दो दिन बाद संसद के बजट सत्र की शुरुआत राष्ट्रपति के अभिभाषण से होगी। जिस पर संसद की ही नहीं बल्कि अब देश की नजर होगी आखिर मोदी सरकार की किन उपलब्धियों का जिक्र राष्ट्रपति करते हैं और किन मुद्दों पर चिंता जताते हैं । क्योंकि पहली बार जाति या धर्म से इतर राष्ट्रवाद ही राजनीतिक बिसात पर मोहरा बनता दिख रहा है । और पहली बार आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फूलते हाथ पांव हर किसी को दिखायी भी दे रहे है। साथ ही संघ परिवार के भीतर भी मोदी के विकास मंत्र को लेकर कसमसाहट पैदा हो चली है। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर के तेवर 2016 के बजट सत्र के दौरान कैसे बुखार में बदल रहे है यह किसी से छुपा नहीं है । कारपोरेट सेक्टर के पास काम नहीं है । औघोगिक सेक्टर में उत्पादन सबसे निचले स्तर पर है । निर्यात सबसे नीचे है। किसान को न्यूनतम समर्थन मल्य तो दूर बर्बाद फसल के नुकसान की भरपाई भी नहीं मिल पा रही है । नये रोजगार तो दूर पुराने कामगारों के सामने भी संकट मंडराने लगा है । कोयला खनन से जुड़े हजारों हजार मजदूरों को काम के लाले पड़ चुके हैं । कोर सेक्टर ही बैठा जा रहा है तो संघ परिवार के भीतर भी यह सवाल बडा होने लगा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने विकास मंत्र के आसरे संघ के जिस स्वदेशी तंत्र को ही हाशिये पर ढकेला और जब स्वयंसेवकों के पास आम जनता के बीच जाने पर सवाल ज्यादा उठ रहे हैं और जवाब नहीं है तो फिर उसकी राजनीतिक सक्रियता का मतलब ही क्या निकला।
दरअसल मोदी ही नहीं बल्कि उससे पहले मनमोहन सिंह के कार्यकाल से ही राजनीतिक सत्ता में सिमटते हर संस्थान के सारे अधिकार महसूस किये जा रहे थे । यानी संस्धानों का खत्म होना या राजनीतिक सत्ता के निर्देश पर काम करने वाले हालात मनमोहन सिंह के दौर में सीबीआई से लेकर सीवीसी और चुनाव आयोग से
लेकर यूजीसी तक पर लगे । लेकिन मोदी के दौर में संकेत की भाषा ही खत्म हुई और राजनीतिक सत्ता की सीधी दखलंदाजी ने इस सवाल को बड़ा कर दिया कि अगर चुनी हुई सत्ता का नजरिया ही लोकतंत्र है तो फिर लोकतंत्र के चार खम्भों के बारे में सोचना भी बेमानी है । इसलिये तमाम उल्झे हालातो के बीच जब संसद सत्र भी शुरु हो रहा है तो यह खतरा तो है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त ही विपक्ष बायकाट ना कर दें । और सड़क पर भगवा ब्रिगेड ही यह सवाल ना उठाने लगे कि नेहरु माडल पर चलते हुये ही अगर मोदी सरकार पूंजी के आसरे विकास की सोच रही है तो फिर इस काम के लिये किसी प्रचारक के पीएम बनने का लाभ क्या है। यह काम तो कारपोरेट सेक्टर भी आसानी से कर सकता है । और सही मायने में यही काम तो मनमोहन सिंह बतौर पीएम से ज्यादा बतौर सीईओ दस बरस तक करते रहे । यानी पेट का सवाल। भूख का सवाल । रोजगार का सवाल । किसान का सवाल । हिन्दुत्व का सवाल । हिन्दुत्व को राष्ट्र से आगे जिन्दगी जीने के नजरिये से जोड़ने का सवाल । मानव संसाधन को विकास से जोड़ कर आदर्श गांव बनाने की सोच क्यों गायब है यह सवाल संघ परिवार के तमाम संगठनो के बीच तो अब उठने ही लगे है। किसान संघ किसान के मुद्दे पर चुप है । मजदूर संघ कुछ कह नहीं सकता । तोगडिया तो विहिप के बैनर तले राजस्थान में किसानों के बीच काम कर रहे है । यानी मोदी सरकार के सामने अगर एक तरफ संसद के भीतर सरकार चल रही है यह दिखाने-बताने का संकट है तो संसद के बाहर संघ परिवार को जबाब देना है कि जिन मुद्दों को 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त उठाया वह सिर्फ राजनीतिक नारे नहीं थे । असर मोदी सरकार के इस उलझन का ही है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी अब संघ के राजनीतिक संगठन के तौर पर सक्रिय ऐसे वक्त हुये जब संसद शुरु होने वाली है। यानी टकराव सीधा नजर आना चाहिये इसे संघ परिवार समझ चुका है । इसलिये पीएम बनने के बाद मोदी के ट्रांसफरमेशन
को वह बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है । और ध्यान दे तो संघ की राष्ट्रभक्ति की ट्रेनिंग का ही असर रहा कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव में राइट-सेन्टर की लाइन ली । पाकिस्तान को ना बख्शने का अंदाज था । किसान-जवान को साथ लेकर देश को आगे बढाने की सोच भी थी । कारपोरेट और औघोगिक घरानों की टैक्स चोरी या सरकारी रियायत को बंद कर आम जनता या कहे गरीब भारत को राहत देने की भी बात थी । यानी संघ परिवार के समाज के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचने की सोच के साथ देशभक्ति का जुनून मोदी के हर भाषण में भरा हुआ था । लेकिन बीते दो बरसो में राइट-सेन्टर की जगह कैपिटल राइट की लाइन पकडी और पूंजी की
