आजादी के 71 बरस पूरे होंगे और इस दौर में भी कोई ये कहे , हमें चाहिये आजादी । या फिर कोई पूछे, कितनी है आजादी। या फिर कानून का राज है कि नहीं। या फिर भीडतंत्र ही न्यायिक तंत्र हो जाए। और संविधान की शपथ लेकर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदो में बैठी सत्ता कहे भीडतंत्र की जिम्मेदारी हमारी कहा वह तो अलग अलग राज्यों में संविधान की शपथ लेकर चल रही सरकारों की है। यानी संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी भीड़ का ही हिस्सा लगे। संवैधानिक संस्थायें बेमानी लगने लगे और राजनीतिक सत्ता की सबकुछ हो जाये । तो कोई भी परिभाषा या सभी परिभाषा मिलकर जिस आजादी का जिक्र आजादी के 71 बरस में हो रहा है क्या वह डराने वाली है या एक ऐसी उन्मुक्त्ता है जिसे लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है। और लोकतंत्र चुनावी सियासत की मुठ्ठी में कुछ इस तरह कैद हो चुका है, जिस आवाम को 71 बरस पहले आजादी मिली वही अवाम अब अपने एक वोट के आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में खुद को आजाद मानने का जश्न मनाती है। लालकिले के प्राचीर से देश के नाम संदेश को सुनकर गदगद हो जाती है । और अगली सुबह से सिस्टम फिर वही सवाल पूछता है कितनी है आजादी। या देश के कानों में नारे रेंगते हैं, हमें चाहिये आजादी । या कानून से बेखौफ भीड़ कहती है हम हत्या करेंगे-यही आजादी है । बात ये नहीं है कि पहली और शायद आखिरी बार 1975 में आपातकाल लगा तो संविधान से मिले नागरिकों के हक सस्पेंड कर दिये गये । बात ये भी नहीं है कि संविधान जो अधिकार एक आम नागरिक को देता है वह उसे कितना मिल रहा है या फिर अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल तो हर दौर में अलग अलग तरीके से बार बार उठता ही है । सवाल ये है कि बीते 70 बरस के दौर में धीरे धीरे हर सत्ता ने संविधान को ही धीरे धीरे इतना कुंद कर दिया कि 71 बरस बाद ये सवाल उठने लगे कि संविधान लागू होता कहां है और संविधान की शपथ लेकर आजादी का सुकून देने वाली राजनीतिक सत्ता ही संविधान हो गई और तमाम संवैधानिक संस्थान सत्ता के गुलाम हो गये । सुप्रीम कोर्ट के भीतर से आवाज आई लोकतंत्र खतरे में है।
संसद के भीतर से अवाज आई सत्ता को अपने अपराध का एहसास है इसलिये सत्ता के लिये सत्ता कही तक भी जा सकती है। लोकतंत्र को चुनाव के नाम पर जिन्दा रखे चुनाव आयोग को संसद के भीतर सत्ता का गुलाम करार देने में कोई हिचकिचाहट विपक्ष को नहीं होती। तो चलिये सिलसिला अतीत से शुरु करें। बेहद महीन लकीर है कि आखिर क्यों लोहिया संसद में नेहरु की रईसी पर सवाल उठाते हैं। देश में असमानता या पीएम की रईसी तले पहली बार संसद के भीतर समाजवादी नारा लगा कर तीन आना बनाम सोलह आना की बहस छेड़ते है । क्यों दस बरस बाद वहीं जयप्रकाश नारायण कांग्रेस छोड इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के खिलाफ जन आंदोलन की अगुवाई करते हुये नजर आते हैं। क्यों उस दौर में राजनीतिक सत्ता के करप्शन को ही संस्थानिक बना देने के खिलाफ नवयुवको से स्कूल कालेज छोड़ कर जेल भर देने और सेना के जवान-सिपाहियों तक से कहने से नहीं हिचकते की सत्ता के आदेशों को ना माने । क्यों जनता के गुस्से से निकली जनता पार्टी महज दो बरस में लडखड़ा जाती है । क्यों आपातकाल लगानी वाली इंदिरा फिर सत्ता में लौट आती है । क्यों एतिहासिक बहुमत बोफोर्स घोटले तले