देश में अभी भी पचास करोड़ से ज्यादा वोटर किसी भी राजनीति दल के सदस्य नहीं हैं। और इतनी बडी तादाद में होने के बावजूद यह सभी वोटर अपनी अपनी जगह अकेले हैं। नहीं ऐसा भी नहीं है कि बाकि तीस करोड़ वोटर जो देश के किसी ना किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं, वे अकेले नहीं है। दरअसल अकेले हर
वोटर है। लेकिन एक एक वोट की ताकत मिलकर या कहे एकजुट होकर जब किसी राजनीतिक दल को सत्ता तक पहुंचा देती है तो वह राजनीतिक दल अकेले नहीं होता। उसके भीतर का संगठन एक होकर सत्ता चलाते हुये वोटरो को फिर अलग थलग कर देता है। यानी जनता की एकजुटता वोट के तौर पर नजर आये । और वोट की ताकत से जनता नहीं राजनीतिक दल मजबूत और एकजुट हो जाये । और इसे ही लोकतंत्र करार दिया जाये तो इससे बडा धोखा और क्या हो सकता है। क्योंकि राजनीतिक पार्टी को सत्ता या कहे ताकत जनता देती है। लेकिन ताकत का इस्तेमाल जनता को मजबूत या एकजूट करने की जगह राजनीतिक दल खुद को खुद को मजबूत करने के लिये करते हैं। एक वक्त काग्रेस ने यह काम वोटरों को बांट कर सियासी लाभ देने के नाम पर किया तो बीजेपी अपने सदस्य संख्या को ग्यारह करोड़ बताने से लेकर स्वयंसेवक होकर काम करने के नाम पर कर रही है ।
यानी सत्ता को लेकर जनता के सामने सबसे बडी पशोपेश यही है कि अगर वह सत्तादारी पार्टी के रंग में नहीं रंगती है तो फिर वह तादाद में कितनी भी ज्यादा हो लेकिन वह हमेशा अकेले ही रहेगी। और सत्ताधारी के लिये एक ऐसा सिस्टम बना हुआ है जो झटके में जनता का नाम लेकर सत्ता के लिये काम करता है। पुलिस जनता के लिये होकर भी सत्ताधारी के इशारे पर काम करेगी। तमाम संस्थान जनता के लिये बनाये गये लेकिन वह सत्ता के इशारे पर ही काम करेंगे। न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थानो को सत्ता से अलग उनकी स्वायत्ता के आधार पर परिभाषित तो किया जायेगा। लेकिन संवैधानिक होकर इनके काम करने के तरीके भी बिना सत्ता के इशारे के चल नहीं सकते यह नियुक्ति से लेकर संस्थानो के आपसी तालमेल बनाकर काम करने के तरीकों को परखते ही सामने लगातार आ रहा है। यानी कोई सत्ता चाहकर भी जनता को उसके अपने दायरे में एक सोच से एकजुट कर नहीं सकती। क्योंकि सत्ता की एकजुटता जनता के बिखराव पर ही टिकी है। और जनता की एकजुटता सत्ता के विरोध पर टिकी है । तो तीन सवाल मौजूदा व्यवस्था को लेकर किसी भी आम जनता के जहन में उठ सकता है। पहला, जनता की सत्ता और राजनीतिक पार्टी की सत्ता में अंतर है। दूसरा, जो जनता की दुहाई देकर नीतिया लाते या लागू कराते है वह सत्ता की सोच होती है और उसका सभी वोटरों से तो नहीं ही बहुसंख्यक जनता के हित से भी कुछ भी लेना देना नहीं होता।
तीसरा, सत्ता मिलते ही राजनीतिक दल को एक ऐसी व्यवस्था मिल जाती है जिसे वह सत्ता को ताकत देने का खुला इस्तेमाल जनता के नाम पर कर सकता है। यानी जन और दल के बीच मौजूद सत्ता तक जन की पहुंच कभी हो नहीं सकती। लेकिन जन का नाम लेकर उसे भावानात्मक तौर पर सत्ता के विरोध में खड़ाकर सत्ता पाने के तरीके को ही देश में संघर्ष और आंदोलन का नाम दिया जाता रहा है। मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल इसकी एक बेहतरीन मिसाल है। केजरीवाल ने सत्ता का विरोध आंदोलन के जरीये किया तो नरेन्द्र मोदी ने सत्ता का विरोध चुनावी तौर तरीको से किया। केजरीवाल के संघर्ष में जनता भी सड़क पर उतरी । मुठ्ठी उसने भी कसी। नारे उसने भी लगाये। मोदी के संघर्ष में चुनावी बिसात सत्ता के विरोध में जन-आंकाक्षाओ के अनुरुप बनी तो जनता ने मोदी के हर राग में संगीत दिया। केजरीवाल ने स्वराज का राग अलापा तो मोदी ने
विकास और सुशासन का। दोनों ने सत्ता के लिये लकीर अलग अलग जरुर खींची। लेकिन दोनों के निशाने पर वही सत्ता रही जिस कभी जनता ने चुना। जनता की भावनाओं ने लुटियन्स की दिल्ली की रईसी को मोदी के गरीबो की नब्ज पकड़ने के हुनर तले ढहते देखा। तो केजरीवाल के आंदोलन तले राजनीतिक व्यवस्था बदलने के नारों के हुनर तले काग्रेस-बीजेपी के धुरंधरों को ढहते देखा। दोनों ही उस दिल्ली को पराजित कर दिल्ली पहुंचे जिस दिल्ली की सत्ता को डिगाने की ताकत पारंपरिक राजनीति में नहीं थी । या फिर हर राजनीतिक दल एक सरीखा हो चला था और जनता की आस, उम्मीद टूट रही थी। इसलिये मोदी में