देश का सच यही है कि जो सत्ता में रहता है वह गरीब और किसान विरोधी होता ही है। और जब सत्ता का विरोध करते हुये विरोधियो को सत्ता मिल जाती है तो वह गरीब और किसान विरोधी हो जाता है और फिर कल तक जो सत्ता में थे वह गरीब और किसानो के हक में नारे लगाने लगते हैं। यानी हर दौर में विपक्ष के हाथ में सबसे ताकतवर हथियार किसान मजदूर या कहें हाशिये पर पड़े लोगों के हक में नारा लगाना ही होता है और सत्ता में आने के बाद कारपोरेट और विदेशी निवेश से लेकर उघोगो के लिये खेती की जमीन छिनने के अलावे कोई मॉडल किसी के पास होता नहीं है। नेहरु का विरोध करने वाले लोहिया के चेले किस राह पर है यह देश से छुपा नहीं है। इंदिरा का विरोध करने वाले जेपी के भक्त लत्ता पाने के बाद किस रास्ते चले यह भी किसी से छुपा नहीं है। राजीन गांधी को कटघरे में खडाकर सत्ता पाने वाले वीपी सिंह कहां कैसे फिसले यह सच हर किसी के सामने है। और ताजा यादों में वाजपेयी के दौर की शाइनिग इंडिया की हवा सोनिया गांधी की अगुवाई ने निकाली। और मनमोहन सिंह के विकास की रफ्तार को स्कैम इंडिया बताकर हर चुनावी सभा में नरेन्द्र मोदी ने हवा निकाली। और अब मोदी सत्ता में है तो राहुल गांधी को किसान-मजदूर याद आ रहे हैं।
यानी देश की सबसे बडी त्रासदी यही है कि किसी भी सत्ता के पास देश के गरीब और किसान मजदूर की जिन्दगी पटरी पर लाने के लिये कोई ब्लू प्रिंट तो है ही नहीं। उल्टे विकास की जिन नीतियों को सत्ता अपनाती है उसमें देश की खनिज संपदा की लूट से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार से लेकर पीने के पानी सरीखी न्यूतम जरुरतो को भी कारपोरेट के हवाले कर मुनाफा बनाने के धंधे में तब्दील करती चली जा रही है। असर इसी का है कि राहुल गांधी जब मोदी के आधुनिक मेक इन इंडिया पर यह कहकर चोट करते हैं कि किसान भी तो मेक इन इंडिया है तो देश को अच्छा लगता है। क्योंकि बदलती सत्ता के बीच भी देश कभी नहीं बदला और एक ही देश में दो देश हमेशा नजर आये । मौजूदा वक्त में आलम यह चला है कि एक तरफ खेती पर टिके अस्सी करोड लोगो की दो जून की रोटी से जुडा सरकारी खर्च है तो दूसरी तरफ उससे कही ज्यादा आठ कारपोरेट का टर्न ओवर। इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी जब मेक इन इंडिया का जिक्र करते है तो विदेशी निवेश को लेकर सवाल उठते है और जब प्रधानमंत्री भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने का जिक्र करते हैं तो कारपोरेट के लिये किसानों की जमीन छीनने का सवाल खड़ा हो ताजा है। यानी मेक इन इंडिया के जरीये उत्पादन पैदा करने वाला देश भारत हो सकता है और खेती की जमीन को मेक इन इंडिया से जोडकर किसान की बदहाली खत्म की जा सकती है इसपर देश का भरोसा जागता नहीं है। तो पहला सवाल यही है कि आखिर सरकार पर भरोसा जाग क्यों नहीं रहा है। जरा इस सिलसिले को समझे तो पीएम कहते है विदेशी निवेश के लिये रास्ता बनाना जरुरी है। देशी निवेशक कहते है लालफिताशाही और भ्रष्टाचार तो खत्म कीजिये। पीएम कहते है चीन की तरह भारत को मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बनायेगें । तो रिजर्व बैंक के गवर्नर रधुराम राजन कहते है सिर्फ़ मैन्युफ़ैक्चरिंग पर ध्यान देने से बात नहीं बनेगी। अब सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी मेक इन इंडिया कहकर निवेशकों के कान में मिसरी घोल रहे हैं. क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में विकास दर में गिरावट आई । गवर्नेंस चौपट दिखी। सत्ता के दो पावर सेंटर हो गये। घोटालों की बाढ़ आ गई। और मोदी ने आते ही सबसे पहले उन्हीं हालातों पर चोट की जो मनमोहन सरकार की देन थी। और जनता का भरोसा जागा कि शायद इसबार कुछ बदल होगा क्योंकि पीएम की कुर्सी पर बैठने वाला शख्स लुटियन्स की दिल्ली का नहीं है। यानी उस राजनीतिक गलियारे का नहीं है जहां हर पार्टी के राजनेता राजनीतिक धिंगा-कुश्ती करते ज्यादा नजर आते है लेकिन होते सभी एक हैं। इसलिये मोदी जब कहते है कि ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा तो यह अच्छा लगता है। लेकिन बीतते वक्त के साथ फिर वहीं सवाल खड़ा होता है कि सिस्टम बदलेगा कैसे। यानी हाशिये पर पडे तबके की सुध लेगा कौन। क्योंकि देश की मुश्किल तो काम करने वाले युवा हाथों में काम का नहीं होना है। खेती की जमीन खत्म होने पर बेरोजगारी के बढने का है। इन्फ्रास्ट्रक्चर सिर्फ उद्योगों या कारपोरेट के लिये है। यानी किसानी करते देश के सबसे ज्यादा लोगो को उघोग से जुड़ा मानने की हालत में सरकार है नहीं। उल्टे मेक इन इंडिया के बाद बड़े ज़ोर-शोर से ' डिज़िटल इंडिया' और 'स्किल्ड इंडिया' का जिक्र किया गया । लेकिन वित्त मंत्री संसद में तर्क देते है कि विकास दर बढेगी तो पूंजी आयेगी और फिर सिचाई पर भी ध्यान दे दिया जायेगा । अब सवाल है कि वित्त मंत्री को अगर सही माना जाये तो फिर मेक इन इंडिया के मातहत जो 25 क्षेत्र चुने गये उनमें ऊर्जा, ऑटोमोबाइल, कंस्ट्रक्शन और फ़ार्मा जैसे क्षेत्र शामिल हैं.लेकिन खेती तो है ही नहीं । और खुद सरकार मानती है कि
औद्योगिक विकास के लिए ज़मीन चाहिए । यानी सरकार की प्राथमिकता मेक इन इंडिया के जरीये विकास दर बढाने की है । उससे कमाई गई पूंजी को खेती में लगाने का जिक्र हो रहा है । यानी वही रास्ता जिसका जिक्र वित्त मंत्री से लेकर पीएम बनने तक मनमोहन सिंह 1991 से 2014 तक करते रहे । और उससे उपजे असंतोष ने ही मोदी को पीएम बना दिया। लेकिन अब सिर्फ शब्द बदले जा रहे हैं। लेकिन नीतियां जस की तस । तो फिर क्या माना जाये कि पीएम का दांव सिर्फ लुभाने वाला है । क्योंकि कालेधन से लेकर दागी सांसदों तक के सवाल पर तो पीएम ने जो कहा उससे अब साल पूरा होते होते बदल रहे है या कहें फिसल रहे है। गद्दी संभालने का बर पूरा होने का महीना भी शुरु हो चुका है। याद कीजिये जून 2014 में संसद में पीएम मोदी ने ताल ठोंक कर कहा था कि साल भर के भीतर संसद में कोई दागी नहीं बचेगा। सभी की फाइल खुलेंगी। जो दोषी होगा वह जेल जायेगा। जो पाक साफ होगा वह छाती ठोंक कर संसद में बैठेगा। लेकिन सच तो यह है कि मोदी मंत्रिमंडल के 64 मंत्रियो में 20 दागी हैं। संसद के भीतर 543 सांसदों में से 185 सांसद दागी हैं। इनमें सबसे ज्यादा बीजेपी के 281 सांसदो में से 97 दागी हैं।
असल में सत्ता दागदार होकर भी दागी नहीं होती । नैतिकता हर बार नेता से हार जाती है। क्योंकि संसद ही नही देश के कमोवेश हर विधानसभा की हालत यही है कि वहा दागियों की भरमार है। लेकिन कोई कहता है उसे राजनीतिक तौर पर फंसाया गया तो कोई कहता है मुकदमा ही फर्जी है । अब कहे कोई कुछ भी लेकिन
देश का सच है कितना खतरनाक यह भी देख लिजिये। नेशनल इलेक्शव वाच के मातहत एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक। मौजूदा संसद में अगर 34 फिसदी सांसदो के खिलाफ आपराधिक या भ्रषटाचार के मामले हैं। तो इसी तरह राज्यसभा के 232 सांसदो में से 40 दागी हैं। और तो और 13 राज्यों की सरकार के 194 मंत्रियों में से 44 दागी हैं। और देश के तमाम विधायको का जिक्र करें तो कुल 4032 विधायको 1258 विधायक दागी हैं। यानी देश के 36 फिसदी विधायकों के खिलाफ आपराधिक और भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। तो सवाल यह हो चला है कि सुप्रीम कोर्ट ने आठ महीने पहले ही प्रधानमंत्री समेत देश के तमाम मुख्यमंत्रियों को यह सुझाव भी दिया था कि वह अपने मंत्रिमंडल में तो कम से कम दागियो को ना रखे। लेकिन जब तेरह सीएम और पीएम तक इस हालत में नहीं है कि वह दागियों को अपने मंत्रिमंडल में ना रखें तो फिर किसान-मजदूर के सवाल सिवाय सियासत के कहा मायने रखेंगे। और अगर कोई यह सोच रहा है कि सियासी हंगामे से ही सही किसानों की हालत कुछ तो सुधर सकती है। तो जमीनी सच यही है कि बीते 25 बरस में पहली बार किसानों की आत्महत्या की रफ्तार सबसे तेज है। 2006 में हर सात घंटे एक किसान खुदकुशी करता था आज की तारिख में हर 5 घंटे में एक किसान की आत्महत्या की खबर आ रही है। इस बरस पहले 120 दिनों में ही छह सौ किसानों खुदकुशी कर चुके है।
Thursday, April 30, 2015
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क्यों सत्ता में आते ही बदल जाते नेता? |
Tuesday, April 28, 2015
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किसानों के अंधेरे घर से सियासी दीया जलाने का हुनर |
यह कल्पना के परे है कि मरते किसानों के बीच से कुछ किसानो को चुन लिया जाये और फिर उनके परिवारो के रुदन में शरीक होकर सियासत साधी जाये। राजस्थान में दर्जनो किसानो की मौत हो गई लेकिन आप ने दौसा के किसान गजेन्द्र को चुना। कांग्रेस के नेता सचिन पायलट और गहलोत को लगा यह घोखा होगा तो वह गजेन्द्र की मौत के 48 घंटे बाद एक और किसान परिवार के घर ढांढस बंधाने पहुंचे। बीजेपी के नेता खुदकुशी करते किसानो में से चंद के घरो की सांकल बजा आये। और अब राहुल गांधी विदर्भ के उस इलाके में किसानों के बीच सियासी अलख जगाने निकलेगें जो इलाका किसानो के लिये मरघट हो चुका है। 30 अप्रैल को नागपुर से 145 किलोमीटर दूर अमरावती के घामनगांव तालुका और चांदुर तालुका के दर्जन भर गांव में 15 किलोमीटर पैदल चल कर चुने गये उन नौ किसानों के घर पर दस्तक देंगे जो अब दुनिया में नहीं है। यह ठीक वैसे ही है जैसे 29 जून 2006 को मनमोहन सिर्ह बतौर प्रधानमंत्री यवतमाल पहुंचकर 34 विधवाओ से मिले थे। और उसके बाद किसानो के लिये करोडों के पैकेज का एलान कर दिल्ली वापस लौट आये। लेकिन उसके बाद देश विकास की चकाचौंध तले दौड़ने लगा। और चकाचौंध से आहत तब विदर्भ के बीजेपी के ही नेता देवेन्द्र फडनवीस हो जो अब महाराष्ट्र के सीएम हो या फिर नीतिन गडकरी जो अब मोदी सरकार में मंत्री हैं, अक्सर विदर्भ के किसानों के दुख में यह कहकर शरीक होते रहे कि मनमोहन सरकार का कोई ध्यान किसान पर नहीं है। उस वक्त निशाने पर महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार भी आई। देवेन्द्र फडनवीस ने तो किसानों को लेकर काग्रेस एनसीपी सरकार को इस तरह कटघरे में खड़ा किया जैसे हर किसान को लगा कि वाकई सत्ता बीजेपी की होती तो किसानों का भला हो जाता। लेकिन किसे पचा था कि दिल्ली और महाराष्ट्र दोनों जगहों पर बीजेपी की सरकार होगी लेकिन किसानों की आत्महत्या का आंकडा नया रिकार्ड बनाने लगेगा।
