75 के आंदोलन में छात्रों ने जेपी की पीछे खड़े होकर डिग्री गंवाई। नौकरी गंवाई। 89 के आंदोलन में वीपी के पीछे खड़े होकर छात्रों ने आरक्षण को डिग्री पर भारी पाया। सत्ता के गलियारे में जातिवाद की गूंज शुरु हुई। 2013 में सत्ता ने पहले अन्ना आंदोलन को हड़पा और फिर 2015 में सत्ता ने ही छात्रों को रोजगार का सियासी पाठ पढ़ाया। यानी पहली बार खुले तौर पर छात्रों को यह खुले संकेत दिये जा रहे है कि अगर वह राजनीतिक दलों से जुड़ते है तो सत्ता में आने के बाद छात्रो की डिग्री पर उनकी राजनीतिक सक्रियता भारी पड़ेगी। यानी जो छात्र राजनीति से दूर रहते है या सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देते हुये अच्छे नंबरो के लिये दिन रात एक किये होते है आने वाले वक्त में उसका कोई महत्व बचेगा नहीं। यह सवाल इसलिये डराने लगा है क्योंकि इससे पहले यूपी में समाजवादी पार्टी की सत्ता तले यादवों के भर्ती के किस्से खूब रहे हैं। संयोग से इतनी बडी तादाद में खुले तौर पर जातीय आधार पर नौकरी बांटी गई कि भर्ती घोटाला शब्द ही यूपी की सत्ता के साथ जुड़ गया। मध्यप्रदेश में शिवराज चौहाण सरकार के दौर में व्यापम ने नौकरी को पूंजी से जोड़ दिया। करोडों के वारे-न्यारे के खेल इतने खुले तौर पर हुये कि जब पोटली खुलनी शुरु हुई तो राजनेता, नौकरशाह, बिजनेसमैन और दलालों की नैक्सस भी सामने आ गया। लेकिन ताजा मिसाल तो उन दो नेताओं की सत्ता से जा टिका है, जिन्होंने सत्ता के लिये भावनात्मक तौर पर वोटरों के दिल-दिमाग को छुआ। अर्से बाद इन दो नेताओं के गुस्से से भरे भाषणों को सुनकर वोटरों में यह एहसास जागा कि बदलाव की घड़ी अब उनके दरवाजे पर दस्तक दे ही देगी। क्योंकि एक तरफ नरेन्द्र मोदी का लुटियन्स की दिल्ली की रईसी पर सीधी चोट करना था तो दूसरी तरफ अरविन्द केजरीवाल का सामाजिक ढांचे को ही बदलने का प्रण था। मोदी के भाषणों ने छात्रो को इस हदतक प्रभावित किया कि 26 मई 2014 के तुरंत बाद ही एडमिशन से लेकर नौकरी पाने के हकदार छात्रों के सामने जैसे ही नंबर होने के बावजूद कही आरक्षण तो कही डोमिसाइल के चक्कर में एडमिशन ना हो पाने का संकट उभरा तो हर किसी ने पीएम मोदी को ही याद किया। कइयों ने पीएमओ के नाम मेल किये तो कईयो ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। कुछ ऐसा ही नौकरी पाने का हकदार होने के बावजूद कही पैरवी तो कही राजनीतिक खेल की वजह से नौकरी ना मिल पाने वाले छात्रों ने भी अपने अपने तरीके से पीएम को ही याद किया।
क्योंकि राजनीतिक सत्ता के भीतर के मवाद को निकालने की कसम मोदी ने पीएम पद के लिये चुनावी प्रचार के वक्त की थी। छात्रों को ऐसी ही आशा केजरीवाल से भी जागी। खासकर दिल्ली में पढने के लिये आने वाले छात्रो ने महसूस किया कि केजरीवाल पढे लिखे हैं । नौकरी छोड़कर नेता बने हैं। तो सत्ता मिलने के बाद दिल्ली में छात्रों को संकट से निजात मिलेगा। एडमिशन हो या पढाई के बाद नौकरी का सवाल दोनों दिशा में दिल्ली सरकार कदम जरुर उठायेगी। दोनों ही नेताओं को लेकर छात्रों में आस इस हद तक हुई कि प्रधानमंत्री मोदी के पद संभालते ही सारी मुश्किले छूमंतर हो जायेगी कुछ एसा ही 88 फीसदी नंबर पाने के बाद पूना में कहीं दाखिला ना होने पर य़श को लगा और उसने अगस्त-सितबंर 2014 में ही पीएमओ में मेल कर अपना गुस्सा निकाला। तो दिल्ली में जिस तरह राजस्थान छात्र को 92 फीसदी नेबर आने पर भी दिल्ली विश्वविघालय में नामांकन ना मिला उसने केजरीवाल और देश की शिक्षा मंत्री को मेल कर अपना गुस्सा निकला । मुश्किल गुस्सा निकालने भर की नहीं है । मुस्किल है कि राजनेताओं और राजनीति से गुस्से में आया युवा तबका ही तो 2011-12 में दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में जुटता था । और देखते देखते देश के शहर दर शहर में रामलीला मैदान ओऔर जंतर मंतर बनने लगे थे । जिससे पारंपरिक राजनीतिक सत्ता की चूले हिलेने लगी थी और उसी के बाद केजरीवाल हो या मोदी दोनों ने ही जनता के आक्रोष की इसी नब्ज को पकडा । पहली बार राजनीतिक भाषणो में बख्शा किसी को नहीं गया। मोदी ने गांधी परिवार से लेकर दामाद राबर्ट वाड्रा और किसान मजदूर से लेकर शिक्षा की खास्ता हालात पर जमकर अपनी जुबां से कोडे चलाये । अच्छा लगा । कोई नेता तो लग दिख रहा है । इसी तर्ज पर केजरीवाल ने भी बख्शा किसी को नहीं । जो भ्रष्ट थे । जो दागी
