Monday, October 19, 2015

बीजेपी, मौर्या और सपने

15 अगस्त 1982 । पटना गांधी मैदान । मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा । स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भाषण देते वक्त झटके में उन्होंने गांधी मैदान के दक्षिणी छोर की तरफ अंगुली उठाते हुये कहा कि वो जो बिस्कोमान की
इमारत है उसके बगल में ही पांच सितारा होटल बन रहा है । धीरे धीरे पटना , फिर बिहार की तस्वीर बदल जायेगी । और संयोग देखिये 33 बरस बीत गये । ना पटना बदला । ना बिहार । और तीन दशक बाद बिहार की तस्वीर बदलने का जो ख्वाह बिहारियों को दिखाया जा रहा है, इसके लिये चुनावी बिसात का ताना-बाना उसी पांच सितारा होटल में बुना जा रहा है , जिसके जरीये पटना-बिहार को बदलने का ख्वाब जगन्नाथ मिश्रा ने दिखाया । तो क्या बिहार का राजनीतिक मिजाज गांधी मैदान से निकलकर पांच सितारा होटल में जा सिमटा है। यह सवाल इसलिये क्योंकि पहली बार किसी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव लड़ने का ग्राउंड जीरो पटना के मौर्या होटल को ही बनाया है ।  जो 1984 में बना । उसके बाद से कोई बडा होटल पटना में बना नहीं और जिस दौर में लालू का राज आया उस दौर में लालू के दोनो सालो का ग्रउंड जीरो जरुर मोर्या होटल हो गया था । और पटना ही बिहार के हर कोने में यादव बहुत ही फक्र से कहते की “सधुआ मोर्या में रात गुजरे ला “। जिसे सुन कर ऊंची जाति की छाती पर सांप लोटता और सामाजिक न्याय का नारा मौर्या होटल में दबंगई से रहने में दफन हो जाता