यानी जो किसानो की जो मौत 2006-07 में सबसे ज्यादा होती थी उसे भी 2014-15 का दौर पीछे छोड़ देगा। तब हर सात घंटे में एक किसान खुदकुशी करता था और मौजूदा वक्त में हर छह घंटे में किसान खुदकुशी कर रहा है। विदर्भ में इसी बरस 468 किसान खुदकुशी कर चुका है। लेकिन नया सवाल तो खुदकुशी करते किसानो की कब्र पर सियाली रोशनी फैलाने का है । क्योंकि अमरावती में इसी बरस 54 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। मनमोहन सिंह की सत्ता के दौर में तेरह सौ से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की । लेकिन राहुल गांधी के लिये खास तौर से आत्महत्या कर चुके नौ किसानों को चुना गया जिनके घर राहुल गांधी जायेंगे। अब कल्पना किजिये कि जिस अमरावती के हर गांव में किसान आत्महत्या कर रहा है वहा के तलेगांव, आर्वी, कोन्डण्पुर , अंजनसिंगी को चुना गया । और इन चार गांव में से तीन किसान परिवार की विधवाओं के साथ या जिन बच्चो के सिर से बाप का साया उठ गया उन बच्चों के साथ बैठकर राहुल गांधी दर्द बांटेंगे। तो क्या पहला सवाल गांव के बीच यह नहीं उठेगा कि जब दर्जनों किसानों ने यहा खुदकुशी की है तो फिर खुदकुशी कर चुके सिर्फ तीन किसान निलेश भारत वाडके, अंबादास महादेव वाहीले और किशोर नामदेव कांबले के दरवाजे पर ही राहुल गांधी क्यों पहुंचे। और इसके बाद अमरावती के ही चांदुर रेलवे ताल्लुका के तीन गांव के छह किसानों के घर जा
कर परिजनो से दुख दर्द बांटेंगे जिनके घर आत्महत्या की आग अभी भी सुलग रही होगी। खुदकुशी कर चुके किसान कचरु गोमा तुपसुंदरे ,मारोतराव नेवारे , माणिक लक्ष्मण ठवकार,अशोक मारोतराव सातपैसे ,रामदास अडकिने और शंकर अडकिने के घर पर भी दुखियारे मां बाप होंगे। विधवाएं होंगी। छोटे छोटे बच्चे होंगे।
राहुल गांधी वहां पहुंचेंगे तो न्यूज चैनलो के कैमरे भी पहुंचेंगे। और उसके बाद समूचा देश उन घरो के भीतर के हालातों को देखेगा। परिजनो के आंसुओं को देखेगा। भर्रायी आवाजों से नौ किसानों के परिवार के दर्द को देश का दर्द मान कर किसानो का रोना रोयेगा। हो सकता है इसके बाद महाराष्ट्र की सीएम भी जागे। चूंकि वह खुद नागपुर के है तो विदर्भ के खुकुशी करते किसानो के बीच जाकर अपने होने का एहसास करें। फिर मोदी सरकार के मंत्री नितिन गडकरी भी विदर्भ के किसानों की फिक्र कर सकते हैं। यानी जिस तरह 2006 में मनमोहन सिंह पहुंचे । 2007 में वर्धा के किसान वानखेडे की खुदकुशी के बाद सोनिया गांधी पहुंचीं। 2008 में किसान यात्रा निकालने राजनाथ सिंह वर्धा पहुंचे। और अमरावती से लेकर यवतमाल तक नाप आये। 2009 में उद्दव ठाकरे नागपुर पहुचे और चन्द्रपुर से लेकर यवतमाल तक किसानों के दर्द को समेट वापस मुब्ई पहुंच गये । 2010 में शरद पवार पहुंचे । वह भी विदर्भ का रोना रोकर दिल्ली की सियासत में यह कहते हुये गुम हो गये कि किसान तो राज्य का मसला है केन्द्र इसमें क्या कर सकता है । यह सिलसिला हमेशा हर बरस चलता रहा। वैसे याद कीजिये तो 2009 में राहुल गांधी विदर्भ से कलावती को खोज लाये थे और दिल्ली के राजनीतिक गलियारे
में कलावती अंधेरे में रोशनी दिखाने वाला नाम हो गया। यानी जब जब दिल्ली अंधेरे में समाती है तब तब उसे अंधेरे में समाये किसानों की याद आती है और उसी उर्जा को लेकर दिल्ली की सियासत तो हर बार चमक जाती है लेकिन किसानों का अंधेरा कही ज्यादा घना हो जाता है। और इस बार तो यह अंघेरा इतना घना है कि 2015 के पहले सौ दिनो में देश में 1153 किसान खुदकुशी कर चुके हैं।यानी हर दो घंटे एक किसान की खुदकुशी।
Sunday, April 26, 2015
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बीच बहस में भूकंप के सामने तमाशबीन देश |
पहले बेमौसम बारिश , फिर ओलावृष्टि, उसके बाद तूफानी हवा और अब भूंकप । क्या यह सब सिर्फ प्राकृतिक विपदा या प्रकृति के बदलाव के संकेत है या प्रकृति के साथ मनुष्य के खिलवाड का नतीजा । हो जो भी लेकिन प्रकृति को समझने या प्रकृति को उसके मुताबिक ना चलने देने की बहस तो पैदा हुई ही है । और वही लोग प्रकृति के साथ विकास के नाम पर खिलवाड को लेकर परेशान हो चले है जो विकास की चकाचौंध में सुविधाओं से लैस होने के लिये मचल रहे हैं । कमाल यह है कि दो दिनो में दो बार भूंकप के झटके ने दो तरह से लोगों को सोचने के लिये मजबूर कर दिया है । पहला जमीन पर तकनीक का बोझ ना डाले और दूसरा तकनीक के आसरे प्राकृतिक आपदा से बचने के उपाय खोज लिये जायें । यह अलग मसला है कि कि दोनों ही क्षेत्र में कोई काम सरकारों ने किया नहीं । जनता ने रुचि दिखायी नहीं । और बडे बुजुर्गों का यही ककहरा हर किसी को याद रह गया कि प्रकृति के सामने तो विज्ञान भी नहीं टिक पायेगा या जब धरती डोलेगी तो मानव की कोई भी ताकत उसे रोक ना पायेगी । लेकिन झटके में अब हर किसी को स्मार्ट सिटी नहीं स्मार्ट गांव याद आने लगे हैं । पेड़ पौधो के साथ खेत फसल से लेकर गाय को बचाने तक के शिगूफे चल पड़े हैं । तो दूसरी तरफ जापान की तर्ज पर हर इमारत को भूंकपरोधी बनाने की दिशा में नियम-कायदो का जिक्र हो चला है । डिजास्टर मैनेजमेंट के रेवेन्यू मंत्रालय के अधीन होने पर सरकार की सोच पर हंसा जा रहा है और दुनिया के तमाम देशों में विकास और
प्रक़ति के बीच के तालमेल को लेकर चल रही बहस की भारत में गुंजाइश तक ना होने का रोना रोया जा रहा है । गजब के नजरिये से भारत को देखने समझने की गुंजाइश न्यूज चैनलों के स्क्रीन से लेकर जेएनयू और आईआईटी के गेट पर युवाओ के जमावडों के बीच पैदा हो चली है ।
वैसे भूंकप के बाद उठते सवाल शनिवार-रविवार की बहस का हिस्सा बनेंगे ही नहीं बल्कि देश के आर्थिक सुधार पर अंगुली उठा देगी यह तो कभी नई पीढी के युवाओं के बीच खड़े होकर
जाना समझा नहीं । लेकिन भूंकप ने विकास को लेकर उठते सवालों को जितना आयाम दिया वह संभवत भू-वैज्ञानिकों के इस मत पर भारी पड जाये कि भूकंप की वजह टोक्टोनिक प्लेट का टकराना मात्र है । या फिर भारतीय टोक्टोनिक प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकरा कर नीचे दबते चले जाने की प्रक्रिया अभी भी जारी है । यानी हिमालय क्षेत्र में जमीन के हिलने की वजह भारतीय प्लेट के उपर हिमालय के बढते बोझ से फाल्ट के पैदा होने और उस गैप को भरने की प्रक्रिया भर है । तो वैज्ञानिक जो बताये लेकिन दिल्ली की बहस के बीच यह सवाल कही ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है कि हिमालय के साथ खिलवाड़ । हिमालय रेंज में निर्माण भूकंप के लिये रास्ते बना रहा है । और टाइटोनिक प्लेट भी अगर टकरा रही है तो उसकी बडी वजह खनिज संपदा से लेकर जमीन पर प्रकृति का खुला दोहन ही सच है । लेकिन दोहन को लेकर नजरिया सिर्फ पेडों के काटने या परमाणु संयत्र के लगाने भर का नहीं है । और ना ही तकनीक पर टिकी जिन्दगी को ही विकास मानना है । बल्कि अर्से बाद भूकंप ने उन सवालों को जन्म दिया है जो सवाल नई पीढी के रोजगार के रास्ते बाधक है । मसलन खेती के जरिये देश की जीडीपी बढ नहीं सकती । लेकिन जीडीपी के बढने से देश का पेट भी नहीं भरता । ज्यादा से ज्यादा शहर बनाने की वकालत के बाद स्मार्ट सिटी का मतलब होगा क्या । जब भारत की नई पहचान दुनिया के सबसे ज्यादा बेरोजगार और गरीब शहरी के तौर पर होने लगी है तो फिर गांव को और बेहतर
गांव बनाने से आगे शहर में तब्दिल करना करने का फैसला कहा तक सही है । जितनी बडी तादाद में खेती की जमीन पर उघोग बने उतनी बडी तादाद में रोजगार क्यों नहीं मिले । खेती पर टिके लोगों की जिन्दगी अगर सिर्फ दो जून की रोटी ही उपलब्ध करा पाती है तो उद्योगों के भरोसे खेती पर टिके लोगो के रोजगार छिनने की एवज में सिर्फ तीन फिसदी लोगो को ही रोजगार मिलता है ।
इसी तरह जितनी खनिज संपदा उड़ीसा और झारखंड से लेकर बेल्लारी तक निकाल कर दुनिया के बाजारों में बेची गई उसके एवज में देश की चौबिस कंपनियों के टर्न ओवर में तो दो हजार फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ लेकिन जिस जमीन को खोखला किया गया वहा से ग्रामीण आदिवासियों के पलायन के साथ साथ बंजर जमीन का भी जन्म हुआ । राजस्थान, कर्नाटक, झारखंड , उड़ीसा और तेलगांना में ही सिर्फ बीस लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन नंगी पड़ी है । यानी वहां ना तो रिहाइश है और ना ही जमीन के नीचे पानी को बांधने वाले जमीन के उपर कोई हालात है । कमाल तो यह है कि दिल्ली आईआईटी के ही एक छात्र ने चर्चा में यह भी जानकारी दी कि देश में लग अलग वजहो से चाहे ग्रामीण आदिवासियों का पलायन होता रहा हो लेकिन सभी किसी सरकार ने यह नही बताया कि पानी की वजह से भी देश में लाखों लोगों का अपना पुश्तैनी घर-जमीन सबकुछ चोड कर जाना पड़ा । यानी सिर्फ डैम या पावर प्लाट की वजह से नहीं बल्कि देश में ऐसी जगहें हैं जहां जमीन के नीचे पानी बचा नहीं है । या फिर कुंओं के जरीये पानी निकालना मुश्किल है । या फिर पीने लायक पानी ही उपलब्ध नहीं है । इस तरह की जमीनों से आजादी के बाद से 2011 करीब 76 लाख लोग घरबार छोड़ चुके हैं । जबकि सरकारी योजना के दायरे में उघोगों की वजह से करीब 20 लाख लोगों का ही पलायन हुआ है । और खनन या खादान के वजहों से चौदह लाख लोग विस्थापित हो गये । यानी देश में आजादी के बाद अगर सरकारी कड़े साढे छह करोड़ लोगों को विस्थापित बताते हैं तो उसके भीतर का सच यह है कि इनमें से एक करोड लोग पानी और पर्यावरण की वजह से विस्थापित हुये हैं। यानी देश में विकास को लेकर जो भी अविरल धारा नेहरु के दौर से खिंचने का प्रयास हुआ है और मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री मोदी खिंचना चाह रहे है , संयोग से उसी पढने-लिखने वाली युवा पीढी को उनकी नीतियां संतुष्ट कर नहीं पा रही हैं , जिन्हें आधुनिक मेक इन इंडिया से जोडने का खवाब भी संजोया जा रहा है । तो कया सरकार की सोच और आईआईटी-जेएनयू के छात्रो से लेकर भूकंप को जानने समझने वाले विशेषज्ञों की नजर में भारत को आगे बढ़ाने के रास्ते अलग हैं । रास्ते अलग नहीं है लेकिन विकास किसके लिये और विकास की किमत के बदले खोने वालों की हथेली पर बचता क्या है इसका कोई ब्लूं प्रिट अगर किसी सरकार के पास नहीं है तो फिर भूकंप से मरने वालों की तादाद कितनी भी बडी क्यों ना हो वह कम लगेगी । क्योंकि न्यूज चैनलों पर किसानो के संकट के वक्त लगातार तल रहा था कि बीत बीस बरस में तीन लाख बीस हजार किसानों ने खुदकुशी कर ली । आर्थिक सुधार के बाद से यानी 1991 से लेकर 2011 तक 85 लाख किसानों ने किसानी छोड़ दी ।
