गुजरात के जनादेश ने संघ की नींद उड़ा दी है
केसरिया रंग देश के राजनीतिक सत्ता की हकीकत हो चुकी है। 19 राज्य केसरिया रंग में रंगे जा चुके हैं। पर इसी केसरिया रंग की प्रयोगशाला गुजरात में सात जिले मोरबी , गिर , सोमनाथ , अमरेली , नर्मादा , तापी , डांग , अरवल्ली में तो एक भी सीट बीजेपी को नहीं मिली । जबकि सुरेन्द्र नगर , पोरबंदर , जूनागढ , बोटाड , द्वारका , पाटण , महिसागर और छोटा उदयपुर में सिर्फ 8 सीटें ही जीत पायी। यानी गुजरात के 15 ग्रामीण जिले में बीजेपी को सिर्फ 8 सीट मीली। तो क्या गुजरात एक ऐसा अक्स है, जिसमें बीजेपी का सियासी उफान संघ परिवार का सामाजिक ढलान हो चला है। ये सवाल इसलिये क्योंकि ग्रामीण भारत में जड जमाये आरएसएस के ज्यादातर संगठनों को समझ नहीं आ रहा है कि उनकी संघ की उपयोगिता सरकार की चुनावी सफलता पर टिकी है या फिर खुद के कार्यों पर। और इसकी सबसे बडी वजह तो यही है कि मोदी सरकार की नीतियों से संघ परिवार के पांच संगठनों में तालमेल नहीं है। मसलन -बीएमएस, किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, विहिप और बजरंग दल खुद को ठगे महसूस कर रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इन संगठनों का अपना कोई आधार नहीं है। बीएमएस के देशभर में 1 करोड 12 लाख सदस्य हैं। किसान संघ के 18 लाख सदस्य हैं। स्वदेशी जागरण मंच के 5 हजार पदाधिकारी हैं। जिनका दावा है कि डेढ करोड़ लोगों पर सीधा प्रभाव है। वही आर्थिक नीतियों पर बंटते शहरी और ग्रामीण भारत से परेशान संघ के इन संगठनों से इतर हिन्दुत्व के नाम पर विहिप-बंजरग दल को लगता है कि उन्हें ठगा जा रहा है। और विहिप-बजरंग दल के देशभर में 40 लाख सदस्य है । और संयोग से 24 से 30 दिसबंर तक भुवनेश्वर में होनी वाली विहिप की बैठक में इन्हीं मुद्दों पर चर्चा होगी। जिसमें संघ के तमाम महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की मौजूदगी होगी ।
और 2014 के बाद पहली बार गुजरात चुनाव ने संघ के भीतर ही इस सवाल को जन्म दे दिया है कि बीजेपी की कमजोर जीत के पीछे मोदी सरकार की आर्थिक नीतियो को देखें या संघ के आंख मूंद लेने को। और ये सवाल बीजेपी के लिये भी महत्वपूर्ण है कि अगर ग्रामीण गुजरात की तर्ज पर देश का ग्रामीण समाज भी बीजेपी से बिफरा तो 2019 में होगा क्या। क्योंकि देश में 26 करोड 11 लाख ग्रामीण किसान - मजदूर हैं। और 2014 के लोकसभा चुनाव का सच यही है कि 83 करोड वोटरों में से 2014 में बीजेपी को कुल वोट 17,14,36,400 मिले। यानी देश अगर राजनीतिक तौर पर ग्रामीण और शहरी मतदाता में बंट गया तो फिर ये बीजेपी के लिये ही नहीं बल्कि संघ परिवार के लिये भी खतरे की घंटी होगी। क्योंकि संघ की साख बीजेपी की चुनावी जीत-हार पर नहीं टिकी है और ये बात 2004 में शाइनिंग इंडिया तले वाजपेयी की हार के बाद भी उभरा था। पर अगला सवाल तो यही है कि क्या ग्रामीण भारत की तरफ मोदी सरकार की नीतियां देख भी रही है। क्योंकि ग्रामीण भारत को सिर्फ किसानों के नजरिये सेदेखने की भूल कमोवेश हर सरकार ने किया है जबकि सच तो यही है कि देश की इक्नामी में ग्रमीण बारत का योगदान करीब 48 फिसदी है। नेशनल अकाउंट स्टेटिक्स ने इसी बरस जो आंकडे जारी किये उसके मुताबिक खेती [96 फिसदी], पशुधन [ 95 फिसदी ] , खनन [53 फिसदी ], उत्पादन [51 फिसदी ], निर्माण [47 फिसदी ], गोदाम [ 40 पिसदी], रियल इस्टेट-रोजगार [39 फिसदी ], बिजली-पानी-गैस [33 फिसदी ], व्यापार- होटल [28 फिसदी],प्रशासन-डिफेन्स [19 फिसदी ], वित्तीय सेवा [13 फिसदी ] । ये ग्रामीण भारत का ऐसा सच है जो अक्सर सिर्फ किसानों तक ही गांव को सीमित कर छुपा दिया जाता है । नेशनल अंकाउंट स्टेटिक्स ने इसी बरस ग्रामीम भारत के इन आंकडों को जारी किया जो साफ तौर पर बताता है कि देश की इक्नामी में ग्रामीण भारत का योगदान करीब 48 फिसदी है।
ग्रामीण भारत की लूट पर शहरी विकास का मॉडल जा टिका है जो बाजारवाद को बढावा दे रहा है और लगातार शहरी व ग्रामीण जीवन में अंतर बढ़ता ही जा रहा है। तो सवाल तीन हैं। पहला, सिर्फ किसानों की दुगनी आय के नारे से ग्रामीणों की गरीबी दूर नहीं होगी । दूसरा, ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर नीतियां नहीं बनायी गई तो देश और गरीब होगा । तीसरा , ग्रामीण भारत की लूट पर विकास की थ्योरी चल रही है । ये तीनो सवाल ही देश के हकीकत है । क्योंकि एक तरफ देश की इक्नामी में ग्रामीण भारत का योगदान 50 फिसदी है। दूसरी तरफ ग्रमीण भारत में प्रति व्यक्ति आय शहरी भारत से आधे से भी कम है । आलम है कितने बुरे ये इससे भी समझा जा सकता है कि शहर में प्रति दिन प्रति व्यक्ति आय 281 रुपये है। गांव में प्रति व्यक्ति प्रति आय 113 रुपये है। यानी गांव में प्रति व्यक्ति आय मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी से भी कम है। कागजों पर ही सही पर मनरेगा में सबसे कम 168 रुपये मजदूरी बिहार-झारखंड में मिलती है। तो हरियाणा में सबसे ज्यादा 277 रुपये मिलते है। तो कल्पना कीजिये ग्रामीण भारत से फलती बढती इक्नामी से ग्रामीण भारत को ही कौन अनदेखा कर रहा है। पर सवाल सिर्फ कम आय का नहीं है बल्कि ग्रामीण भारत की लूट का है, जो बाजार के जरीये देश की इक्नामी में चाहे चार चांद लगाती हो पर असल सच तो यही है कि खनिज संसाधनों से लेकर अनाज और बाकि माद्यमों से ग्रामीण भारत की इके्नामी पर ही देश की आधी भागेदारी टिकी है। और उसी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। फसल-ग्रमीण और शहरी सोशल इंडक्स में अंतर क्योंकि खुद सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि जबकि इन आंकडो का सच तो यही है कि कि देश की इक्नामी में ग्रामीण भारत का योगदान करीब 48 फिसदी है। तो क्या गरीब गुरबों और गांव-खेत का जिक्र करते करते ही मोदी सरकार इन्हीं के कटघरे में जा खड़ी हुई है। या फिर चुनावी जीत के चक्कर में खामोश संघ परिवार के भीतर की कुलबुलाहट पहली बार बताने लगी है कि अगर वह भी खामोश रही तो आरएसएस के शताब्दी बरस 2025 तक उसकी साख का बांटाधार हो जायेगा।