सच यही है कि बिहार में मंडल-कंमडल के संघर्ष का दौर हो या जातीय राजनीति के उफान पर सवार होकर सियासी प्रयोग का दौर । पटना का मौर्या होटल हर युवा नजरों में किसी प्रेमिका की तरह ही बसा रहा । जहां एक रात रुक कर गुजारना जिन्दगी में नशा घोलने से कहीं ज्यादा रहा । चूंकि गांधी मैदान से सटा है मौर्या होटल तो दूसरे छोर पर अशोक राजपथ के किनारे पटना यूनिवर्सिटी से निकलते छात्रों के कदम भी जब कभी राजनीतिक रैली के लिये गांधी मैदान की तरफ बढते तो छात्रो के झुंड में एक चर्चा हमेशा होती कि नेता जी को तो मौर्या से ही तो निकलना है । फांद कर आ जायेंगे । भाषण देंगे और लौट जायेगें । असर इसी वर्ग संघर्ष की सोच का भी रहा कि कभी भी नेताओ या सत्ताधारियों का अड्डा मौर्या होटल नहीं बना । दिल्ली से पटना पहुंचने वाले नेताओं ने भी धीरे धीरे  मोर्या की जगह पाटलीपुत्र होटल या चाणक्य होटल में ठहरना शुरु कर दिया । पाटलीपुत्र होटल चूंकि आईटीडीसी का है तो दिल्ली से आने वाले नेता-मंत्री वहीं ठहरने लगे । जब बीजेपी में प्रमोद महाजन की तूती बोलती थी और वाजपेयी सरकार के वक्त भी जब भी प्रमोद महाजन चुनावी रैली या सभा के लिये बिहार आये तो पाटलीपुत्र में ही उनका सूट बुक रहता । उस दौर में मौर्या होटल को व्यापारियों या खाये-पियो का अड्डा मान लिया गया । खासकर डाक्टरों और बिल्डरों का अड्डा मौर्या रहा। राजनीतिक चर्चा पाटलीपुत्र और चाणक्य होटल में जा सिमटी। क्योंकि यह दोनों होटल एक ऐसी सडक के दो छोर पर है । जिस सडक पर तमाम राजनीतिक दलों का हेडक्वार्टर भी है और विधायक होस्टल भी । यानी आईटीओ चौराहे और आर ब्लाक चौराहे के बीच वीरचंद पटेल रोड पर ही समूची राजनीतिक बहस और मीडिया का हुजुम 2010 के चुनाव तक रहा । लेकिन जिस तरह बीजेपी अध्यक्ष अमित  शाह ने चुनावी डेरा-डंडा मोर्या होटल में डाला उसने पहली बार यह सवाल पटना ही नहीं बिहार की सियासी बहस में मौर्या होटल की चकाचौंध को तो घोल ही दिया ।   वैसे पटना में मीडियाकर्मियो ही नहीं बल्कि राजनीति की चादर ओढने-बिछाने वालो के जहन में लगातार चर्चा में यह सवाल ही है कि आखिर कैसे मौर्या होटल से बीजेपी हेडक्वाटर जाने के बजाये बीजेपी हेडक्वाटर को ही मोर्या होटल जाना पड़ गया । यानी जिस प्रदेश की राजनीति सडक-चौराहे की बहस में तय होती रही और बहस ही राजनीतिक सुकून नेताओ को देती रही । वह झटके में कैसे मौर्या होटल की तीसरी मंजिल पर जा ठहर जायेगी । बहस तो निर्मल पानी की तरह बहती है उसे कोई ठहरा दें तो वह बहस नहीं फैसला होता है । इसी लिये तो एक फिल्म भी बनी थी , एक रुका हुआ फैसला । अरे हुजूर सवाल फिल्म का नहीं है सवाल बिहार की राजनीति को समझने का है । तो क्या बीजेपी के धुरंधर ही बिहार की राजनीति को समझ नहीं पा रहे है । वह तो समझ पा रहे है लेकिन जिनकी बीजेपी में चलती है वह नहीं समझ पा रहे । यह वह चर्चा है जो मौर्या होटल के रिसेपशन के पीछे लगे सोफे पर बैठकर बीजेपी नेताओ की भागम-भाग को देखते हुये हो रही है । क्यों सुशील मोदी कोई आज के नेता तो है नहीं। वह नहीं समझते होगें कि मौर्या होटल से सियासत साधना मुश्किल है । सुशील मोदी समझते तो होगें लेकिन उनकी चलती कहां होगी । सही कह रहे है , सुशील मोदी को तो ज्यादा सम्मान नीतीश कुमार के साथ रहने पर था । तब कम से कम हर कोई जानता था कि सुशील मोदी नंबर दो है ।और बीजेपी
में नंबर एक ।  ईहा अब कितने नंबर पर है कोई नहीं जानता । आधे दर्जन नेता तो सीएम बनने की दौड में है । गजब कह रहे है तो क्या बिहार में शाह बाबू नेताओ को फेंट रहे है। जुआ खेल रहे हैं । ऐसा जुआ जिसमें पा गये तो सब अपना । गंवा दिये तो मौर्या होटल से निकलकर हवाई अड्डे ही तो जाना है । कोई बात-विचार कहां हो रहा है किसी से । बीजेपी दफ्तर में झंडे , बैनर और बैच बिक रहे है । मौर्या होटल में जीत की बिसात बिछी हुई है । मौर्या होटल के आंगन में ही नहीं बल्कि वीरचंद पटेल मार्ग हो या खुर्जी रोड कही भी चाय-पान की दुकान पर बैठ-खड़े होकर कुछ वक्त गुजारिये जातिय समीकरण की सियासत और वर्ग संघर्ष का गुस्सा झटके में सरोकार जुडते ही सामने वाले की जुबा पर आ जायेगें । इसीलिये मोर्या होटल में सुबह नौ बजे से ग्यारह बजे तक गाडिया की कतार और उसमें सवार होते बीजेपी अध्यक्ष से लेकर केन्द्रीयमंत्री और सांसदों से लेकर पहचान वाले बिहार के नेताओ को जिस तरह हर कोई चुनावी सभा में जाते हुये देखता है । उस तर्ज पर शाम छह बजे से रात नौ-दस बजे तक थके हारे लौटते हुये भी हर कोई देखता है । इन देखने वालो में मौर्या होटल की सीढियो पर खडे दरबान का जबाब अच्छा लगा रौनक है । बनी रहे तो अच्छा ।