चकाचौंध तले अनमोल भारत को बनाने की जो सोच प्रधानमंत्री मोदी ने अपनायी उसमे सीमा पर जवान ज्यादा मरे । घर में किसान के ज्यादा खुदकुशी की । नवाज शरीफ से यारी ने कट्टर राष्ट्रवाद को दरकिनार कर संघ की हिन्दू राष्ट्र की थ्योरी पर सीधा हमला भी कर दिया । लेकिन इसी प्रक्रिया में स्वयंसेवकों की एक नयी टीम ने हर संस्धान पर कब्जा शुरु भी किया और मोदी सरकार ने मान भी लिया कि संघ परिवार उसके हर फैसले पर साथ खड़ा हो जायेगी क्योंकि मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय और पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर कृषि मंत्रालय और सामाजिक न्याय मंत्रालय में संघ के करीबी या साथ खडे उन स्वयंसेवकों को नियुक्ति मिल गई जिनके जुबा पर हेडगेवार-गोलवरकर से लेकर मोहन भागवत का गुणगान तो था लेकिन संघ की समझ नहीं थी । संघ के सरोकार नहीं थे । विश्वविद्यालयों की कतार से लेकर कमोवेश हर संस्धान में संघ की चापलूसी करते हुये बडी खेप नियुक्त हो गई जो मोदी के विकास तंत्र में फिट बैठती नहीं थी और संघ के स्वयंसेवक होकर काम कर नहीं सकती थी । फिर हर नीति । हर फैसले । हर नारे के साथ प्रधानमंत्री मोदी का नाम चेहरा जुडा । तो मंत्रियों से लेकर नौकरशाह का चेहरा भी गायब हुआ और समझ भी ।
पीएम मोदी सक्रिय है तो पीएमओ सक्रिय हुआ । पीएमो सक्रिय हुआ तो सचिव सक्रिय हुये । सचिव सक्रिय हुये तो मंत्री पर काम का दबाब बना । लेकिन सारे हालात घूम-फिरकर प्रदानमंत्री मोदी की सक्रियता पर ही जा टिके। जिन्हे 365 दिन में से सौ दिन देश में अलग अलग कार्यक्रमों में व्यस्त रखना नौकरशाही बखूबी जानती है। फिर विदेशी यात्रा से मिली वाहवाही 30 से 40 दिन व्यस्त रखती ही है । तो देश के सवाल जो असल तंत्र में ही जंग लगा रहे है और जिस तंत्र के जरीये अपनी योजनाओं को लागू कराने के लिये सरकार की जरुरत है वह भी संकट में आ गये तो उन्हें पटरी पर लायेगा कौन । मसलन एक तरफ सरकारी बैक तो दूसरी तरफ बैक कर्ज ना लौटाने वाले औघोगिक संस्थानों का उपयोग । यानी जो गुस्सा देशभक्ति के भाव में या देशद्रोह कहकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी से लेकर जेएनयू तक में निकल रहा है । उसको देखने का नजरिया चाह कर भी छात्रों के साथ नहीं जुड़ेगा । यानी यह सवाल नहीं उटेगा कि छात्रो के सामने संकट पढाई के बाद रोजगार का है । बेहतर बढाई ना मिल पाने का है । शिक्षा में ही 17 फिसदी कम करने का है । शिक्षा मंत्री की सीमित समझ का है । रोजगार दफ्तरों में पड़े सवा करोड आवेदनों का है । साठ फिसदी कालेज प्रोफेसरो को अंतराष्ट्रीय मानक के हिसाब से वेतन ना मिलने का है । सवाल राजनीतिक तौर पर ही उठेंगे । यानी हैदराबाद यूनिवर्सिटी के आईने में
दलित का सवाल सियासी वोट बैक तलाशेगा । तो जेएनयू के जरीये लेफ्ट को देशद्रोही करारते हुये बंगाल और केरल में राजनीतिक जमीन तलाशने का सवाल उठेंगे । या फिर यह मान कर चला जायेगा कि अगर धर्म के साथ राष्ट्रवाद का छौक लग गया तो राजनीतिक तौर पर कितनी बडी सफलता बीजेपी को मिल सकती है । और चूंकि राजनीतिक सत्ता में ही सारी ताकत या कहे सिस्टम का हर पूर्जा समाया हुआ बनाया जा रहा है तो विपक्षी राजनीतिक दल हो या सड़क पर नारे लगाते हजारों छात्र या तमाशे की तर्ज पर देश के हालात को देखती आम जनता । हर जहन में रास्ता राजनीतिक ही होगा । इससे इतर कोई वैकल्पिक सोच उभर सकती है या सोच पैदा कैसे की जाये यह सवाल 2014 के एतिहासिक जनादेश के आगे सोचेगा नहीं । और दिमाग 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दिनो की गिनती करने लगेगा । यानी सवाल यह नहीं है कि संघ परिवार अब सक्रिय हो रहा है कि मोदी फेल होते है तो वह फेल ना दिखायी दे । या फिर कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रिय राजनीतिक दल इनकी पहल भी हर मुद्दे का साथ राजनीतिक लाभ को देखते हुये ही नजर आयेगी । हालात इसलिये गंभीर है क्योकि संसद का बजट सत्र ही नहीं बल्कि बीतते वक्त के साथ संसद भी राजनीतिक बिसात पर प्यादा बनेगी और लोकतंत्र के चारो पाये भी राजनीतिक मोहरा बनकर ही काम करेंगे। इस त्रासदी के राजनीतिक विकल्प खोजने की जरुरत है इससे अब मुंह चुराया भी नहीं जा सकती । क्योंकि इतिहास के पन्नो को पलटेंगे तो मौजूदा वक्त इतिहास पर भारी पड़ता नजर आयेगा और राजद्रोह भी सियासत के लिये राजनीतिक हथियार बनकर ही उभरेगा । क्योंकि इसी दौर में अंरुधति से लेकर विनायक सेन और असीम त्रिवेदी से लेकर उदय कुमार तक पर देशद्रोह के आरोप लगे । पिछले दिनो हार्दिक पटेल पर भी देशद्रोह के आरोप लगे । और अब कन्हैया कुमार पर ।