बीजेपी का अक्स किसी ने नहीं देखा और केजरीवाल में पारंपरिक राजनीति का अक्स किसी ने नहीं देखा। लेकिन दोनों सत्तावान बने तो संघर्ष अपनी सत्ता बचाने और दूसरे की सत्ता ढहाने के लिये उन्ही सांस्थानिक ढांचे का खेल शुरु हुआ जिसका कोई चेहरा तो होता नहीं। और झटके में दोनो ही इतने बचकाने हो गये कि सत्ता का खेल व्यवस्था को अपनी सत्ता के अनुकूल करने में ही खेला जाने लगा। पुलिस किसके पास रहेगी । संवैधानिक संस्थानो पर अपनो की नियुक्ति कैसे हो । सत्ता की सोच के अनुकूल दिल्ली ही नहीं देश भर के संसथान तभी काम करेंगे जब सत्ताधारी की सियासी सोच के रंग में रंगे अधिकारियों के हाथो में लगाम होगी। जांच एंजेंसी को अपनी नाक तले रखे बगैर कैसे भ्रष्टाचारियों को पकड़ा जा सकता है। अस्पताल, स्कूल, सड़क पानी, सस्ता खाना सबकुछ सियासी बिसात के मोहरे कैसे हो सकते हैं। और विकास के लिये विदेशी पूंजी से लेकर राजनीतिक दल चलाने के लिये जनता का चंदा। और इस राजनीतिक गोरखधंधे में पुलिस हो या नौकरशाह या फिर कोई अदना सा अधिकारी वह भी अपनी सुरक्षा के लिये सत्ता को ही देश मानने से क्यों हिचकेगा। तो क्या वाकई कोई वैक्लिपक सोच किसी के पास नहीं है। या फिर वैकल्पिक सोच तभी लायी जा सकती है जब समूचा तंत्र सत्ताधारी के इशारे पर काम करने लगे ।
या फिर पहली बार देश के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह सत्ता की परिभाषा बदल दें। क्योंकि समूचा तंत्र ही जब सत्ता के इशारे पर काम करने लगता है तो होता क्या है यह भी किसी से छुपा नहीं है। गुजरात में पुलिस नरेन्द्र मोदी की हो गई था तो 2002 के दंगों ने दुनिया के सामने राजधर्म का पालन ना करने सबसे विभत्स चेहरा रखा । 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या को बडे वृक्ष के गिरने से हिलती जमीन को देखने की सत्ता की चाहत में खुलेआम नरसंहार हुआ। शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में शिंकजा कसा तो लाखो छात्रों की प्रतियोगी परीक्षा धंधे में बदल गई। रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में शिंकजा कसा तो आदिवासियों के हिस्से का चावल भी सत्ताधारी डकारने से नहीं चूके। लेकिन वहीं नरेन्द्र मोदी गुजरात से दिल्ली आते हैं तो दिल्ली के जख्मो को दिल्ली पुलिस थाम नही सकती। लेकिन केन्द्रीय जांच एंजेसिया बीजेपी अध्यक्ष को रहस्मय तरीके से क्लीन चिट देने की दिशा में बढ़ने से नहीं कतराती है। तो केजरीवाल को लगता है कि दिल्ली पुलिस उनके मातहत आ जाये तो वह दिल्ली में कोई जख्म होने नही देंगे। पूर्ण राज्य का दर्जा दिल्ली को मिल जाये तो दिल्ली को स्वर्ग बना देंगे।
लेकिन दिल्ली को स्वर्ग बनाने की दिशा में वह खुद को और पार्टी कार्यकर्ताओं को ही सबसे बडा देवता मान कर जिस राह पर चल पडते है, उसमें सुविधाओ को बटोरने की होड़ से लेकर आम से खास होकर सत्ता चलाने की नायाब जिद दिखायी पडती है। यह जिद बौद्दिक सहनशीलता को इस रुप में बार बार प्रकट करती है जिसमें सामने वाले को अंगुली उठाने का हक देना भर ही खुद को लोकतंत्रिक करार देने का निर्णय होता है। यानी करेंगे वही जो खुद के लिये सही होगा क्योंकि जनता ने बहुमत दिया है। तो केजरीवाल हो या मोदी अपने अपने घेरे में अपने कैडर को ही देशबाक्त मान कर सियासत साधने निकल पड़ते है। और यही से सवाल उठता है कि सत्ता किसी के पास हो या पिर सत्ता के लिये टकराते जो भू चेहरे वैचारिक तौर पर अलग अलग दिकायी देते हो लेकिन सत्ता ही सत्ता के लिये लडने वालो को एकजूट कर देती है और अस्सी करोड वोटर अपनी जगह अलग थलग होकर न्यूनतम की लड़ाई में ही उम्र गुजार देता है । लेकिन मौजूदा वक्त में सियासी चक्रव्यूह ने पहली बार मोदी और केजरीवाल के जरीये आम जनता में जिन आकांक्षाओं को जगाया है, असर उसी का बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जूझते हुये है। खास लोगों की बैचेनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को
चिढ़ाने के लिये और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिये बैचेन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है।
आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणो के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब गुस्से और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरुरी सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। तो क्या पहली बार देश को यह समझ में आ रहा है कि सत्ता की परिभाषा बदलने का वक्त आ गया है। क्योंकि विदेशी पूंजी से विकास हो नहीं सकता। और संसद के ही नियंत्रण में अगर पंचायत रहे तो चौखम्मा राज जीया नहीं जा सकता। तो क्या उत्पादन को सबसे अहम देश में माना जा सकता है। जो किसान खेती से देश का पेट भर रहा है उस खेतीहर जमीन को राष्ट्रीय संपदा घोषित करने का वक्त आ गया है । उत्पादन से जुडे तबके को मजबूत करने से लेकर उसी के जरीये देश की नीतियों को लागू कराने के हालात देश में लाये जा सकते है। क्योंकि भारत की पहचान तो उसके हुनर से रही है । आजादी के वक्त भी देश में दो करोड से ज्यादा हाथ कुटिर और लघु उघोग से जुड़े थे । लेकिन मौजूदा वक्त में पारंपरिक हुनरमंद को खत्म कर आईटीआई के डिग्रीधारी व्यवस्था को ही स्कील इंडिया माना जा रहा है। क्योंकि गुस्से और संघर्ष की वही आवाज हमेशा की तरह आज भी सबसे तेज सुनायी दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सर्विस सेक्टर से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरुरत को जुगाड़ने के लिये भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ ना कुछ डाल कर ही जिये जा रही है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगाकर व्यवस्था बदलाव का सपना बीते साठ बरस से बार बार जगा रहा है। पत्रकार,शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनर मंद मान चुके है कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाये तो चोर व्यवस्था बदल जायेगी। व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वाड्रा हो या मुकेश अंबानी या फिर वसुंधरा राजे हो या शिवराज सिंह चौहाण इनके भ्रष्टाचार की कहानी के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागेदारी कहा कैसे होगी, जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा। और सियासी घमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के खिंची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिये आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखला कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरिया बढ़ रही हैं। क्योंकि सवाल उस जमीन को खड़े आम लोगो के गुस्से का नहीं है, जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल संसद से सडक तक में हर कोई बार बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका जीवन है। और पीढि़यो से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर खोखला बनाने की विकास नीति चौमुखी तौर पर स्वीकार कर ली गई है। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन आधुनिक धारा में वहीं संस्थान लोकतंत्र को भी खरीद-बेच कर धनतंत्र में बदल गये। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संसदीय धारा आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा गुलाम बना कर मुंह के कौर को भी छीनने पर आमादा है। क्या पेट में समाये इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा बिल और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों के खोलने से खत्म किया जा सकता है। क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार व्यवस्था
में गंवाने या पाने की तिकड़मो को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्यों वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा, जिसने कानवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरु कर दिया। या फिर लुटियन्स की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुलबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता हुआ तीर चमकते हुये सूरज सरीखा दिखायी देता है। यानी संघर्ष और गुस्सा भी अगर लूट की भागीदारी या सत्ता संघर्ष का हिस्सा बन जाये तो फिर रास्ता है क्या। और रास्ता निकाला ना गया तो हर रास्ता उसी सत्ता को पाने की होड में शामिल होकर दुनिया के सपबसे बडे लोकतंत्र का राग ही गायेगा। जहां पचास करोड से ज्यादा वोटर अकेला है। और संसद से पंचायत तक यानी पीएमओ से मुखिया तक महज साढे पैतिस लाख लोगों की सत्ता ही देश है।
Saturday, July 25, 2015
[+/-] |
