Monday, August 14, 2017

बच्चों के रहने लायक भी नहीं छोड़ी दुनिया

14-15 अगस्त 1947 । दुनिया के इतिहास में एक ऐसा वक्त जब सबसे ज्यादा लोगों ने एक साथ सीमा पार की । एक साथ शरणार्थी होने की त्रासदी को झेला । एक साथ मौत देखी । और 1951 के सेंसस में जो उभरा उसके मुताबिक 72,26,660 मुस्लिमों ने हिन्दुस्तान छोड़ा । 72,95,870 हिन्दुओं और सिख ने पाकिस्तान छोड़ा । यानी डेढ करोड शरणार्थी । और दर्द के इस उभार के बीच 22,30,000 लोग मिसिंग कैटेगरी में डाल दिये गये । यकीनन बिना युद्द इतनी मौतो को भी दुनिया ने विभाजन की रेखा तले देखा । और दर्द की इस इंतेहा को तब बिखरे बचपन ने भविष्य के सुनरहरे सपनो तले देखना शुरु किया । याद कीजिये 1953 में फिल्म बूट पालिश का गीत । नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है । मुठ्ठी में है तकदीर हमारी...आनेवाले दुनिया में सब के सर पे ताज होगा... न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा...बदलेगा ज़मना ये सितारों पे लिखा है । लेकिन बदला क्या । क्योंकि उस गीत को गाते नन्हे मुन्नों की  उम्र आज 75 पार होगी । तो आजादी के 70 बरस बाद क्या वाकई तब के नन्हे- मुन्नो ने जिस दुनिया के सपने पाले वह आज की दुनिया दे पा रही है । ये सब सपना है क्योकि मौत दर मौत ही बच्चों का सच हो चला है। गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चो का नरसंहार तो एक बानगी भर है । क्योंकि बच्चों के जीने के लिये हमने-आपने छोडी कहा है दुनिया । हालात है कितने बदतर । तस्वीर खौफनाक है। आंकड़े डराने वाले हैं । 7,30,000 शिशु जन्मते ही महीने भर के भीतर मर जाते है । 10,50,000 बच्चे एक साल ही उम्र भी नहीं जी पाते । यानी एक तरफ इलाज की व्यवस्था नहीं तो बच्चों की मौत । और दूसरी तरफ प्रदूषण । प्रदूषण से 5 बरस तक के 2,91,288 बच्चे हर बरस मरते है ।  14 बरस के 4,31,560 बच्चो की मौत हर बरस होती है । यानी रखपुर में आक्सीजन सप्लाइ रुकी तो 60 बच्चो की मौत ने इन्सेफलाइटिस को लेकर जुझते हालात पर हर कसी की ध्यान केन्द्रित कर दिया ।

लेकिन 2016 में ही निमोनिया-डायरिया से 2,96,279 बच्चो की मौत डब्ल्यूएचओ  के आंकडे में सिमट कर रह गई । तो बच्चो पर ध्यान है कहां किसी का । क्योंकि दुनिया में भूखे बच्चो की तादाद  में भारत का नंबर 97 वां है । यानी 118 देशों की कतार में नीचे से 21 वां । तो विकास की कौन सी रेखा खींची जा रही है और किसके लिये अगर वह लकीर बच्चों के लिये लक्ष्मण रेखा समान है। क्योंकि डब्ल्यूएचओ की ही रिपोर्ट कहती है कि  देश में 39 फिसदी कुपोषित बच्चे वैसे है, जिनका विकास रुक गया है। 40 फिसदी बच्चों की उम्र 5 बरस पार कर नहीं पाती । 50 फीसदी बच्चे स्कूल रेगुलर जा नहीं पाते । तो फिर कौन सी दुनिया बच्चों के लिये हम बना रहे है । या उनके लिये छोड़े जा रहे है । क्योकि आजादी के ठीक बाद तो बच्चो ने सपने सुनहरे भविष्य के देखे थे ।
लेकिन किसे पता था जिस दौर में भारत में सबसे ज्यादा बच्चे होगें । फिलहाल 14 बरस तक के कुल बच्चो की जनसंख्या 35,57,96,866  है । और इसी दौर में अपने मरे हुये बच्चों को गोद में उठाये हुये मां -बाप की तस्वीर 70 बरस की आजादी की पूर्व संध्या पर भी हम आप देखेंगे । क्योंकि अस्पताल बदहाल है । तो फिर हेल्थ सर्विस कितनी बदहाली में है ये भी समझ लें । क्योकि बदहाल हेल्थकेयर सिस्टम ने इंसेफेलाइटिस को महामारी बना दिया । और इसी हेल्थकेयर सिस्टम के आइने में ये तस्वीरें अब हमें चौंकाती भी नहीं हैं। कहीं एबुलेंस की कमी से मरते लोग तो कहीं शव को कंधे पर ढोता बाप-ये तस्वीरें रोज का हिस्सा हो गई हैं। दरअसल, सच ये कि हेल्थकेयर कभी किसी सरकार की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। आलम ये कि 27 फिसदी मौत के पीछे इलाज ना मिलना है । यानी देश में एक तरफ सरकारी हेल्थ सिस्टम खुद ही आईसीयू में है । और दूसरी तरफ मेडिकल बीमा पर प्राइवेट बीमा पर इलाज करा पाने की स्थिति पैसे वालो की है । जबकि 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी के पास मेडिकल बीमा नहीं है । और देश में सरकारी इलाज की सुविधा का आलम है क्या तो , 1700 मरीजो पर एक डाक्टर है । 61,011 लोगो पर एक अस्पताल है । 1833 मरीजो के लिये एक बेड उपलब्ध है । यानी अस्पताल, डाक्टर,दवाई, बेड, आक्सीजन सभी कुछ के हालात अगर त्रासदी दायका है तो फिर सरकार हेल्थ पर खर्च क्यो नही करती । फिलहाल भारत  जीडीपी का सिर्फ 1.4 फीसदी खर्च करता है, जबकि अमेरिका 8.3 फीसदी । और दुनिया के 188 देशो की रैकिंग में भारत का नंबर 143 वां आता है । और देश का आखरी सच है कि 30 करोड लोग सतो चाह कर भी दवाई खरीद नहीं सकते । तोआइए जरा समझ लीजिए कि बच्चों के लिए ये देश क्यों रहने लायक नहीं है या कहें हमने इस लायक छोड़ा नहीं कि बच्चें यहां चैन की सांस ले सकें। क्योंकि सच ये है कि -देश में गंदा पानी पीकर डायरिया होने से हर साल करीब 15 लाख बच्चों की मौत हो जाती है ।