लेकिन उंची अदालत में कोई मामला पहले भी टिक नहीं पाया लेकिन राजनीति खूब हुई । जबिक आजादी के बाद महात्मा गांधी से लेकर नेहरु तक ने राजद्रोह यानी आईपीसी के सेक्शन 124 ए को खत्म करने की खुली वकालत यह कहकर की अंग्रेजों की जरुरत राजद्रोह हो सकती है । लेकिन आजाद भारत में देश के नागरिको पर कैसे राजद्रोह लगाया जा सकता है । बावजूद इसके संसद की सहमति कभी बनी नहीं । यानी देश की संसदीय राजनीति 360 डिग्री में घुम कर उन्ही सवालों के दायरे में जा फंसा है जो सवाल देश के सामने देश को संभालने के लिये आजादी के बाद थे । और इसी कडी 2014 के जनादेश को एक एतिहासिक मोड माना गया । इसलिये मौजूदा दौर के हालात में अगर मोदी फेल होते है तो सिर्फ एक पीएम का फेल होना भर इतिहास के पन्नो में दर्ज नहीं होगा बल्कि देश फेल हुआ । दर्ज यह होगा । और यह रास्ता 2019 के चुनाव का इंतजार नहीं करेगा।
Saturday, February 20, 2016
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मोदी जी , इस बार पीएम नहीं देश फेल होगा |
Friday, February 12, 2016
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सपने जगाती राजनीति का एक बरस |
एक बरस केजरीवाल
मई 2014 में विकास का मंत्र नरेन्द्र मोदी ने फूंका तो पीएम बन गये । नौ महीने बाद स्वराज का मंत्र अरविन्द केजरीवाल के फूंका तो फरवरी 2015 में दिल्ली के सीएम बन गये । और नवंबर 2015 में सामाजिक न्याय का मंत्र लेकर नीतीश कुमार निकले तो बिहार की गद्दी से उन्हे कोई उखाड़ ना सका । तो देश के सामने तीनों मंत्र फेल है या फिर देश अब भी राजनीतिक विकल्प के लिये भटक रहा है । जाहिर है यह सवाल तब कही ज्यादा मौजूं हो चला है जब केजरीवाल की सत्ता के एक बरस पूरे हो रहे है । तो आंदोलन से संसदीय राजनीति को हिलाने वाले केजरीवाल की राजनीतिक सत्ता के एक बरस पूरे होने पर कई सवाल हर जहन में उठेंगे । जहन में उठेगा ठीक एक बरस पहले । इतिहास रचते हुये इतिहास बदलने की आहट समेटे जनादेश । जहन में उठेगा ताज उछालने और तख्त गिराने का जनादेश ।
भारत की राजनीति में विकल्प की आहट समेटे दिल्ली का जनादेश जिसने संकेत यही उभारे कि आने वाले वक्त में सत्ता सेवक होगी। सेवक सरोकार की सत्ता को महत्ता देंगे । और सरोकार उस स्वराज से उपजेगा जिसमें सत्ता और सडक के बीत वाकई जनपथ होगी । जिसपर चलते हुये आम आदमी आजादी की दूसरी लडाई को अंजाम देगा । पूंजी की सत्ता पर टिकी राजनीति बदलेगी । चुनाव लड़ने के तौर तरीके बदलेंगे । यह सपने दिल्ली ने जगाये । इन सपनों को अन्ना हजारे ने पंख दिये । तो अरविन्द केजरीवाल ने जनादेश के आसरे सत्ता की उड़ान भरी । लेकिन बरस भर पहले की यह आहट बरस भर में कहां कैसे और क्यों थम गई । बरस भर पहले का एहसास इंडिया की हथेली पर रेंगती राजनीति के तौर तरीको को बदलने वाला था । और बरस भर बाद का एहसास दिल्ली में सिमटे भारत की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने की ही जद्दोजहद में जा फंसा । बरस भर पहले का सियासी पाठ पूंजी में कैद नागरिकों के अधिकारो को दिलाने का था । तब नारा स्वाराज का था । और बरस भर बाद पूंजी ही सत्ता की जमीन बन गई । तो नारा एक साल बेमिसाल पर आ टिका । और बेमिसाल बनने की यात्रा में जिन फैसलों ने कंधा दिया उनमें योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकालकर अपने चेहरे को बदलना भी था । पार्टी कैडर को प्रशासन चलाने में रोजगार देना भी था । खुद भ्रष्ट ना होने की एवज में
अपना ही वेतन बढ़ाना भी था । वोट बैंक को सत्ता तले महफूज कराना भी था । और -ईमानदार होने की अपनी परिभाषा तले गढ़ना भी था । जिससे अपने भ्रष्ट मंत्री ही कभी शहीद नजर आये तो कभी खुद के फैसले को ही ईमानदार करार देने पर फ्रक महसूस किया जा सके । और बरस भर में कही किसान, तो कही सिपाही ,तो कहीं मुस्लिम तो कहीं दलित के मुद्दों की ताप तले खुद को खड़ा कर विकल्प की राजनीति को वोट बैक तले दफन करने की सोच भी जागी । जिसने कभी ममता बनर्जी , तो कभी नीतिश कुमार का हाथ थामा तो कभी लालू यादव से गले मिलकर हाथों में हाथ थामने को झटका भी नहीं और परहेज से इंकार भी किया । यानी