इसी दौर में देश में खेतीहर मजदूरों की तादाद में तीन करोड़ से ज्यादा का इजाफा हो गया । और इसी दौर में देश के टॉप दस कारपोरेट के टर्नओवर खेती की उस जबट के बराबर हो गया जिसपर देश के अस्सी करोड़ लोग टिके हैं । इसी दौर में देश में इतना निर्माण हुआ जितना 1947 से लेकर 1995 तक हुआ था । यानी सड़क से लेकर रिहाइशी घर और उघोगो से लेकर बांध और सड़क तक जितना भी निर्माण हुआ है उसने बीते पांच दशकों के निर्माण की बराबरी कर ली है । यानी जो भूकंप 1934 में आया था और जिसने हिमालय से लेकर बिहार के मुंगेर तक एसी तबाही मचायी थी कि लाखो लोग बेधर हो गये थे । करीब आठ हजार लोगो की मौत बिहार में हुई थी । अगर उस तरह का भूकंप दोबोरा आये तो मौक के आंकडों के सामने गिनती छोटी पड़ जायेगी क्योंकि सारी मौतों की वजह निर्माणधीन इमारतें ही रही है । जेएनयू के छात्रो के बीच चर्चा में राजनीतिक घोल तो आयेगा तो फिर आंकडें भी खुल कर सामने आ गये कि सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के दौर में भी देश की 25 कंपनियों-कारपोरेट को जो जमीन दी गई उसमें 70 पिसदी से ज्यादा तो खेती की जमीन ही थी । दिल्ली
से सटे गुडगाव में रिलायंस को 10117 हेक्टेयर जमीन दी गई । जहां ज्वार, बाजरा, धान, गेहू सब होता था । 49 गांव बर्बाद हो गये । इसी तरह महाराष्ट्र के रायगढ में तो 14 हजार हेक्टेयर जमीन पर रिलायंस इंडस्ठ्री
खड़ी हुई । यहा तो समूची जमीन ही खेती की थी । 47 गांव बर्बाद हुये लेकिन फिक्र किसे है । जो अब कांग्रेस मोदी को कारपोरेट की बताते हैं और मोदी भी अंबानी अडानी को नहीं कहकर सभी को खुश कर देते है । तो फिर अगला सवाल भूस्खलन का होगा । क्योंकि भूस्खलन ना हो इसके लिये प्रकृति के सारे रास्ते विकास के नाम पर ही खत्म कर दिये गये है । सरकार का नजरिये किस हद तक प्रकृति के खिलाफ है या पर्यावरण उसकी किताब से बाहर की चीज है यह जेएनयू के छात्र के इस तर्क से ही उभर आया कि देश में एसईजेड के नाम पर सिर्फ पांच राज्य महाराष्ट्र,आध्र प्रदेश, यूपी, राजस्थान और गुजरात में जो जमीन ली गई उसमें से 45 फिसदी जमीन ना तो किसी के हवाले की गई ना ही जमीन पर किसान या स्थानीय ग्रमीणो को कोई उपज उपजाने की इजाजत दी गई । आसम यह है कि देश में एसाईजेड की दो लाख पचपन हजार हेक्टेयर जमीन पडी पडी बंजर हो गई । और करीब पौने दो लाख जमीन उधोगो के हवाले कर भी बिना काम पड़ी है क्योकि उसपर निर्माणाधीन उघोगों को कुछ और जमीन चाहिये लेकिन अब उसे ले कैसे यह सियासी आंदोलन के सौदेबाजी में जा फंसा है । यानी सवाल सिर्फ एसी , फ्रिज और सडको पर दौडती तीस करोड से ज्यादा दौड़ती गाडियों भर का नहीं है । बल्कि भूकंप के हालात पैदा कर भूंकप के लिये सबसे अनुकुल जमीन पर रिहाइश की इजाजत देने की भी है । और भूंकप आने पर बचा कैसे जाये इस दिशा में आंख मूंद लेना भी है । क्योंकि दिल्ली ही सिस्मिक जोन नं 4 पर है । उसमें यमुना की जमीन पर खडी इमारतों की कतार के साथ साथ सरकारी इमारतें भी मौजूद हैं । लेकिन दिल्ली में कभी किसी स्तर पर इस सच को परखने की कोशिश की ही नहीं गई कम से कम यमुना की जमीन पर निर्माण होने वाली इमारतों को भूकंपरोधी बनाना जरुरी कर दिया जाये । आलम तो यह है कि कामनवेल्थ गेम्स के दौर में बनी इमारते भी पूरी तरह भूंकपरोधी नहीं है । जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले बरस तो दिल्ली एनसीआर को लेकर चिंता जताते हुये हुये निर्माणाधीन इमारत को भूकंपरोधी बनाने की दिशा में कदम उठाने को कहा । विशेषज्ञों की मानें तो भूकंपरोधी तकनीक अपनाते हुये निर्माण करने में बीस से पच्चीस फिसदी खर्च ज्यादा लगता है । लेकिन दिल्ली में रिहाइश तो दूर माल और सिनेमाहाल तक भूकंपरोधी नहीं है । यानी प्रकृति के सामने कोई कुछ कर नहीं सकता यह सोच कर कर ही विकास की लकीर खिंच कर उसे जिन्दगी जीने के लिये जब सरकारी स्तर पर जरुरी बनाया जा रहा है तो फिर बचाने के लिये डिजास्टर मैनेटमेंट की सोच भी क्या कर लेगी । जिसके लिये अलग मंत्रालय नहीं है कोई अलग से मंत्री नहीं है । राजस्व मंत्रालय संभालने वाले मंत्री को ही भूकंप से प्रभावितों को बचाने के लिये उपाय खोजने हैं । है ना कमाल की सोच । जबकि इन सब के बीच भूगर्भ वैज्ञानिक जेके बंसल का मानना है कि नेपाल से 32 गुना अधिक शक्तिशाली भूकंप के आने की आशंका अभी हिमालय और उसके आसपास के इलाकों में बनी हुई है।
Tuesday, April 21, 2015
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आंदोलन की रोशनी सियासी अंधेरे में कैसे बदल गई ? |
अगर पत्रकार रहते हुये आशीष खेतान कारपोरेट घरानों के प्यादे बनने से नहीं कतरा रहे थे। अगर पंकज गुप्ता हर हाल में पार्टी फंड बढ़ाने के लिये हर रास्ते को अपनाने के लिये तैयार थे। अगर कुमार विश्वास कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के बीच झूलते हुये केजरीवाल को नजर आ रहे थे। अगर सत्ता की मद में राखी बिडला के सरोकार अपने परिवार तक से नहीं बचे हैं। अगर योगेन्द्र यादव हर हाल में अपने समाजवादी चिंतन तले समाजवादी कार्यकर्ताओं को संगठन के अहम पदों पर बैठाने के लिये बैचेन थे। अगर प्रशांत भूषण पार्टी के भीतर अपनी डोलती सत्ता को लेकर बैचेन थे। अगर शांति भूषण के सपनो की आम आदमी पार्टी उनके वैचारिकी के साथ खड़ी नहीं हो पा रही थी। अगर पार्टी के भीतर अहम पदो से लेकर अहम निर्णयों पर रस्साकसी जारी थी। बावजूद इसके दिल्ली चुनाव तक किसी ने किसी का मुखौटा नहीं उतारा और सत्ता मिलते ही अपनी पंसद के मुखौटों को अपने पास रखकर हर किसी ने हर चेहरे से मुखौटा उतारना शुरु कर दिया तो फिर आम आदमी पार्टी का चेहरा बचेगा कहां से । और जो आम आदमी वाकई बचा है उसके जहन में तो यह सवाल आयेगा ही कि जब राजनीतिक सत्ता से मोहभंग के हालात मनमोहन सिंह सरकार के दौर में पैदा हो चले थे तो अन्ना आंदोलन ने ही उम्मीद जगायी क्योंकि उसके निसाने पर सत्ता के वह मुखौटे थे जो जनता की न्यूनतम जरुरतो के साथ फरेब कर रहे थे। इसीलिये मनमोहन सरकार के 15 कैबिनेट मंत्री हो या बीजेपी के उस दौर के
अध्यक्ष।
भ्रष्टाचार के कठघरे में बिना लाग लपेट तलवार हर किसी पर चली। लेकिन मुखौटे उतरने के दौर में अगर यह सच उघड़ने लगे कि जिन्हें केजरीवाल कटघरे में खड़ा कर रहे थे, उन्हीं के साथ मौजूदा आप नेताओ के ताल्लुकात रहे तो? यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि दिल्ली की सत्ता चलाने वालो में आशीष खेतान दूसरे नंबर के खिलाडी बन चुके है लेकिन पत्रकारिता करते हुये क्रोनी कैपटलिज्म से लेकर पेड न्यूज को बाखूबी कैसे उन्होने अपनाया अब यह प्रशांत भूषण के पीआईएल का हिस्सा हो चुका है। कुमार विश्वास अमेठी में राहुल गांधी को चुनौती देने वाले एसे कवि निकले, जिनकी धार राजनीतिक मंच पर भी पैनी दिखायी दी। लेकिन भाजपा से साथ संबंधो के हवाले की हवा पहली बार आप के भीतर से ही निकली और पिछले दिनों कांग्रेसी नेता कमलनाथ के साथ बैठक के दौर का जिक्र भी कांग्रेसी दफ्तर से ही निकला। तो क्या आप के लिये सत्ता जीवन-मरण का सवाल बन चुकी थी । या फिर आप एक ऐसी उम्मीद की हवा में खुद ब खुद बह रही थी जहा जनता का मोहभंग सत्ता से हो रहा था और उसे हर बुराई को छुपाते हुये आप के धुरधंर सियासी सेवक लग रहे थे । यानी दबाब आम जनता का था कि अगर केजरीवाल की पार्टी खामोशी से हर जख्म को पीते चली जाये और अपने झगडो की पोटली को छुपा ले जाये तो चुनाव में जीत मिल सकती है। ध्यान दें तो आप के भीतर का संघर्ष सियासी कम उम्मीद से ज्यादा मिलने के बाद उम्मीद से ज्यादा पाने और तेजी से हथियाने की सौदेबाजी के
संघर्ष की अनकही कहानी ज्यादा है।
लेकिन अब यहा सवाल सबसे बड़ा यही है कि सत्ता का मतलब सियासत साधना है और वैचारिक तौर पर देश की राजनीति को रोशनी दिखाना है या फिर सत्ता का मतलब पांच बरस के लिये सत्ता के उन्हीं प्रतीकों को ठीक कर जनता के लिये किसी बाबू की तर्ज पर सेवा करते हुये पांच बरस गुजार देना काफी है। यानी सिस्टम का हिस्सा बनकर सिस्टम को सुधारने की कवायद या सिस्टम को ठीक करने के लिये राजनीतिक व्यवस्था में
सुधार। एक तरफ परेशान आम जनता को सुविधायें मुहैय्या करने में पांच बरस गुजरना या पांच बरस में उस राजनीतिक व्यवस्था को ठीक कर देना जिसके बाद कोई भी सत्ता में आये वह भ्र,ट्र ना हो । क्रोनी कैपटिलिज्म के रास्ते पर ना चले । लेकिन कुछ मुखौटो को उतार कर अपने मुखौटो को बचाने की कवायद तो सिस्टम को ठीक करने के बदले एक नये भ्रष्ट्र सिस्टम को ही खडा करेगी । जिसकी मिसाल पेड कार्यकर्ताओ को सरकार में नौकरी दिलाने के लिये दिल्ली डायलाग के तहत नौकरी के लिये 24 घंटे का एक विज्ञापन निकालने से समझा जा सकता है । यानी जो संघर्ष कर रहे थे क्या वह पेड थे । तब एनजीओ फिर पार्टी । और अब सरकार है तो पहले अपनो को रोजगार पर लगाये और सिस्टम बरकरार रहे इसके लिये विज्ञापन निकाल कर खानापूर्ति भी । यही काम तो बंगाल में हुआ । जह लेफ्ट कैडर ही सरकारी नौकर हो गया और ज्योती बसु से बुद्ददेव भट्टचार्य तक के दौर में उसी कैडर ने सरकारी नौकर बनकर सिस्टम को ही इतना खोखला कर दिया कि बंगाल में परिवर्तन की हवा बही तो मा , माटी, मानुष की थ्योरी भी सत्ता में आने के बाद सारधा चिटफंड में खो गयी । और यही काम तो केन्द्र में स्वयसेवको की सरकार के आने के बाद हो रहा है ।
हर अहम जगह संघ की विचारधारा से ओतप्रोत स्वयंसेवको को खोजा जा रहा है । और जो कभी स्वयसेवक रहे नहीं वह संघ को राष्ट्रवाद का चरम बताकर नौकरी पा रहे है । यही काम यूपी में समाजवादी कर रहे है । वहा यादववाद की गूंज है तो सैकडो भर्तिया नाम के आगे यादव देखकर तय हो रहा है । तो फिर केजरीवाल का रास्ता अलग कैसे होगा । और यही से विचारधारा का सवाल भी निकल सकता है कि सिर्फ नारो की गूंज या बिजली पानी के सवालो को माझना भर तो राजनीति नहीं है । शायद इसीलिये जब आंदोलन से पार्टी बनी तो ऐसे ऐसे सवाल उठे थे जो वाकई मौजूदा राजनीतिक धारा से इतर एक नई लकीर खिंचने की बेताबी दिखा रही थी । सितंबर 2012 की गुफ्त-गु सुन लिजिये । जो सडक पर संघर्ष करते है उन्हे महत्व ज्यादा दिया जाना चाहिये या जो वैचारिक तौर पर संघर्ष को एक राजनीतिक आयाम देते है महत्व उन्हे दिया जाना चाहिये । महत्व तो कैडर को देना चाहिये । जो संघर्ष करता है । क्योकि मौजूदा दौर में संघर्ष करने वाले कार्यकत्ता ही गायब हो चले है । और आम आदमी पार्टी तो संघर्ष का पर्याय बनकर उभरी है तो फिर संगठन का चेहरा कुछ ऐसा रहना चाहिये जिससे पार्टी पढे लिखो की बरात भर न लगे । बल्कि जो जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान में आंदोलन को खडा करने में लगे रहे । पार्टी संगठन में इन्हे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिये । यानी संगठन और संगठन के भीतर नेशनल एक्जूटिव क्या होती है इसे ना समझने वाले संतोष कोली को ज्यादा महत्व के साथ जगह मिलनी चाहिय जो जगह योगेन्द्र यादव को मिल रही है । यानी प्रतिकात्मक तौर पर योगेन्द्र यादव उस वर्ग की नुमाइन्दगी करते है जो संघर्ष को राजनीतिक विचारधारा का जामा पहनाने में