लेकिन सारी रौनक तो दिवाली से पहले ही खत्म हो जायेगी । क्यो फैसला 8 नंवबंर को हो जायेगा इसलिये । और दीपावली तीन दिन बाद है इसलिये । अब मतलब आप खुद लगाईये । जी , कुरदने पर दरबान भी इसके आगे कुछ नहीं कहता । मौर्या होटल की तीसरी मंजिल बीजेपी के छुटमैये नेताओ के लिये किसी तिलिस्म से कम नहीं । जब नेताओ की भीड जमती है । कोई प्रेस वार्ता होती है तो तीसरी मंजिल पर यू ही घूमकर आना भी बीजेपी अध्यक्ष से मुलाकात हो गई सोच सोच कर हर छुटमैये को सुकुन देती है । और जो तीसरी मंजिल जाने की हिम्मत जुटा नहीं पाते वह सुकून पाये नेताओ की सुन कर अपनी कहानी शुरु कर देते है । पैसो से पार्टी तो हेलीकाप्टर में उड़ रही है । लेकिन पांच सितारा में बैठकर चुनाव नहीं जीता जाता । नेताओ तक पहुंच रखने वालो की ही चलेगी तो बीजेपी अलग कैसे हुई । मोर्या से निकले कर हेलीकाप्टर में उड कर रैली निपटा कर वापस कमरे में अरामतलबी । गरम पानी , पांव सेकाई की व्यवस्था क्रेडिल पर चलना । शरीर स्वस्थ। लेकिन पार्टी तो बीमार । भला देश भर से लोगो को जमाकर खर्च बढाने से क्या फायदा । बिहा में तो सियासत ककहरा जीने का सलीका है ।  यह गुस्सा है या अपनी पार्टी को लेकर चिंता । हो जो भी लेकिन मौर्या होटल के भीतर की हवा बीजेपी को बदल रही है और पहली बार बीजेपी के ही नेता-कार्यकात्ताओ के चेहरे शून्य हो चले है । हर चेहरे पर चुनावी रौनक कर अनुशासन में बंधे होने का तनाव ज्यादा है । हर दिमाग में कल की रैली को सफल बनाने का भार ज्यादा चुनावी जीत के लिये चर्चा और सियासी तिकडम करने का वक्त नहीं है । बूथ मैनेजमेंट जरुरी है या दिमाग मैनेजमेंट । गजब का सवाल है यह । कार्यकर्ता है बिहार शरीफ है लेकिन उसका तर्क है कमरे में मशीन पर चलने के बदले नेतालोग गांधी मैदान में ही सुबह टहल लें तो भी नजर आयेगा कि बीजेपी पटना में मौजूद है । नहीं तो नंद किशोर जी आपको भी मुस्किल हो जायेगी । अब आप नाला रोड जाकर बीजेपी के लिये वोट मांग कर दिखाईये । बिहारी बाबू के लिये जगह ही नहीं है तो जहा वह रहते है वहा का ब्चचा-ब्चचा क्या सोचेगा । खाली रुपया-गाडी बांटकर प्रचार करवाने से चुनाव नहीं जीता जाता । यह सब पुराना खेल हो चुका है ।ठीक कह रहे है । 84 में जब पहली बार सीपी ठाकुर चुनाव लडने उतरे तो बीएन कालेज के हास्टल में आते थे । पेट्रोल भरकर महिन्द्रा जीप और पांच सौ रुपया देकर जाते थे । छात्र सब मजा करता । जीप में टक्कर लगाता । दुछ जगह उतर कर सीपी ठाकुर का नारा लगाता । और जब सीपी ठाकुर जीत गये तो छात्र सब उनके घर पहुंचे । तो ठाकुर जी सभी को कुछ दिये । तो उस वक्त ठाकुर जी के पहचान बेहतरीन डाक्टर के तौर पर था । तो जीते । लेकिन अब तो कोईके पहचान अच्छा काम के लिये है ही नहीं । खुद सीपी ठाकुर भी चुनाव लड लें । वह भी हार जायेगें । तो भईया वक्त बदल गया है । यह ऐसे सवाल और ऐसी बहस है जो बीजेपी से जुडे नेता-कार्यकत्ता को कही ज्यादा परेशान कर रही है । क्योंकि इन्हे लग रहा है कि जिस लालू  राज के विरोध पर नीतिश की दस बरस की सियासत टिकी रही । वह झटके में कैसे बदल सकती है । और अगर नहीं बदल सकती तो बीजेपी की जीत को कौन रोक सकता है । और कोई नहीं रोक सकता तो फिर बीजेपी अपने ही नेता-कार्यकत्ता को छोड मौर्या होटल से कैसे चल सकती है । हवाई रैलियो के जरीये कैसे जीत सकती है । सडक-चौराहो पर लालू-नीतिश की जोडी क्यों बहस का हिस्सा है । क्यों पार्टी दप्तर सूना है और मोर्या का लान चहल –पहल से सराबोर है । क्यों मोर्या होटल में एक रात गुजारने के बिहारियो के सपनो के साथ बीजेपी को जोडा जा रहा है ।  जबकि बीते तीन दशक में तो बिहार के  हालात जस के तस है । सिर्फ मौर्या होटल ही बना । जिसे दूर से देखते तो बिहारी कहलाते । इसमें रहकर बिहार को देखेगें तो बिहार नहीं बीजेपी बदलती दिखेगी ।