करोड़ों अकेले बेबस लोगों का देश |
Friday, July 17, 2015
[+/-] |
सलमान ने मोदी-नवाज से भाईजान देखने को क्यों कहा? |
क्या आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा सकती है? खासकर भारत पाकिस्तान के संबंधों की जटिलता के बीच। जहां सत्ता बात करती है तो पाकिस्तानी सेना हरकत अगले ही दिन सीमा पर दिखायी देने लगती है। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर अगर यह सपना परोसा जाता है कि आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा
सकती है तो फिर कई सवाल बजरंगी भाईजान के जरीये सलमान खान ने ईद के मौके पर पैदा कर दिये हैं। पहला सवाल क्या सेना और सत्ता ने ही भारत पाकिस्तान के संबंधों को उलझा कर रखा है। दूसरा सवाल अगर हिन्दुओं के कदम बढ़े तो वे समझ जायेंगे कि मस्जिद में कभी ताले नहीं लगते क्योंकि कोई भी कभी भी वहां आ
सकता है। तीसरा सवाल मानवीयता और सरोकार ही अगर मुद्दा बन जायें तो धर्म की कट्टरता भी खत्म हो जाती है।
दरअसल भारत पाकिसातन के संबंधों को लेकर सियासी नजरिये से फिल्में तो कई बनीं या कहें सियासी नजरिये को ही केन्द्र में रखकर फिल्म निर्माण खूब हुये हैं जो दोनो देशो के बीच युद्द और घृणा के खुले संकेत देकर फिल्म देखने वालो के खून गर्म कर देते हैं। लेकिन आंखों में आंसू भरकर लाइन ऑफ कन्ट्रोल को खत्म होते हुये देखने का कोई सुकून भी हो सकता है और पाकिस्तान की जो सेना चुनी हुई सत्ता से भी ताकतवर नजर आती हो वह आवाम के सामने यह कहकर झुक जाये कि हम तो आवाम के सामने तादाद छटाक भर है। इसलिये रास्ता छोड़ते हैं। यह सोच पाकिस्तान को लेकर कही फिट बैठती नहीं दिखती लेकिन यह सिल्वर स्क्रीन का नायाब प्रयोग ईद के मौके पर ही आया जब कबीर खान के निर्देशन में सलमान खान हनुमान भक्त होकर जय श्रीराम कहते हुये पाकिस्तान में चले जाते हैं और वहां की आवाम भी हनुमान भक्त के साथ खडे होकर जय श्रीराम बोलने में नहीं हिचकती। और हनुमान भक्त को भी दरगाह या मस्जिद जाने या टोपी पहनने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। तो क्या पाकिस्तान के साथ संबंधों को लेकर सिनेमा बदल रहा है या फिर सलमान खान ने अपने कद का लाभ उठाते हुये चाहे-अनचाहे में सिल्वर स्क्रीन पर एक ऐसा प्रयोग कर दिया जो दोनों देशों के सत्ताधारियों के जहन में कभी किसी बातचीत में नहीं उठा कि बर्लिन की दीवार की तर्ज पर भारत पाकिस्तान के बीच खड़ी दीवार को आवाम ठीक उसी तरह गिरा सकती है जैसे 9 नवंबर 1989 को बर्लिन में गिराया गया था।
संयोग ऐसा है कि जिस वक्त बर्लिन की दीवार गिरी उसी वक्त कश्मीर में आतंक की पहली बडी घुसपैठ भी शुरु हुई। महीने भर बाद 8 दिसबंर 1989 को रुबिया सईद के अपहरण के बाद सीमा पार से आतंक की दस्तक कुछ ऐसी हुई जिसने सबसे ज्यादा उसी आवाम को प्रभावित किया जिस आवाम के जरीये सिल्वर स्क्रीन बदलाव की रौ जगाना चाहता है। और वह कैसे अब एक नये युवा आंतक में बदल रही है यह घाटी में लहराते आईएसआईएस और फिलिस्तीन झंडों के लहराने से भी समझा जा सकता है। क्योंकि विदाई रमजान के दिन जिस तरह वादी में जामा मास्जिद की छत पर चढ कर फिलिस्तीन, पाकिस्तानी और आईएसआईएस के झंडे लहराये गये और झंडों के लहराने के बाद हर जुम्मे की नवाज के बाद जिस तरह सुरक्षाकरमियो पर पत्थर फेंके गये। झड़प हुई। पुलिस ने लाठिया भांजी। आसू गैस के गोले छोड़े । उसने सिर्फ कश्मीर घाटी के बदलते हालात को लेकर ही नये संकेत देने शुरु नहीं किये है बल्कि कश्मीर को लेकर नया सवाल आंतक से आगे आतंक को विचारधारा के तौर पर अपनाने के नये युवा जुनुन को उभारा। विचारधारा इसलिये क्योकि आईएसआईएस की पहचान पाकिस्तान से इतर इस्लाम को नये तरीके से दुनिया के सामने संघर्ष करते हुये दिखाया जा रहा है और घाटी में आज कोई पहला मौका नहीं था कि आईएसआईएस की झंडा लहराया गया। इससे पहले 27 जून को भी लहराया गया था और उससे पहले आधे दर्जनबार आईएसआईएस आंतक के नये चेहरे के तौर पर घाटी के युवाओ को आकर्षित कर रहा है यह नजर आया है। तो क्या आवाम को किस दिशा में ले जाना है यह सत्ता को भी नहीं पता है । और दिमाग या पेट से जुड़े आतंक को लेकर किसी सत्ता के पास कोई ब्लू प्रिट नहीं है। क्योंकि चंद दिनो पहले ही सेना की वर्दी में वादी के युवाकश्मीरियों के वीडियो ने कश्मीर से लेकर दिल्ली तक के होश फाख्ता कर दिये थे।