सक्षम है और देश के बोध्दिक तबके को प्रभावित करने की क्षमता रखते है । वही संतोष कोली उस तबके की नुमाइन्दी करती है जो जिन्दगी की जद्दोजहद में सिर्फ अपने हक को समझता है । उसका संघर्ष हर राजनीतिक दल के लिये हथियार भर होता है उसे कभी वैचारिक तौर पर किसी भी पार्टी में जगह मिल नही पाती । और इस बहस के बाद ही आम आदमी पार्टी के भीतर वैसे लोगो का महत्व संगठन के दायरे में बढने लगा जो लगातार संघर्ष करते हुये आंदोलन से राजनीतिक दल बनाते हुये भी चुनावी संघर्ष में कूदने की तैयारी कर रहे थे । चेहरे नये थे । नाम बेनाम थे । जोश था । कुछ बदलने का माद्दा था । केजरीवाल पर भरोसा था । वही दूसरी तरफ पढे लिखे राजनीतिक समझ रखने वाले तबके में भी जोश था कि उनके विचारधारा को सडक पर अमली जामा पहनाने के लिये पूरी कतार खडी है जो सवाल नहीं करेगी बल्कि भरोसे के साथ राजनीतिक संघर्ष में खुद को झोंक देगी। केन्द्र में अरविन्द केजरीवाल ही थे। जो संघर्ष और बौद्दिकता का मिला जुला चेहरा लिये हुये थे। बौध्दिक तबके से संवाद करना और संघर्ष करने वालों के साथ भरी दोपहरी में भी सड़क पर चल देना । इस रास्ते ने 2013 में दिल्ली के भीतर चुनावी जीत की एक ऐसी लकीर खिंची जिसके बाद हर किसी को लगने लगा कि आम आदमी पार्टी तो दिल्ली के एक तबके के मानस पटल पर इस तरह बैठ चुकी है जहा से उसे मिटाना किसी भी राजनीतिक दल के लिये मुश्किल होगा क्योंकि हर राजनेता तो सत्ता की लड़ाई लड रहा है और हर पार्टी का कार्यकर्ता सत्ता से कुछ पाने की उम्मीद में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से जुड़ा है। हर बार हर किसी को सत्ता परिवर्तन या बदलाव सियासी शिगूफा से ज्यादा कुछ लगा नहीं। लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत आम जनता की होगी। वोट जनता को खुद को देना है । कमाल की थ्योरी थी। या दिल्ली ने पहली बार कांग्रेस-बीजेपी से इतर झांका तो उसके पीछे राजनीतिक दलो से मोहभंग होने के बाद एक खुली खिड़की दिखायी दी। जहां से साफ हवा आ रही थी। रोशनी दिखायी दे रही है। लेकिन यह हवा इतनी जल्दी बदलेगी या रोशनी घने अंघेरे में खोती दिखायी देगी। यह किसने सोचा होगा।
Wednesday, April 15, 2015
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जेपी नहीं सेल्फी युग में कितना टिकेगा जनता परिवार? |
पचास बरस पहले संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को समर्थन देने बिहार पहुंचे। लेकिन चुनाव हुये तो भी जनसंघ हाशिये पर ही रहा। पैंतिस बरस पहले संघ के मुखिया देवरस के इशारे पर बाबू जगजीवनराम को पीएम बनाने का सिक्का उछला गया लेकिन बिहार में सफलता फिर भी नहीं मिली। पच्चीस बरस पहले आडवाणी अयोध्या की छांव में बिहार तक पहुंचे लेकिन बीजेपी को बिहार में तब भी सफलता नहीं मिली। लेकिन 2015 में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार को भी मोदी के जादू पर भरोसा है तो क्या बिहार मोदी के खिलाफ विपक्ष की एकजूटता का एसिड टेस्ट साबित होगा। या फिर बिहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक सक्रियता का एसिड टेस्ट होगा । इन दो सवालों से इतर दो सवाल और भी हैं कि क्या बिहार जातीय गोलबंदी का एसिड टेस्ट होगा या फिर बिहार दलित-मुस्लिम वोट बैक के प्यादे से वजीर बनने की चाहत का एसिड टेस्ट लेगा। और अगर यह सब होगा तो क्या बिहार के विधानसभा चुनाव देश की राजनीतिक धारा की दिशा तय कर देंगे। यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योंकि सत्ता साधने के लिये पहली बार राजनीतिक दल ही यह तय कर रहे हैं कि उनकी सोच के हिसाब से वोटर भी चलेगा। जबकि वोटरों की नयी पौध को समझे तो शरद यादव या मुलायम के बार बार लोहिया जेपी का नाम लेकर राजनीति साधने से आगे मोदी अपने दौर में सेल्फी के आसरे राजनीतिक मंत्र फूंक रहे हैं।
इस महीन राजनीति की मोटी लकीर को समझे तो जनता परिवार की एकजुटता के पीछे जो विचारधारा बतायी गई वह सांप्रायिकता और जहर बोने की सियासत हैं। लेकिन लालू-मुलायम के पारिवारिक समारोह में सांप्रदायिकता का यही खैौफ रफूचक्कर हो जाता है। क्योंकि शाही विवाह समारोह में लालू-मुलायम ही संबंधों का प्रोटोकाल बताकर प्रधानमंत्री मोदी को आंमत्रित करते हैं। आगवानी करते है और वहां भी परिवार के सदस्य प्रधानमंत्री मोदी के साथ सेल्फी में खो जाते हैं। तो महीने भर पहले लालू का यह बयान कितना मायने रखता है कि जब बड़े दुशमन को ठिकाने लगाना हो तो छोटे दुशमन एक हो जाते हैं। और लगातार शरद यादव का यह बयान कितना मायने रखता है कि बीजेपी अब वह बीजेपी नहीं रही जिस बीजेपी के साथ वह खड़े थे। तो क्या लोहिया का गैर कांग्रेस वाद और जेपी का कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने की परिभाषा भी बदल गई है। क्योंकि तब गैरकांग्रेसवाद का नारा था अब गैर बीजेपी का नारा है। यानी इतिहास चक्र को हर कोई अपनी सुविधा से अगर परिभाषित कर रहा है तो फिर अगला सवाल बिहार की उस राजनीति का भी है जिसकी लकीर इतनी सीधी भी नहीं है कि वह जनता परिवार और मोदी के जादू तले सबकुछ लुटा दे। क्योंकि इन दो धाराओं से इतर दलित और मुस्लिम समाज के भीतर की कसमसाहट भी है और बिहार की राजनीति में हाशिये पर पडी अगड़ी जाति की बेचैनी भी। जो वोट बैक के जातिय गणित को भी डिगा सकती है और एक नई धारा को भी जन्म दे सकती है। नीतीश के दायरे को तोड़कर निकले जीतनराम मांझी अनचाहे में दलित चेहरा बन रहे हैं। लेकिन मांझी सत्ता साधने के लिये हैदराबाद से ओवैसी को बिहार बुलाकर अपने साथ खड़ाकर दलित -मुस्लिम वोट बैंक की एक ऐसी धारा बनाने की जुगत में है जो लालू-नीतीश के सपने को चकनाचूर कर दे। और सियासी संकेत भी बीजेपी के साथ ना जाने की दे दें।
अगर ओवैसी-मांझी मिलते हैं तो झटके में काग्रेस लालू-नीतीश के साथ खड़ा होने से कतरायेगी। यानी कांग्रेस की यह कश्मकश बरकरार रहेगी कि बीजेपी या मोदी का आखरी विकल्प तो वही है। तो फिर कांग्रेस क्षत्रपों के साथ खड़ा होकर राजनीति क्यो करे। यानी बड़े दुश्मन को हराने के लिये छोटे दुश्मन के साथ यारी का वोट गणित भी डगमागेया। लेकिन तमाम राजनीतिक कयासों के बीच बिहार को लेकर सबसे बडा सवाल सिर्फ राजनीतिक मंचों की उस विचारधारा भर का नहीं है बल्कि वोटरों की उस न्यूनतम जरुरत का भी है, जिसे लालू की सत्ता को नीतिश ने जंगल राज करार दिया और नीतिश की सत्ता को लालू यादव ने सुशासन बाबू का सांप्रदायिक चेहरा करार दिया। यानी बीते दो दशको से बिहार ने कभी लालू के रिश्तेदारों की बपौती से लेकर यादवों की ताकत देखी तो महादलित का राजनीतिक प्रयोग कर सत्ता पर बने रहने नीतिश की तिकड़म को समझा। इन दो धाराओं में भागलपुर के दंगों का जिक्र इसलिये भी जरुरी है क्योंकि दंगो के बाद ही लालू सत्ता में आये थे और कांग्रेस की सत्ता इसके बाद बिहार में लौटी नहीं। लेकिन 18 बरस बाद जब भागलपुर दंगो पर अदालत का फैसला आया तो कटघरे में यादव समुदाय ही खड़ा हुआ। भागलपुर की मल्लिका बेगम का सच आज भी भागलपुर दंगों की याद कर रोगटे खड़ा कर देता है। तो क्या राजनीतिक धारा 2015 में इतनी बदल चुकी है कि वह इतिहास के झरोखे में भी नहीं झांकेगी। या फिर वोटर के तौर पर खड़ी युवा पीढी शिक्षा, स्वास्थय और रोजगार के सवालों से जूझेगी। क्योंकि न्यूनतम जरुरतों से जुझते बिहार का सच यह भी है कि पीने के पानी से लेकर परीक्षा के दिने में अंधेरे में मोमबत्ती या लालटेन जलाकर पढने के हालात बिहार में अभी भी है । सार्वनजिक प्रणाली हर क्षेत्र में चौपट है । लेकिन जिसकी सत्ता उसकी लाल बत्ती का सिलसिला हर दौर में बरकरार है । और गुस्से में समाये बिहार के उन बच्चो ने यह सब देखा भोगा है जिनका जन्म ही जनता दल की आखरी टूट के बाद हुआ और आज की तारिख में वह 20 बरस का होकर वोट डालने की उम्र में आ चुके हैं। और सियासत का ककहरा सिखाते छह पार्टियों से बने जनता परिवार के नेताओं की औसत उम्र 70 पार की हो चली है।
Sunday, April 12, 2015
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10 महीने में 10 फीसदी 'प्रेस्टिट्यूट' और न्यूज ट्रेडर |
नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद वाकई किसी के दाग धुले तो वह न्यूज ट्रेडर ही है । याद कीजिये तो न्यूज ट्रेडर शब्द का इजाद भी नरेन्द्र मोदी ने ही लोकसभा चुनाव के वक्त किया । उससे पहले राडिया मामले
[ टू जी स्पेक्ट्रम ] से लेकर कामनवेल्थ घोटाले तक में मीडिया को लेकर बहस दलाल या कमीशन खाने के तौर पर हो रही थी । और मनमोहन सरकार के दौर में यह सवाल बड़ा होता जा रहा था कि घोटालो की फेहरिस्त देश के ताकतवर पत्रकार और मीडिया घराने सत्ता के कितने करीब है या कितने दागदार हैं । यानी मीडिया को लेकर आम लोगो की भावना कतई अच्छी नहीं थी । लेकिन सवाल ताकतवर पत्रकारों का था तो कौन पहला पत्थर उछाले यह भी बड़ा सवाल था । क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में हर रास्ता पूंजी के आसरे ही निकलता रहा । न्यूज चैनल का लाइसेंस चाहिये या मीडिया सस्थान में आपका रुतबा बड़ा हो । रास्ता सत्ता से करीब होकर ही जाता था । और सत्ता के लिये पूंजी का महत्व इतना ज्यादा था कि किसी नेता , मंत्री या सत्ता के गलियारे में वैसे ही पत्रकारो की पहुंच हो पाती जिसके रिश्ते कही कारपोरेट तो कहीं कैबिनेट मंत्री के दरवाजे पर दस्तक देने वाले होते । इंट्लेक्चूयल प्रोपर्टी भी कोई चीज होती है और उसी के आसरे पत्रकार अपना विस्तार कर सकता है यह समझ सही मायने में मनमोहन सरकार ने ही दी । इसीलिये जैसे ही मनमोहन सरकार दागदार होती चली गई वैसे ही मीडिया भी दागदार नजर आने लगी । ताकतवर पत्रकारों के कोई सरोकार जनता से तो थे नहीं । क्योंकि उस दौर में तमाम ताकतवर पत्रकारों की रिपोर्टिंग या महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग के मायने देखें तो हर रास्ता कारपोरेट या कैबिनेट के दरवाजे पर ही दस्तक देता । इसीलिये लोकसभा चुनाव की मुनादी के बाद जैसे ही खुलेतौर पर पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने न्यूज ट्रेडर शब्द गढ़ा वैसे ही जनता के बीच मोदी को लेकर यह संदेश गया कि मीडिया को लेकर कोई ईमानदार बोल बोल रहा है । इसका बडा कारण मनमोहन सरकार से लोगो का भरोसा उठना और मीडिया के आसरे कोई भरोसा जगा नहीं पाना भी था ।