Saturday, December 23, 2017
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अगर ग्रामीण भारत मोदी सरकार से रुठ गया तो 2019 में बंटाधार |
Wednesday, December 20, 2017
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"हिन्दुओं की भावनाओं से खिलावाड़ करती रही है बीजेपी की राजनीति" |
तोगड़िया की किताब-सैफरान रिफलेक्शन: फेसेस एंड मास्क
तो जिस शख्स की पहचान ही अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन से जुड़ी हुई हो, जिस शख्स ने अयोध्या आंदोलन के लिये देशभर के युवाओं को संघ परिवार से जोड़ा, राम मंदिर के लिये बजरंग दल से लेकर विश्व हिन्दूपरिषद को एक राम मंदिर संघर्ष के आसरे नई पहचान दी, हिन्दुत्व के आसरे देश भर संघ परिवार को विस्तार दिया, उसी प्रवीण तोगडिया को अब लगने लगा है सियासत ने हिन्दुओं को राम मंदिर के नाम पर ठग लिया है। सत्ता में आने के लिये बीजेपी ने हिन्दुओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया है। और पहली बार बाकायदा सैफरान रिफलेक्शन: फेसेस एंड मास्क यानी केसरिया प्रतिबिंब-चेहरे और मुखौटे नाम से किताब लिखकर सीधे सीधे बीजेपी की उस राजनीति को कठघरे में खडा कर दिया है जिस राजनीति में राम मंदिर की गूंज बार बार होती है।
तोगडिया के अपनी किताब में 1990 में निकाली गई आडवाणी की रथयात्रा और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद से बीजेपी की उस राजनीति की नब्ज को पकड़ा है, जिसके आसरे बीजेपी सत्ता पाने के लिये छटपटाते रही। और संघ परिवार बेबस होकर हर हालात को सिर्फ देखता रहा। तोगडिया ने किताब में लिखा है राजनीति ने हिन्दुओं के सामने राम मंदिर को किसी गाजर की तरह ये कहकर हिलाया है कि , "आज बनेगा, कल बनेगा , राम मंदिर अवश्य बनेगा" खासबात ये है कि 80 के दशक से नरेन्द्र मोदी के करीबी रहे प्रवीण तोगडिया ने पहली बार केन्द्र की मोदी सरकार पर इस किताब में ये कहकर हमला बोला है कि सरकार ने राम मंदिर के लिये संसद में कानून बनाने की जगह हिन्दुओं की आकांक्षा से खेलना शुरु किया तो अयोध्या तक नहीं गये उन्होने राम मंदिर को हिन्दुओं का लॉलीपाप बना दिया और भावनाओं को उभार कर चुनाव जीत लिया।
1983 में सिर्फ 22 बरस की उम्र में विहिप से जुडे प्रवीण तोगडिया पेशे से डाक्टर हैं पर राम मंदिर आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका देखते हुये ही दो दशक पहले उन्हे विहिप का महासचिव और 2011 में अशोक सिंघल के जीवित रहते हुये विहिप का अंताराट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। और अब हिन्दुओं को हिन्दुत्व के नाम पर बीजेपी की राजनीति जिस तरह छल रही है, उस पर अपनी किताब में तोगडिया ने सीधा हमला किया है। इसमें लिखा है कि राम मंदिर , धारा 370, कामन सिविल कोड बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजना, गोवंश हत्या बंदी, विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं को फिर से बसाने के सवाल पर भीघोखा दिया गया। चुनाव के वक्त इन मुद्दो को उठा कर हिन्दू यूफोरिया खड़ा किया गया और सत्ता मिलते ही यू टर्न ले लिया गया।
खास बात ये भी है कि एक तरफ मोदी विकास का नारा लगाते है ।तो दूसरी तरफ तोगड़िया ने अपनी किताब में लिखा है कि
-हिन्दुओं के मुद्दो से टोटल यू टर्न का नाम ही है विकास।
और गुजरात चुनाव के वक्त किसानो की त्रासदी और युवाओ की बेरोजगारी का सवाल उठाने वाले तोगडिया ने अपनी किताब केसरिया प्रतिबिंब : चेहरें और मुखौटे में साफ लिखा है कि हिन्दू एक वाइब्रेंट ज़िंदा समाज मन है। हिन्दू साँस लेते हैं, उन्हें नौकरी चाहिए, अच्छी सस्ती शिक्षा चाहिए, किसानों को उचित मूल्य चाहिए, महिलाओं को सुरक्षा चाहिए, महंगाई पर नियंत्रण चाहिए , आरोग्य की सुविधाएँ चाहिए। पर राजनीति के जरीये सत्ता साधने वाले राजनेताओं ने हिन्दूत्व आंदोलन को ही चुनावी कठपुतली बना दिया है। जाहिर है ये किताब अभी तक बाजार में आई नहीं है और प्रवीण तोगडिया अपनी इस किताब को बाजार में लाने के लिये खुद को विहिप से निकाले जाने का इंतजार कर रहे है। क्योंकि माना जा रहा है भुवनेशवर में 27, 28,29 दिसंबर को होने वाले विहिप के सम्मेलन में तोगडिया को विहिप से बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी को भी लगने लगा है कि उनकी राजनीतिक आंकाक्षा से हिन्दुत्व का सवाल टकराने लगा है और प्रवीण तोगडिया अब उनकी सियासत में फिट बैठते नहीं है तो फिर आरएसएस भी मोदी के इशारे पर चलने को मजबूर हो चला है या फिर उनके सामने बेबस है। और इसी कड़ी में छह महीने पहले से किसान संघ और मजदूर संघ में उलटफेर शुरु भी हो चुके हैं। पर हर की नजर इसी बात को लेकर है कि प्रवीण तोगडिया जो सौराष्ट्र के पटेल है । किसान परिवार से आते हैं। हिन्दुत्व के चेहरे बने। अब किताब लिखने के बाद उनका अगला कदम होगा क्या। क्योंकि ये सवाल तो हर जहन में है कि एक वक्त गोविन्दाचार्य ने वाजपेयी को मुखौटा कहा। और एक वक्त संजय जोशी गुजरात में ही मोदी को सांगठनिक तौर पर चुनौती देते दिखे। तो दोनों के सितारे कैसे अस्त हुये इसे आज दोहराने की जरुरत नहीं है। बल्कि प्रवीण तोगडिया की किताब जो नये बरस के पहले हफ्ते में बाजार में आयेगी उसके बाद उनकी राह कौन सी होगी इसका इंतजार अब हर किसी को है।
Tuesday, December 19, 2017
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मोदी के लिये तोगड़िया की छुट्टी होगी होसबोले नये सरकार्यवाहक होंगे ? |