और दस दिन पहले सोशल मीडिया पर हथियारों से लैस युवा कश्मीरियो की इस तस्वीर ने घाटी में आंतक को लेकर नयी युवा सोच को लेकर कई सवाल खड़े किये थे। यानी घाटी की हवा में पहली बार पढ़ा लिखा युवा आतंक को महज सीमापार आतंकवादियों से नहीं जोड़ रहा है। बल्कि आईएसआईएस के बाद फिलिस्तीन का झंडा लहराकर अपने गुस्से को विस्तार दे रहा है। यानी आतंक की जो तस्वीर 1989 में रुबिया सईद के अपहरण के बाद कश्मीर के लाल चौक से लेकर लाइन आफ कन्ट्रोल तक हिसा के तौर पर लहराते हथियार और
नारों के जरीये सुनायी दे रहे थे ।और 1989 में जो कश्मीर आंतक की एक घटना के बाद दिल्ली से कट जाता था वही कश्मीर अब तकनीक के आसरे दिल्ली ही नहीं दुनिया से जुड़ा हुआ है। और घाटी ने बकायदा वोट डाल कर अपनी सरकार को चुना है। यानी 1989 वाले चुनाव दिल्ली के इशारे के आरोप भी अब नहीं है।
तो नया सवाल प्रधानमंत्री मोदी की नवाज शरीफ के साथ उफा की बैठक के मुद्दे और सिल्वर स्क्रीन पर बजरंगी भाईजान के जरीये रास्ता निकालने के बीच फंसे संबंधों का है। क्योंकि मौजूदा हालात घाटी में राजनीतिक आतंक की नई जमीन बना रहा है। जिसपर चुनी हुई सरकार का भी कोई वश नहीं है क्योंकि श्रीनगर हो या दिल्ली दोनो का नजरिया सीमा पार आंतक से आगे बढ नहीं पा रहा जबकि श्रीनगर के जामा मस्जिद पर लहराते झंडे संकेत दे रहे है कि सीरिया में सक्रिय आईएसआईएस ही नहीं बल्कि फिलिस्तीन के झंडे के जरीये इजरायल तक को मैसेज देने की कश्मीरी युवा सोच रहा है। यानी पहली बार यह सवाल छोटे पड़ रहे है कि कभी वाजपेयी को लाहौर बस ले जाने की एवज में करगिल युद्द मिला। तो -मोदी को उफा बैठक के बाद ड्रोन और सीमा पर फायरिंग मिली। यानी सियासत अगर हर बैठक के बाद उलझ जाती है तो पाकिस्तानी सेना की हरकत उभरती है । और आवाम अगर नफरत में जीती है तो आंतक के साये में धर्म को निशाने पर लिया जाता है । यानी दूरिया जिन वजहो से बनी है उन वजहों से आंख मूंद लिया जाये तो सिल्वर स्क्रीन का सपना सच हो सकता है। क्योंकि सलमान खान फिल्म में हिन्दुओं के उन तमाम जटिलताओं को जीते हुये इस्लाम की हदो में समाते है जो मौजूदा वक्त में संभव इसलिये नहीं लगता क्योकि धर्म की अपनी एक सत्ता है जो चुनी हुई सत्ता को बनाने और डिगाने की ताकत रखती है। और बजरंगी भाईजान भारत पाकिस्तान के संबंधों को लेकर धर्मसत्ता और आतंक दोनों सवालों पर मौन रहती है । यानी सवाल सिर्फ चुनी हुई सत्ता के सियासी तिकडमो और आवाम का हो तब तो लाइन आफ कन्ट्रोल का रास्ता निकाला जा सकता है । लेकिन जब सवाल सत्ता के लिये बातचीत और विचारधारा के लिये आंतक का हो चुका हो तब सरकार और सिल्वर स्क्रीन के बीच की दूरी कैसे मिट जाती है यह 10 जुलाई की उफा में बैठक के बाद के हालात और 17 जुलाई को बजरंगी भाईजान देखने के बाद कोई भी समझ सकता है कि आखिर सलमान खान ने ट्विट कर क्यों कहा कि प्रदानमंत्री मोदी और नवाज शरीफ को यह फिल्म जरुर देखनी चाहिये।
Friday, July 10, 2015
[+/-] |
मोदी का रास्ता मोदी के लिये |
ना सरकार का कामकाज रुका है ना पार्टी का। प्रधानमंत्री अपने कार्यक्रम पर हैं तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी के विस्तार में लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी जहां फेल हो रहे हैं, वहां फेल की नई परिभाषा अमित शाह गढ़ रहे हैं और जहां चुनावी समीकरण डगमगाते हुये दिखायी दे रहा है या मोदी के जादू के ना चलने का डर समा रहा है वहां अमीत शाह साम दाम दंड भेद पर उतर आये हैं। और असर इसी का है कि जातीय राजनीति खारिज करने वाली बीजेपी के लिये अब मोदी ओबीसी के हो गये। साठ महीने सत्ता के मांगने वाले पीएम के वादों को पूरा करने के लिये अब और वक्त की मांग हो रही है । दागदार सीएम और मंत्रियों की बढ़ती फेहरिस्त पर खामोशी बरतकर खुद को अलग थलग पाक साफ बताने की बिसात भी खामोशी से बनायी जा रही है। वहीं आर्थिक नीतियों से लेकर पाकिस्तान तक के साथ रिश्तों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह ट्रैक बदला है और बदले हुये ट्रैक को सही बताने-दिखाने की कोशिश बीजेपी अध्यक्ष कर रहे हैं, वह अपने आप में खासा दिलचस्प हो चला है। क्योंकि चुनाव जीतने के लिये जिन हालातों को प्रधानमंत्री मोदी ने भावनात्मक तौर पर खडा किया और सरकार चलाने के लिये जिस पटरी पर वह देश को दौड़ाना चाह रहे हैं, उसमें जमीन आसमान का अंतर है। इसलिये तीन नये सवाल मौजूदा वक्त के हैं।