थे। जो मालामाल थे । जो लूट का नैक्सेस बनाये हुये देश को खोखला कर रहे थे। सभी को निशाने पर लिया । युवा साथ कड़े हुये क्योंकि यह जुबां बदलाव वाले थे । लेकिन सत्ता संभालने के साथ ही सच जिस खौफनाक तरीके से दस्तक देने लगा उसने उन्ही छात्रों-युवाओं के सामने अंधेरा कर दिया जो आस लगाये बैठे थो कि उनकी काबिलियत को तो मौका मिलेगा ही । सत्ता केजरीवाल के हाथ आई तो पहली नजर कैडर को ही नौकरी देने या दिल्ली सरकार में काम पर ल गाने की शिरी हुई। चूंकि केजरीवाल का कैडर पारंपरिक राजनीतिक कैडर से अलग था। आम आदमी पार्टी को संभालने वाले या तो केजरीवाल के एनजीओ के साथी है या फिर प्रोपेशनल्स की कतार जो राजनीति की मार तले बदलाव के लिये केजरीवाल में अपना अक्स देखने लगी।
और तीसरी कतार दिल्ली हरियाण के उम मुफलिसी में खोये छात्रों की है जो केजरीवाल के विस्तार के साथ अपना विस्तार भी देख रहे थे। तो उनके लिये किसी परिक्षा की तैयारी के सामान ही राजनीतिक संघर्ष करना। तो सीएम बनते ही सबसे पहले उसी कैडर को नौकरी पर लगाना प्राथमिकता बनी। दिल्ली में ही करीब दो से तीन हजार कैडर महीने की तयशुदा रकम पा कर दिल्ली सरकार की राजनीतिक नौकरी कर रहा है। यानी जो काम प्रोफेशनल्स के हाथ में होना चाहिये या जिस काम के लिये सत्ता को पढ़े लिके छात्रों के बीच समानता के साथ नौकरी दी जानी चाहिये उसमें प्राथमिकता या कहे समूचा रोजगार ही अपने कैडर में बांट दिया गया। जबकि दिल्ली का सच बेरोजगारी को लेकर कम डराने वाला नहीं है । दिल्ली में दो लाख से ज्यादा बेरोजगार ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट हैं। औप पढ़े लिखे बेरोजगारो की तादाद तो 15 लाख के पार हैं। तो यह सवाल किसी भी जहन में आ सकता है कि सिर्फ अपने कैडर के काम के आसरे तो दिल्ली में राजनीति संघर्ष केजरीवाल ने खड़ा नहीं किया उसमे भ्रष्ट व्यवस्था की मार खाया युवा तबका भी होगा। तो उसका ख्याल कैन करेगा। या फिर सियासी आरक्षण तले अगर कैडर को ही सारी सुविधा मिलेगी तो फिर दूसरे नेता और पार्टी से केजरीवाल और आम आदमी पार्टी अलग कैसे हुई । यही सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के हालात से समझा जा सकता है। देश के अलग अलग विश्वविद्यालयों औररिसर्च इस्टटीयूट में बीजेपी के छात्र संगठन अखिल बारतीय विघार्थी परिषद में रहे छात्रों को प्रथमिकता मिलने लगी। मसलन हाल में एबीवीपी के तीस छात्रो को अलग अलग जगहो पर एडहोक तरीके से निटुक्त कर दिया गया । बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी में भी पांच एबीवीपी छात्रो को लेक्चरर की नौकरी मिल गई। इसके अलावे में झटके में केन्द्र में सरकार बीजेपी की बनी तो
संघ से जुडे तमाम इंसटीट्यूट को बजट से लेकर बाकी सुविधायें मानव संसाधन मंत्रालय से मिलने लगी। तो वहा भी संघ विचारधारा से जुडे छात्रों को रोजगार मिलने लगा। और नौकरी पाने के पायदान पर सबसे आगे खडा छात्र राजनीतिक कनेक्शन खोजने में भटकने लगा। जयपुर में तो बीजेपी का दफ्तर ही कैडर के रोजगार के लिये खुल गया। जो बीजेपी के साथ खड़ा है उसकी पर्ची पर रोर से लेकर उसके उम्मीदवार की ट्रांसफर पोस्टिग तक होने लगी। यानी छात्र हो या शिक्षक उसका राजनीतिकरण होना कितना जरुरी है यह केन्द्रीय विघालयों में गर्मी छुट्टियों के वक्त होने वाले ट्रांसफर-पोस्टिंग से भी समझा जा सकता है। हर शिक्षक को कम से कम दो या तीन बरस तो एक जगह गुजरना ही पता है। लेकिन बीजेपी के साथ जुड़े हैं। संघ के किसी स्वयंसेवक की चिट्टी है तो दो से तीम नहीने के भीतर ही इस बार मनमाफिक जगह पर ट्रांसफर कर दिया गया। बच्चों के एडमिशन का कोटा मानवसंसाधन मंत्रालय का साढे चार सौ छात्रो का है। लेकिन बीजेपी/संघ की सक्रियता का आलम यह है कि जून तक केन्द्रीय विद्यालयों को साढे चार हजार बच्चों के एडमिशन की पर्ची देश के हर स्कूल में जा चुकी है।
