Friday, May 8, 2015

60-12=48

आपको नौकरी मिली। नहीं मिली। किसानों को खून पसीने की कमाई मिली। नहीं मिली। जवानों के कटते गर्दन का जवाब सरकार ने कभी दिया। नहीं दिया। महंगाई से निजात मिली। नहीं मिली। बिना घूस के काम होता है। नहीं होता है। घोटालो की सरकार को बदलना है। बदलना है। स्विस बैंक से कालाधन लायेंगे। हां लायेंगे। आपने उन्हें साठ साल दिये। हमे सिर्फ साठ महीने देंगे। हां देंगे। और अब साठ महीनो में से बचे है अडतालीस महीने। तो क्या चुनाव से एन पहले नारे और नारों के साथ जनता की गूंज ने पहले बारह महीनों में देश को एक ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया, जहां नारों से सुर मिलाती जनता को लगने लगा कि सत्ता उसे घोखा दे रही है या फिर अच्छे दिन लाने के वादे के बीच उसी व्यवस्था के मोदी भी शिकार हो गये, जिसने 1991 के आर्थिक सुधार के बाद देश के हर सरकार को दबोचा चाहे वह यूपीए हो या एनडीए या फिर यूनाइटेड फ्रंट। किसानों के मुद्दा आर्थिक सुधार होने नहीं देगा। जवानों का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय कूटनीति चलने नहीं देगा। कालेधन पर नकेल आवारा पूंजी पर टिके विकास की रीढ़ को तोड़ देगा। महंगाई पर रोक बिचौलियों की राजनीतिक साठगांठ को खत्म कर देगा । तो क्या मोदी सरकार के पास विकास का कोई ऐसा माडल है ही नहीं जिसके आसरे देश में एक आर्थिक सोशल इंडेक्स खड़ा किया जा सका। समाज की विषमता को थामा जा सके। यकीनन पहले बरस के बीतते बीतते यही सवाल हर किसी के सामने मुंह बाये खड़ा है कि अगर मनमोहन डिजाइन की अर्थव्यवस्था ही मोदी के विकास के नारे में फिट करनी है तो फिर जो काम मनमोहन सिंह राजनीतिक मजबूरी की वजह से कर नहीं पाये वह काम आसानी से मोदी पूरा तो कर सकते हैं।

लेकिन हाशिये पर पड़े भारत के जिस बहुसंख्यक समाज को मुख्यधारा में लाने के सियासी तानेबाने बुने गये, उन्हें ही हाशिये पर ढकेलना पहले बारह महीनो में मोदी की फितरत बन गई। लेकिन पहली बार किसी सरकार की उपलब्धि कामकाज से ज्यादा चुनावी जीत पर जा टिकी यह भी मोदी के दौर का नायाब सच है। महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर में बीजेपी से ज्यादा केन्द्र सरकार की जीत और मोदी की जीत को ही जिस तरह देश के सामने रखा गया उसने पहली बार यह भी संकेत दिये की चुनाव जीतना और किसी भी तरह सरकार बना लेना ही सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि सरकार अगर काम ना करे तो वह चुनाव हार जाती है। लेकिन कोई सरकार चुनाव जीतते चले तो फिर वह काम कर रही है यह बोलने और दिखाने की जरुरत नहीं है । शायद इसीलिये मोदी सरकार की उपलब्धियो के खाके में फिरौती लेने वाली पार्टी शिवसेना को करार देने के बाद भी साथ मिलकर सरकार बनाने में कोई हिचक नहीं दिखायी दी । बाप-बेटी की पार्टी और पाकिस्तान परस्त राजनीति करने वालो की कतार में मुफ्ती सईद की पार्टी