गुजरात हिमाचल में भगवा फहराने के बाद अभी कांग्रेस गुजरात की टक्कर में ही अपनी जीत मान रही है. पर दूसरी तरफ अप्रैल में होने वाले कर्नाटक के चुनाव को लेकर बीजेपी तैयारी शुरु कर दी है। और ना सिर्फ बीजेपी बल्कि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसकी तैयारी में जुट गया है। जानकारी के मुताबिक स्वदेशी जागरण मंच से बीजेपी में आये मुरलीधर राव को बकायदा कर्नाटक का मैनिफेस्टो तैयार करने के लिये अभी से ही लगा दिया गया है। और मार्च के महीने में कर्नाटक से आने वाले दत्तात्रेय होसबोले को भैयाजी जोशी की जगह सरकार्यवाहक बनाने की तैयारी होने लगी है। खास बात ये भी है कि आरएसएस में सरकार्यवाहक ही प्रशासनिक और सांगठनिक तरीके से नजर रखता है। तो संघ के अलग अलग संगठनों में भी फेरबदल की तैयारी हो रही है । जिसमें नजरिया दो ही पहला, संघ के शताब्दी वर्ष यानी 2025 तक पूरे देश में विस्तार। दूसरा , मोदी सरकार की नीतियो के अनुकूल संघ के तमाम संगठनों का काम और जानकारी के मुताबिक इसके लिये विहिप और भारतीय मजदूर संघ में बदलाव भी तय है। माना जा रहा है कि विहिप के कार्यकारी अंतराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगडिया और बीएमएस के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय की छुट्टी तय है । और इसके पीछे बडी वजह तोगड़िया का मंदिर मुद्दे पर मोदी सरकार की पहल को टोकनिज्म बताना तो बीएमएस का मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल खड़ा करना है। तो संघ के अलग अलग संगठनों से कोई आवाज सरकार के खिलाफ ना उठे अब संघ भी इसके लिये कमर कस रहा है। और इसीलिये विहिप और बीएमएस के अलावे किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के अधिकारियों में भी फेरबदल होगा। और ये सारी प्रक्रिया मार्च में होने वाली संघ की प्रतिनिधि सभा से पहले हो जायेगी क्योकि नागपुर में होने वाली प्रतिनिधि सभा में सरकार्यवाहक भैयाजी जोशी की जगह सह सरकार्यवाहक दत्तत्रेय होसबोंले लेगे । मार्च 2018 में भैयाजी का कार्यकाल पूरा हो रहा है। जो इस बार बढ़ेगा नहीं। वही दूसरी तरफ हर तीन बरस में होने वाले विहिप का सम्मलन 24 से 30 दिसबंर को भुवनेश्वर में होगा, जिसमें नये लोगों को मौका देने के नाम पर प्रवीण तोगडिया समेत कई अधिकारी बदले जायेंगे।
जानकारी के मुताबिक संघ और मोदी सरकार दोनों नहीं चाहते है किसरकार की नीतियों को लेकर कोई सवाल संघ के किसी भी संगठन में उठे। तो मोदी सरकार के अनुकूल संघ भी खुद को मथने के लिये तैयार हो रहा है । और गुजरात चुनाव में जिस तरह संघ के तमाम संघठन खामोश रहे । उससे भी सवाल उठे है कि कर्नाटक के चुनाव के लिये खास तैयारी के साथ अब टारगेट 2019 को इस तरह बनाना है जिससे 2019 के चुनाव में जनता 2022 के कार्यो को पूरा करने के लिये वोट दें । और 2025 में संघ के शाताब्दी वर्ष तक संघ का विस्तार समूचे देश में हो जाये । यानी 2019 की तैयारी 2004 के शाइनिंग इंडिया के आधार पर कतई नहीं होगी । और 2022 से आगे 2025 यानी संघ के शताब्दी वर्ष तक मोदी सत्ता बरकरार रहे तो ही संघ का विस्तार पूरे देश में हो पायेगा । सोच यही है इसीलिये 2019 में ये कतई नहीं कहा जायेगा कि बीजे पांच बरस में मोदी ने क्या किया । बल्कि 2022 का टारगेट क्या क्याहै इसे ही जनता को बताया जायेगा । जिससे जनता 2014 में मांगे गये 60 महीने को याद ना करें । यानी 2019 में जिक्र 60 महीने का नहीं बल्कि 2022 में पूरी होने वाले स्वच्छ भारत, वैकल्पिक उर्जा और प्रधानमंत्री आवास योजना समेत दर्जन भर योजनाओं का होगा । जिससे जनता खुद की मोदी सरकार को 2022 तक का वक्त ये सोच कर दे दें कि तमाम योजनाये तो 2022 में पूरी होगी । और बहुत ही बारिकी से न्यू इंडिया का नारा भी 2022 तक का रखा गया है । जिसमें टारगेट करप्शन फ्री इंडिया से लेकर कालेधन से मुक्ति के साथ साथ शांति , एकता और भाईचारा का नारा भी दिया गया है । जाहिर है 2019 से पहले के हर विधानसभा चुनाव को जीतना भी जरुरी है । इसीलिये सबसे पैनी नजर कांग्रेस की सत्ता वाली कर्नाटक पर है । इसीलिये बीजेपी महासचिव मुरलीधर राव को अभी से से सोच कर लगाया गया है कि कर्नाटक में हर विधानसभा सीट को लेकर मैनिफेस्टो तैयार किया जाये ।
बकायदा हर विधानसभा क्षेत्र के 500 से 1000 लोगों से बातचीत कर मैनिपेस्टो की तैयारी शुरु हुई है । और जिन लोगो से बातचीत होगी उसमें हर प्रोफेशन से जुडे लोगो को शामिल किया जा रहा है। वही दूसरी तरफ संघ का सहर संघठन मोदी सरकार की नीतियो के साथ खडे रहे इसके लिये अब संघ को जो मथने का काम नागपुर में होने वाली प्रतिनिधी सभा के साथ ही शुरु होगा उसमें आरएसएस में फेरबदल के साथ बीजेपी में भी फेरबदल होगा । मसलन ये माना जा रहा है कि विघार्थी परिषद को बीजेपी का नया भर्ती मंच बनाया जायेगा । और इसके लिये विघार्थी परिषद में भी पेरबदल हो सकता है । विघार्थी परिषद की कमान संभाल रहे सुनिल आंबेकर की जगह बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन महासचिव रामलाल को विघार्थी परिषद की कमान दी जायेगी । यानी बीजेपी ही नहीं संघ के भीतर भी ये सवाल है कि 2025 में मोदी की उम्र भी 75 की हो जायगी तो उसके बाद युवा नेतृत्व को बनाने के तरीके अभी से विकसित करने होंगे । पर यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि काग्रेस के नये अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में काग्रेस की रणनीति क्या होगी । क्योकि गुजरात से बाहर जितनी जल्दी काग्रेस निकले ये उसके लिये उतना ही बेहतर है । और मोदी अंदाज से जितनी जल्दी मुक्ति पाये उतना ही बेहतर है । क्योकि राहुल गांधी के सामने सबसे बडा संकट यही है कि मोदी विरोध का राहुल तरीका मोदी स्टाइल है । नीतियो के विरोध का तरीका जनता के गुस्से को मोदी के खिलाफ भुनाने का है । करप्शन विरोध का तरीका जनविरोधी ठहराने की जगह मोदी से जवाब मांगने का है । यानी राहुल की राजनीति के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी ही है । और कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में राहुल राज है । तो फिर जनता कहा है और जनता के सवाल कहां है । इस सवाल का जवाब संसद परिसर में मीडिया कैमरे के सामने खडे होकर कहने से मिलेगा नहीं।