बरस भर बाद यानी आज आम आदमी पार्टी उसी कतार में खड़ी नजर आ रही है जिसे बरस पूरा होने पर विज्ञापन बांटने है । इंटरव्यू से अपनी सफलता बतानी है । संपादकों को भोज देकर खुश करना है । तो क्या 10 फरवरी 2015 के जनादेश का फैसला अब सत्ता के रंग में रंग चुका है । या फिर केजरीवाल के कई निर्णयों ने उस संसदीय राजनीति को आईना दिखा दिया जो आवारा पूंजी के आसरे ही देश को चलाना महत्वपूर्ण मानती रही । क्योंकि मोहल्ला क्लीनिक का निर्माण सस्ते में पुल बनाकर उससे बचे धन से मुफ्त दवाईयां बांटना , 700 लीटर पानी मुफ्त देना ,400 यूनिट बिजली पर आधा बिल लेना, न्यूनतम मजदूरी दुगुना कर देना , लेबर लॉ का उल्लंघन की सजा बढ़ाकर पांच बरस जेल और 50 हजार तक कर देना , जनता की मांग पर बीआरटी कारिडोर तोड़ देना , पर्यावरण के लिये ग्रीन टैक्स लेना , स्कूल में एडमिशन पारदर्शी बनाने के लिये स्कूल प्रबंधन के रैकेट को तोड़ना ।
यानी पहले बरस के यह ऐसे निर्णय है जो वेलफेयर स्टेट की सोच को पुनर्जीवित करते है । यानी निजीकरण के दौर में जब यह सवाल बड़ा हो रहा है कि शिक्षा से लेकर हास्पिटल तक और पीने के पानी से लेकर रोजगार तक तो निजी हाथो में है तब कोई भी सरकार सिवाय पूंजी पर टिके सिस्टम को सुरक्षा देने या नीतिगत फैसलों से पूंजी लगाने वालो को मुनाफा कमाने के लिये माहौल तैयार कराने के अलावे और क्या कर क्या सकती है । सीधे समझे तो उपभोक्ताओं के लिये बेहतरीन बाजार के अलावे आर्थिक सुधार के अलावे दूसरी कोई सोच भी नहीं है । इसीलिये विकास शब्द भी पूंजी पर जा टिका है । और दिल्ली में भी जब किसी योजना को लेकर सवाल पूंजी का आया तो केजरीवाल फेल हो गये । क्योंकि वादे के बावजूद 20 कालेज खोलना और पूरे शहर में सीसीटीवी लगाने के लिये पूंजी चाहिये । और केजरीवाल पूंजी के जरीये विकास के मोर्चे पर फेल है तो सालभर बाद भी ना कॉलेज खुल पाये ना सीसीटीवी लग पाये । लेकिन न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के लिये विकास शब्द या उसके नाम पर पूंजी नहीं बल्कि सामाजिक जागरुकता चाहिये । और देश की राजनीतिक सत्ता अगर इसी मोर्चे पर फेल हो रही है । तो केजरीवाल इसी मोर्चे पर कांग्रेस या बीजेपी पर भारी लगते है । लेकिन समझना यह भी होगा कि दिल्ली सामाजिक सरोकार पर कम और रोजगार पाने वाले शहर की सोच पर ज्यादा टिकी है । यानी यहा किसी भी दूसरे राज्य सरीखा सामाजिक सरोकार नहीं है । जिसकी गांठों में फंसकर बीजेपी बिहार चुनाव गंवा देती है और दिल्ली में विकास की उस लकीर पर चलना चाहती है जो न्यूनमत का संघर्ष करने वालो के ऊपर खिंचा जाता हो । इसलिये बरस भर में भी कई केजरीवाल ने खुद को छोटा-आम आदमी ही बताया । लेकिन केजरीवाल के बरस भर की सियासत देश के लिये वैसी ही सोच है जैसे गुजरात माडल देश का मॉडल नहीं हो पाया । तो केजरीवाल की दिल्ली की समझ भी राष्ट्रीय नेता नहीं बना सकती । लेकिन नेता के ईमानदारी को लेकर बोल हर किसी को जंचते है । इसीलिये केजरीवाल बरस भर में दर्जनो बार यह कहने से नहीं हिचकते कि दिल्ली में भ्रष्टाचार नहीं होगा। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर उसे कैसे अपने पल्ले से झाड़ना आना चाहिये यह हुनर जरुर बीते एक बरस में नजर भी आया । क्योंकि केजरीवाल के मंत्री तोमर फर्जी मार्कर्शीट में फंसे तो दूसरे मंत्री असीम अहमद पैसे के लेनदेन के स्टिंग में फंसे। और केजरीवाल ने दोनो मामलों में बड़े हुनर के साथ पल्ला झाडा । लेकिन इसी एक बरस में दो दाग ने बडी तीखी सियासत भी जगायी और सियासत को मरता हुआ भी देखा । मसलन बीते साल 22 अप्रैल को दौसा के किसान गजेन्द्र ने जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान खुदकुशी की तो सवाल आम आदमी पार्टी के नेताओँ की संवेदनहीनता पर भी उठे