स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ताहालत के चलते छह साल तक के 2 करोड़ तीस लाख बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं . आलम ये कि हर साल 10 साल से ज्यादा बच्चों की मौतें कुपोषण से हो जाती हैं ।-भारत में हर साल 10 लाख से ज्यादा मौतें वायु प्रदूषण के चलते हो जाती है,जिसमें आधे से ज्यादा बच्चे हैं । शिशु मृत्य दर के मामले में भारत का हाल इतना खराब है कि प्रति हजार बच्चों में 58 पैदा होते ही मौत के मुंह में चले जाते हैं,जबकि विकसित देशों में ये आंकड़ा 5 से भी कम है । और 12 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल ऐसी बीमारियों से मारे जाते हैं-जिनका इलाज संभव है। यूं इस देश पर गर्व करने लायक बहुत कुछ है-लेकिन बच्चों की दुनिया जैसी बनाई है-वो झांकी परेशान करती है। क्योंकि 50 के दशक का गीत आओ बच्चो तुम्हे दिखाये झांकी हिन्दुस्तान की....आप सुन कर खुश हो सकते है । लेकिन सच तो ये है ,देश में पांच से 18 साल की उम्र तक के 3 करोड़ 30 लाख बच्चे बाल मजदूरी करते हैं । -देश में 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों को अब तक स्कूल जाना नसीब नहीं है । और जिन बच्चों के लिए स्कूल जाना मुमकिन है-वो पढ़ाई का दबाव नहीं सह पा रहे। आलम ये कि हर साल 25 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ाई के दबाव में खुदुकशी कर रहे हैं । देश में हर आठ मिनट पर एक बच्चे का अपहरण हो जाता है। दरअसल, भारत में बचपन खतरे में है, और इस पर ध्यान देने वाला कोई नहीं। तो दावे भले कुछ हो लेकिन सेव द चिल्ड्रेन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बचपन खासा खतरे में है। हेल्थ , शिक्षा , मजदूरी , शादी , जन्म , हिसां सरीखे 8 पैमाने पर  सेव दे चिल्टेरन की लिस्ट में भारत  म्यांमार, भूटान, श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116वें स्थान पर है।

3 comments:

आवाज एक शुरुआत said...

