हफ्ते भर पहले ही चुनाव आयोग ने देश में रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों की सूचीजारी की। जिसमें 7 राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जिक्र है। लेकिन महत्वपूर्ण वो सूची है, जो राजनीतिक तौर पर जिस्टर्ड तो हो चुकी है और राजनीतिक दल के तौर पर रजिस्टर्ड कराने के बाद इस सूची में हर राजनीतिक दल को वह सारे लाभ मिलते है जो टैक्स में छूट से लेकर। देसी और विदेशी चंदे को ले सकते हैं। बीस हजार से कम चंदा लेने पर किसी को बताना भी नहीं होता कि चंदा देने वाला कौन है। और इस फेहरिस्त में अब जब ये खबर आई कि चुनाव आयोग 200 राजनीतिक दलों को अपनी सूची से बाहर कर रहा है। सीबीडीटी को पत्र लिख रहा है। क्योंकि ये पार्टियां मनीलान्ड्रिंग में लगी रहीं। तो समझना ये भी होगा कि चुनाव आयोग की इस फेहरिस्त में सिर्फ दो सौ या चार सौ राजनीतिक दल रजिस्टर्ड नहीं है जिन्होंने चुनाव नही लड़ा और सिर्फ कागज पर मौजूद है। बल्कि ऐसे राजनीतिक दलों की फेहरिस्त 13 दिसंबर यानी पिछले हफ्ते तक 1786 राजनीतिक दलों की थी। और इन राजनीतिक दलो की फेहरिस्त में इक्का दुक्का या महज दो सौ राजनीतिक दल नहीं है जो टैक्स रिटर्न तक फाइल नहीं करतीं। बल्कि चुनाव आयोग सूत्रों के मुताबिक एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करती। तो इस फेरहिस्त को देखकर कोई भी सवाल कर सकता है कि क्या राजनीतिक दल कालाधन खपाने के लिये बनाये जाते हैं। क्या चुनाव लड़ने वाली राजनीतिक पार्टियां अपने काले चंदे को खपाने के लिये भी पार्टियां बनाती है। क्योंकि चुनाव आयोग आर्टिकल 324 के तहत चुनावी प्रक्रिया पर कन्ट्रोल तो कर सकता है।
लेकिन चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल को अपने तौर पर हटा नहीं सकता। तो क्या जिन 200 राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन रद्द करने का जिक्र चुनाव आयोग अब कर रहा है उसके लिये सीबीडीटी जांच जरुरी है। यानी राजनीति पाक साफ हो । इसके लिये पहल सरकार को ही करनी होगी। क्योंकि कायदे कानून अगर कड़े होंगे। राजनीतिक दलों के खिलाफ आरोप साबित होने पर कानून अपना काम करते हुये दिखे। जांच एजेंसियां स्वतंत्रता के साथ काम करने लगे। तो फिर चुनाव आयोग से राजनीति को पाक साफ करने की गुहार पीएम को भी करने की जरुरत पडेगी नहीं । क्योकि कानून सरकार को बनाना है। लागू जांच एंजोसियों को करना है। समझना होगा कि चुनाव आयोग सिर्फ पार्टियों को रजिस्टर्ड कर सकती हैं। रद्द करने का अधिकार उसके पास नहीं है। तो बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीतिक दल बनने के साथ ही शुरु होती है। तो आईये इसे भी परख लें। क्योंकि राजनीति का सच तो यही है कि कॉरपोरेट,कालाधन और दागियों ने भारतीय राजनीति को बंधक बना लिया है। या कहें कि भारतीय राजनीति की दशा-दिशा उसी कॉरपोरेट की मर्जी से तय होती है, जिसे विपक्ष में रहते हुए हर दल निशाने पर लेता है और सत्ता में आते ही खामोश हो जाता है । और सत्ता खिसक जाये तो सत्ता के करप्शन पर सीधे अंगुली उठती है ।यानी कालाधन इस राजनीति को वो ऑक्सीजन देता है,जो ईमानदारी के पैसे से मुमकिन ही नहीं। और दागी वो औजार हैं, जो संसदीय राजनीति की तमाम कमियों को ढाल बनाकर राजनीति के मायने ही बदल देते हैं। तो क्या ये इसलिए है क्योंकि देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये ।