Monday, December 18, 2017
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गुजरात जनादेश ने निगाहें मिलाने के हालात पैदा तो कर ही दिये |
याद कीजिये 2015 में सड़क पर पाटीदार समाज था। 2017 में सड़क पर कपड़ा व्यापारी थे। इसी बरस सड़क पर दलित युवा थे। और सभी सड़क पर से ही गुजरात मॉडल की धज्जियां उड़ा रहे थे। तो अगस्त 2015 में हार्दिक रैली के बाद भी कांग्रेस जागी नहीं। 2017 में सूरत के कपड़ा व्यापारियों के इस हंगामे के बाद भी कांग्रेस नहीं जागी। कुंभकरण की नींद में सोयी कांग्रेस जब जागी। राहुल गांधी ने गुजरात की जमीं पर कदम जब रखे। तो कंधे का सहारा उस तिकड़ी ने दिया जो कांग्रेस के नहीं थे। और कांग्रेस के लिये इन कंधों ने आक्सीजन का काम किया। और पहली बार 22 बरस की बीजेपी सत्ता को शह देने की स्थिति में कांग्रेस को ला खड़ा किया। 2014 से लगातार गुजरात मॉडल से घबराती कांग्रेस में 2019 की आस जगा दी। और गुजरात के नक्शे पर बीजेपी की जीत का रथ 22 बरस में सबसे कमजोर होकर जीतता हुआ थमा और कांग्रेस 22 बरस के दौर में सबसे मजबूत होकर हारते हुये दिखायी दी। तो पहली बार सवाल यही उठा कि क्या 2019 अब नरेन्द्र मोदी के लिये आसान नहीं है। और 2019 में टक्कर आमने सामने की होगी।
तो पन्नों को पलटिये। याद कीजिये। 2014 में मोदी थे। उनका गुजरात मॉडल था। और गुजरात मॉडल के ब्रांड एंबेसेडर बने मोदी का जवाब भी किसी के पास नहीं था। और साढे तीन बरस के दौर यही मॉडल। इसी ब्रांड एम्बेसेडर ने हर किसी को खाक में मिलाया। जनता ने भी माना एकतरफा जीत जरुरी है। तो सिलसिला महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू कश्मीर में बीजेपी की सरकार बनी। तो दिल्ली और बिहार में बीजेपी हारी पर जनादेश एकतरफा ही आया। उसके बाद असम ,पं बंगाल, उत्तराखंड, यूपी में भी जनादेश एकतरफा ही आया। और पंजाब में भी काग्रेस जीती तो फैसला एकतरफा था। इस फेहरिस्त में आज हिमाचल भी जुड़ा, पर जिस गुजरात मॉडल की गूंज 2014 में थी । वही मॉडल गुजरात में लड़खड़ाया तो कांग्रेस टक्कर देने की स्थिति में आ गई। और पहली बार गुजरात के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को ये एहसास कराया कि वह लड़े तो जीत सकती है। और बीजेपी को सिखाया जब गुजरात में कांग्रेस बिना तैयारी टक्कर दे सकती है। तो फिर 2019 की बिछती बिसात इतनी आसान भी नहीं होगी। क्योंकि गुजरात चुनाव परिणाम ने सोयी कांग्रेस को जगाया है तो फिर अगले बरस जिन चार प्रमुख राज्यो में चुनाव होने है उसमें कर्नाटक छोड़ दे तो राजस्थान, मद्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की ही सरकार है। यानी गुजरात के आगे और 2019 से पहले एक ऐसी बिसात है जो चाहे अनचाहे देश में राजनीतिक टकराव को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ी कर रही है, जहां आमने सामने नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी होंगे ही। और 2019 की ये बिसात साफ तौर पर अभी से तय भी करेगी कि कौन किसके साथ खड़ा होगा। यानी क्षत्रपों को अपने आस्तित्व के लिये मोदी या राहुल की छांव में आना ही होगा। और मौजूदा वक्त की बिसात साफ बतलाती है कि मोदी के साथ अगर नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल,चन्द्रबाबू नायडू, महबूबा मुफ्ती है और पासवान हैं।
तो दूसरी तरफ राहुल गांदी के साथ लालू अखिलेश, ममता, नवीन पटनायक, करुणानिधि पवार, फारुख अब्दुल्ला, औवैसी हैं। और शायद जो अपनी भूमिका 2019 में नये सिरे से तय करेंगे उसमें शिवसेना कहां खड़ी होगी, कोई नहीं जानता। पर वामपंथी और बीएसपी यानी मायावती को राहुल साथ लाना चाहेंगे। और तेलंगाना के चन्द्रशेखर राव के किस दिशा में जायेंगे। इसका इंतजार भी करना होगा। पर ये बिसात दो सवालों को भी जन्म दे रही है । पहला एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन का चक्र पूरा हुआ और 2019 में बीजेपी के खिलाफ विपक्ष गठबंधन की सियासत जागेगी। और दूसरा क्या धर्म जाति से इतर आर्थिक मसलों पर टिके मुद्दे जो गुजरात माडल की मुश्किलों से निकले हैं, वह 2019 में पालिटिकल डिसकोर्स ही बदल देंगे। पर पालिटिकल डिसकोर्स मोदी ने बदला या कांग्रेस की राह पर मोदी निकले। ये भी सवाल है क्योकि मोदी और अमित शाह की जोड़ी तले जिस सियासी मंत्र को अपना रही है। अपना चुकी है उसमें कद्दावरों की नहीं कार्यकर्ताओं की जरुरत है। इसीलिये कभी बीजेपी के कद्दावर रहे नेताओं की कोई अहमियत या कोई पकड़ है नहीं। उम्र के लिहाज से हाशिये पर जा चुके आडवाणी, मुरली मनमोहर जोशी और यशवंत सिन्हा कोई मायने रखते नहीं तो 2014 से पहले राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज गडकरी रविशंकर प्रसाद या उमा भारती की जो भी महत्ता रही हो उनकी तुलना में एक अदद लोकसभा सीट ना जीत पाने वाले संभालने वाले जेटली मजबूत हैं। कैबिनेट पदों पर आसीन निर्मला सीतारमण, स्मृति इरानी, पियूष गोयल, धर्मेन्द्र प्रधान , प्रकाश जावडेकर एक नयी ब्रिग्रेड है। यानी इस कतार में राज्यो में भी आसीन बीजेपी मुख्यमंत्रियों की जमीन को परखे तो हर की डोर दिल्ली के हाथ में है। मसलन महाराष्ट्र में फडनवीस। हरियाणा में खट्टर, झरखंड में रघुवर दास, उत्तराकंड में त्रिवेन्द्र रावत और असम में सर्वानंद सोनोवाल, मणिपुर में बिरेन सिंह और यूपी में योगी आदित्यनाथ ऐसे नेता हैं, जो झटके में सीएम बने। और इनकी पहचान दिल्ली से इतर होती नहीं है। इस कडी में सिर्फ योगी आदित्यनाथ ही ऐसे है जो अपने औरा को जी रहे हैं और खुद को मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहाण, छत्तीसगढ के रमन सिंह, राजस्थान की वसुंधरा राजे और गोवा के पारिर्कर की तर्ज पर पहचान बना रहे हैं। यानी चाहे अनचाहे बीजेपी या कहे मोदी उसी राह पर चल पड़े हैं, जिस राह पर कभी कांग्रेस थी। क्योंकि अस्सी के दशक तक कांग्रेस के क्षत्रप का कद दिल्ली हाईकमान तय करता था .