को चुनाव प्रचार में करार देने के बाद भी सरकार साथ मिलकर बनायी । झारखंड में आदिवासियों का सवाल उठाकर गैर आदिवासियो के भ्रष्टाचार की अनकही कहानी चुनाव प्रचार में कही गई लेकिन झारखंड के सीएम के तौर पर गैर आदिवासी को चुना गया। दरअसल मोदी सरकार के पहले बारह महीने चुनावी संघर्ष और मनमोहन की नीतियो को खारिज करने में ज्यादा बीता । सरकार चलाने के लिये सत्ता की ताकत पीएमओ में कैसे केन्द्रित हो इसमें ज्यादा बीता। नौकरशाही और कारपोरेट के बीच मंत्रियो को नीतियां लागू कराने के लिये फाइलो पर चिडिया बैठाने की सोच के आगे कैसे ले जाया जा सकता है इस मशक्कत में ज्यादा बीता। यानी मोदी गुजरात से चलकर ही दिल्ली नहीं पहुंचे बल्कि दिल्ली को हराकर पीएम बने तो उसकी झलक दिखाने में पहले बारह महीने लगे इससे कार नहीं किया जा सकता है। तो अगला सवाल होगा कि
क्या पहले बारह महीनो में मोदी सरकार ने सिस्टम की ओवर हाइलिंग भर की है । यानी काम अगले 48 महीनो में होना है। तो सवाल ओवरहाइलिंग का नहीं बल्कि अपनी दिशा को बताने या अपने सियासी अंतर्विरोध को छुपाते हुये आगे बढा कैसा जाये इसपर मशक्कत का ही रहा। मोदी सरकार के लिये पहले बारह
महीनो में जो सवाल सबसे बडा बना वह मोदी के विकास की अवधारणा की मान्यता का ही रहा। क्योंकि विकास के लिये जिस तरह खुले तौर पर विदेशी निवेश की जरुरत बतायी गई। विदेशी निवेश के लिये भारत के श्रमिक कानूनों में बदलाव लाने की बात सोची गई। उसने मोदी के सामने संघ परिवार की उसी विचारधारा
को सामने ला खड़ा किया जो अभी तक स्वदेशी का राग अपना रही थी । विदेशी निवेश की जगह देसी पूंजी को महत्व देना चाह रही थी। मजदूरों के हितों के लिये संघर्ष करने पर उतारु थी। यानी विकास को लेकर टकराव राजनीतिक विरोधियों से नहीं बल्कि अपनो को ही सहेजना ज्यादा रहा। भारतीय मजदूर संघ
और स्वदेशी जागरण मंच को संभाला गया। तो अगला सवाल विदेशी निवेश के लिये देश में उस वातावरण का आकर खड़ा हो गया जो टिका तो सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों के लेकर आजादी के बाद से सरकारों के नजरिये पर था। लेकिन उसे कही भ्रटाचार तो कही लाल फीताशाही से जोड़ा गया। कानूनों में बदलाव लाकर
विदेशी निवेश के लिये सियासी जमीन बनाने की मशक्कत शुरु हुई । लेकिन आखिरी सवाल उस जमीन का आकर खडा हो गया जिसके बगैर कोई योजना देश में लागू हो ही नहीं सकती। तो भूमि अधिग्रहण के सवाल ने किसानो के उस हालात को मोदी सरकार के सामने ला खड़ा किया जिसपर हर सरकार ने ना सिर्फ आखे मूंदी बल्कि आर्थिक सुधार के बाद से तमाम राजनीतिक दलो ने जिस सर्वसम्मती से इस बात पर मुहर लगा दी थी कि खेती अपनी मौत खुद मरेगी । जीडीपी में खेती का योगदान संभव नहीं है । तो खेती को उघोग का दर्जा देना भी बेमतलब होगा । यानी जिस तेजी से किसान किसानी छोड़ रहा है । जिस तेजी से देश में सस्ते
मजदूरो की तादाद बढ रही है।

