सोचने वाले भटकी विचारधारा के लोग हैं और उनको इस मुल्क के वास्तविक इतिहास को पढ़ने की और यहां के चश्में से इस मुल्क को देखने समझने की ज़रूरत है। इस देश को सामाजिक सुधार की जरूरत है, राजनीतिक परिदृष्य अपने आप साफ-सुथरा हो जाएगा।
जो लोग (यानी हम सभी) 'आप' से राजनीतिक सुधार की उम्मीद रखते हैं वो खुद बेईमान हैं। तो प्रभु यहां तबियत से पत्थर आसमान पर उछालने से कुछ न होगा (वो नीचे आकर हमको ही लगेगा)।
सो उपचार कबीर के पास है...जो कहते हैं..."कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर"। देश दस्त से पीड़ित है, सो उसे टीबी की दवा न दें, प्लीज़!

जयप्रकाश त्रिपाठी said...

जो भी लोग मुगालते में हैं कि अरविंद केजरीवाल तख्त-ताज उछालने वाले क्रांतिकारी हैं, वे छद्म-भूलवश और सुविधाजीवी निजी जरूरतोंवश जानबूझ कर धूर्ततापूर्ण तरीके से समाज और मीडिया में विभ्रम फैला रहे हैं। तसल्ली रखिए, वक्त सारा भेद खोल देगा। इस मुखौटे का कोई वजूद नहीं। जो भी मौजूदा सिस्टम के भीतर आम आदमी के जीवन में बदलाव वाली संभावनाओं के जादू-मंतर दिखा रहा है, राममनोहर लोहिया, सुभाष घीसिंग, ज्योतिर्वसु, महेंद्र सिंह टिकैत की तरह उसका भी हास्यास्पद हश्र होना ही होना है। समाज और अर्थव्यवस्था में साफ-साफ दो शत्रु-वर्ग हैं। उनकी मौजूदगी तक ईजाद किया गया संघर्ष कोई भी तीसरा फार्मूला मुंह के बल फेल होना है। ऐसी सियासत की नजीरें हजार हैं। बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...ई अनेति जै दिन चली, तै दिन..शब्दों के शगूफे भी कितने मजेदार और विदूषकीय होते हैं

Anonymous said...

दिल्ली की जीत के नशे में केजरू और उसके चाटुकार चूर हो गए हैं और केजरू-सिसौदिया-संजय सिंह-आशुतोष-खेतान और पुण्य प्रसून की वानर-सेना सभी पुराने कद्दावरों को किनारे लगा कर पार्टी पे कब्ज़ा करने में जुटी है। केजरू खुद तो नीरो की तरह बेंगलुरु में जिंदल के खातिरदारी में बांसुरी बजा रहा है और पार्टी में उसके चाटुकार व मीडिया में उसके खबरची दलाल (पुण्य प्रसून) बाक़ी नेताओं का चरित्रहनन करने में जुटे हैं। और मारी गयी बेचारी दिल्ली की जनता, जो फ्री के वादों के चक्कर में ऐसे पलायनवादी इंसान को गद्दी पे बैठा दिया। कल्पना करो अगर 2002 में मोदी ऐसे पलायनवादी होते तो पार्टी-मीडिया-सी बी आई- एस आई टी-अदालत-एन जी ओ आदि आदि के दबाव में अब तक आत्महत्या कर चुके होते। लेकिन कहाँ मोदी और कहाँ भगोड़ा केजरू, 15 दिन में ही असलियत सामने आ गयी।