यानी छात्र सिर्फ पढलिखकर आगे बढना चाहे तो उसका राजनीतिक अज्ञान उसके सामने रोड़ा बनेगा। और अगर इस दिशा में बचे तो सामने कंपटिशन की परिक्षाओं में करोडों के वारे न्यारे करने वाला नैक्सस आकर खड़ा हो जायेगा। और असर इसी का है कि इस बार देशभर के साढे तेरह लाख से ज्यादा छात्रों के सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि हर परीक्षा पेपर अगर लीक होगा तो फिर वे करेंगे क्या। क्योंकि सीबीएसई की
एआईपीएमटी की परीक्षा तो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर फटाफट अगले हफ्ते कराया जा रहा है जिसमें साढे छह लाख छात्र परीक्षा देगें । लेकिन जरा कल्पना किजिये लेकिन एमयू की मेडिकल परीक्षा , इंजीनियरिंग परीक्षा ,
बीडीएस परीक्षा , यूपी की पीसीएस परीक्षा और पीएमटी परीक्षा सभी तो इस बार रद्द होगई । क्योकि इसके पीछे का नैक्सेस बताता है कि जिनके पास पैसा है उनके लिये इन परिक्षाओ को पास करना कितना आसान बना दिया गया है । और हर रैकेट के तार उसी राजनीति से जा जुडते है जहा पैसो का लेन-देन नेताओं
के कद को बढा करता है और उसके बाद राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिये शिक्षा में सुधार या शिक्षा माफिया पर नकेल कसने के वादे कर पढने लिखने वाले छात्रो की भावनाओ को अपने साथ करने के लिये ईमानदार दिखने काराजनीतिक प्रहसन खुले आम होता है। क्योंकि किसी सत्ता के पास ना तो शिक्षा का और ना ही समाज को आगे ले जाने का कोई ब्लू प्रिंट है। सिवाय पूंजी बनाने और ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता पैदा कर देश को बाजार में बदलने की सोच हर सत्ता के पास के जरुर है । और असर इसी का है कि बढती
बेरोजगारी के बीच मलाईदार नौकरी का रास्ता जहा धंधे या कहे येन –केन प्रकारेण से हो जाये ओऔर वरदहस्त सत्ता का ही रहे तो फिर छात्रो का भविष्य ही नहीं बल्कि देश का भविष्य भी माफिया रैकेट में फंस रहा है इससे
इंकार कौन कैसे करेगा ।
Tuesday, June 30, 2015
सत्ता का नया पाठ, राजनीति कीजिये नौकरी पाइए
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:12 PM
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6 comments:
Hmm very minute observation!! Wht next?? Modi Kejriwal brainwashing the youth or encouraging their active participation in politics..as we all know all jobs more or less r controlled by political parties
agar aise h bakwassh krte rhoge naa to kisi din barkasht kr diye jaogi.naaa naukari bachegi naaa rajneetiv... phr ghr mae baith kr krna krantikari bhut he krantikari
http://navbharattimes.indiatimes.com/india/pm-says-to-supporters-no-abusive-language-stay-positive-on-social-media/articleshow/47910013.cms
पीएम मोदी ने दी ऑनलाइन समर्थकों को नसीहत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ऑनलाइन समर्थकों को सोशल मीडिया का शालीनता से इस्तेमाल करने की नसीहत दी है
केजरीवाल राजनीति की आइटम गर्ल होने के साथ साथ अब राजनीति का निर्मल बाबा भी बन गया है। आगे आगे देखो होता है क्या, अभी तो बस क्रांति की शुरुआत है। तुमको अभी से बहुत क्रांतिकारी लगने लगा है।
Wakyi bhut badi widmmna hai ye desh ki!!!
Nice article as usual
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