Monday, May 28, 2018

चौथे बरस के जश्न तले चुनावी बरस में बढ़ते कदम

परसेप्शन बदल रहा है तो फिर चेहरा-संगठन कहां मायने रखेगा

चौथे बरस का जश्न आंकड़ों में गुजरा। तो क्या परसेप्शन खत्म और सफल बताने के लिये आंकड़ों के जरिए दावे। कमोवेश हर मंत्री ने दावे पेश किये कि देश में कितना काम हुआ। देश भर के अखबारो में विज्ञापन के जरिए कमोवेश हर क्षेत्र में चार बरस के दौर में सफलता के आंकड़े। तो क्या मोदी सरकार चौथे बरस में डिफेन्सिव है। यानी जो आक्रामकता 2013 में 15 अगस्त के दिन बकायदा तब के पीएम मनमोहन सिंह के लालकिले के प्रचीर से देश के नाम संबोधन के खत्म होते ही गुजरात में लालकिले का मॉडल बना कर सीएम मोदी ने भाषण देने के साथ शुरु किया, वह पहली बार 2018 में थमा है। तो क्या अब मोदी सरकार के सामने वाकई अपने कामकाज की सफलता बताने का वक्त आ गया है। कह सकते हैं, चुनावी वर्ष शुरु हो गया तो फिर पांच बरस के कामकाज का कच्छा-चिट्टा तो रखना ही होगा । पर चौथे बरस ने राजनीति की उस परिभाषा को बदलना शुरु किया है जिस पारंपरिक राजनीति को बीते चार बरस में बहलते हुये देश ने देखा । दरअसल मोदी के दौर ने उस दीवार को ढहा दिया जो जनता और राजनीतिक वर्ग को अलग करती थी। सत्ता किसी की भी रहे पर राजनीतिक तबके में एक इमानदारी रहती थी कि दूसरे पर आंच ना आये। और इस दीवार के गिरने ने उस जनता को ताकत जरुर दी जो अभी तक हर नेता से डरती थी। और मोदी सत्ता ने इसी परसेप्शन को बनाया और भोगा जहा वह ईमानदार की छवि अपने साथ समेटे रही। तो फिर गवर्नेंस का सवाल हो या किसी नीति या किसी पॉलिसी या किसी भी नारे का और उसकी एवज में जो भी कहा गया, उसे बहुसंख्य तबके ने सही माना। क्योंकि निशाने पर वह राजनीति थी। जिससे आम लोग अर्से से परेशान थे। लकीर किस महीनता से खिंची गई इसका एहसास इससे भी हो सकता है कि नोटबंदी ने राजनीतिक दलों की फंडिंग के साम्राज्य को ढहा दिया। सत्ता के इशारे पर संवैधानिक संस्थाओं ने विपक्ष की राजनीति को डरा दिया। बीते चार बरस में कॉरपोरेट समेत जितने रास्तों से राजनीतिक दलों की फंडिंग हुई उसका 89 फिसदी बीजेपी के खाते में गया। जितनी भी राजनीतिक फाइलें सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स या किसी भी संवैधानिक संस्धा के तहत खुली संयोग से उस कतार में बीजेपी के किसी नेता का नाम जिला स्तर तक भी ना आया । देश में सडक पर न्याय करने के एलान के साथ कानून को ताक पर रखकर भीडतंत्र जहा जहा सामने आया संयोग से उनमें भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई कानून करते हुये नजर नही आया । ये भी पहली बार नजर आया कि कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के नेता - मंत्री के खिलाफ दर्ज कानूनी मामलो को ही खत्म नहीं करा रहा है बल्कि अपने खिलाफ दर्ज मामलो में भी खुद को ही माफी दे रहा है और सबकुछ ऐलानिया हो रहा है । तो चौथे बरस ने दो तरह के परिवर्तन दिखाने शुरु किये । पहला , जनता का पर्सेप्शन मोदी सरकार की ताकत को आंकडों में देखने लगा । यानी सत्ता जादुई आंकडे 272 पर ही टिका है। और कर्नाटक के जादुई आंकडे के करीब पहुंचकर भी जब कुमारस्वामी सरीखे आठ मामलो के आरोपी को भी लगने लगा कि बीजेपी के साथ खडा होना भविष्य की राजनीति को