पहला क्या प्रधानमंत्री मोदी अपनी ही पार्टी-सरकार के भीतर अपने विरोधियों को निपटाने में लगे हैं। दूसरा, क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच को नीतिगत तौर पर शामिल करना घाटे का सौदा है। और तीसरा क्या पाकिस्तान को लेकर कट्टर रुख को बदलने की जरुरत आ चुकी है। यह बदलाव कैसे आ रहा है और बदलाव के लिये कैसे अमित शाह शॉक ऑर्ब्जरवर की तरह काम कर रहे हैं, यह भी कम दिलचस्प नहीं हैं। जरा इस सिलसिले को समझें। राजस्थान की सीएम वसुंधरा ललित गेट में फंसी। मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहाण व्यापम घोटाले में फंसे। छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह घान घोटाले में फंसे। महाराष्ट्र के सीएम एयर
इंडिया रुकवाने से लेकर अपने दो मंत्रियों के फंसने पर क्लीन चीट देने पर फंसे। सुषमा स्वराज और स्मृति इरानी को लेकर सवाल उठे। और बेहद बारिकी से प्रधानमंत्री मोदी ना सिर्फ खामोश रहे। बल्कि अपने एजेंडे वाले मुद्दों पर खूब बोलते रहे। तो सवाल मोदी के बदले उन नेताओं को लेकर उठे जो अपने अपने घेरे में खासे
ताकतवर थे। तो क्या पहली बार अपने अपने दौर के कद्दावर इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनकी कुर्सी हाईकमान के इशारे पर जा टिकी हैं या फिर इन कद्दावरों का कमजोर होना दिल्ली के पावर सेंटर 7 आरसीआर और 10 अशोक रोड को कहीं ज्यादा मजबूत बना रहा है। यानी प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी ही इन कद्दावरों को कमजोर कर मोदी को ताकत दे रही है। क्योंकि बीजेपी के भीतर के सियासी समीकरण को समझें तो जो भी कद्दावर दागदार लग रहे हैं, कमजोर हो रहे हैं, वे हमेशा आडवाणी कैंप के माने जाते रहे। मोदी के पक्ष में खुलकर कभी नहीं रहे तो अपनी पहचान को ही अपनी ताकत बनाये रहे ।यानी झटके में पहली बार प्रधानमंत्री मोदी सरकार चलाते हुये कुछ उसी तरह पाक साफ दिखायी दे रहे है जैसे यूपीए के दौर में मनमोहन सिंह की छवि साफ दिखायी देती थी और उनके अपने मंत्री घोटालो में फंसते नजर आते थे।
शायद इसीलिये यह सवाल अब भी अनसुलझा है कि बीजेपी सासित राज्यो के सीएम से लेकर केन्द्रीय मंत्री तक जिस तरह आरोपों से घिर रहे हैं लेकिन उसका असर ना सरकार पर है ना पार्टी पर । लेकिन इससे मोदी का कद बढ़ गया यह भी पूरी तरह सही नहीं है। तो अगला सवाल है कि जो जनता सिर्फ मोदी को ही बीजेपी और सरकार माने हुये है उसके लिये तो अच्छे दिन के नारे अब कमजोर पड़ते दिखायी दे रहे हैं। और इसका असर बीजेपी कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा है और उनमें भी निराशा है। तो यहां बीजेपी अध्यक्ष की भूमिका बड़ी हो जाती है और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इस सच को समझ रहे हैं कि 2014 के लोकसबा चुनाव के वक्त के उत्साह और 2015 में खासा अंतर आ चुका है तो अमित शाह उस लकीर को नये तरीके से खिंचना चाह रहे है जिसे नरेन्द्र मोदी ने पांच बरस के लिये खींचा था। यानी अब मोदी के वादे पांच बरस में पूरे नहीं हो सकते बल्कि ज्यादा वक्त चाहिये। यानी वादों से बीजेपी अधयक्ष नहीं मुकर रहे है बल्कि वादों की मियाद से मुकर रहे है। और उसकी सबसे बडी वजह कार्यकर्ताओं के भीतर उम्मीद जगाये रखना है। क्योंकि कार्यकर्ताओ के भरोसे ही बिहार से लेकर यूपी चुनाव में कूदा जा सकता है । यानी अभी से चुनाव की तैयारी भी है और बाकी चार बरस के दौरान जिन आधे दर्जन राज्यो में चुनाव होने जा रहे है उसके लिये जमीन तैयार करने की मशक्कत भी हो रही है। क्योंकि मई 2014 में सत्ता के लिये साठ महीने यह कहकर मांगे थे कि हर गांव में पाइप से पानी पहुंचेगा/ हर राज्य में एम्स होगा/हर गांव इंटरनेट से जोड़ा जाएगा/हर व्यक्ति के पास पक्का मकान होगा/बुलेट ट्रेन शुरु की जाएगी/काला धन पैदा नहीं होने देंगे/ खाद्य सुरक्षा दी जाएगी यानी वादो के अंबार तले वोटरों ने दिल खोलकर मोदी का साथ दिया और मोदी ने भी जो अलघ जगाये वह संघ परिवार की जमीन पर खड़े होकर भावनाओ को उभारा। लेकिन नीतियों में तब्दील होते मोदी के वादो ने स्वदेसी जागरण मंच को झटका दिया । भारतीय