और ध्यान दे तो बीजेपी भी उसी राह पर है। पर कांग्रेस से हटकर बीजेपी में सबसे बडा अंतर सत्ता के लिये चुनावी मशकक्त जो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह करते है और उसमें ब्रांड एंबेसेडर की तरह पीएम मोदी खुद को झौंक देते हैं। उसका कोई जोड़ कांग्रेस के पास नहीं है। क्योंकि कांग्रेस जबतक तैयार होती है बीजेपी जमीनी बिसात बिछा चुकी होती है। कांग्रेस जबतक क्षत्रपों पर निर्णय लेती है तबतक बीजेपी बूथ स्तर पर पहुंच चुकी होती है। यानी गुजरात की सीख क्या कांग्रेस की कुभकर्णी नींद तोड़ पायेगी । और अब वजब राहुल गांधी काग्रेस के अध्यक्ष है तो क्या पारंपरिक राजनीति करने के लिये जाने जाने वाली कांग्रेस खुद को कितना बदल पायेगी। तो राहुल गांधी कैसे संघर्ष करेंगे। राहुल गांधी गैर कांग्रेसियो के कंधे के आसरे पर टिकेंगे या फिर क्षत्रपो को भी खड़ा करेंगे। ये सवाल इसलिये जरुरी है क्योकि गुजरात में बीजेपी को टक्कर देने की खुशी हो सकती हैा पर हिमाचल में हार से आंखे ऐसी मूंद ली गई है जैसे काग्रेस वहा चुनाव लड ही नहीं रही थी । और अब जब बीजेपी के तीन राज्य चुनाव के लिये तैयार हो रहे है तब काग्रेस के किस नेता को किस राज्य की कमान सौपी गई है, ये अब भी संस्पेंस ही है । मसलन राजस्थान में गहलोत क्या करेंगे । और सचिन पायलट की भूमिका होगी क्या । कोई नहीं जानता । छत्तीसगढ में जोगी के बाद काग्रेस की कमान किसके हाथ में है । जो निर्णय ले तो सभी माने कोई नहीं जानता । और मध्यप्रदेश में कई दिग्गज है । ज्योतिरादित्य सिंदिया । कमलनाथ या दिग्विजिय सिंह । कमान किसके हाथ में रहेगी इसपर से अभी तक पर्दा उठा ही नहीं है । तो कांग्रेस क्या राहुल के भरोसे रहेगी । या फिर संगठानत्मक रुपरेखा होती क्या है अब इसपर भी विचार करने का वक्त आ गया है । क्योकि गुजरात के जनादेश ने ये संदेश तो दे दिया कि मोदी का मॉडल अगर वोटर फेल भी मान लें तो फिर वह चुने किसे । मोदी के विक्लप का इंतजार मोदी के फेल होने के इंतजार में जा टिका है । राहुल का नेतृत्व चुनाव को भी किसी संत की तरह लेने-कहने से हिचक नहीं रहा है । तो क्या पहली बार राहुल गांधी की परीक्षा बीजेपी से टकराने से पहले कांग्रेस को ही मथने की है । क्या पहली बार राहुल गांधी को कांग्रेसियों में विपक्ष के तौर पर संघर्ष करने का माद्दा जगाना है। क्योंकि सच तो यही है कि पारंपरिक
कांग्रेसी भी कांग्रेस से छिटके हैं। पारंपरिक वोट बैक भी कांग्रेस से छिटका है। क्योंकि काग्रेस के पास देश के आंकाक्षा से जोड़ने के लिये ना कोई विजन है ना ही कोई इक्नामिक रास्ता। और युवा तबके की आकांक्षा जब किसी की सत्ता तले पूरी हो नहीं पा रही है तो फिर राहुल के सामने ये सवाल आयेगा कि कि मोदी को जनता खारिज कर भी दें तो भी राहुल को विकल्प क्यों माने। क्योंकि चुनावी लोकतंत्र का आखरी सच तो ये भी है कि देश में बेरोजगारी का सवाल। किसानों की त्रासदी का सवाल । बढते एनपीए का सवाल, बैकिंग रिफार्म से जनता के सामने संकट पैदा होने के सवाल सबकुछ चुनावी जीत तले दब गये।
Sunday, December 10, 2017
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स्वयंसेवक की चाय का तूफान तो मोदी-संघ दोनों को ले उड़ेगा... |
राम मंदिर..राम मंदिर की रट लगाते लगाते उम्र पचास पार कर गयी,आंदोलन किया...सड़क पर संघर्ष किया । देश भर के युवाओं को एकजुट किया । कार सेवा के लिये देश के कोने कोने से सिर्फ साधु संत ही नहीं निकले बल्कि युवा भी निकले...और आज जब चुनाव में विकास के बदले झटके में फिर राम मंदिर का जिक्र आ गया तो पहली बार लगा यही हिन्दुत्व भी ठगने की सियासत है । राम मंदिर सिर्फ सत्ता की दहलीज पर पड़ा एक पत्थर हो चला है । ऐसा क्या अचानक हुआ कि विकास का जो नारा गुजरात चुनाव में लगातार गूंज रहा था । झटके में वह 5 दिसबंर को गायब हो गया । और बहुत ही सलीके से राम मंदिर की इंट्री गुजरात चुनाव में हुई। आपको लगा होगा कि ये सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के टाइटल केस को लेकर जो बहस हुई उसी के बाद गुजरात चुनाव में मंदिर-मस्जिद की इंट्री हुई ..पर मेरी मानिये सुप्रीम कोर्ट की तारीख भी 5 दिसबंर हो । 5 दिसबंर के अगले दिन 6 दिसबंर को देशभर में मंदिर की गूंज सुनाई दे.ये सब कुछ बहुत ही सिस्टेमिक तरीके से तय किया गया । तो क्या ये भी फिक्स था । हा हा ..आप चाय पीने आये हैं ....इसे पीजिये..खास गांव से मैंने मंगायी है । खूशबू से तो यही लग रहा है। .....वाकई शानदार है । हां इसमें दूध मिलाने की कोई जरुरत नहीं । जी..मैं बिना दूध वाली ही चाय यूं भी पीता हूं...पर ये तो बताईये कि क्या सुप्रीम कोर्ट में 5 को सुनवाई हो ये भी फिक्स था । देखिये ये तो लोअर कोर्ट में भी नहीं होता कि सबसे बड़ी सुनवाई की तैयारी ना हो और तैयारी के बाद सुनवाई 5 दिसंबर को होगी ये कहने के बाद 5 दिसबंर को फिर अगली तैयारी की तारीख तय हो जाये ।...छोडिये इसे....पर आप कुछ क्यो नहीं बोलते । राम मंदिर का नाम आते ही आपका नाम तो हमारे जहन में आता ही है । ..ठीक कह रहे है आप ...मुझ पर भी बहुत दबाव था मैं कुछ बोलू..मैं नहीं बोला । ना किसी को बोलने दिया । क्यों िआप खामोश क्यो रहे । जबकि आपकी पहचान तो राम मंदिर से जुड़ी हुई है । और आप बोलते तो सत्ता सरकार पर दवाब पडता। आपको लग सकता है कि दवाब पडता ।