गुस्सा तो जनता में कूट कूट कर कैसे भरा था यह खुलेतौर पर संसद को ही नकारा साबित करते अन्ना दोलन के दौर में जनता की खुली भागेदारी से हर किसी ने समझ लिया था । लेकिन उसे शब्दों में कैसे पिरोया जाये इसे नरेन्द्र मोदी ने समझा इंकार इससे भी नहीं किया जा सकता है । लेकिन नरेन्द्र मोदी समाज की इस जटिलता को समझ नहीं पाये कि मनमोहन सिंह अगर आवारा पूंजी पर सवार होकर मीडिया के उस सांप्रदायिक चेहरों के दाग को धो गये जो अयोध्या आंदोलन के दौर से वाजपेयी सरकार तक के दौर में ताकत पाये पत्रकार और मीडिया हाउसो को कटघरे में खड़ा कर रहा था । और मनमोहन के दौर के दागदार पत्रकार या मीडिया हाउस पूंजी के खेल से कटघरे में खड़े हुये । तो मोदी काल में फिर इतिहास दोहरायेगा और बदले हालात में उन्हीं ताकतवर या कटघरे में खड़े पत्रकारों या मीडिया संस्थानों को बचने का मौका देगा जो मनमोहन काल में दागदार हुये । क्योंकि मोदी के दौर में न्यूजट्रेडर तो पहले दिन से निशाने पर है लेकिन खुद मोदी सरकार ट्रेडिंग को लेकर निशाने पर नहीं आयेगी क्योंकि मोदी की लाइन मनमोहन सिंह से अलग है ।
तो मोदी काल में वह पत्रकार या मीडिया हाउस ताकतवर होने लगेंगे जो हरामजादे पर खामोशी बरते। जो चार बच्चों के पैदा होने के बयान को महत्वहीन करार दे । जो कालेधन पर दिये मोदी के वक्तव्य को अमित शाह की
तर्ज पर राजनीतिक जुमला मान ले । जो महंगाई पर आंखे मूंद ले । जो शिक्षा और हेल्थ सर्विस के कारपोरेटिकरण पर कोई सवाल न उठाये । जो कैबिनेट मंत्रियो की लाचारी पर एक लाइन ना लिखे । जो अल्पसंख्यकों को लेकर कोई सवाल न उठाये । जो सीबीआई से लेकर सीएजी और हर संवैधानिक पद को लेकर मान लें कि सभी वाकई स्वतंत्र होकर काम कर रहे है । सरकार की कोई बंदिश हो ही नहीं । यानी मोदी दौर के ताकतवर पत्रकार और मीडिया हाउस कौन होंगे । और क्या वह मनमोहन सिंह के दौर के ताकतवर पत्रकार या मीडिया घरानों की तुलना में ज्यादा बेहतर है । या हो सकते है । जब पत्रकार और मीडिया हाउसों को लेकर चौथे स्तंम्भ को इस तरह परिभाषित करना पड़े तो यह सवाल टिकता कहां है कि जो भ्रष्ट हैं , जो दलाल हैं , जो कमीशनखोर हैं , जो न्यूज ट्रेडर हैं , जो सांप्रदायिक हैं वह हैं कौन । और क्या किसी भी सरकार के दौर में वाकई मीडिया घरानो से लेकर इमानदार पत्रकारों को मान्यता देने का जिगर किसी सत्ता में हो सकता है । यकीनन नहीं । तो फिर अगला सवाल है कि क्या सत्ता भी जानबूझकर मीडिया से वहीं खेल खेलती है जहा मीडिया में एक तबका ताकतवर हो जो सत्ता के अनुकुल हो। या सत्ता के अनुकुल बनाकर मीडिया या पत्रकारों को ताकत देने-लेने का काम सत्ताधारी का है । जरा पन्नों को पलट कर याद किजिये वाजपेयी के दौर में जिन पत्रकारों की तूती बोलती थी क्या मनमोहन सिंह के दौर में उनमे से एक भी पत्रकार आगे बढ़ा । और मनमोहन सिंह के दौर
के ताकतवर पत्रकार या मीडिया हाउसो में से क्या किसी को मोदी सरकार में कोई रुतबा है । अगर सत्ता के बदलने के साथ साथ पत्रकारो के कटघरे और उनपर लगे दाग भी घुलते हैं। साथ ही हर नई सत्ता के साथ नये पत्रकार ताकतवर होते है तो इससे ज्यादा भ्रष्ट व्यवस्था और क्या हो सकती है । जो लोकतंत्र का नाम लेकर सत्ता के लोकतांत्रिक होने की प्रक्रिया में किसी भी अपराधी को सजा नहीं देती । सिर्फ अंगुली उठाकर डराती है या अंगुली थाम कर ताकतवर बना देती है । दोनो हालात में ट्रेडर है कौन और 'प्रेस्टिट्यूट' कहा किसे जाये। अगर सत्ता को लगता है कि सिर्फ दस फिसदी ही न्यूज ट्रेडर है या 'प्रेस्टिट्यूट' है तो यह दस फिसद हर सत्ता में क्यो बदलते है ।
फिर किसी राजनीतिक दल की तरह ही उन्ही पत्रकारों या मीडिया हाउस को क्यों लगते रहा है कि सत्ता बदलेगी तो उनके दिन बहुरेंगे। यानी लोकतंत्र के किसी भी स्तम्भ की व्याख्या की ताकत जब सत्ता के हाथ में होगी तो फिर सत्ता जिसे भी न्यूजट्रेडर कहे या 'प्रेस्टिट्यूट' कहें, उसकी उम्र उस सत्ता के बने रहने तक ही होगी । यानी हर चुनाव के वक्त सत्ता में आती ताकत के साथ समझौता करने के हालात लोकतंत्र के हर स्तम्भ को कितना कमजोर बनाते हैं, यह ट्रेडर
और 'प्रेस्टिट्यूट' से आगे के हालात हैं। क्योंकि जिन्हे पीएम ने न्यूज ट्रेडर कहा वह धर्मनिरपेक्षता की पत्रकारिता को ढाल बनाकर मोदी को ही कटघरे में खड़ाकर अपने न्यूड ट्रेडर के दाग को धो चुके हैं। और जिन्हें
'प्रेस्टिट्यूट' कहा जा रहा है वह एक वक्त न्यूज ट्रेडरों के हाथों मार खाये पत्रकारों के दर्द को समेटे भी है । और इन दोनो हालातों में खुद सत्ता के चरित्र का मतलब क्या होता है, यह मजीठिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल
रही बहस से भी समझा जा सकता है । जिस मजीठिया को को यूपीए सरकार ने लागू कराया उन्हीं मनमोहन सरकार में रहे कैबिनेट मंत्री सत्ता जाते है वकील हो गये। और एक मीडिया समूह की तरफ से मजीठिया को लेकर पत्रकारों के खिलाफ ही खड़े हैं । तो सत्ता के चरित्र और सत्ता को अपने अनुकूल बनाने वाले मीडिया हाउस से लेकर पत्रकारों के चरित्र को लेकर कोई क्या कहेगा । न्यूज ट्रेडर और 'प्रेस्टिट्यूट' शब्द तो बेमानी है यहा तो देश के नाम पर और देश के साथ दोनो हालातों में फरेब ज्यादा ही हो रहा है । तो रास्ता वैकल्पिक राजनीति का जह बने तब बने उससे पहले तो जब तक मीडिया इक्नामी को जनता से जोडकर खड़ा करने वाले हालात देश में बनेंगे नहीं तबतक सत्ता के गलियारे से पत्रकारों को लेकर गालियो की गूंज सुनायी देती रहेगी । और जन सरोकार के सवाल चुनावी नारो से आगे निकलेगें नहीं और संपादकों की टिप्पणी या ताकतवर एंकरों के प्रोमो से आगे बढेंगे नहीं ।
Friday, April 10, 2015
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आरएसएस, एल्विन टॉफलर और मोदी |
राजनीति की यह बेहद महीन रेखा है कि संघ जिस तरह अपने विरोधियों को भी हिन्दुत्व के नाम पर अपने साथ खड़ा करने से नहीं कतराता यानी लगातार अपने विस्तार को ही सबसे महत्वपूर्ण मानता है उसी तर्ज पर नरेन्द्र मोदी की छवि को भी राष्ट्रीय नेता के तौर पर कैसे रखा जाये जिससे संघ के प्रचारक या बीजेपी के नेता के आवरण के बाहर मोदी को खड़ा किया जा सके। यानी आने वाले दिनों में स्वयंसेवकों की सक्रियता अब समाजवादी, वामपंथी या कांग्रेसियों के बीच भी महीन राजनीतिक मान्यता बनाने के लिये दिखायी देगी। क्योंकि संघ का मानना है कि अगर नरेन्द्र मोदी को अंतराष्ट्रीय नेता के तौर पर खड़ा करते हुये स्टेट्समैन की मान्यता मिलती है तो फिर सवाल 2019 या 2024 के चुनाव का नहीं रहेगा बल्कि खुद ब खुद संघ के विस्तार की तरह बीजेपी भी चुनावी राजनीति से आगे निकल जायेगी। चूंकि राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस के अलावे दूसरा कोई दल है नहीं और प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि बीजेपी के तमाम नेता भी काग्रेस मुक्त भारत का जिक्र करते रहे हैं। लेकिन नई रणनीति के तहत पहली बार कांग्रेस मुक्त भारत की जगह नेहरु-गांधी परिवार मुक्त भारत की दिशा में सरकार और संघ बढ़ रही है। यानी जवाहरलाल नेहरु से लेकर राहुल गांधी पर हमले ना सिर्फ तेज होंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर गांधी परिवार को खारिज करने और अतित के कच्चे-चिठ्ठों के आसरे गांधी परिवार को कटघरे में खडा करने में भी सरकार दस्तावेजों के आसरे जुटेगी तो स्वयंसेवक भारत के मुश्किल हालातो को जिक्र कर मोदी के रास्तों को राष्ट्रीय तौर पर मान्यता दिलाने में जुटेंगे। लेकिन यह रास्ता बनेगा कैसे और जिस एल्वीन टाफलर का जिक्र विज्ञान और तकनीक के आसरे देश की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन का सपना संजोया जा रहा है उसके नायक क्या वाकई मोदी हो जायेंगे। क्योंकि संघ के भीतर एल्विन टाफलर को लेकर पहली बार चर्चा नहीं हो रही है।
दरअसल दिसबंर 1998 में नागपुर में संघ की 5 दिन की चिंतन बैठक में एल्विन टाफलर के "वार एंड एंटी वार" और सैम्युल हटिंगटन की "क्लैशेस आफ सिविलाइजेशन" पर मदन दास देवी की अगुवाई में संघ के स्वयंसेवक परमेश्वरन और बालआप्टे ने बकायदा दो दिन बौद्दिक चर्चा की। और संयोग से उस वक्त भी मौजूदा पीएम मोदी की तर्ज पर संघ के प्रचारक रहे वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। लेकिन उस वक्त वाजपेयी को स्टेटसमैन के तौर पर संघ के खड़ा करने की सोच से पहले ही देश ने वाजपेयी को स्टेट्समैन के तौर पर मान्यता दी थी। तो फिर मोदी के दौर में संघ के भीतर यह सवाल कुलांचे क्यों मार रहा है, यह भी सवाल है। और संघ जिस तरह अपनी सारी ताकत प्रधानमंत्री मोदी को दे रहा है या लगा रहा है उससे भी पहली बार यह संकेत तो साफ तौर पर उठ रहे हैं कि संघ अपनी सीमा समझ रहा है। यानी वह सक्रिय ना हो या सरकार की नीतियों का विरोध करे तो वाजपेयी की तर्ज पर मोदी के लिये भी मुश्किलात हो सकते है। लेकिन जब राजनीतिक सत्ता ही नहीं रहेगी तो फिर संघ को कोई भी सत्ता कटघरे में खडा करने में कितना वक्त लगायेगी। जैसा मनमोहन सिंह के दौर हिनदू आतंक के दायरे में संघ को लाया गया । यानी आरएसएस अब 2004 की गलती करने कौ तैयार नहीं है और बीजेपी दिल्ली की गलती दोहराने को तैयार नहीं है। यानी स्वयंसेवको की कदमताल अब बिहार-यूपी चुनाव के वक्त मोदी के नायकत्व में ही होगी । और 2019 तक संघ के भीतर से मोदी सरकार की किसी नीति को लेकर कोई विरोध की आवाज सुनायी देगी नहीं । क्योंकि संघ को भरोसा है कि आधुनिक भारत के विकास के जनक के तौर पर मोदी की पहचान दुनिया में हो सकती है।
Thursday, April 9, 2015
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दिल्ली 1975 : मेरा खोया बचपन - पार्ट-टू |
यह वाकई अजीब है कि अपने बचपन की यादों को तलाशने के लिये हमे बुजुर्गों की जरुरत पड़ती है। मुझे भी टैगौर गार्डन केंद्रीय विद्यालय की बिखरी यादों को जोड़ने के लिये किसी बुजुर्ग की जरुरत थी। जिसके जहन में कुछ भी धुंधला ना हो। या फिर मैं खुद जो अपनी धुंधली यादों को साफ करने की कोशिश कर रहा था। केंद्रीय विद्यालय स्कूल के दरवाजे के ठीक सामने किताब की दुकान पर नजर गई, तो यह सोच कर अंदर चला गया कि हो सकता है दुकान वाले का कोई पुराना ताल्लुक केंद्रीय विद्यालय से रहा हो । दुकान में केन्द्रीय विघालय की स्कूल यूनीफार्म भी बिक रही थी। कुछ आस जगी। लेकिन चालीस बरस के शख्स को देख कर निराश भी हुआ। सोचा इसका तो जन्म ही 1975 का होगा। यानी मेरे लिये तो यह छोटा है और मुझे ही इसे बताना होगा कि पहले स्कूल कैसा था। खैर संवाद शुरु हुआ। कब से दुकान चला रहे हैं। पन्द्रह से बीस बरस तो हो गये। और उससे पहले। उससे पहले हमारी दुकान परली तरफ थी। इलाके की सबसे पुरानी दुकान है। लेकिन आप क्यों पूछ रहे है। तभी पत्नी बोल पड़ी -इनका बचपन इसी स्कूल में बीता है। कब पढ़ते थे। जी मैं 1975 तक इसी केंद्रीय विद्यालय में था। तब तो मेरे दादा जी इसी स्कूल में कैंटिन चलाते थे। उस वक्त तो स्कूल टैंट में था जी। मेरे दादा जी ने बताया कि कैसे ईंट की दीवार ही कैंटिन थी। झटके में मै भी कैटिंन को याद कर बचपन में चला गया। सिर्फ एक, दो, तीन और पांच पैसे। यही रकम हर बच्चे की जेब में होती। पांच पैसे में कैंटिन से ब्रेड पकौडा और चाकलेट मिल जाती थी। मेरी जेब में शायद ही कभी पांच पैसे आये होंगे। हमेशा एक या दो पैसे। एक पैसे में छोटी से डिबिया में छोटी छोटी मीठी गोलियां मिलतीं। सफेद रंग की इन मीठी गोलियों को ना जाने कितनी बार कैंटिन से खरीद कर चूसते हुये घर आता। दो पैसे में इमली-खटाई के छोटे छोटे पकौड़े मिलते थे । और कभी हाथ में तीन पैसे का सिक्का होता तो खुद को रईस समझकर शान से कैंटिन जाकर बिस्कुट खरीदता था। लेकिन इन यादों के बीच चाहकर भी मुझे कैंटिनवाले का चेहरा याद नहीं आ पा रहा था। कैसे दिखते थे आपके दादाजी। मैंने ना चाहते हुये भी किताब दुकान वाले से पूछ लिया कि तो क्या दादाजी की मौत हो गई। और वह दिखते कैसे थे। हां दादाजी की मौत तो काफी पहले हो गई । लंबे थे। लेकिन जहां तक मुझे याद आ रहा है कोई एक सरदार जी भी कैंटिन में थे। हां वह दादाजी के साथ ही कैंटिन में हाथ बटाथे थे। आपको तो काफी याद है। लेकिन दादाजी अक्सर कहते कुछ भी करना लेकिन कैंटिन ना चलाना जिसके बाद पिताजी ने परली तरफ किताबों की दुकान खोली। जनता बुक डिपो ।
