1975 से लेकर 2018 तक। दर्जन भर प्रधानमंत्रियों की कतार। इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक । इमरजेन्सी से लेकर अब तक। और 43 बरस पहले आज की तारीख यानी 25 जून को ही देश पर इमरजेन्सी थोपी गई। पर इन 43 बरस में देश का विस्तार कितना हुआ। देश कितना बदल गया। और कैसे 75 की इमरजेन्सी 2018 तक पहुंचते पहुंचते अपनी परिभाषा तक बदल चुकी है, ये आज की पीढ़ी को जानना चाहिये। क्योंकि हिन्दुस्तान का एक सच ये भी है 1975 में भारत की आबादी 57 करोड़ थी और 2018 में भारत की आबादी 125 करोड पार कर चुकी है। तो इस दौर में देश में संवैधानिक व्यवस्था हो या संविधान में दर्ज हक या अधिकार की बात । वह कैसे वक्त के साथ सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगे। जो सवाल न्यायापालिका के सामने 1975 में उठे और इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को कठघरे में खड़ा कर दिया, वही सवाल अब सत्ता- व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं। तो देश भी अभ्यस्त हो चुका है। यानी 1975 के सवाल बीतते वक्त के साथ कैसे महत्व खो चुके है या फिर सिस्टम का हिस्सा बना दिये गये, इसे देश में कोई महसूस कर ही नहीं पाता है क्योंकि संविधान की जगह पार्टियो के चुनावी मेनिफेस्टो ने ले ली है। कैसे अदालत के कठघरे में खड़ी इंदिरा सत्ता 43 बरस पहले खुद को सही ठहराने के लिये कौन से प्रचार और किस तरह जनता के प्रयोजित हुजूम को हांक रही थी। और 43 बरस बाद कैसे प्रचार प्रसार के वहीं तरीके सिस्टम का हिस्सा बन गये या फिर राजनीतिक सत्ता की जरुरत बनते चले गये। और जनता अभ्यस्त होती चली गई। इस एहसास को इसलिये समझे क्योकि 1975 के बाद जन्म लेने वाले भारतीय नागरिकों की तादाद मौजूदा वक्त में दो तिहाई है । यानी 80 करोड़ लोगों को पता ही नहीं कि इमरजेन्सी होती क्या है। याद कीजिये 26 जून की सुबह 8 बजे आकाशवाणी से इंदिरा गांधी का संदेश , राष्ट्रपति ने इमरजेन्सी की घोषणा की है। इसमें घबराने की जरुरत नहीं है ..." ।
तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है । घबराने की जरुरत नहीं है । आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्रइक आये या कुछ और मुद्दे उससे पहले याद कीजिये। 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था औऱ इंदिरा गांधी ने सत्ता छोडने की जगह देश पर इमरजेन्सी थोप दी । तो 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123[ 7 ] के तहत दो मुद्दो पर इंदिरा गांधी को दोषी माना । पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओ के लिये मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिये बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना । और दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। तो अब चुनाव में क्या क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुये कोई भी सवाल तो कर ही सकता है । और इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिये झाझुमो घूस कांड भी देख लिये । मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोडो के नोट उडाने को भी परख लिया । यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिये बिजली ले जाये तो अपराध हो गया । इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये । वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी । वायुसेना के जहाज-हेलीकाप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया । चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओ से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया । तो 43 बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है । जहा धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है । हिन्दुत्व चुनावी जुमला है । सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है । क्योकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है । तो फिर अधिकारियो की कौन पूछे । फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है । हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत है । और 2014 तो रिकार्ड खर्च के लिये जाना जायेगा । जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च किया जितना 1998, 1999 , 2004 और 2009 मिलाकर खर्च हुआ उससे भी ज्यादा । फिर अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य सी बात है । आखिरी कर्नाटक विधानसबा चुनाव में ही दो हजार करोड पकड में आये जो वोटरो में बांटे जाने थे। तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है । या कहे इमरजेन्सी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैर कानूनी माने जाते थे,वही सवाल सियासी तिकडमों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे। क्योकि 12 जून को इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था । छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था । तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिये इमरजेन्सी थोप दी । फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सडक से लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफदरजंग रोड पर होती रही । उसे इतिहास में काले अक्षरो में लिखा जाता है । पर वैसी ही तिकडमें उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते बनते लोगों को अभ्यत कराते चली गई । इस पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । क्योकि याद कीजिये 20 जून 1975 । कटघरे में खडी इंदिरा गांधी के लिये काग्रेस का शक्ति प्रदर्शन । सत्ता के इशारे पर बस ट्रेन सबकुछ झोक दिया गया । चारो दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन - बस दिल्ली पहुंचने लगी ।