4 comments:

Ashutosh Mitra said...
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Ashutosh Mitra said...

उंगली उठाए, कबूतर उड़ाते, संविधान कांख में दाबे नेताओं की करनी और कथनी के अंतर के यथार्थ से तो सारा मुल्क लबालब्ब, मुचामुच्च भरा हुआ है। देश में कमंडल और उसके जवाब में निकला मंडल, दोनों सफल नहीं हो पाए क्योंकि नीयत दोनों की साफ थी... किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज हो, बने रहो, दूसरों को रोको.
दुर्भाग्य यह है कि इस लोकतंत्र के चारों स्तंभों में दीमक लग गयी है और ये स्तंभ लोकतंत्र को सहारा देने के अपने योगदान की जगह पर अपने हिस्से का मलाई चाभने में व्यस्त है। और याद रहे कि इन स्तंभ रूपी इमारतों की ईंट इस मुल्क के हम सारे बेईमान नागरिक ही हैं...तो जब घर को जलाने की होड़ हर चिराग में लगी हो तो किसी एक पर उंगली उठाने वाले हर हाथ और ऐसे किस्सों की याद दिलाने वाले हर हाथ को यह समझना होगा कि तीन उंगलियां उसकी खुद की तरफ हैं...!
सादर!

Gunjan said...

सर प्रसून ! क्या लिखा है! मुझे नहीं लगता की कोई भारतीये मीडिया में आपसे ज्यादा राजनीती के बारे में इतनी बारीकी से जनता होगा. मौर्या होटल को मैं रोज देखता हूँ क्योंकि मैं एक्सहिबिशन रोड में ही रहता हूँ! सर मुझे आपसे मिलना हैं आप जहा पटना में बोलिये । मैं 20 साल का हूँ और आपसे बहुत प्रेरित हुआ हूँ। दिल न तोड़िये पता नहीं फिर आप कब पटना आएंगे!

Niraj Kumar said...

टीवी ज्यादा देख नहीं पाता क्यों कि घर से दूर रहना पड़ता है। पिछले दिनों दुर्गा पूजा में घर गया था तो मोकामा में NH के किनारे वाला आपका बिहार चुनाव पर कार्यक्रम देखा। आपकी जमीनी पत्रकारिता एवं विश्लेषण का हमेशा कायल रहा हूँ।आपका ब्लॉग काफी दिनों से पढ़ रहा हूँ।
आपसे अनुरोध है कृपया अपने पोस्ट की संख्या बढाएं और स्वच्छंद निर्भीक और निरपेक्ष पत्रकारिता जिसे हम दिन रात यहाँ वहां दुन्ढ़ते रहते हैं उसकी कमी को पूरा करें और अंत में एक विनति बिहार प्रवास पर यहाँ की वस्तुस्थिति का चित्रण जरुर लिखियेगा। धन्यवाद्।