और 15 दिसंबर को अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर छापा पड़ा तो सवाल सीएम की साख पर भी उठे। और तोता बन चुके सीबीआई कैसे राजनीतिक सत्ता का हथियार है इसे भी सियासी ढाल बनाया गया । गजेन्द्र किसान को नहीं बचाया जा सका और फिर दिल्ली पुलिस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के बीच जमकर आरोप-प्रत्यारोप का खेल हुआ। अब दिल्ली पुलिस ने आज आप नेता संजय सिंह, कुमार विश्वास, भगवंत मान और आशीष खेतान को जांच में हिस्सा लेने के लिए ठीक साल पूरा होने के वक्त ही तलब कर रही है । उधर, दिल्ली हाईकोर्ट ने सीबीआई को इस बात का अधिकार दे दिया है कि वह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर मारे गए छापे के दौरान जब्त दस्तावेजों को अपने पास रख सके। यानी हर मुद्दे का सियाकरण और हंगामा बरस भर दिल्ली को एक ऐसी पहचान भी दे गया, जहां दिल्ली सियासत के आगे देश की सियासत भी छोटी दिखायी दी । इसीलिये 70 सीटों में 67 जीत जीतने वाले केजरीवाल के 70 वादो की फेरहिस्त में कितने पूरे हुये कितने नहीं यह सवाल छोटा पड गया और यह सवाल बड़ा होता चला गया कि दिल्ली देश की सियासत में वाकई विकल्प है या हुडदंग । क्योंकि बरस भर
में आम आदमी पार्टी या कहे केजरीवाल वहीं चूके जिस जमीन पर खडे होकर वह राजनीति सत्ता के लिये कूदे . क्योंकि सत्ता पाने के बरस भर बाद भी स्वराज बिल पास हुआ नहीं और लोकपाल बिल पास होकर भी अटका हुआ है ।
Monday, February 8, 2016
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क्या पाकिस्तान सिर्फ टैरर ही नहीं फेल स्टेट भी है |
अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी सत्ता के लिये लश्कर भारत के खिलाफ जेहाद का सबसे मजबूत ढाल भी है और विदेश कूटनीति का सबसे धारदार हथियार भी । अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी सेना की ट्रेनिंग , विदेश मंत्रालय की मदद और खुफिया एजेंसी आईएसआई के बनाये रास्ते ही भारत के खिलाफ पाकिस्तानी सिस्टम है । जिसके आसरे पाकिस्तानी सत्ता एक तरफ आतंक को कानूनी जामा पहनाता है यानी भारत के खिलाफ आतंकी संगठनों को बेखौफ बनाता है तो दूसरी तरफ आंतकवाद पर नकेल कसने के लिये भारत के साथ खडे होने की दुहाई देता है ।
याद कीजिये 20 जून 2001 में जनरल मुशर्ऱफ सत्ता पलट के बाद पाकिस्तान के सीईओ से होते हुये राष्ट्रपति बनते हैं । 13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर लश्कर-जैश मिलकर हमला करते है । हमले के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी आर पार की लडाई का एलान करते हैं । और मुशर्ऱफ एक तरफ आतंकवादियों पर कार्रवाई का जिक्र करते है । लेकिन अगर हेडली सही है तो 2002 में लश्कर मुखिया हाफिज सईद पर कोई रोक नहीं लगी । क्योंकि पीओके के मुज्जफराबाद में हाफिज सईद की तकरीर सुनकर ही हेडली लश्कर का दीवाना होता है । यानी हाफिज सईद की खुली तकरीर पाकिस्तना में जारी रही । अगर ह ली सही है तो पाकिस्तानी सत्ता ने ही हाफिज सईद को बचाने के लिये लशकर की जगह जमात-उल-दावा बनवाया । क्योकि जिस दौर में जमात बनती है उसी दौर में लश्कर के पीओके के ट्रनिंग कैप में हेडली ट्रेनिंग भी लेता है ।
अगर हेडली सही है भारत के खिलाफ पाकिसातनी सेना और आईएसआई के विंग के तौर पर ही लश्कर काम करता है । क्योंकि हेडली को लश्कर के साथ जो़डने से लेकर भारत में मुंबई हमले की बिसात बिछाने में पाकिसातनी सेना के रिटायर मेजर अब्दुर रहमान पाशा ,मेजर साबिर अली ,मेजर इकबाल सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को भी पाकिस्तानी सत्ता हेडली के लिये काम पर लगाती है । क्योकि इसी दौर में अमेरिका में पाकिस्तानी एंबेसडर की नियुक्ती सेना के रिटायर फौजियों की होती है । 2004-06 में जनरल जहांगीर करामत तो , 2006-08 में मेजर जनरल महमूद अली दुर्रानी अंबेसडर बनते हैं । इसी वक्त दाउद गिलानी से डेविड कोलमैन हेडली का जन्म होता है। और फर्जी पासपोर्ट बनवाने से लेकर भारत भिजवाने के काम में पाकिस्तानी सत्ता का सिस्टम काम करता है । और इसी दौर में हेडली अमेरिका से भारत कई बार रेकी के लिये आता है । और महफू लौटता है । अगर हेडली सही है तो फिर पाकिस्तान में मुशर्रफ के बाद भी चुनी हुई सरकार के लिये भी भारत के खिलाफ आतंकी हमला कूटनीति और रणनीति दोनो का हिस्सा था। क्योंकि मार्च 2008 में ही पीपीपी के युसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बनते है तो सितंबर में जरदारी राष्ट्रपति बनते है । और हेडली के मुताबिक सितंबर 2008 में भी लश्कर के आंतकवादी भारत में घुसने का प्रयास करते है ।
