दूसरी में पढ़ने वाले प्रघुम्न की हत्या 11वीं के छात्र ने कर दी। और हत्या भी स्कूल में ही हुई। प्रद्युम्न पढ़ने में तेज था। हत्या का आरोपी 11वीं का छात्र पढ़ने में कमजोर था। परीक्षा से डरता था। यानी हत्या की वजह भी वजह भी स्कूल में परीक्षा का दवाब ही बन गया। तो कौन सी शिक्षा स्कूल दे रहे हैं। और कौन सा वातावरण हम बच्चों को दे पा रहे हैं। ये दोनों सवाल डराने वाले हैं। पर सरकारी गीत है स्कूल चले हम..इस गीत के आसरे 99 फीसदी बच्चों का इनरॉलमेंट स्कूल में हो तो गया। क्योंकि सर्वशिक्षा अभियान देश में चला। 27 हजार करोड़ का बजट बनाया गया। पर सरकारी सच यही है कि दसवीं तक पढ़ते पढ़ते देश के 47.4 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। इनमें 19.8 फीसदी पांचवीं तक में तो 36.8 फीसदी आठवीं तक पढाई पूरी नहीं कर पाते और बच्चों के लिये पढाई के इस वातावरण का अनूठा सच यही है कि एक तरफ बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकारी स्कूलो में 11 करोड़ बच्चे जाते हैं। तो मोटी फीस देकर 7 करोड बच्चे निजी स्कूल जाते हैं।
सरकार का शिक्षा बजट 46,356 करोड़ है। निजी स्कूलो का बजट 8 लाख करोड़ का है। यानी जिस समाज को शिक्षा के आसरे अपने पैरो पर खड़े होना है उसके भीतर का सच यही है कि बच्चे देश का भविष्य नहीं होते बल्कि बच्चे वर्तमान में कमाई का जरिया होते हैं। और मुनाफे के लिये भागते दौटते देश में बच्चे कैसे या तो पीछे छूट जाते हैं या फिर बच्चो को पढाने के लिये मां बाप बच्चों से देश ही छुड़वा देते हैं। जरा ये भी समझ लें। क्योंकि अनूठा सच है ये कि देश के 5 लाख 53 हजार बच्चे इस बरस देश छोड कर विदेशों में पढने चले गये। और उनके मां बाप इन बच्चो की पढाई के लिये 1 लाख 20 हजार करोड सिर्फ फीस देते हैं। जबकि देश में उच्च शिक्षा के नाम पर मौजूदा वक्त में 3 करोड 42 लाख 11 हजार बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। और उनके लिये सरकार का कुल बजट है 33 हजार 329 करोड है। यानी सरकार उच्च सिक्षा के लिये एक बच्चे पर 974 रुपये सालाना खर्च करती है। पर विदेश जाकर पढने वाले एक बच्चे पर औसतन 2,16,958 रुपये सालाना खर्च मां बाप का जेब से होता है। तो देश का भविष्य कैसे गढ़ा जा रहा है। या फिर किस तरीके से देश के भविष्य की पौध को हम कैसे तैयार कर रहे हैं, उसके भीतर झांककर क्या कोई देखना चाहता है या फिर सत्ता को भी विदेश लुभाने लगा है। क्योंकि फिलिपिन्स में प्रधानमंत्री मोदी वहां रह रहे नागरिकों से रुबरु हुये तो देश के मुनाफे का ही जिक्र किया। मसलन " यूपीए में जिक्र होता था कितना गया। अब जिक्र होता है कितना आया।"
यानी चाहे अनचाहे समूचा समाज ही मुनाफा पाने और कमाने की होड़ में है तो फिर जो बच्चे देश छोडकर विदेश जा रहे है वह भारत लौटेंगे क्यों। और एनआरआई होकर भारत की तरफ देखने का मतलब होगा क्या । क्योंकि आज की तारीख में 1,78,35,419 भारतीय दुनिया के अलग अलग हिस्सो में हैं। 