मजदूर संघ को हलाल किया। किसान संघ को बाजार का रास्ता दिखा दिया। आदिवासी कल्याण आश्रम को विदेशी निवेश से विकास की लौ जगाने के सपने दिखा दिये। और बेहद बारिकी से आरएसएस के अखंड भारत या पीओके को कब्जे में लेने या बड़बोलेपन की हवा भी पाकिस्तान के साथ समझौतों को हवा देकर निकाल दी। इतना ही नहीं पाकिस्तान जाने का न्यौता उन हालातों के बीच स्वीकारा जिन हालातो के बीच 15 बरस पहले अटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर लाहौर पहुंच गये थे। तो क्या नरेन्द्र मोदी 13 महीनों में सरकार चलाते चलाते उस मोड़ पर आ खडे हुये है जहां उन्हें परंपरा निभाते हुये पांच बरस काटने है। या फिर प्रधानमंत्री मई 2014 से पहले के हालात को नये तरीके से सरकार चलाते हुये देश के सामने रखना चाह रहे हैं। क्योंकि दर्जनभर सरकारी नारों को लागू कैसे किया जाये, इस बाबत नारो का कोई ब्लूप्रिंट अभी भी सामने आया नहीं है लेकिन नारों के प्रचार का खर्चा सरकारी खजाने से खूब लुटाया जा रहा है।
मसलन 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत के नारे पर 94 करोड़ खर्च हो चुके हैं। स्किल इंडिया के नारों के दौर में ही दो लाख बुनकरों से लेकर कुटिर इंडस्ट्री की कमाई तीस फिसदी से ज्यादा सिमटती दिखायी दे रही है। डिजिटल इंडिया के नारों के वक्त ही फोन काल ड्राप तक को रोकना मुश्किल हो चुका है। आलम इस हद तक बिखरा है कि मुंबई हमले के आरोपी को लेकर 10 दिन पहले विदेश मंत्री जो कहती हैं, उसके उलट पाकिस्तान से बात प्रधानमंत्री करते हैं और एलओसी पर बीएसएफ का जवान पाकिस्तानी फायरिंग में शहीद होता है और चंद घंटो बाद प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान जाने के निमत्रंण को स्वीकारते हैं। और झटके में बीजेपी अध्यक्ष बताते है देश ने तेरह महीने पहले जिस शख्स को पीएम बनाया वह ओबीसी है।
Sunday, July 5, 2015
[+/-] |
अक्षय नहीं रहा : खबरों में जिन्दगी जीने के जुनून में डोर टूटी या तोड़ी गई ? |
अगर स्टेट ही टैरर में बदल जाये तो आप क्या करेंगे। मुश्किल तो यही है कि समूची सत्ता खुद के लिये और सत्ता के लिये तमाम संस्थान काम करने लगे तब आप क्या करेंगे । तो फिर आप जिस तरह स्क्रीन पर तीन दर्जन लोगों के नाम , मौत की तारीख और मौत की वजह से लेकर उनके बारे में सारी जानकारी दे रहे हैं उससे होगा क्या । सरकार तो कहेगी हम जांच कर रहे हैं । और रिपोर्ट बताती है कि सारी मौत जांच के दौरान ही हो रही हैं। इस अंतर्विरोध को भेदा कैसे जाये या यह सवाल उठाया कैसे जाये कि जांच सरकार करवा रही है । जांच अदालत के निर्देश पर हो रही है । जांच शुरु हो गई तो सीएम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन जांच के साथ सरकार ही घेरे में आ रही है । एसाईटी और राज्य पुलिस किसी न किसी मोड़ पर टकराते ही हैं। एसआईटी से जुडे अधिकारी रह तो उसी राज्य में रहे हैं, जहां मौतें हो रही हैं। और हर मौत के साथ राज्य की पुलिस को तफ्तीश करनी है । और इसी दायरे में अगर तथ्यों को निकलना है तो कोई भी पत्रकार किस तरह काम कर सकता है । पत्रकार को उन हालातों से लेकर मौत से जुड़े परिवारो के हालातों को भी समझना होगा । सामाजिक-आर्थिक परिस्थियों को भी उभारना होगा ।
और अगर हर मौत राज्य के कामकाज पर संदेह पैदा करती है तो फिर उन दस्तावेजों का भी जुगाड़ करना होगा जो बताये कि मौत के हालात और मौत के बाद राज्य की भूमिका रही क्या । दिल्ली से देखें तो लगता तो यही है कि राज्य के सारे तंत्र सिर्फ राज्य सत्ता के लिये काम कर रहे है यानी सारे संस्थानों की भूमिका सिर्फ और सिर्फ सत्ता के अनुकूल बने रहने की है । तो फिर ग्राउंड जीरो पर जाकर उस सच के छोर को पकड़ा जाये । लेकिन सच इतना खौफनाक होगा कि ग्रांउड जीरो पर जाने के बाद अक्षय खुद ही मौत के सवाल के रुप में दिल्ली तक आयेगा। यह हफ्ते भर पहले की बातचीत में मैंने भी नहीं सोचा । क्योंकि व्यापम में 42वीं और 43वीं मौत के बाद के बाद अक्षय के सवाल ने मुझे भी सोचने को मजबूर किया था कि क्या कोई रिपोर्ट इस तरीके से तैयार की जा सकती है जहां स्टेट टेरर और स्टेट इनक्वायरी के बीच सच को सामने लाने की पत्रकारिता की चुनौती को ही चुनौती दिया जाये । काफी लंबी बहस हुई थी । और अक्षय ने यह सवाल उठाया कि जब हम दिल्ली में बैठकर