और अक्टूबर 2008 में भी समुद्र के रास्ते भारत में घुसना चाहते है । यानी 26 नवंबर 2008 को हमले
से पहले पाकिस्तानी सेना बार बार आतंकी हमले का प्रयास करवाती है । तो हमले के बाद पाकिसातन की सत्ता भारत के हर सबूत को खारिज कर देता है । तो सवाल यही है अगर हेडली सच बोल रहा है तो हेडली पाकिसतान का मुखौटा बना रहा । और अब अगर नवाज शरीफ कहते है कि हालात बदल गये है तो लगता यही है कि मुखौटा बदला है रणनीति या कूटनीति नहीं । क्योंकि याद कीजिये मुबंई हमलों के तुरंत बाद नवंबर 2008 में ही पाकिस्तान के सूचना मंत्री रहमान मलिक खुले तौर पर कहते है कि वह आतंक पर नकेल कस रहे है । भारत के सबूत बगैर अपनी जांच को तेज कर रहे है । कई गिरफ्तारियां भी की है . और आठ बरस बाद पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता काजी खलीउल्लाह भी खुले तौर पर कहते है वह आतंक पर नकेल कस रहे हैं। सबूत के बगैर भी जैश के कैडर की घर पकड कर रहे है । जैश के तीन आंतकवादियो को गिरफ्तार भी किया है ।
यानी पाकिस्तान को लेकर भारत कैसे चक्रव्यूह में फंस रहा है यह डेविड कोलमैन हेडली की गवाही के बाद नये सिरे से पैदा हो रहा है । क्योंकि मुंबई पर हमला करने वाला फिदायिन कसाब जिन्दा पकड़ में आया । उसने लश्कर से ट्रनिंग लेने और लश्कर के कमांडर जकीउर्र रहमान लखवी का नाम लिया । मुंबई हमले के लिये रास्ता बनाने वाला डेविड कोलमैन हेडली ने गवाही में लश्कर की ट्रेनिंग और लश्कर के चीफ हाफिज सईद का नाम लिया । और हाफिज सईद फिलहाल पाकिस्तान में आजाद नागरिक है । लखवी को अदालत से जमानत
मिल चुकी है । यानी वह भी आजाद है । तो अगला सवाल यही है कि पाकिसान अगर पहले फिदायीन कसाब को अपना नहीं मानता । और अब हेडली के कबूलनामे को सच नहीं मानता । तो पाकिस्तन को लेकर भारत का रास्ता जाता किधर है । क्योकि हेडली से तो कल भी पूछताछ होनी है और तब अगर 26/11 के जरीये आतंकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालेसी के तौर पर सामने आती है । तब भारत क्या करेगा। क्योंकि कश्मीर के जरीये आंतक को आजादी का संघर्ष एक वक्त मुशर्ऱफ ने भी कहा और याद किजिये तो पिछले दिनों नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र में भी कहा । यानी कश्मीर नीति पाकिस्तान की स्टेट पालेसी है । और कश्मीर नीति का मतलब आंतकवादी संगठनो को पनाह देना है । यानी भारत पर होने वाले हर आतंकी हमलो से पाकिस्तानी सत्ता खुद को अलग बतायेगी । और आतंक का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाकर भारत को अपने साथ खड़े होने का दबाब बनाती है । यानी शिमला समझौते से लेकर लाहैौर घोषणापत्र और अब पठानकोट हमले के बाद जैश-ए मोहम्मद पर कार्रवाई का भरोसा । हर हालात में पाकिस्तान ने अगर आंतक पर नकेल कसने के लिये सिवाय खुद को आतंक से हटकर बताने के अलावे कुछ नहीं किया और डेविड कोलमैन हेडली अगर आंतकी संगठनो और पाकिसातन के हर पावर सेंट के तार को अपनी गवाही में जोड रहा है तो फिर अगला सवाल यह भी हो सकता है कि बातचीत कभी मुश्रऱफ से हुई या अब नवाज शरीफ से हो रही है । भारत के हाथ में आयेगा क्या । क्योकि हेडली की गवाही ने भारत के सामने दोहरा संकट पैदा किया है । पहला पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार की राजनीतिक जरुरत आंतकी संगठन है । दूसरा आतंकी संगठन बेफिक्र ह र अपने काम को अंजाम दे यह सत्ता की जरुरत है ।तो नया सवाल भारत के सामने यह नहीं है कि पाकिस्तान एक टैरर स्टेट है बल्कि नया सवाल यह है कि पाकिस्तान अगर एक फेल स्टेट है तो भारत क्या करें । और शायद मौजूदा वक्त में यही सबसे बडी चुनौती मोदी सरकार के सामने भी है ।
Friday, February 5, 2016
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अब देश का कंधा नहीं सत्ता का धंधा देखें |