इस इलाके की सबसे पुरानी दुकान है। लेकिन वह दुकान भी 1979 में खुली। मैं भी सोचने लगा कि मै कितना पुराना हो चुका हूं। तभी वह दुकान वाला ही बोल पड़ा। आप तो और भी पुरानी बात कर रहे हो। उस वक्त से इलाके में कुछ भी नहीं था। अभी आप जहां खड़े हों, वहां पर स्कूल की बसे लगी रहती थी। यह जो कालोनी देख रहे हो यहा पर खाली मैदान ही तो था। और स्कूल के पीछे श्मशान घाट। हां, मुझे भी बाद में पता चला कि यह पूरा इलाका ही बंजर था। वह जो बड़ी बड़ी झाड़ खुद ही सडक किनारे नहीं लग जाती है वैसी झाड़ों से पूरा इलाका भरा पड़ा था। मरघट की तरह था इलाका। लेकिन 1980 के बाद से इलाका भरने लगा और 84 के दंगो के बाद तो ऐसी दरार पड़ी कि जो सरदार थे वह सरदारों के मोहल्ले में एकजुट होकर रहने लगे। और जहां सरदार कम थे, वहां उन्होंने अपने घर-जमीन बेच कर सरदारों के मोहल्ले में चले गये। इन्द्रपाल सिंह और इन्द्रजीत सिंह। यही तो मेरे सबसे प्यारे दोस्त थे । कई बार टिफिन में
तो इन्द्रपाल या इन्द्रजीत के घर चला जाता। बागते दौड़ते घर पहुंचता। और उनकी मम्मी भी फटाफट रसोई में लकडी के पीढे पर बैठाकर घी लगी रोटियां खिलाती। जल्दी जल्दी छोटे छोटे कौर से खाते। और अक्सर पानी पिये बगैर ही दौड़ते हुये स्कूल के फाटक के बंद होने से पहले पहुंच जाते। वैसे फाटक लकड़ी का था तो नीचे से भी निकल जाते। लेकिन दरबान का डर रहता तो सिर्फ तीस मिनट की टिफिन में भागकर घर जाकर खाना और लौटना भी उस वक्त चुनौती ही रहती। चूंकि क्लास के बाकि दोस्तो को बताकर भागते तो कई मनाते की हम छठी पिरियड के शुरु होने से पहले ना लौटे। जिससे हमे सजा मिले। लेकिन कभी ऐसा हुआ नहीं। उनका घर तो स्कूल के बहुत ही करीब हुआ करता था। तो क्या वह अब भी कहीं आसपास रहते होंगे। दुकान वाले से पूछा कि सरदार यह कहा रहते है। नहीं मैंने बताया ना 84 के बाद हालात बदले। जो वक्त थे उनमें से तो शायद ही कोई यहां बचा होगा। सभी 80 के बाद के ही है। कोई इक्का-दुक्का होगा तो मुझे जानकारी नहीं है। तो क्या 84 ने इस हद तक दिल्ली को बांटा। उसके दर के सुकून को बांटा। मुझे तुरंत अपने बचपन का घर याद आ गया। वह तो रिफ्यूजी कालोनी के तौर पर ही जाना जाता था। और वहा तो बहुत सारे सरदार थे। मेरे बचपन के सारे दोस्त तो सरदार ही थे।
मैं खुद अच्छी पंजाबी बोल लेता था। और आज भी बोल लेता हूं। चूंकि बेटे की परीक्षा साढ़े नौ बजे से साढे बारह तक होनी थी। तो मैंने पत्नी से तुरंत कहा चलो जरा आज अपने पुराने घर को भी देख लें। वह कहां पर है। रमेश नगर बगल में ही है। दो-चार किलोमीटर दूर होगा । और तत्काल ही वक्त का लाभ उठाते हुये हम रमेश नगर चल पड़े। टैगौर गार्डन के बाद राजौरी गार्डन मेट्रो स्टेशन और उसके बाद रमेश नगर। आप तुरंत पहुंच जायेंगे। दुकानवाले ने रास्ता दिखाया। जी, हम गाड़ी से आये हैं तो तुरंत ही चले जाते हैं फिर लौटना भी तो है। और रमेश नगर की तरफ बढ़ती गाड़ी के साथ ही मेरी जिन्दगी के पन्ने पलटने लगे। सी-20, रमेश नगर । यही तो घर का पता था। मेन रोड से घर दिखायी देता था । अक्सर शाम के वक्त बस स्टैंड की तरफ एक भाई की नजर होती कि पिताजी बस स्टैंड पर दफ्तर से जैसे ही पहुंचे, हमें तुरंत घर के भीतर पहुंच कर किताब खोलकर बैठ जाना है। बरसो बरस तक यह सिलसिला चला। कोई नीचे खेल रहा है या कोई छत पर पतंग उड़ा रहा है। पिताजी को जिसने भी देखा तुरंत सीटी बजाकर या आवाज देकर बोल देगा और सभी घर में घुस जायेंगे। मां का खूब साथ रहता। जो पिताजी के पूछने पर खामोशी से बता देती- बच्चे तो काफी देर से पढ़ाई कर रहे हैं। उस वक्त पढ़ाई का ज्यादा मतलब स्कूल का होमवर्क ही तो था। लेकिन अकसर पूरा होमवर्क भी नहीं हो पाता था। रमेश नगर के सारे मकान एक सरीखे ही थे। पीले रंग के मंजिल बिल्डिंग। एक साथ चार -चार मकान। हर किसी की छत सटी हुई। यानी कूदते फांदते एक छत से दूसरे की छत पर हर ब्लाक में जाना बेहद आसान। हमारा घर पहली मंजिल पर था। तो सीढियां भी याद आने लगीं। करीब अठारह सीढियां थीं। हर सीढी पर दो बार कदम रखता तो अगली सीढी पर कदम रखता तो मेरी लिये बचपन में 18 सीढ़ी भी 36 सीढियों के बराबर थीं। घर के सामने छोटा सा मैदान था। जिसमें हाकी खेलते थे। हर ब्लाक के बीच में गली थी। और गलियो में हर शाम नीते रहने वालों
की अंगठी सुलगती। धुआं जब तक निकलता तबत क अंगेठी गली में रख दी जाती। और अक्सर दीवाली के दौर में हम अंगठी में फुटफुटिया पटाखे डाल देते। पटाखों से कोयला उड़कर जमीन पर आ जाता। सजी हुई अंगेठी बिगड़ जाती। जिसकी अंगेठी बिगड़ती वह गालियां देता। और हम मजा लेते। मोहल्ले में ज्यादातर पंजाबी थे। हमारा घर भी किन्ही जुलका साहेब का था। जहां तक याद है। किराया 15 रुपये महीने था। याद करने लगा कि कौन कौन कहा रहता था। सी 21 में सरदार जी रहते थे। आज भी याद है कि कैसे उनका बेटा किसी से लड़कर आया और उन्होंने तलवार निकाल ली थी। सी 16 में पप्पू और अनिल भैया रहते थे। उनके पिता अक्सर पेंटिग बनाते हुये ही दिखायी दिये।
धीरे धीरे पता चला कि वह मैग्जीन में काम करते हैं। धर्मयुग या हिन्दुस्तान। ठीक से आज भी याद नहीं आ रहा लेकिन वह मैग्जिन के कवर पेज से लेकर दर के पन्नों के लिये चित्र बनाते थे। तूलिका । यही उनका नाम था । जिस नाम से पेंटिंग छपती । सारी यादें समेटे जैसे जैसे रमेश नगर के करीब पहुंचा । और फिर बदलती
कालोनियों में सबकुछ बदला सा चला। सी ब्लाक खोजने में बीस मिनट लग गये। और जब सी ब्लाक पहुंचा और अपने घर के सामने यानी सी-20 । तो झटका सा लगा । नीचे यानी सी 19 में डेटल अस्पताल खुला हुआ था। उसके बगल में यानी सी 17 में पोस्टआफिस। उपर पीले रंग के मकान रंगीन मिजाज में चमक रहे थे ।
हर घर की बालकोनी का अंदाज अलग था। कोई चेहरा ऐसा नहीं, जिसे पहचान कर 1975 में लौट सकूं । नजर सी21 यानी सरदार जी के घर की तरफ गई तो वहां गाडियों के सामान की दुकान खुली थी। उसमें सरदार को बैठा देखर उसके पास गया और पूछा यह आपकी ही दुकान है। जी यह मेरा ही है । आप लोग अभी आये हैं या पहले से रह रहे हैं। आजादी के बाद से इसी कालोनी में रह रहे हैं। मेरे दादाजी सबसे पहले यहा आये थे। उन्हीं का नाम तो घर के आगे लिखा हुआ है। स्वर्ण बंगला। हां, उनका नाम स्वर्ण सिंह था। अब मुझे भी याद आया। और
उनके बेटे। जी पिताजी की भी मौत हो गई। क्या नाम था। दिलबाग सिंह । मैं उन्हीं का बेटा हूं। मुझे याद आ नहीं रहा था कि स्वर्ण सिंह का कौन सा बेटा था जो पूरे मोहल्ले में हंगामा मचाये रखता था। लेकिन मुझे स्वर्ण सिंह का तलवार निकालना।
रोज शाम होते ही ङर के बाहर सड़क पर ही चारपाई लगाकर सोना। और उसके बाद धीरे धीरे हर घलर के आगे चारपाई बिछती चली जाती थी। ज्यादातक नीचे के घरवाले बाहर खुले आसमान तले बेखौफ सोते । हर कोई एक दूसरे की खुसे दिल से मदद करता । 1974 तक घर में पुराने दौर का ही बाथरुम था। तो मैला ढोने वाली महिला हर सुबह आती । उसके बाद घर में बाथरुम नये तरीके का बनने लगा तो तीन दिन तक स्वर्ण सिंह जी के घर पर ही सुबह शाम बाथरुम के लिये आना जाना होता। घर के सामने ग्राउंड इतना छोटा होगा। यही हाकी खेला करता था। और पहली मंजिल तक जाने वाली सीढियां। इतनी छोटी। जो 18 सीढियां बचपन में 36 लगती, अब वह नौ लगती हैं। बचपन की सारी बड़ी चीजें कितनी छोटी लग रही हैं। तमाम यादों को समेटे मैंने पत्नी को गली के मुहाने पर दुकान दिखायी और बताया उस वक्त यहां राशन दुकान थी। चावल-गेंहू, चीनी, किरासन तेल, दाल। सबकुछ यही से मिलता था। पूरा मोहल्ला अपनी अपनी ईंट लगाकर लाइन बनाते । और राशन दुकान वाला सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो जाता। पिताजी हमेशा खामोशी से एकदम अकेले पूरे मोहल्ले में नजर आते । सरकारी कर्मचारी के तौर पिताजी पूरे मोहल्ले में अकेले थे । तो हर कोई उन्हे सम्मान से देखता भी । एक बार घर की दीवार परकिसी राजनीतिक दल ने पोस्टर चिपका दिया तो पिताजी ने पुलिस से शिकायत
कर दी। मोहल्ले वालो को समझ नहीं आया कि पुलिस में शिकायत क्यों की गई । मां ने भी कहा पुलिस में कहने की क्या जरुरत है। तो पिताजी ने कहा कि सरकारी कर्मचारी के घर पर कैसे कोई राजनीतिक दल पोस्टर लगा सकता है। और आखिर में उस वक्त के नेता ने आकर माफी मांगी और कार्यकर्ताओं ने पोस्टर निकाल लिया। और मोहल्ले में पहली बार हमें लगा कि हमारा रुतबा बढ़ गया।
Wednesday, April 8, 2015
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फसल ऊपरवाला ले गया, नौकरी अखिलेश और जमीन मोदी |