मध्यप्रदेश के व्यापम की चल रही जांच के दौर में लगातार हो रही संदेहास्पद मौतो पर रिपोर्टिंग को लेकर चर्चा कर रहे हैं तो क्या यह सवाल मध्यप्रदेश के पत्रकारो में नही उठ रहा होगा । और अगर उठ रहा होगा तो क्या सत्ता इतनी ताकतवर हो चुकी है जहां रिपोर्टर की रिपोर्ट सच ना ला पाये । या वह सच के छोर को ना पकड़ सके । अक्षय याद करो यही सवाल राडिया टेप के दौर में भी तुमने ही उठाया था। और मुझे याद है रात में “बड़ी खबर” करने से ऐन पहले एंकर ग्रीन रुम में मुझे देखकर तुमने पहली मुलाकात में मुझे टोका था कि आप तो पाउडर भी नही लगाते तो फिर आज यहां । मैंने कहा बाल संवारने आया हूं । और उसके बाद तुम्हारा सवाल था कि क्या आज राडिया टेप में आये पत्रकारो का नाम “बड़ी खबर” में दिखायेंगे। और मैंने कहा था । बिलकुल । तब तो देखेंगे । और उस वक्त भी तुमने ही कहा था पत्रकार भिड जाये तो सच रुक नहीं सकता ।आज “बड़ी खबर” देखते हैं और “जी बिजनेस” वालों को कहते हैं आप भी देखो । और मैंने कहा था तो पत्रकार यह सोच लें कि खबर उसके इशारे पर रुक जायेगी या दबा दी जायेगी तो संकेत साफ है या तो रिपोर्ट दबाने वाला शख्स पत्रकार नहीं, सिर्फ नौकरी करने वाला है या फिर स्टेट ही टैरर में तब्दील हो चुका है । और मुझे लगता नहीं है कि मौजूदा दौर पत्रकारिता को दबा पाने में सक्षम है ।
दरअसल अक्षय से संवाद हमेशा तीखा और सपाट ही हुआ । चाहे जी न्यूज में काफी छोटी-मोटी मुलाकातों का दौर रहा हो या आजतक में कमोवेश हर दिन आंखों के मिलने पर किसी खबर को लेकर इशारा या किसी इशारे से खबरों को आगे बढ़ाने का इशारा । जो खबर दबायी जा रही हो । जिस खबर को सत्ता दबाना चाहती हो । जो सत्ता के गलियारे से जुडी खबर हो उस खबर को जानना और दिखाने का जुनून अक्षय में हमेशा में था यह तो बात बात में उसकी जानकारी से ही पता लग जाता । लेकिन यह पहली बार उसकी मौत के बाद ही पता चला कि अक्षय खबरों की संवेदनशीलता ही नहीं बल्कि स्टेट टैरर या कहे सत्ताधारियों के उस हुनर से भी सचेत रहता जिससे कवर करने वाली खबरें कही लीक ना हो जायें। संयोग से अक्षय की मौत की जानकारी उसके परिवार को देने गये तो हम चार पांच सहयोगी थे । लेकिन मुझे ही अक्षय की बहन को यह जानकारी देनी थी कि अब अक्षय इस दुनिया में नहीं रहा। और जैसे ही यह जानकारी उसकी बहन साक्षी को दी, वैसे ही साक्षी के भीतर अक्षय को लेकर पत्रकारिता का वह जुनून फूट पड़ा जिसकी जानकारी वाकई हमे नहीं थी। अक्षय घर में कभी बताकर नहीं गया कि वह किसी स्टोरी को कवर करने जा रहा है । उसने व्यापम को कवर करने की भी जानकारी नहीं दी । मां ने पूछा । तो भी प्रोफेशनल मजबूरी बताकर यह कर टाला की , हमें जानकारी नहीं देने को कहा जाता है " । अपनी पहचान खुले तौर पर सामने ना आये इसके लिये पहचान भी हमेशा छुपाये रखने के लिये पीटीसी भी नहीं करता । यानी टीवी में काम करते हुये भी अपने चेहरे को स्क्रीन पर दिखाने की कभी कोशिश तो दूर उसके उलट
यही कोशिश करता रहा कि स्क्रीन पर न आना पड़े । जिससे खबरों को जुगाड़ने में कभी कही कोई यह ना कह बैठे कि आप तो न्यूज चैनल में काम करते हैं। और जी न्यूज से डेढ बरस पहले आजतक में आने के बाद दीपक शर्मा के साथ जिस तरह की इन्वेस्टिगेंटिग खबरों की तालाश में अक्षय लगातार राजनीतिक गलियारो में भटकता रहा और जिन खबरो को लेकर आया और आजतक पर खुद मैंने उसकी कई खबरों की एंकरिंग की उसमें भी बतौर विशेष संवाददाता भी कभी चैट { चर्चा } करने भी नहीं आया । लेकिन खबर चलने के बाद फोन कर ना सिर्फ खबर के बारे में चर्चा करता बल्कि चर्चा अगली खबर पर शुरु कर देता कि कैसे-किस तरह किस एंगल से खबर के छोर को पकड़ा जाये । और संयोग देखिये मौत की खबर आने से तीन दिन पहले अक्षय का जन्मदिन था और मां-बहन से वादा कर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट तैयार करने निकला था कि लौट कर किसी खास जगह पर चलेंगे । वहीं जन्मदिन सेलीब्रेट करेंगे । और बहन साक्षी यह बताते-बताते रो पड़ी कि पिछले बरस भी
एक जुलाई को उसे रिपोर्टिंग के लिये बनारस जाना पडा तब भी यह कहकर निकला कि लौट कर जन्मदिन किसी खास जगह जाकर मनायेंगे । लेकिन जन्मदिन कभी मना नहीं और खबरों में जिन्दगी खोजने के जुनून में जिन्दगी की छोर टूटी या या तोड दी गई यह खबर आनी अभी बाकी है ।