सच तो यही है कि हम नहीं बोले तो राम मंदिर कहते हुये सत्ता की चौखट पर जा पहुंची नेताओ की चौखट पर फिर राम मंदिर आ जाता । यानी सिर्फ लाभ भुनाने की सियासत है ये । लाभ नहीं भावनात्मक तौर पर राजनीति साधने का मंत्र बना दिया गया राम मंदिर । और मैं तो इस हकीकत को समझ रहा हूं क्योंकि राम मंदिर के लिये ही समूचे देश के भ्रमण करने के दौरान देश के हालात को बेहद करीब से मैंने देखा है । देख रहा हूं ...तो क्या राम मंदिर की जरुरत अब देश के लोगो को नहीं है ? मैंने नहीं कहा ...मैं तो ये समझाना चाह रहा हूं कि राम मंदिर सत्ता - सरकार -सियासत नहीं बनायेगी । राम मंदिर हमीं बनायेंगे । और हम भी तभी बना पायेंगे जब हिन्दुत्व के सवाल को हम देश के मुद्दो से लोगो को जोड सके । यानी हिन्दुत्व ने क्या देश के मुद्दे को सामने आने नहीं दिया । हिन्दुत्व नहीं राम मंदिर को ही जिस तरह हिन्दुत्व का प्रतीक बना दिया गया । और इस दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं कि इस प्रतीक को सियासत हड़प लेगी । तो हिन्दुत्व की परिकल्पना भी हवा हवाई हो जायेगी ।
हा हा हा..तो आप ये कह रहे है कि राम मंदिर शब्द को राजनीतिक सत्ता ने इस तरह परोसना शुरु किया कि हिन्दुत्व के असल मायने गायब हो जायें । मैं ये नहीं कह रहा है ..मेरा मानना है कि राम मंदिर के आसरे सत्ता ने अपनी कमजोरी ढंकना शुरु कर दिया । और हिन्दुत्व से जो जुडाव युवाओं का होना चाहिये .जो जुडाव किसानो का होना है वह तो हुआ ही नहीं । और ये गुजरात में नजर भी आ रहा है । कैसे....? देखिये गुजरात के युवा ने तो होश संभलाने के बाद से ही यहा उसीकी सत्ता देखी है जो राम मंदिर का जिक्र आते ही हिन्दु भावना को जाग्रत कर दें । पर इसी दौर में युवाओं की एस्पेरेशन उनकी सोच को किसी ने ना पूरा किया ...पूरा तो दूर ...समझा तक नहीं । तो क्या हार्दिक पटेल उसी एस्पेरेशन की उपज है । आप कह सकते हैं। क्योंकि बेहतर जिन्दगी का मतलब ये तो कतई नहीं हो सकता है कि आपके पास खूब पैसा है तो आपका जीवन अच्छा होगा । पैसा नहीं है तो ना शिक्षा । ना स्वास्थ्य । ना रोजगार । फिर पॉलिटिक्स ही एकमात्र इंस्टीट्यूशन । आप और चाय लेंगे और साथ में कुछ मंगाऊ...ना ना साथ में कुछ और नहीं पर चाय जरुर मंगवाये ...इसकी खुशबू वाकई गर्म है । गर्म यानी ...ठंडे माहौल को भी गर्म कर देती है । खैर छोड़िये इसे आर ये बताईये कि आप ये तो ठीक कह रहे है कि राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ हो चली है ....पर युवाओ का राजनीतिकरण भी इस दौर में तेजी से हुआ है । हो सकता है पर गुजरात का सच देखिये 20 लाख िसे ज्यादा बेरोजगार है । उनके भीतर के सवालों को कोई रिपरजेंट कर रहा है । कोई नहीं । इसी तरह किसानों की जो हालत है उनके हालात कैसे ठीक होंगे । इस
पर कहां किसी का ध्यान है । किसानो की जमीन सरकारी योजनाओं के तहत हथियाई भी गई । और फसल बर्बादी से लेकर कर्ज का जो बोझ किसानो पर है उसमें उसके पास युवाओ सरीखे एस्पेरेशन तो नहीं पर हर दिन जीने का संकट जरुर है। और किसान को आप सिर्फ एक किसान भर ना मानिये । ये भी सोचिये कि उसके घर के बच्चे भी बडे हो रहे होंगे । वह भी स्कूल कालेज जाना चाहते होंगे । तो कौन सा हिन्दुत्व उनके लिये मायने रखेगा । हम तो उनके बीच जाते है और उनकी मुश्किलो से जब खुद को जोडते है तो एक ही बात समझ में आती है कि युवाओं के एस्परेशन और किसानो की त्रासदी से खुद को कैसे जोडा जाये ।
तो क्या ये सरकार नहीं समझ पायी । सीधे कहे तो मोदी तो गुजरात में भी रहे और दिल्ली में भी पहुंच गये । तो जिन हालातो को आ परख रहे है ..समझ तो वह भी रहें होगें । फिर ये सवाल बीजेपी और संघ परिवार को क्या परेशान नहीं करते । अब बीजेपी या संघ परिवार के भीतर ये सवाल है या नहीं...ये तो सीधे वहीं बता पायेंगे ..लेकिन मेरी एक बात लिख लीजिये...संघ परिवार वक्त के साथ इरेलेवेंट हो जायेगेा । क्या कह रहे है आप । आप खुद संघ परिवार से ना सिर्फ जुडे है बल्कि आपकी तो पहचान भी संघ परिवार ही है । और देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा कहिये या फिर संघ तो जिस राम मंदिर के आसरे हिन्दुत्व को सुलगाता है आप उसके कर्णधार रहे है । आप जो कहे ..जो समझे...पर ये समझना होगा कि जबतक युवाओ और किसानो को वक्त की धारा के साथ नहीं जोडेगें तबतक कभी राम मंदिर तो कभी हिन्दुत्व तो कभी भारत पाकिसातन शब्द ही भारी पडेगें । और एक वक्त के बाद हम सभी इरेलेवेंट हो जायेंगे । तो ऐसे में तो आज की तारीख में नरेन्द्र मोदी शब्द ही सबसे रेलेंवेंट है । आप बीजेपी कहें या संघ परिवार या राम मंदिर ..