पांच बरस भी चल नहीं पाता। क्यों बोफोर्स सिर्फ सत्ता पाने का हथकंडा मान लिया जाता है। क्यों आरक्षण और राम मंदिर सत्ता पाने के ढाल के तौर पर ही काम करता है। और क्यों 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट देश के सामने नहीं आ पाती जो खुले तौर पर बताती है कि कैसे सत्ता किसी माफिया तरह काम करती है। कैसे पूंजी का गठजोड सत्ता तक पहुंचने के लिये माफिया नैक्सेस की तरह काम करता है। कैसे क्रोनी कैपटलिज्म ही सत्ता चलाता है । कैसे 84 में एक भारी पेड़ गिरता है जो जमीन हिलाने के लिये सिखों का कत्लेआम देश इंदिरा की हत्या के सामने खारिज करता दिखायी देता है। कैसे गोधरा के गर्भ से निकले दंगे सियासत को नई परिभाषा दे देते हैं। और राजधर्म की नई परिभाषा खून लगे हाथो में सत्ता की डोर थमा कर न्याय मान लेते हैं। क्यों अन्ना आंदोलन के वक्त देश के नागरिकों को लगता है की पीएम सरीखे ऊपरी पदों पर बैठे सत्ताधारियों के करप्ट होने पर भी निगरानी के लिये लोकपाल होना चाहिये । और क्यों लोकपाल के नाम पर दो बरस तक सुप्रीम कोर्ट को सत्ता अंगूठा दिखाती रहती हैा चार बरस तक सत्ता कालेधन से लेकर कारपोरेट सुख में डुबकी लगाती नजर आती है पर सबकुछ सामान्य सा लगता है । और धीरे धीरे आाजद भारत के 71 बरस के सफर के बाद ये सच भी देश के भीतर बेचैनी पैदा नहीं करता कि 9 राज्यो में 27 लोगो की हत्या सिर्फ इसलिये हो जाती है कि कहीं गौ वध ना हो जाये या फिर कोई बच्चा चुरा ना ले जाये । और कानों की फुसफुसाहट से लेकर सोशल मीडिया के जरीये ऐसी जहरीली हवा उड़ती है कि कोई सोचता ही नहीं कि देश में एक संविधान भी है। कानून भी कोई चीज होती है। पुलिस प्रशासन की भी कोई जिम्मेदारी है । और चाहे अनचाहे हत्या भी विचारधारा का हिस्सा बनती हुई दिखायी देती है । सुप्रीम कोर्ट संसद से कहता है कड़ा कानून बनाये और कानून बनाने वाले केन्द्रीय मंत्री कहीं हत्यारों को ही माला पहनाते नजर आते हैं या फिर हिंसा फैलाने वालो के घर पहुंचकर धर्म का पाठ करने लगते हैं।
जो कल तक अपराध था वह सामान्य घटना लगने लगती है । लगता है कि इस अपराध में शामिल ना होगें तो मारे जायेंगे या फिर अपराधी होकर ही सत्ता मिल सकती है क्योंकि देश के भीतर अभी तक के जो सामाजिक आर्थिक हालात रहे उसके लिये जिम्मेदार भी सत्ता रही और अब खुद न्याय करते हुये अपराधी भी बन जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि ये सत्ता का न्याय है । और इस "न्यायतंत्र " में बिना चेहरों के अपराध में भागीदार बनाकर सत्ता ही न्याय कर रही है । और सत्ता ही इस संदेश को देती है कि 70 बरस में तुम्हे क्या मिला , बलात्कार , हत्या , लूटपाट सामान्य सी घटना बना दी गई । दोषियों को सजा मिलनी भी बंद हो गई । अपराध करने वाले 70 से 80 फीसदी छुटने लगे । कन्विक्शन रेट घट कर औसत 27 से 21 फिसदी हो गया । तो समाज के भीतर अपराध सामान्य सी घटना है । और अपराध की परिभाषा बदलती है तो चकाचौंध पाले देश में इनकम-टैक्स के दफ्तर या ईडी नया थाना बन जाता है । जुबां पर सीबीआई की जांच भी सामान्य सी घटना होती है । सीवीसी , सीएजी , चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई मायने नहीं रखता । तो ये सवाल किसी भी आम नागरिक को डराने लगता है कि वह कितना स्वतंत्र है । न्याय की आस संविधान में लिखे शब्दो पर भारी प़डती दिखायी देती है । तो फिर जो ताकतवर होगा उसी के अनुरुप देश चलेगा । और ताकतवर होने का मतलब अगर चुनाव जीत कर सत्ता में आना होगा तो फिर सत्ता कैसे जीता जाता है समूचा तंत्र इसी में लगा रहेगा । और चुनाव जीतने या जिताने के काम को ही सबसे महत्वपूर्ण माना भी जायेगा और बना भी दिया जायेगा । और जितने वाला अपराधी हो तो भी फर्क नहीं पडता । हारने वाला संविधान का हवाला देते रहे तो भी फर्क नहीं पडता । यानी आजादी पर बंदिश नहीं है पर आजादी की परिभाषा ही बदल दी गई । यानी ये सवाल मायने रहेगा ही नहीं कि आजादी होती क्या है । गणतंत्र होने का मतलब होता क्या । निजी तौर पर आजादी के मायने बदलेंगे और देश के तौर पर आजादी एक सवाल होगा । जिसे परिभाषित करने का अधिकार राजनीति सत्ता कोहोगा । क्योकि देश में एकमात्र संस्था राजनीति ही तो है और देश की पहचान पीएम से होती है और राज्य की पहचान सीएम से । यानी आजादी का आधुनिक सुकून यही है कि 2019 के चुनाव आजाद सत्ता और गुलाम विपक्ष के नारे तले होंगे । फिर 2024 में यही नारे उलट जायेंगे । आज आजाद होने वाले तब गुलाम हो जायेगें । आज के गुलाम तब आजाद हो जायेंगे। तो आजादी महज अभिव्यक्त करना या करते हुए दिखना भर नहीं होता । बल्कि आजादी किसी का जिन्दगी जीने और जीने के लिये मिलने वाली उस स्वतंत्रता का एहसास है, जहा किसी पर निर्भर होने या हक के लिये गुहार लगाने की जरुरत ना पड़े।
संयोग से आजादी के 71 बरस बाद यही स्वतंत्रता छिनी गई है और सत्ता ने खुद पर हर नागरिक को निर्भर कर लिया है । जिसका असर है कि शिक्षा-स्वास्थ्य से लेकर हर कार्य तक में कोई लकीर है ही नहीं । तो रिसर्च स्कालर पर कोई बिना पढा लिखा राजनीतिक लुपंन भी हावी हो सकता है और कानून संभालने वाली संस्थाओ पर भीडतंत्र का न्याय भी हावी हो सकता है । मंत्री अपराधियो को माला भी पहना सकता है और मंत्री सोशल मीडिया के लुंपन ग्रूप से ट्रोल भी हो सकता है । और इस अंधी गली में सिर्फ ये एहसास होता है कि सत्ता की लगाम किन हाथो ने थाम रखी है । वही सिस्टम है वहीं संविधान । वही लोकतंत्र का चेहरा है । वहीं आजाद भारत का सपना है ।
Wednesday, August 8, 2018
71 बरस बाद भी क्यों लगते हैं, "हमें चाहिए आजादी" के नारे
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:43 PM
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9 comments:
when will you come back and where, please tell us. we need you master. without you abp news should change name to madam stroke or modi stroke.
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा किधर को गई
अभी चराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले-चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
Please write the blogs regulary so that gap of loosing "Master Stroke" will be filled to some extent.
Stay strong, their time is up!!
Politics is the last destination of the bustards.
चीजें बद से बदतर होती जाएगी और हम बस झंडे उठाकर आजादी का जश्न मनाते रह जाएंगे ....
सफर तो अभी शुरू हुआ है
किसी एक चीज की रट लोगों के दिमाग में इस तरह से डाल दि है कि कोई भी सही चीज भी गलत लगती है
Hello Bajpai Ji,
I need to contact you. I can not write everything here.
Please write to me at raviindiakk2015@gmail.com
Hope !
No one cares hm apni halaat ke khud jimmedaar hai
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