दलित, किसान और अल्पसंख्यक । तीनों वोट बैक की ताकत भी और तीनों हाशिये पर पड़ा तबका भी । आजादी के बाद से ऐसा कोई बजट नहीं । ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं , जिसमें इन तीनो तबके को आर्थिक मदद ना दी गई हो और सरकारी पैकेज देते वक्त इन्हे मुख्यधारा में शामिल करने का जिक्र ना हुआ हो । नेहरु को भी आखिरी दिनों [ 1963-64 ] में किसानों के बीच राजनीतिक रैली के लिये जाना पड़ा और लालबहादुर शास्त्री ने तो जय जवान के साथ जयकिसान का नारा लगाया। पटेल से लेकर मौलाना कलाम तक मुस्लिमों को हिन्दुस्तान से जोड़ते हुये उन्हे उनके हक को पूरा करने का वादा करते रहे । आंबेडकर से लेकर वीपी सिंह तक दलितो के हक के सवालों को उठाते रहे । साधते रहे । तो मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी अगर किसान रैली की तैयारी कर रहे हैं और राहुल गांधी दलित अधिवेशन करना चाह रहे है तो कई सवाल एक साथ निकल सकते है । पहला , क्या देश को देखने का नजरिया अभी भी जाति , धर्म या किसान-मजदूर में बंटा हुआ है । दूसरा , राजनीतिक मलहम में ऐसी कौन सी खासियत है जो सियासत को राहत देती है लेकिन समाज को घायल करती है । तीसरा, अगर हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुसलमान खुद को असुरक्षित मानता है तो फिर बढती विकास दर के बीच भी किसानो की खुदकुशी अगर बढ़ती है । गरीबो के हालात और बदतर होती जाती है । तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठ पाता कि सांप्रदायिकता हो या अर्थ नीति दोनो में ही अगर नागरिकों की ही जान जा रही है तो फिर सवाल हिन्दू-मुस्लिम या गरीब-बीपीएल में क्यों उलझा दिया जाता है ।
यानी अपराध है क्या और देश के विकास के लिये कौन सा मंत्र अपनाने की जरुरत है । इस पर संविधान कुछ नहीं कहता या फिर राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीको ने संविधान को भी हड़प लिया है । क्योंकि जिस रास्ते पर मौजूदा राजनीति चल रही है अगर इसके असर को ही देख लें तो दलित उत्पीड़न के मामले बीते तीन बरस में ही पचास फिसदी बढ़ गये । 2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीडन के थे । तो 2015 में यह आंकडा 50 हजार पार कर गया । किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई । सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा । करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया क्योंकि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की । वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे । और कर्ज बढता जाता । कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली । खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था । यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे । बल्कि खुद सरकार ही थी । उसी का तंत्र था । वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया । और एनपीए की यह रकम लगातार बढ़ ही रही है। इससे हटकर सरकार ही औद्योगिक संस्थानों या कारपोरेट सेक्टर को हर बरस अलग अलग टैक्स में ही तीन लाख करोड़ माफ कर देती है । लेकिन खेती और उससे जुडे संस्थानो पर दो लाख करोड़ की सब्सिडी सरकार को भारी लगती है । इसी तर्ज पर अलग दलित और मुस्लिमों के आर्थिक-सामाजिक हालात को परख लें तो हैरत होगी कि सांप्रदायिक हिंसा में 70 फिसदी मौत अगर इस तबके की हुई तो देश में दरिद्रता की वजह से होती मौतों में दलित आदिवासी और मुस्लिमों की तादाद 90 फिसदी के पार है । तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि क्या हिन्दुस्तान का मतलब सिर्फ वहीं 12 से 20 फीसदी है जिसकी जेब में जीने के सामान खरीदने की ताकत है । जिसके पास पढने के लिये पूंजी है ।
जिसके पास इलाज के लिये हेल्थ कार्ड है । कह सकते है हालात तो यही है । क्योंकि मौजूदा वक्त में किसी राज्य के पास किसानों के लिये कोई नीति नहीं है । दलित उत्पीड़न रोकने की कोई सोच नहीं । हिन्दू-मुस्लिमों के सवाल को साप्रदायिक हिंसा के दायरे से बाहर देखने का नजरिया नहीं है । क्योंकि सत्ता पाना और सत्ता में टिके रहने का हुनर ही अगर गवर्नेंस है तो हर की हालत एक सरीखी है । चाहे वह सरकार कर्नाटक में कांग्रेस की हो या फिर गुजरात झारखंड, महाराष्ट्र,हरियाणा , छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की । या फिर आंधप्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की या तेलगांना में केसीआर की । या फिर उडिसा में नवीन पटनायक की या यूपी में अखिलेश यादव । हर राज्य में सूखा है । आलम यह है कि देश के 676 जिले में ले 302 जिले सूखाग्रस्त है । और इनकी पहचान उस शाईनिग इंडिया की सोच से बिलकुल अलग है जो हर राज्य का सीएम राजधानी में बेठकर देखना चाहता है । बारिकी को समझे तो हर सीएम चकाचौंध खोजने के चक्कर में गांव और किसान को अंधेरे में ढकेल रहा है । यही वजह है कि न्यूनतम जरुरत पूरी करने के लिये बनाये गये कार्यक्रम मनरेगा और खाद्द सुरक्षा मौजूदा वक्त में इतना महत्वपूरण हो गया है कि सुप्रिम कोर्ट को भी कहना पड रही है कि इसे लागू क्यो नहीं