देशभक्ति की लूट
आवाज एक शुरुआत
देश का आमजन बड़ी दुविधा में है। वर्तमान में परिस्थिति कुछ ज्यादा भयावह है। आमजन कुछ समझ नही पा रहा है कि क्या अच्छा है क्या बुरा है। ये दुविधा लगातार बढ़ रही है। इस दुविधा को बढ़ाने में हमारे माननीयों का अथक प्रयासों भरा परिश्रम रहा है। इनके अथक परिश्रम का फल ये है कि अनपढ़ की तो छोड़ो बड़े बड़े बुद्धिजीवी इस दुविधा में अटके हुए हैं। किसी को कोई कुछ सूझ नही रहा है कि किसे सही माने किसे गलत। जितना सोचते हैं उतना ही उलझते हैं।
लोग इतिहास की उलझन से बहार नही आ पा रहे हैं। कांग्रेस ने अबतक यही कहा और बताया है देश को कि आरएसएस, हिन्दू महासभा या इनसे सम्बन्धित संगठनों का कोई योगदान नही रहा देश की आजादी की लड़ाई में। इनको अंग्रेजों का मुखबिर तक बताया। वीर सावरकर तक को वीर मानने से इनकार करते हैं। कहते है कि काला पानी की सजा से भी इनकी रिहाई इनकी बार बार लिखित में माफी मांगने पर हुई थी। जिसमे लिखा था कि वे ताउम्र अंग्रेजों के वफादार बनकर रहेंगे।
दूसरी तरफ कम्युनिस्ट तकरीबन तकरीबन इन दोनों के ही योगदान को नकारते हैं आज़ादी की लड़ाई में। कांग्रेस को तो फिर भी ये कुछ सहानुभूति के बोल बोल देते हैं। मगर आरएसएस भाजपा पर तो इनकी प्रतिक्रिया बड़ी तल्ख होती है। एक कार्यक्रम के दौरान तो पिछले कुछ दिनों देशविरोधी गतिविधियों में लगे देशद्रोह के इल्जाम के कारण सुर्खियों में आए जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने तो भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पूर्व में एसएफआई का सदस्य बताया और अंग्रजों की मुखबरी के इल्जाम में संगठन से बहार निकालने का दावा किया। दावा इसलिए और मजबूत हो गया कि किसी ने भी कार्यक्रम के दौरान इसका खंडन नही किया।
मगर जब आज चूंकि सत्ता में भाजपा है, उसकी सुनते हैं तो उनसे बड़े देशभक्त इस देश मे कोई दिखते नही। इनको सुनते हैं तो लगता है जैसे कि इनका तो जन्म ही देश के लिए कुर्बानी देने के लिए हुआ है।इनकी कोई बात भारत माता के जयकारे के बिना पूरी ही नही होती। आज भी टीवी चैनलों पर बैठे इनके प्रवक्ता वंदे मातरम और भारत माता के नारे बुलवाने के लिए कांग्रेस, कम्युनिस्टों या अन्य दल के लोगों से झगड़ते दिखते हैं। समय समय पर तिरंगा यात्रा निकालना, देशभक्ति कार्यक्रमों का आयोजन कराना इनकी राजनीति का अहम हिस्सा दिखता है।
अब दुविधा ये बहुत बड़ी है कि देश के लिए किसके योगदान को अहम माने। तीनों के योगदान को मानना और भी बड़ी दुविधा है। क्योंकि अगर तीनों के योगदान को मानते हैं तो तीनों ही उसे नही मानते जो इन तीनों को मान रहा है। मगर आज राजनैतिक परिस्थिति ऐसी है कि अगर आपके ऊपर किसी दल का समर्थक होने का ठप्पा नही है तो आपका जीना मुहाल हो जाएगा। शर्त ये है कि मानना तो एक दल के ही योगदान को पड़ेगा।
ये और बात है कि असल मे इस तरह के चन्द स्वघोषित ठेकेदारों के अलावा बहुत असंख्य देशभक्त हुए जिन्हें आज देश कम जानता है जिन्होंने वाकई इस देश के लिए कुर्बानियां दी। एक बात तो स्पष्ट है देश आज उन्हीं देशभक्तों को जानता है जिन्हें अंग्रेजों ने प्रमाण पत्र दिए कि तुम देशभक्त हो। देश की जनता ने जिन्हें असल मे देशभक्त माना उसे हमारे आज़ाद देश के सरकारों ने नही माना। जिन्होंने उस समय अंग्रेजो के तलवे चाटे आज वो देशभक्त हैं फिर चाहे वो किसी भी दल से जुड़े हुए लोग हैं। यही हालात आज हैं जो सत्ता पक्ष से जुड़ा रहता है वही देशभक्त होता है, वही समाजसेवी होता है। सरकारों के द्वारा लिखे हुए पाठ्यक्रम के अलावा भी बहुत साहित्य है देश के बारे में, उसे भी पढ़ें और फिर स्वयं आकलन करें कि क्या ये जो लूट मची हुई है अपने अपने को देशभक्त साबित करने की वह कहां तक सही है।

Anita said...

बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की ओर ध्यान देना सरकार की सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, इसके बाद ही तो वे शिक्षा ग्रहण करने के लायक बन सकेंगे.

Sanu Sangam said...

सर गोरखपुर हादसें की सच्चाई पे एक ब्लॉग लिखिए सर बहुत दिन से इंतजार कर रहा हु।