जिस तेजी से खेती के लिये इस्तेमाल हर वस्तु पर बडी कंपनियो ने कब्जा कर लिया है । और जिस तेजी से किसान आहत होकर खुदकुशी कर रहा है उसमें खेती की जमीन पर सिचाई का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने से बेहतर है, खेती की जमीन पर उद्योग लगा दिये जाये। बड़ी बड़ी योजनाओं को अमली जामा पहना कर विकास की चकाचौंध को विदेशी पूंजी के जरीये देश में ले या जाये। यानी जो सोच 1991 में वित्त मंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह ने ड्राफ्ट की उसी सोच को 24 बरस बाद अमली जामा पहनाने में किसी सरकार को बहुमत मिला तो वह मोदी सरकार है। लेकिन पहले ही बरस मोदी इस सच को भूल गये कि आजादी के बाद किसी सरकार को सबसे कम वोट फिसदी के आधार पर सबसे ज्यादा सीटे मिली है। सिर्फ 31 फिसदी और 281 सीट । यानी देश उस दौर में भी बीजेपी को लेकर बंटा हुआ था जब मनमोहन सिंह सरकार के प्रति उसमें गुस्सा था । मनमोहन की आर्थिक नीतियो को उपभोक्ता समाज के लिये माना गया । काग्रेस में दो सत्ता ध्रूव को मनमोहन सरकार के लिये मौत का गीत माना गया । यानी 2014 में जाती हुई सरकार की एवज में जिसे चुना गया उसके पास बहुमत की ताकत तो है लेकिन जनता का वह साथ नहीं है जो अच्छे दिन के नारो में खोने को तैयार हो जाये । असर इसी का है जिस विकास को लेकर राजनीति चुनावी जीत को आधार बनाया गया उसमें बीजेपी को चुनावी जीत तो जनता लगातार यह सोच कर देती चली गई कि न्यूनतम जरुरतो को तो कोई सराकर पूरा करेगी । दूसरी तरफ बीजेपी ने मोदी के आसरे चुनावी जीत के लिये जो रास्ते बनाये वह भी भारतीय समाज को समझे बगैर क्यो पूरे नहीं हो सकते है इसे मोदी सरकार
पहले बरस समझ पायी यह कहना मुश्किल है । क्योकि विकास के लिये जो भी रास्ते बनाये गये उसमें संयोग से दिल्ली मुबई इंडस्ट्री कारीडोर को पूरा करने में राजनीतिक तौर पर तो कोई मुश्किल मोदी सरकार के सामने नहीं है । क्योकि जमीन जिन पांच राज्यो की ली जानी है उनमें बीजेपी की सरकार है । हरियाणा,राजस्थान,मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात । सभी जगह बीजेपी की सत्ता । लेकिन इसके बावजूद जमीन कैसे विकास के नाम पर लें ले यह नैतिक साहस राज्य सरकारो के पास है ही नहीं । और इसकी सबसे बडी वजह है विकास की तमाम नीतिया उपभोक्ताओ को ही ध्यान में रखकर बनायाजा रहा है । यानी देश
के नागरिको को लेकर विकास का कोई ब्लू प्रिट मोदी सरकार के पास है नहीं और इससे पहले की सरकारो के पास भी नहीं था । इसलिये जब वित्त मंत्री संसद के भीतर यह कहते है कि मोदी जी की विसाक की सोच से विकास दर आठ फिसदी पहुंच जायेगी । पूंजी ज्यादा आयेगी । तो फिर सिचाई में भी पैसा लगाया जा
सकेगा । और किसानो का भला होगा । यानी मोदी सरकार की भी वहीं सोच है जो मनमोहन सिंह के दौर में थी कि कारपोरेट/उघोघिक विकास से पूंजी कमायेगें और बचे हुये पैसे को मनरेगा या दूसरे सामाजिक कल्याण के पैकेज से बांटेगे । मुश्किल उस वक्त भी थी । मुश्किल इस वक्त भी है । लेकिन पहले बरस की
मोदी की सत्ता ने राजनीतिक तौर पर यह पारदर्शिता तो देश के सामने रख दी कि जो सत्ता में होगा उसकी समझ विपक्ष की राजनीति से बिलकुल जुदा होगी । क्योकि मेक न इंडिया का नारा लगाकर दुनिया भर मेंबारत को एक नायाब बाजार के तौर पर रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी संसद में ही राहुल गांधी के इस
सवाल का जबाब नहीं दे पाते है कि किसान क्या मेक न इंडिया नहीं कर रहा है । और राजनीति जिस तरह जनता को लगातार ठग रही है उसमें कोई राहुल गांधी से भी नहीं पूछ पाता है कि जब बीते साठ बरस से किसान मेक इन इंडिया कर रहा है तो फिर मनमोहन सरकार ही नहीं बल्कि काग्रेस की तमाम सरकारो के वक्त
किसानो को लेकर बजट से लेकर हर नीति में कोई ऐसा इन्फ्रस्ट्रक्चर पैदा क्यो नहीं किया गया जिससे किसान के लिये सरकार हो । और किसान को भी लगे कि उसका वित् मंत्री या प्रधानमंत्री इन्द्र भगवान नहीं बल्कि चुनी हुई सरकार ही है । यानी जिन सवालो को लेकर देश का हर नागरिक अपने अपने दायरे
में जुझ रहा है पहली बार किसी सरकार के अंतर्विरोध ने उसे ना सिर्फ सतह पर ला दिया है बल्कि यह सवाल भी खडा कर दिया है कि बहुमत के साथ चुनावी जीत के बाद भी अगर कोई वैकल्पिक इक्नामिक माडल किसी सरकार के पास नहीं है तो फिर देश की राजनीति उसी दिशा में जायेगी जिसके खिलाफ खडे होकर
नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार में उम्मीद की आवाज दी ।  और देश भी मोदी के साथ चलने को इसलिये तैयार हो गया क्योकि हर पार्टी का कांग्रेसीकरण हो चला था। यहां तक की दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता भी कांग्रेस की नीतियों से इतर सोच नहीं पा रहे थे। इसलिये गुजरात से निकलकर लुटियन्स की दिल्ली
को बदलने के ख्वाब मोदी ने जगाया । लेकिन पहले बारह महीने तो यह लगते हैं कि मोदी भी लुटियन्स की दिल्ली के रंगो में खो रहे हैं। मनाइये कि बाकि बचे 48 महीनो में अच्छे दिन की आस बरकरार रहे।

2 comments:

Gyanendra Awasthi said...

ट्रिकल डाउन इकोनॉमिक्स का जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है। अब तो विकास हो कर रहेगा। जिसे नहीं चाहिए उसके घर का दरवाजा पुलिस के बूट्स और उनकी रायफल्स के बट से तोड़कर होम डिलेवेरी कर दी जायेगी।

Anonymous said...

जनाब ज़रा दिल्ली की क्रान्तिकारी सेना के 3 महीने का हिसाब भी लिख दें, कृपा होगी आपकी। और नए सर्कुलर के बारे में आपके क्या विचार हैं? जिसमें लिखा है की केजरू और उसकी पार्टी के ख़िलाफ़ ख़बर चलाने पर पत्रकारों पे मानहानि का मुक़दमा होगा? कहीं उसी से तो नहीं डरे आप?