पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुवार के दिन राज्यसभा मेंप्रधानमंत्री मोदी को नोटबंदी पर चेतावनी दी। और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी गंभीर हुये कभी मुस्कुराये। और भोजनावकाश के बाद विधान पर टिके राज्यसभा का ही डिब्बा गोल हो गया क्योंकि सदन में पीएम नहीं पहुंचे। तो ऐसे में पूर्व पीएम ने भी नहीं सोचा कि सदन में आलथी पालथी मारकर तबतक बैठ जाये जब तक संकट में आये देश के निकलने का रास्ता पीएम मोदी आकर ना बताये। एक ने कहा। दूसरे ने सुना। और संसद ठप हो गई । तो 62 करोड़ नागरिक जो गांव में रहते है और करीब 29 करोड नागरिक जो शहरों की मलिन बस्स्तियों और झोपडपट्टियों में रहते हैं, उनकी जिन्दगी से तो जीने के अधिकार शब्द तक को छीना जा रहा है उस पर कब कहां किसी पीएम ने बात की। और 90 करोड़ नागरिकों से ज्यादा के इस हिन्दुस्तान का सच तो यही है कि न्यूनतम की जिन्दगी भी करप्शन और नाजायज पैसे पर टिकी है। गांव में हैडपंप लगाना हो। घर खरीदना हो । रजिस्ट्री करानी हो। सरकार की ही कल्याणकारी योजनाओं का पैसा ही बाबुओं से निकलवाना हो। बैंकों के जरीये सरकार के पैसे को बांटना हो। यानी जहां तक जिसकी सोच जाती हो वह सोच सकता है और खुलकर कह सकता है कि बिना कुछ ले देकर क्या कोई काम वाकई इस सिस्टम में होता है। दिल्ली में ही लाल डोरा की जमीन हो या जायज जमीन पर मकानबनाने का काम शुरु करना। पुलिस से लेकर इलाके के नेता वसूली के लिये कैसे टूट पड़ते हैं। किससे छुपा है। हर विभाग का एनओसी कितने में बिकता है, रेट तक तय है। नोटबंदी के दौर में टोल फ्री चाहे हो लेकिन दिल्ली से लेकर हर राज्य में पुलिसिया वसूली जारी है। ये सिस्टम ना चेक पर चलता है । ना क्रेडिट या डेबिट कार्ड पर। और यह सिस्टम चलता भी क्यों है, इस पर भी कोई पीएम तो दूर कोई मंत्री या नेता बोलना नहीं चाहता। लेकिन नोटबंदी के सवाल ने हर किसी को आम आदमी के दर्द से ऐसे जोड दिया है कि हर का सुर एक है। चाहे दोनों खिलाफ क्यों ना हो। जैसे यूपी में मायावती और मुलायम । तो क्या मायावती नोटो के हार को भूल गई। क्या शानदार दृश्य था। और समाजवादी भूल गये कैसे साइकिल की सवारी से दो करोड़ की बस के सफर पर अखिलेश यादव चुनाव प्रचार में निकल पड़े। 2012 में साइकिल पर यूपी में घूमे तो सत्ता मिली। और सत्ता दुबारा चाहिये तो साइकिल की तस्वीर दो करोड़ की बस पर लगाकर बुंदेलखंड सरीखे इलाके में भी जाने में परहेज नहीं।
जहां दो जून की रोटी अब भी सवाल है। यानी एक तरफ नेताओ के लिये भरे पेट जनता के सरोकार से जुडने की ऐसी वकालत है, जिसमें जीडीपी पर संकट दिखायी दे रहा है। लड़खड़ाती बाजार व्यवस्था नजर आ रही है। व्यापार ठप होने से माथे के बल पड रहे हैं। लेकिन इस महीन लकीर का जिक्र करने से हर कोई बच रहा है कि देश में संकट संसाधनों के खत्म होने से ही ये हालात बने हैं। इसीलिये पीएम ने रिजर्व बैक के अधिकार तक को हड़प लिया। तो फिर ऐसा सिस्टम बनाया किसने जिसमें सुप्रीम कोर्ट के वकील अरबपति हो गये। प्राइवेट अस्पताल चलाने वाले खरबपति हो गये। प्राइवेट शिक्षा संसाधन चलाने वाले अरबो खरबो के मालिक हो गये। इन्हें पैसा देता कौन है। और जो देता है वह है कौन। ये कहां किसी से छिपा है। हर पीएम जानता है। हर सरकार को इसकी जानकारी है। इसीलिये तो सुप्रीम कोर्ट तो दूर हाईकोर्ट तक क्यों कोई आम आदमी अपना केस नहीं लड़ पाता। बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल में आम जनता इलाज नहीं करा पाती। निचली अदलत के चक्कर और बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल मे इलाज किसी आम जनता के लिये घर-बार बेचने सरीखा हो जाता है। और यह पूरा खेल नकदी का है। तो क्या ये खेल नोटबंदी के 50 दिन के दर्द-परेशानी को सहने के बाद खत्म हो जायेगा। अगर प्रधानमंत्री मोदी भरोसा दिलाते है । हां खत्म हो जायेगा तो शायद हर कोई देश बदलने को तैयार है । लेकिन खत्म होगा नहीं । और ईमानदार भारत बनाने की भावनाओं के उभार का ये खेल है तो फिर ये भी मान लीजिए अंधेरा वाकई घना है । क्योंकि याद कीजिये ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्वीस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे । 25 बरस पहले स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौडी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी। तो क्या 25 बरस बाद स्वीस बैक में जमा कालेधन से फिसल कर प्रधानमंत्री मोदी ने देश में जमा कालेधन का जिक्र कर जब नोटबंदी का शिकंजा कसा तो झटके में वही बाजार व्यवस्था आ गई जिसपर देश ही नहीं सियासत भी चल रही है । क्योंकि देश की इकनॉमी चलाने वाले राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरघंर है । इतना ही नहीं ड्रग, घोटाले, अवैध हथियार से लेकर आंतक और उग्रवाद तक की थ्योरी के पीछे बंधूक की नली से निकलने वाली सत्ता भी अगर कालेधन पर जा टिकी हो तो फिर नकेल कसने का तरीका नोटबंदी से कैसे निकलेगा । क्योंकि इनका कालाधन रुपये पर नहीं डॉलर पर टिका है। देश के नही दुनिया के बाजार में घुसा हुआ है। खनन से लेकर रियल इस्टेट का धंधा देश के बाहर कही ज्यादा आसान है। तो क्या कालेधन का सवाल राजनीतिक सत्ता के लिये किसी फिल्म के सुपर हिट होने सरीखा है। क्योंकि मोदी सरकार ने जिन 627 कालेधन के बैंक धारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं। उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसिल ब्लोअर ने निकाले । जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे।
और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये इसपर पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी है। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दौर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियो में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। जिसका जिक्र नोटबंदी के बाद से मोदी सरकार के मंत्री लगातार संसद के भीतर मनमोहन के दौर के घोटालो का जिक्र कर कह रहे है । ऐसे हालात में अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा करती है जो सत्ता में आने
के लिये स्वीस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्वीस बैंक को एक मजबूरी करार देती है । यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बडा पाया तो राजनीति ही होगी।
Thursday, November 24, 2016
भ्रष्ट सिस्टम और ब्लैक मनी पर टिकी राजनीति से सफाई कैसे होगी ?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:26 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
दरअसल मुद्दा कभी भी कालाधन रहा ही नहीं। कालेधन की बात करने से ही जब चुनाव की वैतरणी पार ही जाती है तो कालेधन को क्यूँ छेड़ा जाये?
बिना किसी रोडमैप के नोटबंदी करने ने सरकार को भी संकट में डाल दिया है और अब सरकर ताबड़तोड़ छापे मारकर इस असहजता से बाहर आने की कोशिश में है।
कालाधन बनने और संचित होने की प्रक्रिया पर बात करना भी मुनासिब ना समझें और नोटबंदी कर दें तो यह बीमारी के ऊपरी लक्षणों के आधार पर मनमानी दवा लेने के जैसा है।
डॉयचे वैले ने इसके नैतिक पक्षों की पड़ताल की है
http://www.dw.com/hi/emonetization-shows-a-naked-society/a-36492017
`MODI JI HAS COME HALF WAY BY GETTING THE COMMON PEOPLE ACCOUNTABLE FOR THE MONEY.
BUT WHAT ABOUT CORPORATES HAVING SWISS ACCOUNT ....SHALL WE SEE THE SECOND HALF OF THE MOVIE OR THIS IS THE END OF THE MOVIE.
Post a Comment