लोगो को ट्रक्टर कार बस ट्रक में भरभरकर बोट क्लब पहुंचाया गया । पूरी सरकारी अमला जुटा था । संजय गांधी खुद समूची व्यवस्था देख रहे थे । इंदिरा की तमाम तस्वीरो से सजे 12 फुट उंचे मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती है गगनभेदी नारे गूंजने लगते है । और माइक संभालते ही इंदिरा कहती है ..""-देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे है । इन विरोधी दलो को समाचारपत्र का समर्थन प्रप्त है और तथ्यों को बिगाडने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्रप्त है । सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती हूं । सवाल राष्ट्र के हित का है ।" 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है ।आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है ।
यानी अब का दौर होता तो क्या क्या होता ये बताने की जरुरत नहीं है क्या क्या होता । कैसे सैकडो चैनलो से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हो जाते हैं । और कैसे किसी भी चुनाव रैली को सफल दिखाने के लिये ट्रेन-बस-ट्रको में भरभरकर लोगो को लाया जाता है । चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार प्रसार किसी से छुपा नहीं है । और अब याद कीजिये रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली हुई । लाखो का तादाद में लोग सिर्फ जेपी के एक एलान पर चले आये । और जेपी ने अपने भाषण मेंकहा , छात्र स्कल कालेजो से निकल आये और जेलो को भर दें । पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें। और जेपी को लोग नजरअंजाद कर दें उनके भाषण को ना सुने । रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक ना निकले । तो आकाशवाणी-दूर दर्शन पर शाम के समाचारो के बाद ये एलान किया जाता है कि आज फिल्म "बाबी '" दिखायी जीयेगी । तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिये या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिये कौन कौन सी मोहक व्यूहरचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है । सुरक्षाकर्मियो को उकसाने के लिये जेपी के खिलाफ राष्ट्द्रोह का मामला दर्ज होता है । 24 जून की रात भर 400 वारण्टो पर हस्ताक्षऱ हुये । जिसके बाद विरोधी नेताओ की गिर्फतारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे । यानी कैसे देश इमरजेन्सी की तरफ बढ रहा था और कैसे इंदिरा सत्ता एंडवांस में ही हर निर्णय ले रही थी औऱ इसमें समूची सरकारी मशानरी कैसे लग जाती है । यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे । क्योकि हर सत्ता ने हर बार कहा कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता । ये बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी ।
तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है । घबराने की जरुरत नहीं है । आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्रइक आये या कुछ और मुद्दे उससे पहले याद कीजिये। 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था औऱ इंदिरा गांधी ने सत्ता छोडने की जगह देश पर इमरजेन्सी थोप दी । तो 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123[ 7 ] के तहत दो मुद्दो पर इंदिरा गांधी को दोषी माना । पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओ के लिये मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिये बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना । और दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। तो अब चुनाव में क्या क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुये कोई भी सवाल तो कर ही सकता है । और इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिये झाझुमो घूस कांड भी देख लिये । मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोडो के नोट उडाने को भी परख लिया । यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिये बिजली ले जाये तो अपराध हो गया । इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये । वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी । वायुसेना के जहाज-हेलीकाप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया । चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओ से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया । तो 43 बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है । जहा धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है । हिन्दुत्व चुनावी जुमला है । सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है । क्योकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है । तो फिर अधिकारियो की कौन पूछे । फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है । हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत है । और 2014 तो रिकार्ड खर्च के लिये जाना जायेगा । जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च किया जितना 1998, 1999 , 2004 और 2009 मिलाकर खर्च हुआ उससे भी ज्यादा । फिर अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य सी बात है । आखिरी कर्नाटक विधानसबा चुनाव में ही दो हजार करोड पकड में आये जो वोटरो में बांटे जाने थे। तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है । या कहे इमरजेन्सी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैर कानूनी माने जाते थे,वही सवाल सियासी तिकडमों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे। क्योकि 12 जून को इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था । छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था । तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिये इमरजेन्सी थोप दी । फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सडक से लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफदरजंग रोड पर होती रही । उसे इतिहास में काले अक्षरो में लिखा जाता है । पर वैसी ही तिकडमें उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते बनते लोगों को अभ्यत कराते चली गई । इस पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । क्योकि याद कीजिये 20 जून 1975 । कटघरे में खडी इंदिरा गांधी के लिये काग्रेस का शक्ति प्रदर्शन । सत्ता के इशारे पर बस ट्रेन सबकुछ झोक दिया गया । चारो दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन - बस दिल्ली पहुंचने लगी ।लोगो को ट्रक्टर कार बस ट्रक में भरभरकर बोट क्लब पहुंचाया गया । पूरी सरकारी अमला जुटा था । संजय गांधी खुद समूची व्यवस्था देख रहे थे । इंदिरा की तमाम तस्वीरो से सजे 12 फुट उंचे मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती है गगनभेदी नारे गूंजने लगते है । और माइक संभालते ही इंदिरा कहती है ..""-देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे है । इन विरोधी दलो को समाचारपत्र का समर्थन प्रप्त है और तथ्यों को बिगाडने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्रप्त है । सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती हूं । सवाल राष्ट्र के हित का है ।" 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है ।आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है ।
यानी अब का दौर होता तो क्या क्या होता ये बताने की जरुरत नहीं है क्या क्या होता । कैसे सैकडो चैनलो से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हो जाते हैं । और कैसे किसी भी चुनाव रैली को सफल दिखाने के लिये ट्रेन-बस-ट्रको में भरभरकर लोगो को लाया जाता है । चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार प्रसार किसी से छुपा नहीं है । और अब याद कीजिये रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली हुई । लाखो का तादाद में लोग सिर्फ जेपी के एक एलान पर चले आये । और जेपी ने अपने भाषण मेंकहा , छात्र स्कल कालेजो से निकल आये और जेलो को भर दें । पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें। और जेपी को लोग नजरअंजाद कर दें उनके भाषण को ना सुने । रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक ना निकले । तो आकाशवाणी-दूर दर्शन पर शाम के समाचारो के बाद ये एलान किया जाता है कि आज फिल्म "बाबी '" दिखायी जीयेगी । तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिये या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिये कौन कौन सी मोहक व्यूहरचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है । सुरक्षाकर्मियो को उकसाने के लिये जेपी के खिलाफ राष्ट्द्रोह का मामला दर्ज होता है । 24 जून की रात भर 400 वारण्टो पर हस्ताक्षऱ हुये । जिसके बाद विरोधी नेताओ की गिर्फतारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे । यानी कैसे देश इमरजेन्सी की तरफ बढ रहा था और कैसे इंदिरा सत्ता एंडवांस में ही हर निर्णय ले रही थी औऱ इसमें समूची सरकारी मशानरी कैसे लग जाती है । यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे । क्योकि हर सत्ता ने हर बार कहा कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता । ये बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी ।
11 comments:
बिल्कुल सही कहा सर आप ने
"हर साल की यही कहानी"
मुंबई मुंबई पानी है
हर साल की यही कहानी है,
जल जमाव है, हर जगह
पर BMC की मनमानी है,
जब जान चली जाती लोगो की
फ़ीर याद आती खामि है,
मुंबई मुंबई पानी है
हर साल की यही कहानी है।
थम गयी मुम्बई,की आवाजाही
बन्द पड़ी बस ट्रैन और गाड़ी है,
मुंबई मुंबई पानी है
हर साल की यही कहानी है,
मा बोलती रही बेटे से
मत जा कॉलेज और स्कूल,
बाहर धूल भरी आंधी है
बेटा बोला , देर हो गयी मा
आज मेरे इम्तेहां की बारी है,
जब देर रात तक , न लौटा घर
फ़ीर मा की आँखे भर आती है
मुंबई मुंबई पानी है
हर साल की यही कहानी है।
Name- Azad Rampravesh sharma
Class- Bsc sy (cs)
College-vpm rz shah college mulund
Sir i wrote a poem i request to you You should be show poetry with your Mumbai rain report.