खत्म करना होगा । तो फिर झटके में नया पर्सेपशन भी बनने लगा कि अब बीजेपी के साथ खडी पार्टियों में अंसतोष उभरेगा। ये सिर्फ चन्द्रबाबू नायडू या चन्द्शेखर राव के अलग होने या शिवसेना के विद्रोही मूड भर से नहीं समझा जा सकता । ना ही नीतीश कुमार का चौथे बरस नोटबंदी को लेकर सवाल खड़ा करने से उभरता है। बल्कि विपक्ष के जुडते तार तले संघर्ष के उस पैमाने से समझा जा सकता है जो पहली बार बिना पॉलिटिकेल फंड राजनीतिक संघर्ष कर रही है । तो दूसरा परिवर्तन टूटते पर्शप्सन के बीच आंकडो का सहारा लेकर अपनी सफलता दिखाने का है । यानी बीजेपी के पास मोदी सरीखा चेहरा है जिसकी कोई काट विपक्ष के किसी नेता में नहीं है । फिर भी सफलता के लिये आंकडे बताये जा रहे है । बीजेपी के पास सबसे बडा संगठन है दस करोड सदस्य पार । और बूथ से लेकर पन्ना प्रमुख तक के हालात । तो भी मंत्री दर मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष उज्जवला योजना से लेकर मुद्दा योजना के आंकडों में अपनी सफलता के चार बरस गिना रहे है तो संकेत साफ है । परसेप्शन बदल रहा है । और यही से बीजेपी के लिये खतरे की घंटी है । क्योकि मोदी सत्ता ने विपक्ष के उस राजनीतिक वर्ग के खिलाफ तो मुहिम चलायी जो फंडिग के आसरे राजनीति नये सिरे से खडा कर सकता है । पर मोदी सत्ता ने अपने ही उस परसेप्शन को बदल दिया जहा बिना पूंजी या बिना फंडिग उसकी राजनीति पाक साफ दिखायी दे । और पूंजी पर टिकी सियासत जब कर्नाटक में हार गई या हाफंती दिखी तो नया सवाल ये भी पैदा हुआ कि क्या वाकई संघर्ष करने के माद्दे का आक्सीजन विपक्ष की राजनीति को मिल गया । या फिर बीजेपी के भीतर भी चुनावी बरस में सवाल उठेगें । क्योकि संगठन हो या फंडिग या फिर चेहरा वह मायने तभी रखता है जन परसेप्शन अनुकुल हो । क्योकि 2012-13 के दौर को भी याद कर लें तो मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते परसेप्शन ने नरेन्द्र मोदी को जन्म दिया । फिर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर परसेप्शन खत्म हुआ तो बिना चेहरे ही हालात पलट गये । यानी चाहे अनचाहे चौथे बरस ने यह संदेश भी दे दिया कि जिस सोशल इंजीनियरिंग के आसरे एनडीए के गठबंधन को विस्तार मिला अब चुनावी बरस में वही सोशल इंजीनियरिंग यूपीए में शिफ्ट हो रही है। और हिन्दुत्व के एजेंडे पर बीजेपी लौटेगी तो फिर परसेप्शन हिन्दुत्व का बनेगा ना कि संगठन या चेहरे का । तो क्या आडवाणी का चेहरा और वाजपेयी के पीएम बनने के दौर को नये तरीके से संघ ने मोदी को लेकर जो प्रयोग किया उसकी उम्र पूरी हो गई है या फिर बीजेपी फिर आडवाणी युग यानी मंडल-कंमडल के दौर को नये तरीके से जीने को तैयार हो रही है । तो इंतजार कीजिये क्योंकि चौथे बरस के संकेत साफ है 2019 में या तो काग्रेस एकदम बदले हुये रुप में नजर आयेगी जहा उसका संघर्ष उसे मथ रहा है । या फिर बीजेपी सियासत के ककहरे को नये तरीके से ढाल देगी।

3 comments:

Rohit rai said...

Bahut hee lajwab aur sachhai se rubru karati lekh.parantu aam janta sachhai ko samajhne ke liye taiyaar nhi

रश्मि प्रभा... said...

http://bulletinofblog.blogspot.in/2018/05/blog-post_29.html

Mitra said...

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