मोदी शब्द के आगे कहां कोई टिकता है । ठीक कह रहे है आप मंहगाई, बेरोजगारी, किसान इसीलिये मायने नहीं रखते । क्योकि मोदी शब्द है । और ये भी समझ लिजिये कि इस बार गुजरात चुनाव को लेकर इतना हंगामा है फिर भी पहले चरण में दो फिसदी वोट पिछली बार की तुलना में कम पड़े । क्यों ? क्योंकि जो मोदी को वोट नहीं देना चाहते वह कांग्रेस को भी वोट देना नहीं चाहते थे । तो वोट डालने ही नहीं निकले । हिन्दुत्व फीका पड़ रहा है । तो ऐसे में आप जिस इक्नामी का सवाल उठा रहे हैं वही सवाल तो वामपंथी भी उठाते रहे है । पर उनके साथ को कोई खड़ा नहीं होता है । चुनाव दर चुनाव हार रहे हैं वामपंथी । देखिये कम्युनिस्टों का विचार सही है पर व्यवहार सही नहीं है । हिन्दुत्व को लेकर उनके भीतर अंतर्विरोध है । और भारतीय राजनीति का अनूठा सच तो यही है कि ज अंतर्विरोधो का लाभ उठा सके ..सत्ता उसी को मिल जायेगी । और मोदी फिलहाल सटीक है । और कम्युनिस्ट इसीलिये सफल नहीं है । तो फिर आप अपने कन्ट्रडिक्शन को कैसे दूर करेंगे ? इसके लिये तरीके तो रिवोल्यूशन वाले ही अपनाने होंगे । यानी ? यानी जब राम मंदिर के लिये देश के लाखों-करोडों लोग सड़क पर उतर सकते है तो फिर जिन आर्थिक हालातो को लेकर देश में युवा मन सोच रहा है और किसान मुश्किल हालातो में जी रहे है उसे भी जोडना होगा । जेपी आंदोलन के वक्त तो हिन्दुत्व या राम मंदिर या धर्म का सवाल तो नहीं था । तब भी कितनी तादाद में लोग जुटे। और अन्ना आंदोलन के वक्त भी तो करप्शन का ही सवाल था । दिल्ली में लोग देशभर से पहुंच रहे थे कि नहीं । पाटिदारो का सवाल भी आरक्षण भर से नहीं है । आरक्षण पॉलिटिक्स का शार्ट-कट रास्ता है । युवा पाटिदार इसीलिये जुटे क्योकि वह मौजूदा हालात से नाराज है । नाराजगी समाधान नहीं होती । और समाधान सिर्फ नाराजगी से नहीं आती । हा हा ..जो समझे जो कहे ...मै कुछ कह नहीं रहा हूं पर ये तो समझ रहा हूं कि आपने जो संघर्ष राम मंदिर के लिये किया .उस संघर्ष को नये तरीके से रास्ता दिखाने की जरुरत क्या नहीं आन पडी है । और गुजरात चुनाव के परिणाम क्या कोई रास्ता दिखायेगें ? मुझे तो भरोसा है गुजरात चुनाव के परिणाम से भी रास्ता निकलेगा । और हिन्दुत्व की उस परिभाषा को भी आंदोलन से गढगें जिसपर बीजेपी-संघ परिवार तक चुप्पी मारे हुये है । रुकिये रुकिये ....आप कह रहे हैं बीजेपी गुजरात में हार रही है .... । अरे आप चाय पिजिये और 18 दिसंबर का इंतजार कीजिये । इंतजार तो हम कर ही रहे है । पर क्या वाकई बीजेपी हार रही है । हमें तो नहीं लगता ...दिल्ली की पत्रकारों की ये खासियत है । वह वे बात कहेंगे नहीं जो वह चाहते है । हा हा आप ही साफ कह दिजिये ....जो हालात है उसमें बीजेपी-संघ परिवार दोनों हार रही हैं । तो क्या हम माने गुजरात चुनाव परिणाम के बाद मुनादी होगी । हा हा हा....। तो पढ़ने वाले खुद समझ लें ये शख्स कौन है । क्योंकि इस शख्स के पास अभी उम्र भी है और हिन्दुत्व या राम मंदिर के मुद्दे पर मोदी और संघ परिवार से ज्यादा साख भी।
Friday, December 8, 2017
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बीमार सरकारी इलाज और लूट पर टिका प्राइवेट इलाज ...शर्म क्यों नहीं आती ? |
तो खबर अच्छी है। दिल्ली के शालीमार बाग के जिस मैक्स हॉस्पीटल ने जीवित नवजात शिशुओं को मरा बता दिया था, उसका लाइसेंस दिल्ली सरकार ने आज रद्द कर दिया। और दो दिन पहले हरियाणा सरकार ने गुरुग्राम के उस फोर्टिस हॉस्पीटल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी, जहां इलाज ना देकर लाखों की वसूली की गई थी। और इंडियन मेडिकल एसोसियन ने बिना देर किये कह दिया कि ये तो गलत हो गया। क्योंकि गलती तो होती है और गलती होने पर लाइसेंस रद्द हो गया तब तो देश के सभी सरकारी अस्पतालों को बंद करना पडेगा। यकीनन इंडियन मेडिकल एसोशियन ने सवाल तो जायज ही उठाया कि सरकारी अस्पतालों को सरकार तब ठीक क्यों नहीं कर लेती। दो सवाल दो है। पहला, सरकार ने हेल्थ सर्विस से पल्ला क्यों झाड लिया है। दूसरा, भारत में हेल्थ सर्विस सबसे मुनाफे वाला धंधा कैसे बन गया। तो सरकार के नजरिये पर शर्म की जाये या फिर
जिन्दगी देने के नाम पर मुनाफा कमाने वाले निजी अस्पतालों पर शर्म की जाये। या मान लिया जाये कि जनता की चुनी हुई सरकारों ने ही जनता से पल्ला झाड़ कर पैसे वालों के हाथो में देश का भविष्य थमा दिया है। और उसमें हेल्थ सर्विस अव्वल है। क्योकि देश में सरकारी हॉस्पीटल की तादाद 19817 है। वही प्राइवेट अस्पतालों की तादाद 80,671 है। यानी इलाज के लिये कैसे समूचा देश ही प्राइवेट अस्पतालो पर टिका हुआ है। ये सिर्फ बड़े अस्पतालों की तादाद भर से ही नही समझा जा सकता बल्ति साढे छह लाख गांव वाले देश में सरकारी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की संख्या सिर्फ 29635 है। जबकि निजी हेल्थ सेंटरो की तादाद करीब दो लाख से ज्यादा है । यानी जनता को इलाज चाहिये और सरकार इलाज देने की स्थिति में नहीं है। या कहें इलाज के लिये सरकार ने सबकुछ निजी हाथों में सौप दिया है।