सात रुपये का चेक। किसी किसान को मुआवजे के तौर पर अगर सात रुपये का चेक मिले तो वह क्या करेगा। 18 मार्च को परी ने जन्म लिया। अस्पताल से 3 अप्रैल को परी घर आई। हर कोई खुश । शाम में पोती के होने के जश्न का न्योता हर किसी को। लेकिन शाम में फसल देखने गये परी के दादा रणधीर सिंह की मौत की खबर खेत से आ गई। समूचा घर सन्नाटे में। तीन दिन पहले 45 बरस के सत्येन्द्र की मौत बर्बाद फसल के बाद मुआवजा चुकाये कैसे। आगे पूरा साल घर चलायेंगे कैसे। यह सोच कर सत्येन्द्र मर गया तो बेटा अब पुलिस भर्ती की कतार में जा कर बैठ गया। यह सच बागपत के छपरौली के है। जहां से किसानी करते हुये चौधरी चरण सिंह देश के पीएम बन गये और किसान दिवस के तौर पर देश चरण सिंह के ही जन्मदिन को मनाता है। लेकिन किसान का हितैषी बनने का जो सियासी खेल दिल्ली में शुरु हुआ है और तमाम राज्यों के सीएम अब किसानों के हक में खड़े होने का प्रलाप कर रहे है, उसकी हकीकत किसानों के घर जाकर ही समझा जा सकती है। खासकर बागपत। वही बागपत जो चरण सिंह की राजनीतिक प्रयोगशाला भी रही और किसान के हक में आजादी से पहले खड़े होकर संघर्ष करने की जमीन भी। 1942 में पहली बार छपरौली के दासा दगांव में किसानो के हक के लिये संघर्ष करते चरण सिंह को गिरफ्तार करने अग्रेजों की पुलिस पहुंची थी। तब सवाल लगान और खेती की जमीन ना देने का था। दासा गांव के बडे बुजुर्ग आज भी 1942 को यादकर यह कहने से नहीं चूकते कि तब उन्होंने चौधरी साहब को गिरफ्तार होने नहीं दिया था। और उसके बाद किसी ने उनकी जमीन पर अंगुली नहीं उठायी। क्योंकि छपरौली का मतलब ही चौधरी चरण सिंह था। जहां खेती के लिये सिंचाई का सवाल उठता रहा। जहां खाद के कारखाने को लगाने की बात उठी। जहां मुआवजे को लेकर किसान को हाथ फैलाने की जरुरत न पड़ी। लेकिन हालात कैसे किस तरह बदलते गये कि पहली बार खुशहाल गांव के भीतर मरघट सी खामोशी हर किसी को डराने लगी है।
खामपुर गांव हो या धनौरा गांव या फिर रहतना गांव या जानी गांव। कही भी चले जाइये किसी के घर का भी सांकल खटखटा दीजिये और नाम ले लिजिये चौधरी चरण सिंह का। और उसके बाद सिर्फ यह सवाल खड़ा कर दीजिये कि चौधरी होते तो अब क्या कर लेते । सारे सवालों के जबाब बच्चो से लेकर बडे बुजुर्ग तक बिना सांस रोके लगातार देने लगेंगे। और यह सवाल छोटा पड़ जायेगा कि किसानों के लिये सरकार करें क्या जिससे किसान को राहत मिल जाये। किसान को अपनी फसल की कीमत तय करने का अधिकार होना चाहिये। खेती की जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करना चाहिये। खेतीहर किसान परिवारो के बच्चों के लिये शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। समर्थन मूल्य का आकलन फसल की बाजार की कीमत से तय होना चाहिये। लेकिन सच है क्या । गन्ना किसानों के घर में मिल मालिकों की दी हुई पर्चियों के बंडल हैं। जिसमें लिखा है कि इतना गन्ना दिया गया। इतने पैसों का भुगतान होगा। कब होगा , कोई नहीं
जानता। अब चीनी मिल ने गन्ने की एवज में रुपया देने के बदले पचास फीसदी रकम की चीनी बांटनी शुरु कर दी है। ले जाइये तो ठीक नहीं तो चीनी रखने का किराया भी गन्ना किसान की रकम से कट जायेगा। धान कल तक यूपी से हरियाणा जा सकता था। लेकिन हरियाण में सत्ता बदली है तो अब धान भी
हरियाणा की मंडी में यूपी का किसान वही ले जा सकता है।
और धान की मंडी बागपत के इर्द गिर्द कही है नहीं। 1977 में बागपत से चुनाव जीतने के बाद चौधरी चरण सिंह ने धान मंडी लगाने की बात जरुर कही थी। लेकिन उसके बाद तो कोई सोचता भी नहीं। टुकड़े में बटें खेतों की चकबंदी चौधरी चरण सिंहने शुरु कराई लेकिन अब आलम यह है कि बागपत के सोलह गांव में बीते 32 बरस में सिचाई के लिये अलग अलग एलान हुये। दासा गांव की सिचाई योजना पर 62 करोड़ खर्च हो गये लेकिन पानी है ही नहीं। जमीन के नीचे 123 फीट तक पानी चला जा चुका है। जो दो सौ फीट तक पानी निकाल लेता है वह यह कह कर खुश हो जाता है कि असल मिनरल वाटर तो उसके खेत या घर पर है। दिल्ली जिस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरीये विकास का सपना संजो रही है, उसके उलट बागपत के किसान उसी थ्योरी पर टिका है जिसे चरण सिंह कह गये यानी जमीन पर किसान का मालिकाना हक बढाने पर जोर दिया जाना चाहिये। बागपत के लड़के नये प्रयोग कर डिब्बा बंद गन्ने का जूस की फैक्ट्री लगाने को तैयार हैं। लेकिन उनके पास पैसा है नहीं और सरकार तक वह पहुंच नही सकते। सरकार उनतक पहुंचती नही तो गन्ना जूस की टेकनालाजी घर में पडी बर्बाद फसलों के बीच ही सड़-गल रही है। रहतना गांव के गुलमोहर की मौत के बाद गुलमोहर के परिवारवालों को लग रहा है कि ना काम है। ना दाम । तो आगे वह करें तो क्या करें । लेकिन सरकार ने जगह जगह दीवारों पर नारे लिख दिये गये हैं कि गांव गांव को काम मिलेगा। काम के बदले दाम मिलेगा। लेकिन किसानों का सच है कि सिर्फ दशमलव तीन फीसदी लड़के नौकरी करते हैं। बाकि हर कोई खेती या खेती से जुडे सामानों
की आवाजाही के सामानो की दुकान खोल कर धंधे में मशगूल है। रोजगार के लिये सबसे बडी नौकरी पुलिस भर्ती की निकली है।
लेकिन वह भी जातीय आधार पर सैफई और मैनपुरी में सिमटी है तो बागपत के गांव दर गांव में पुलिस भर्ती का विरोध करते किसानो के बेटे सड़क किनारे नारे लगा रहे हैं। बैंक, कोओपरेटिव और साहूकार। अस्सी फिसदी किसान इन्हीं तीन के आसरे खेती करते है । जिन्हे हार्ट अटैक आया । जो बर्बाद फसल देखकर मर गये। उन परिवारों समेत बागपत के बीस हजार किसान औसतन दो से पांच लाख कैसे लौटेंगे। और ना लौटाने पर जो कर्ज चढ़ेगा वह अगले बरस कैसे तीन से नौ लाख तक हो जायेगा। इसी जोड़ घटाव में सोचते सोचते हर किसान के माथे पर शिकन बडी होती जा रही है। फिर मुआवजे को लेकर तकनीकी ज्ञान सबको लेकर उलझा है क्योंकि मुआवजा तो पटवरी, तहसीलदार,एसडीएम, डीएम,कमिश्नर, सीएण और फिर दिल्ली। यानी मुआवजे का रास्ता इतना लंबा है कि हर हथेली आखिरी तक खाली ही रहती है इसलिये मुआवजे का एलान लखनउ में हो या दिल्ली में उम्मीद या भरोसा किसी में जागता नहीं है। दासा गांव के रणधीर सिंह की मौत तो यह सोच कर ही हो गई कि कोपरेटिव का पैसा ना लौटाया और बैंक का कर्ज चढ़ता चला गया तो फिर घर का क्या क्या बिकेगा। उन्नीस प्राइवेट स्कूल के प्रिंसिपल ने बच्चों को कहा है कि अपने पिता से लिखवाकर लाये कि फीस दो महीने तक माफ की जा सकती है। उसके बाद माफ की कई महीनो की फीस भी चुकानी पड़ेगी। अभी तक कोई आदेश-निर्देश तो किसानों के घर नहीं पहुंचा लेकिन फसल बर्बाद होने के बाद डर ऐसा है कि हंसता-खिलखिलाता गांव सन्नाटे में नजर आने लगा है। और तमाम सवालों को उठाने पर हर जुबां पर बिखरे बिखरे शब्दो के बीच यह सोच है कि फसल ऊपर वाला ले गया । नौकरी अखिलेश ले जा रहे हैं। जमीन मोदी ले जायेंगे।
Monday, April 6, 2015
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दिल्ली 1975 : मेरा खोया बचपन |
18 मार्च को जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा क्या लगाया दिल्ली में सियासी हडकंप मचा और उसी के बाद रांची को भी न्यूज बुलेटिन का सेंटर बनाना तय हुआ। पटना से शाम का बुलेटिन काफी पहले से होता था और रांची में कोई न्यूज बुलेटिन था नहीं। और दिल्ली में इंदिरा सरकार को इस बात का एहसास था कि अगर जेपी को रोकने के लिये बिहार में सरकार ने ठोस पहल नहीं की तो आंदोलन बिहार से आगे बंगाल को भी अपनी गिरफ्त में ले सकता है। और इंदिरा गांधी को नक्सलवाद की आहट भी इसमें दिखायी देने लगी। साठ के दशक में कैसे छात्र कालेजों से निकल कर नक्सलबाडी की तरफ बढे थे और तब सिद्दार्थ शंकर रे के सामने क्या मुश्किलें आई थीं। या फिर उस वक्त कैसे कांग्रेस की सत्ता डिग रही थी। सारे एहसास इंदिरा गांधी को थे। इसलिये सरकारी प्रोपेगेंडा के लिये न्यूज बुलेटिन होना चाहिये। यह सारी बाते गाहे-बगाहे पिताजी से बातचीत में अक्सर निकल कर आती। और शायद पिताजी को लगता रहा कि सारी बाते हमें जाननी चाहिये तो बचपन में इन बातो को लेकर हमे कोई रुचि हो या ना हो, हम ना भी जानना चाहे तो भी हर घटना से पिताजी हमें जोड़े रखते। तो रांची तबादले की खबर भी उन्होंने सामान्य तरीके से घर में सभी को नहीं दी। बल्कि देश के भीतर होने वाले बदलाव को लेकर चल रहे संघर्ष की जमीन बिहार के बारे में बताते हुये रांची जाने का जिक्र किया। और बताया कि इनके लिये कितना महत्वपूर्ण असाइनमेंट है। क्योंकि रांची में न्यूज बुलेटिन शुरु करना है। हमेशा दिल्ली से जुड़े रहना है क्योकि पटना और रांची के न्यूज बुलेटिन को लेकर दिल्ली की खास नजर है। और तब पांचवी में पढ़ रहा था मैं और मैंने भी अपनी क्लास टीचर और अंग्रेजी पढाने वाली नीना पांधी को यह जानकारी दी।
उस वक्त गर्मियों की छुट्टी से पहले अक्सर क्लास में बच्चो से पूछती कि किन किन के पिताजी का तबादला हो रहा है। यानी जिनका स्कूल छूट रहा है । जो अगली क्लास में साथ नहीं होंगे, उन्हे टीचर टॉफी देती। और 1970 से 1975 तक के दौरान टैगोर गार्डन में पढ़ते हुये हर बरस गर्मियों की छुट्टियों के वक्त मुझे लगता रहा कि मुझे कब टॉफी मिलेगी। और 1975 में जब मैडम ने मुझे यह कहकर टॉफी दी कि अब आगे की पढ़ाई मुझे रांची के डोरन्डा-हिनू के केन्द्रीय विद्यालय में करनी है तो मैं उदास हो गया । घर आकर पिताजी को जानकारी दी कि मैडम ने बताया है कि रांची में केन्द्रीय विघालय डोरन्डा हिनू में है । बोले वाह। आपकी मैडम ने केन्द्रीय विद्यालय की डायरेक्ट्री से खोज कर जानकारी दी है। मुझे तो पता ही नहीं है कि रांची में कहा होगा केन्द्रीय विद्यालय स्कूल। मैंने तो किराये के मकान के लिये इतना ही अपने साथियों को कहा है कि रेडियो स्टेशन के आसपास कही घर देख लिजियेगा। बहुतेरी यादों को समेटे 4 अप्रैल 2015 को घर से टैगौर गार्डन केंद्रीय विद्यालय जाने निकला। बेटे के जीईई की परीक्षा का सेंटर टैगौर गार्डन था। तो तय किया कि आज साथ ही जाउंगा। नौ बजे पहुंचना था। बारिश रात से ही हो रही थी। तो वक्त रहते पहुंचने के लिये सुबह सात बजे ही घर से निकला। बीच में
Wednesday, April 1, 2015
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सपना जगाने वाले आंदोलन और सपने तोड़ने वाली सत्ता |
मैं पीएम नही सेवक हूं। मैं सीएम नही सेवक हूं। याद कीजिये बीते दस महीने में कितनी बार प्रधानमंत्री और बीते एक महीने में कितनी बार केजरीवाल ने दोहराया होगा। और अब तो यूपी की सड़कों पर चस्पा मंत्रियों के पोस्टर में भी सेवक लिखा जाता है। तो क्या वाकई राजनीतिक बदल गई। या फिर सत्ता पाने के बाद हर नेता बदल जाता है। यह सवाल देश में हर 15 बरस बाद आंदोलन के बाद सत्ता परिवर्तन और उसके बाद आंदोलन की मौत से भी समझा जा सकता है और आंदोलन करते हुये सत्ता पाने के तरीके से भी। आजादी के बाद से किसी एक नीति पर देश सबसे लंबे वक्त तक चल पड़ा तो वह मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले देश को बाजार में बदलने का सपना है। 1991 से 2011 तक के दौर में देश के हर राजनीतिक दल ने सत्ता की मलाई चखी। हर धारा को आवारा पूंजी बेहतर लगी। हर किसी ने अलग अलग ट्रैक का जिक्र कर मनमोहन के पूंजीवाद का ही रास्ता पकड़ा। जिसने कारपोरेट लूट को उभारा। विकास के नाम पर जमीन हथियाने का खुला खेल शुरु किया । देश की संपदा को मुनाफे की थ्योरी में बदला । बहुसंख्य जनता हाशिये पर पहुंची और इन बीस बरस में देश में सबसे ज्यादा घपले घोटाले हुये। शेयर बाजार घोटाले और झामुमो घूसकांड तक से स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले तक कुल 35 बडे घोटाले पांच प्रधानमंत्रियों के दौर में हो गये । सभी को जोड़ के तो 90 लाख करोड़ की सीधे लूट हुई। खनिज संपदा की लूट पचास लाख करोड़ की अलग से हुई। आंकड़ों में ना फंसे बल्कि आर्थिक सुधार की हवा से गुस्से में आये देश ने अन्ना आंदोलन को जन्म दिया तो फिर अन्ना की ही भाषा राजनीतिक भाषण का हिस्सा बनी जिसे मोदी ने खूब भुनाया और केजरीवाल ने इसी आर्थिक सुधार तले हाशिये पर फेंके जा चुके लोगो से खुद को जोड़ा। लेकिन सवाल तो सत्ता के ना बदलने और आंदोलन के जरीये सत्ता परिवर्तन की उस लहर का है जिसे देश बार बार जीता है और फिर थक कर सो जाता है। संसदीय राजनीति के पन्नों को पलटें तो सड़क पर आंदोलन कर ही वीपी सत्ता तक पहुंचे। राजा नहीं फकीर है हिन्दुस्तान की तकदीर है। 1989 में नारे तो यही लगे।