1,30,08,407 एनआरआई हैं। यानी कुल 3 करोड से ज्यादा भारतीय देश छोड चुके हैं। तो फिर कौन सा देश हम तैयार कर रहे हैं। और बीते 5 बरस का अनूठा सच ये भी है कि 90 फीसदी अप्रवासी भारतीय वापस लौटते नहीं हैं। तो क्या पढ़े लिखों के लिये या पैसे वालो के लिये देशप्रेम का पाठ देश छोडकर विदेश चले जाना है । तो क्या देश वाकई बच्चों के लायक बच नहीं रहा । ये सवाल जहन में आना तो चाहिये । क्योंकि शिक्षा भी तो तभी होगी जब जिन्दा रहेगें । कह सकते है सवा सौ करोड़ के देश में अगर लाखों बच्चों की मौत हो भी जाती है तो क्या हुआ। लाखों बच्चे फिर पैदा हो जायेंगे। यकीन जानिये यही हो रहा है । क्योंकि हर बरस देश में जन्मते ही 7लाख 30 हजार बच्चों की मौत हो जाती है । 10 लाख 50 हजार बच्चे एक बरस भी जी नहीं पाते और सिर्फ प्रदूषण से हर बरस औसतन 2 लाख 91 हजार 288 बच्चों की मौत हो जाती है । तो दोष कहा कहा किस किस को दिया जाये। मसलन दिल्ली में प्रदूषण कम नही हुआ बल्कि दिल्ली वाले अभ्यस्त हो गये। सरकार हांफने लगी। अदालतें बेजुबा हो गई एनजीटी की कोई सुनता नहीं। प्रदूषण और दो जून की रोटी आपस में ऐसी टकरायी कि जहरीली धुंध का असर कम नहीं हुआ अलबत्ता पढ़ाई का बोझ जान की कीमत पर भारी पड गया । और अब बच्चे स्कूल जा रहे हैं, और मां-बाप उन्हें स्कूल भेज रहे हैं।यानी बच्चों को भले सांस लेने में परेशानी हो रही है-आँखों से पानी आ रहा है लेकिन स्कूल खोल दिए गए हैं तो बच्चों के लिए जाना जरुरी है। तो आज बाल दिवस पर कोई तो ये सवाल पूछ ही सकता है । संविधान में दिए जीने के अधिकार का सवाल क्या बच्चों पर लागू नहीं होता । क्योंकि दिल्ली की हवा में 50 सिगरेट का धुआ है ।
यानी दिल्ली के बच्चे हर दिन 50 सिगरेट पी रहे है । सिगरेट के पैकेट पर लिखा है जानलेवा है . बर दिल्ली की हवा जानलेवा है ये कोई खुल कर क्यो नहीं कहता । वैसे,सवाल सिर्फ दिल्ली-एनसीआर का नहीं है। पूरे देश का है। आलम ये कि पर्यावरण इंडेक्स में भारत 178 देशों में 155वां स्थान पर हैं। तो फिक्र किसे है बच्चों की । या कहे जिन्दगी की । क्योकि आजादी के वक्त चाहे सुनहरे भविष्य के सपने संजोये गये । पर आजादी के 70 बरस बाद का अनूठा सच यही है । देश के सभी बच्चो को स्कूल-स्वास्थय और पीने का साफ पानी देने में भी हम सक्षम हो नहीं पाये है । और असर इसी का है कि 14 बरस की उम्र तक पहुंचते पहुंचते 4,31,560 बच्चो की मौत हर बरस होती है । देश की राजधानी में एक तरफ प्रदूषण के बीच बच्चो को स्कूल भेजने के लिये मां बाप मजबूर है तो दूसरी तरफ दिल्ली में 13 लाख बच्चे स्कूल जाते ही नहीं है ।17 लाख बच्चे बिना इजाजत चल रहे स्कूलों में जाते हैं। यानी जब दिल्ली में ही 75 लाख बच्चो में से 30 लाख बच्चे क्या पढ़ रहे हैं। या क्यों पढ नहीं रहे हैं जब इससे ही ससंद सरकार बेफिक्र है तो फिर कौन सी दिल्ली कौन से देश को रच रही है ये भी सवाल ही है।
Wednesday, November 15, 2017
बच्चों के लिये कौन सा भारत गढ़ रहे हैं हम ?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 12:07 AM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
Brother can i get your mail id to share something wrong happening in devbhoomi of himachal pradesh.
Cops and politicians make together bigbusiness by threatening people
Post a Comment