Sir master strok ab q nahi YouTube me uplod karte zarur kijiye
2019 चुनाव का ऐसा परिणाम आएगा की भाजपा को ढूंढने वाले को 15 लाख का इनाम दिया जाएगा।
मैं भाजपा के खिलाफ इसलिए पोस्ट डालता हूँ
क्योंकि आने वाली पीढ़ी के बच्चे मुझसे ये न कहें कि जब देश लुट रहा था तब आप क्या कर रहे थे....
signal problem ka kuch kijiye sir , masterstroke me hi hi problem kYu....
ajadi ke baad ka samay hai na jo uska jyada jikr kiya kare
Sir, we are not able to see master stroke since last week because of poor signal.. but every other channel during 9-10 pm runs fine.. even abp runs fine but just during your show it shows poor signal.. something is fishy .. plz do look into it.. Jai hind
You are an average journalist (If i may call you one).
Your pronunciation of hindi language is PATHETIC, You pronounce hazaar(Thousand) as hajaar and zyada(More) as jyaada and the list of such wrongly pronounce words and sentences is endless.
I wonder how can you label yourself as a journalist. you lack stability as you keep hoping from one channel to another.
I hate your style of presentation and knowledge of hindi speaking skill, you must first learn proper hindi.you are an average anchor.
Keep it sir we are with you always through thick and thin.
गजब है प्रसून जी। आप के लेख पड़ते पड़ते लग रहा था कि आप खुद उसका उच्चारण कर रहे हैं। वही जज़्बा, वही अंदाज़, कैसे अपने शब्दों में ले आते हैं। आज आप का लेख पढ़ लगा कि वाकई कितना अभयस्त हो गए है हम। कैसे ये नेता कानून में घुस कर दीमक की तरह चाट गए सब कानून की किताबें। रह गया पढ़ने समझने को सिर्फ कतरन वो भी वो जो उपलब्ध करवाया गया। याद है वो दिन जब किसी रेल गाड़ी का एक्सीडेंट होता था तब दिल्ही में काबिज रेल मंत्री अपनी जिम्मेदारी मान इस्तीफा दे देते थे। कुछ वर्ष पहले भी हमने घोटालो के कारण सरकार बदली। आज जो घोटाले हो रहे हैं उसको अधिकारी द्वारा किया घोटाला बता नेता अपनी पीठ थप थपा रहा है। आगे चल किसी नेता को जिम्मेदार न ठहराया जाएगा और ये सब नेता अपने रसूक को बचाये घूमेंगे। नोटबन्दी में हुए लाखो करोड़ो के घोटाले को कैसे बैंक कर्मचारियों पर थोप दिया गया। किया वित्तमंत्री को इस्तीफा नही देना चाहिए था। लाखो करोड़ो के जाली नोट बैंको में जमा हो गए और उन जाली नोटों पर बैंक आज ब्याज भी दे रही है। आज किसी नेता पर कोर्ट कोई कानून नही समझाता। किसी को अपराध बोध नही करवाया जाता और असल मे दोषी तो हम हैं , मैं हूँ जो इन बातों को नज़रअंदाज़ कर अपने प्रिय नेता के नाम की माला जाप्ता रहता हूँ।
आज अहसास हुआ आप को कियूं छोड़नी पड़ी ABP न्यूज़। कैसे कोई सत्ताधारी बर्दास्त कर सकता है कि उसके द्वारा किया जा रहा अपराध कोई आम जनता या एक मामूली जॉर्नलिस्ट उजागर करें। अरे बंधुवा मजदूर हो वही रहो, ये समझाने का यही तरीका इस्तेमाल कर सकते हैं वो।
पर आप निडर रहें, आज ही नही आने वाले तमाम सालों तक इसी प्रकार निडरता से जनता को इन नेताओं की हकीकत बताते रहें। ये भी आजादी में हिस्सा लेने का एक माध्यम है। भगवान आप को शक्ति प्रदान करें। जय हिंद जय भारत।
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