क्योंकि सरकार देश के नागरिकों पर हेल्थ सेक्टर के लिये खर्च कितना करती है। ये भी देख कर शर्म ही आयेगी। क्योंकि सरकार प्रति महीने प्रति व्यक्ति पर 92 रुपये 33 पैसे खर्च करती है। और राज्यों में सबसे बेहतर स्थिति हिमाचल की है जहा प्रति नागरिक प्रति महीने 166 रुपये 66 पैसे प्रति व्यक्ति प्रति महीने खर्च करता है। तो ये कल्पना के परे है कि देश में चुनी हुई सरकारें अपने नागरिकों के लिये कोई जिम्मेदारी लेने की स्थिति में भी है कि नहीं। क्योंकि भारत सरकार के बजट से दुगने से ज्यादा तो प्राइवेट हेल्थ सेक्टर मुनाफा कमा लेता है। हालात है क्या ये इससे भी समझा जा सकता है कि 2009 में सरकारी का बजट था 16,543 करोड करोड और प्राइवेट हेल्थ केयर का बजट रहा 1,43,000 करोड रुपये। फिर 2015 में सरकारी बजट हुआ 33150 करोड तो प्रईवेट हेल्थ केयर का बजट हो गया 5,26,500 करोड़ । 2017 में सरकार का बजट है 48,878 करोड तो प्राइवेट हेल्थ केयर बढ़कर हो गया 6,50,000 करोड़ रुपये। और जब सरकार को ही ये कहने में कोई शर्म नहीं आती कि देश में इलाज का ठेका तो पूरी तरह प्राइवेट अस्पतालों पर है और आंकड़े बताते हैं कि 70 फिसदी से ज्यादा हिन्दुस्तान इलाज के लिये प्राइवेट अस्पतालों पर टिका है। और ये सब किस तेजी से बडा है ये इससे भी समझा जा सकता है कि प्राइवेट और सरकारी सेक्टर के तहत 17 बरस पहले यानी 2000 में हिस्सेदारी 50-50 फिसदी थी। और सन 2000 में हेल्थ पर सरकारी बजट 2474 करोड था। तो प्राईवेट हेल्थ सेक्टर का बजट 50 हजार करोड का था। यानी आज जो देश के सरकारी हेल्थ सर्विस का बजट 48 हजार करोड का है 17 बरस पहले ही प्राइवेट क्षेत्र मुनाफे के लिये हैल्थ सर्विस में पैसा झोंक चुका था। तो ऐसे में मौजूदा हालात को समझें। देश के 10 नामचीन हॉस्पीटल्स चेन का टर्नओवर करीब 50 हजार करोड़ के आसापस है। यानी देश के कुल स्वास्थ्य बजट से भी ज्यादा। तो अगला सवाल यही है कि हेल्थ सर्विस को धंधा माना जाये या फेल हो चुकी सरकारो तले जनता की त्रासदी।
क्योंकि सरकार किस तरह के हेल्थ सर्विस को उपलब्ध कराती है। उसकी एक बानगी आईसीयू में पडे देश के किसी भी इलाके में किसी भी सरकारी अस्पतालो की देख लीजिये। कही अस्पताल में कुत्तों का झुंड तो कही स्टैचर तक नहीं। कही डॉक्टर के बदले प्यून ही टीका लगाते हुये। तो कही जमीन पर ही अस्पताल। कही पेड़ तले ही बच्चे को जनना। और सरकार की यही वह हेल्थ सेवा है जो हर उस शख्स को प्राइवेट अस्पतालों की तरफ ले जाती है,जिसकी जेब में जान बचाने के लिए थोड़ा भी पैसा है।और फिर शुरु होता है प्राइवेट अस्पतालों में मुनाफाखोरी का खेल क्योंकि फाइव स्टार सुविधाएं देते हुए अस्पताल सेवा भाव से कहीं आगे निकलकर लूट-खसोट के खेल में शामिल हो चुके होते हैं,जहां डॉक्टरों को कारोबार का टारगेट दिया जाता है। छोटे अस्पतालों से मरीजों को खरीदा जाता है। यानी छोटे अस्पताल जो बडे अस्पातल के लिये रेफ्रर करते है वह भी मुनाफे का धंधा हो चुका है। फिर सस्ती दवाइयों को महंगे दाम में कई-कई बार बेचा जाता है। और जिन मरीजों का इंश्योरेंस है-उन्हें पूरा का पूरा सोखा जाता है। मुश्किल इतनी भर नहीं है कि जिीसकी जेब में पैसा है इलाज उसी के लिये है । मुश्किल तो ये भी है कि अब डाक्टरो को भी सरकारी सिस्टम पर भरोसा नहीं है। क्योंकि देश में 90 फिसदी डाक्टर प्राइवेट अस्पतालों में काम करते हैं।
इंडियन मेडिकल काउसिंल के मुताबिक देश में कुल 10,22,859 रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टर है । इनमें से सिर्फ 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। तो फिर मरीजो को भी सरकारी अस्पतालो पर कितना भरोसा होगा। कौन भूल सकता है उड़ीसा के आदिवासी की उस तस्वीर को, जो कांधे पर पत्नी का शव लिये ही अस्पताल से निकल पड़ा। पर उस तस्वीर को याद कर विचलित होने से पायदा नहीं क्योंकि सरकार के पास तो हेल्थ सर्विस के लिये अधन्नी भी नही। बीते 17 बरस में सरकारी हेल्थ बजट 2472 करोड से 48,878 करोड पहुंचा। इसी दौर में प्राइवेट हेल्थ बजट 50 हजार करोड से साढ छह लाख करोड पहुंच गया ।यानी सरकारी सिस्टम बीमार कर दें और इलाज के लिये प्राईवेट अस्पताल आपकी जेब के मुताबिक जिन्दा रखे। तो बिना शर्म के ये तो कहना ही पडेगा कि सरकार जिम्मेदारी मुक्त है और प्राईवेट हेल्थ सर्विस के लिये इलाज भी मुनाफा है और मौत भी मुनाफा है। क्योंकि दिल्ली के जिस मैक्स हास्पीटल का लाइसेंस रद्द किया गया उस मैक्स ग्रुप का टर्न ओवर 17 हजार करोड पार कर चुका है। और सरकार के पास आम आदमी के सरकारी इलाज के लिये हर दिन का बजट सि 3 रुपये है।