किया गया । मुश्किल इतनी भर नहीं है कि 2013-14 में जो कृर्षि विकास दर 3.7 फिसदी थी । वह 2014-15 में घटकर 1.1 फिसदी हो गई । मुश्किल यह है कि एक तरफ वित्त मंत्री देश की विकास दर 8 से 9 फिसदी तक पहुंचाने को बेहद आसान मान रहे है । तो दूसरी तरफ भारत सूखे की वजह से जमीन के नीचे पानी इतना कम हो गया है कि हैडपंप की बिक्री में 30 पिसदी की कमी आ गई है । टैक्टर की बिक्री में 20 फिसदी की कमी आ गई है 20 फिसदी किसान मजदूर का पलायन बढ गया है । जो किसान गांव में है वह हार्ट्रीकल्चर और पेड लगाने के काम से जा जुडे है । यानी काम वहा भी कम हो रहा है । दूसरी तरफ शहरो में मजदूरो के बढते बोझ ने उनकी मजदूरी को स्थिर कर दिया है । यानी न्यूनतम मजदूरी में कोई वृद्दि नहीं है । और हर राज्य सरकार का रुख भी उस इक्ननामी पर जा टिका है जो अपनी जमीन , अपने मानव संसाधन और अपने उत्पाद से दूर हो । यानी विदेशी निवेश के जरीये शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर की प्रथमिकता तले ही बेहाल भारत की यह तस्वीर उभर रही है । तो फिर गडबडी महज सिस्टम की नहीं है बल्कि सिस्टम को किस तंत्र के तहत चलाना है गड़बडी वहीं है । और सिस्टम का मतलब ही राजनीतिक सत्ता पाना हो जाये तो उस नमूना पहले बिहार में नजर या अब असम में नजर रहा है । बिहार से पहले दिल्ली चुनाव में केन्द्र के 39 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर वोटरो को सरकार के करीब लाने की कोशिश की । फिर बिहार में 27 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर बिहार में चुनाव जीतने में मशक्कत की । और अब असम चुनाव है तो प्रधानमंत्री मोदी 5 परवरी की रैली के बाद सात कैबिनेट मंत्रियो की रैली की तैयारी में असम है । सुषमा स्वराज , नीतिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, नजमा हेपतुल्ला के अलावे बंगाल और असम के जो भी मोदी सरकार में मंत्रीन है सभी को चुनाव एलान से पहले जाकर असम में रैली करनी है । वादे करने है । यानी चुनाव होगें तो केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचेगें लेकिन सरकारो के पास अगर कोई नीति ही नहीं है कि देश किस रास्ते जाना है तो एक दौर का असफल मनरेगा भी अन्हे सफल वगेगा और राजनीतिक जीत के लिये केन्र्य मंत्रियो का समूह ही उम्मीद जगायेगा । जाहिर में ऐसे में समाज के भीतर अंसतोष तो पनपेगा ।
वजह भी यही है कि न्यूनतम के लिये ही 2005 में नरेगा को समाज की भीतर शाकअब्जरवर माना गया । यानी किसान-मजदूर, दलित मजदूर, गरीबी में जिन्दगी गुजारने वाले अल्पसंख्यक तबके के भी राजनीतिक सत्ता को लेकर अंसतोष ना पनपे इसके लिये नरेगा लाया गया था । जिसके पांच बरस पूरे हुये तो याद किजिये देश में राजनीतिक बहस क्या छिडी । बहस थी नरेगा से मनरेगा होने वाली स्कीम के फेल होने का । क्योकि मजदूरी बढी नहीं , किसानी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई । मनरेगा रोजगार से किसी योजना को अमली जामा पहनाया नहीं गया । मनरेगा बजट की लूट हर स्तर पर हुई । फिर एक वक्त मनमोहन सिंह को भी समझ में नही आया था कि मनरेगा और फूड सिक्यूरिटी को लेकर वह बजट कहा से लायेगा । और मनरेगा को लेकर यह सवाल प्रदानमंत्री मोदी का भी सत्ता संभालते वक्त रहा । लेकिन जिस इक्नामी को मोदी सरकार अपनाये हुये है उसमें गांवों में अंसतोष ना पनपे इसके लिये मनरेगा मोदी सरकार के लिये भी शाकअब्जर्वर का काम करने लगी ।यानी असफल योजना के सामने खुद सफल ना हो तो इसके लिये योजनायें कैसे सफल हो जाती है इसका हर चेहरा नेहरु के दौर से लेकर अभी तक की योजनाओ तले समझा जा सकता है । क्योकि दलितो और आदिवासियों को मुख्यधारा से जोडने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बीते 68 बरस में 2450 से ज्यादा योजनाये बनायी गई । दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमो का एलान किया गया । लेकिन 52 के पहले चुनाव और 2014 के चुनाव के बीच अंतर यही आया कि धीरे धीरे हर संस्था चाहे वह संवैधानिक संस्था हो या दबाब समूह के तौर पर काम करने वाली सामाजिक संस्था । हर संस्था राजनीतिक सत्ता की जद में आ गई । और राजनीति सत्ता के लिये ही दलित, आदिवासी, किसान , मुस्लिमों की पहचान बना दी गई ।