लेकिन किसे पता था महज दो बरस के भीतर मंडल कमंडल का संघर्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देश के माहौल को ही उलट देगा। जनता को वीपी ने जिस तरह सत्ता में आने के बाद हर दिन उल्लू बनाया उसमें अब के नेता तो टिक भी नहीं सकते। क्योंकि सामाजिक दूरियों को बनानी वाली लकीर इसी दौर में खिंची। किसी को आरक्षण चाहिये था तो किसी को राम मंदिर। देश के साथ गजब का धोखा हुआ। और आंदोलन फेल हुआ । वीपी से ठीक पहले जेपी को याद कीजिये। वीपी से 15 बरस पहले जेपी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन करने गुजरात पहुंचे थे। उसके बाद बिहार । और फिर संपूर्ण क्रांति का सपना। लेकिन जेपी के आंदोलन के बाद सारा संघर्ष सत्ता में ही सिमट गया। जेपी आंदोलन नेताओं के लिये सत्ता पाने की याद बन गया और जनता के लिये अप्रैल फूल। और जेपी से 15 बरस पहले लोहिया को याद कीजिये तो समाजवादी सोच की धारा को संसद के भीतर संघर्ष के जरीये शुरुआत कर सड़क पर गैर कांग्रेस वाद का नारा लोहिया ने लगाया। तीन आना बनाम सोलह आना की बहस ने नेहरु की रईसी को डिगाया। तो 1967 में कई राज्यों में गैर काग्रेसी सरकारे बन गयी। लेकिन किसे पता था लोहिया का नाम लेकर समाजवाद का नारा लगाने वाले नेहरु से आगे चाकाचौंध में खो जायेंगे। शायद जनता ने हमेशा इसे महसूस किया इसीलिये तीन दशक तक अपनी मुठ्टी बंद कर रखी। 1984 से 2012 तक कभी किसी को बहुमत की ताकत नहीं दी । लेकिन जब दी तो क्या सीएम और क्या पीएम । हर को जनता ने बहुमत की ताकत दी । लेकिन सत्ता का मिजाज ही कुछ ऐसा निकला कि हर कोई सत्ता को कवच बनाकर जनता को कुचलने में लग गया । कोई नया रास्ता किसी दौर में किसी के पास था नहीं । जो नये रास्ते थे वह भरे हुये पेट वालो के लिये और जश्न को नये नये तरीके से मनाने के थे। वजह यही है कि पीएम मोदी राउरकेला में छाती ठोंक कर अपनी उपलब्धी बताने के लिये मनमोहन की लकीर पहले खींचते हैं । फिर कोयले खादानो से कमाये रकम को बेलौस बोलते हैं। जबकि सवाल खुद की उपलब्धि बताने का नहीं है बल्कि सवाल वादों को पूरा कर जनता की मुश्किलों को खत्म करने का है। इसीलिये जनता को लगता है कि उसे हर दिन अप्रैल फूल बनाया जा रहा है।
क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में जो मुश्किलें मंहगाई, बिजली-पानी,फसल का समर्थन मूल्य, किसानो की बढती खुदकुशी से लेकर रोजगार और शिक्षा स्वास्थय तक की थीं, उसमें कुछ बदलाव आया नहीं है तो जनता सरकार के बेदाग होने से खुश हो जाये या अपनी न्यूनतम जरुरतों के पूरा ना होने पर रोये। क्योंकि बेदाग होकर तो मोरारजी देसाई भी 1977 में पीएम बने । और जेपी के संघर्ष को भी मोरारजी की सत्ता तले जगजीवन राम से लेकर चरण सिह ने भूला दिया। सभी आपस में भिडे तो बहुमत वाली आदर्श सरकार का अंत महज दो बरस में गया। इंदिरा गांधी 1980 में आपातकाल के दाग को धोकर सत्ता में नहीं पहुंची बल्कि जनता पार्टी के जनता से दूर होने और सत्ता के लिये आपस में लडने भिड़ने वालों की वजह से पहुंची। और जनता ने भी दिल खोलकर इंदिरा गांधी का साथ दिया। इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता के कार्यकाल में सबसे ज्यादा 353 सीटें 1980 में मिली। यानी जिस रास्ते देश को ले जाना चाहें, इंदिरा ले जा सकती थीं। लेकिन फिर वहीं हुआ , बहुमत वाली सरकार पंजाब संकट को संभालते संभालते खुद ही रास्ते से भटकीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद के हालात ने सत्ता ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी को ही खत्म कर दिया। यानी राजनीति का खूनी अंत भी देश ने देखा। वहीं
राजीव गांधी को तो जनता ने कंधे पर बैठाकर पीएम बनाया। भारतीय राजनीति में इससे बड़ी जीत किसी को इससे पहले मिली नहीं थी। 404 सीटों पर राजीव गांधी की जीत ने तय कर दिया कि आने वाले पांच बरस में देश युवा हो जायेगा । कुछ नये प्रयोग नये तरीके से देश की छाती पर तमगे लगायेंगे। लेकिन बदला कुछ नहीं। जनता हाशिये पर ही रही। बोफोर्स घोटाले की आवाज सत्ता के भीतर से ही उठी। देखते देखते पांच बरस पूरे होने से पहले ही सरकार के सामने ऐसा संकट उभरा कि चुनाव में भ्रष्टाचार ही मुद्दा बन गया और जनता ने राजीव गांधी को अंघेरे में फेंक दिया। लेकिन जिसे चुना उसने जनता को गहरे अंधेरे में ला खड़ा किया।
यानी अब के दौर में बदलाव की राजनीति से खुश ना हों क्योकि जो पहले कभी नहीं हुआ वह इतिहास मोदी ने भी रचा और केजरीवाल ने भी। आजादी के बाद पहली बार जनता ने किसी गैर कांग्रेसी को इतनी ताकत के साथ पीएम बनाया कि वह जो चाहे सो नीतियां बना सकता है। और मोदी के सत्ता संभालने के महज नौ महीने के भीतर ही दिल्ली में केजरीवाल को इतनी सीटे मिल गईं कि वह दिल्ली को जिस तरफ ले जाना चाहे ले जा सकते हैं। मोदी सरकार के वादों की फेरहिस्त की हवा दस महीने पूरे होते होते निकलने लगी और केजरीवाल तो पहले महीने ही हांफते हुये नजर आये। तो क्या नेता सत्ता पाते ही जनता को अप्रैल फूल बना देता है या फिर सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है कि जनता को हर वक्त अप्रैल फूल बनना ही पड़ता है। क्योंकि सवाल सिर्फ मोदी और केजरीवाल का नहीं है । फेहरिस्त खासी लंबी है । केजरीवाल की तर्ज पर बहुमत हासिल कर सत्ता संभाल रहे नेता कर क्या रहे है। सीएम की फेहरिस्त याद कीजिये तो इससे पहले यूपी में अखिलेश यादव को। राजस्थान में वसुधरा राजे सिंधिया को । उडीसा में नवीन पटनायक को। छत्तीसगढ में रमन सिंह को । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को । और इस फेरहिस्त में एक नाम असम के सीएम रहे प्रफुल्ल महंत का भी याद रखना होगा । 33 बरस की उम्र में प्रफुल्ल महंत तो सीधे कालेज हास्टल से सीएम हाउस पहुंचे थे। केजरीवाल तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हुये लोकपाल जपते हुये सीएम बने लेकिन मंहत तो असम में उल्फा के संगीनों के साये के आंदोलन के सामानांतर छात्र आंदोलन करते हुये सीएम बने। यानी कही ज्यादा तेवर के साथ महंत असम के सीएम बने थे। यह अलग बात है कि केजरीवाल को 70 में से 67 सीटें मिली और महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं। लेकिन असम में खासे दिनों बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला था तो महंत से उम्मीद भी कुलांचे मार रही थीं। लेकिन अपने सबसे करीबी फूकन से ही मंहत ने राजनीतिक तौर पर दो दो
हाथ वैसे ही किये जैसा दिल्ली में केजरीवाल आंदोलन के साथी प्रशांत भूषण से कर रहे हैं। पांच साल महंत की सरकार भी चली। और आने वाले पांच साल तक केजरीवाल की सरकार को भी कोई गिरा नहीं पायेगा। लेकिन भविष्य का रास्ता जाता किधर है इसे लेकर महंत फंसे तो 1990 में चुनाव हार गये और 1996 में दुबारा सत्ता में लौटे तो राजनीतिक तौर पर इतने सिकुड़ चुके थे कि दिल्ली से लेकर असम की सियासी चालों को ही चलने में वक्त गुजारते चले गये और आज की तारीख में सिवाय एक चुनावी क्षत्रप के अलावे कोई पहचान है नहीं है। जो हर चुनाव में सत्ता के लिये संघर्ष करते हुये नजर आते हैं। तो क्या आने वाले वक्त में केजरीवाल का भी रास्ता इसी दिशा में जायेगा। क्योंकिदिल्ली सीएम से ज्यादा पीएम के अधीन होता है। लेकिन जनता की उम्मीदों ने कुंलाचें तो केजरीवाल के जरीये दिल्ली से आगे देश के लिये भर ली है। तो सवाल अब यही उभर रहा है कि क्या केजरीवाल भी पालिटिशियन हो गये जैसे बाकी राज्यों में क्षत्रप बहुमत के बाद जनता से कटते हुये सिर्फ अपना जोड़ घटाव देखते हैं। क्योंकि तीन बरस पहले यूपी की जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ सीएम बनाकर अखिलेश यादव को ताकत दी कि वह अपने तरीके से राज्य चलाये। लेकिन जब चलने लगा तो यूपी सांप्रदायिक हिंसा में उलझता नजर आया और सीएम सैफई में कला संस्कृति में खोये नजर आये। दो बरस पहले राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में जनता ने बहुमत के साथ वसुधरा राजे, रमन सिंह और शिवराज सिह चौहान को सीएम बनाया। वसुधरा राजे ना तो किसानो को बिजली पानी देने के वादे पर खरी उतर पायी। उल्टे पहली बार मौसम की मार के बाद खुद को बेसहारा मान चुके 19 किसान मर गये। जयपुर के लिये मेट्रो सपना हो गया। ग्रामीण महिलाओ के लिये भामाशाह योजना के तहत मिलने वाला 800 रुपया दूर की गोटी बन गया। वही छत्तीसगढ में नक्सली संकट के सामने रमन सरकार रेंगती दिखी। छत्तिसगढ घान का कटोरा होकर भी किसान का कटोरा भर न सका। पीडीएस घोटाले के सत्ताधारियो को कटघरे में खड़ा कर दिया। जबकि लगातार मध्यप्रदेश के वोटरों ने शिवराज को जिताया। हैट्रिक बनी। लेकिन युवा बेरोजगारों के सपने व्यापम घोटाले ने चकनाचूर हो गये। सवाल उठा कि सत्ता ही अगर भ्रष्टाचार की जमीन पर खड़ी हो जाये तो वह सिस्टम बन सकता है और रोजगार भर्ती के लिये हुये व्यापम घोटाले ने कुछ ऐसा ही कमाल किया कि परीक्षा देने वाले छात्रों को लगने लगा कि सरकार उन्हे अप्रैल फूल बना रही है। नवीन पटनायक को भी उडिसा में जनता ने दो तिहाई बहुमत की ताकत दी । लेकिन ग्रामीण आदिवासियो की हालात में कोई परिवर्तन आया नहीं । मनरेगा की
लूट ने सरकार की कलई खोल दी। उड़ीसा का नौकरशाह सबसे भ्रष्ट होने का तमगा पा गया । यानी जिस रास्ते मोदी को चलना है । जिस रास्ते केजरीवाल को चलना है वह बहुमत मिलने के बाद नेता होकर हासिल करना मुश्किल है क्योंकि हर राज्य का नेता सीएम बनते ही सत्ताधारी होकर जिस तरह अपने राज्य को
संवारने निकलता है और आंदोलन के पीएम बनकर जिस तरह प्रधानमंत्री सिर्फ बोलते है उसमें नेतागिरी ज्यादा और जन सरोकार खत्म हो जाते है । इसलिये देश हर बार आंदोलन से सपने जगाता है और सत्ता से सपने चूर चूर होते देखता है।