इसी तरह -बीते 10 बरस में विधानसभा चुनावो में कारपोरेट ने 3368 करोड टैक्स के तौर पर दिये। राज्यों ने कारपोरेट को योजनाओं के जरीये 50 लाख करोड़ से ज्यादा का लाभ दे दिया। तो राजनीति करप्ट है या देश में विकास के नाम पर जो भी काम कोई उघोगपति या कारपोरेट करना चाहता है मुनाफे के लिये उसे राजनीतिक सत्ता का आसरा लेना ही होता है। तो क्या राजनीतिक दल अगर करप्ट ना हो तो देश में विकास या इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जितना खनिज संसाधन लुटाया जाता है वह सही मायने में देश को विकसित कर दें। यह सवाल इसलिये क्योंकि जब कैशलेस देश का जिक्र हो रहा है तो बीते दस बरस में 10 बरस में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने 1039 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर पर लिये। क्षेत्रीय पार्टियों ने 2107 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर लिये। और असर इसी का है कि एनपीए यानी डुबा हुआ कर्ज लगातार बढ़ रहा है और मनमोहन सिंह के बाद प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद भी थमा नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो ये कि हाल में सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया । और अब विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे को अगर कांग्रेस उठा रही है, तो कांग्रेस का सच ये है कि कांग्रेस के कार्यकाल
में करीब 1 लाख करोड़ का कॉरपोरेट कर्ज माफ किया गया था । और कॉरपोरेट या बड़े उद्योगपतियों को सरकार की छाया का लाभ कैसे मिलता है-इसका पता इस बात से भी लग सकता है कि कालेधन पर विदेशी बैंकों के 627 खाताधारकों में इक्का दुक्का को छोड़कर आज तक सबके नाम सामने नहीं आए। और नाम सामने आने चाहिये इसके लिये अब राहुल गांधी कहते है नाम क्यों नहीं बताते और जब मनमोहन सिंह की सत्ता थी तो बीजेपी पूछती थी मनमोहन सिंह नाम क्यों नहीं बताते। तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के सामने कैसे हर भ्रष्टाचार छोटा है ये अमेरिकी की नामी सर्वे कंपनी आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया तो दुनिया के 25 देशो के सामने मुख्य मुद्दा हो, कौन सा इसे लेकर किया गया ।भारत में नोटबंदी से एन पहले 25 अक्टूबर से 4 नवंबर तक जो सर्वे किया गया। उसमें सामने यही आया कि अमेरिका के सामने सबसे बडा मुद्दा आतंकवाद का है। रुस के सामने सबसे बडा मुद्दा गरीबी और समाजिक असमानता है। चीन के सामने सबसे बडा मुद्दा पर्यावरण का है। फ्रांस के सामने सबसे बड़ा मुद्दा रोजगार का है। लेकिन भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। और इस सर्वे में ये साफ तौर पर उभरा कि भारत के लोग आंतक, गरीबी,हेल्थ, शिक्षा या फिर अपराध से भी उपर पॉलिटिकल करप्शन को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। सर्वे के मुताबिक 46 फिसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं। तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि राजनीति से बडा सांगठनिक अपराध और कोई नहीं है। या फिर राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगते ही कानून-व्यवस्था कोई मायने नहीं रखता। या राजनीति से बड़ा रोजगार और कोई नहीं है। क्योंकि मोदी सरकार ही जिस
कैशलेस व्यवस्था की दिशा में देश को ले जाना चाह रही है उसमें कोई राजनीतिक दल कहने को तैयार नहीं है कि अब कैश से एक पैसा भी चंदा नहीं लिया जायेगा और चंदा देने वाले को राजनीतिक सत्ता कोई लाभ नहीं देगी ।
Wednesday, December 21, 2016
करप्शन की गंगोत्री राजनीति से निकलती है, अब तो मान लीजिए..
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:49 PM
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