" ना तो हम रुके हुये थे और ना ही आपत्तिजनक अवस्था में थे। हमारी ओर से कोई उकसावा नहीं था मगर कास्टेबल ने गोली चला दी। " ये लखनऊ की सना खान का बयान है, जो कार में ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठी थी । और ड्राइवर की सीट पर उनका बॉस विवेक तिवारी बैठा हुआ था । दोनो ही एप्पल कंपनी में काम करने वाले प्रोफेनल्स हैं। और शाम ढलने के बाद अपनी कंपनी के एक कार्यक्रम से रात होने पर निकले तो किसी फिल्मी अंदाज में पुलिस कास्टेबल ने सामने से आकर सर्विस रिवाल्वर से गोली चली दी । जो कार के शीशे को भेदते हुये विवाक तिवारी के चेहरे के ठीक नीचे ठोडी में जा फंसी । और कैसे सामने मौत नाचती है और कैसे पुलिस हत्या कर देती है इसे अपने बॉस की हत्या के 30 घंटे बाद पुलिस की इजाजत मिलने पर सना खान ने कुछ यूं बताया , 'हम कार्यक्रम से निकले और सर ने कहा कि वह मुझे घर छोड़ देंगे।
मकदूमपुर पुलिस पोस्ट के पास बायीं और से दो पुलिसवाले कार के बराबर आकर चलने लगे। वे चिल्लाये रुको । मगर सर गाडी चलाते रहे क्योंकि रात का समय़ था। उन्हें मेरी सुरक्षा की चिंता थी। पर तभी इनमें से एक कास्टेबल बाईक से उतरा और लाठी से गाड़ी पर वार करना शुरु कर दिया। मगर सर ने कार नहीं रोकी। तो दूसरे ने गाडी को ओवरटेक किया और 200 मीटर आगे जाने के बाद सडक के बीच में बाईक रोक दी और हमें रुकने को कहा। हमारी कार कम गति से आगे बढ़ रही थी और फिर गाड़ी रोक दी। तभी कास्टेबल ने अपनी बंदूक निकाली और सामने से सर पर गोली चला दी। सर ने गाडी पर नियंत्रण खो दिया और वह आगे चलकर खंभे से टकरा कर रुक गयी। मैंने ट्रक ड्राईवर को रोकने की कोशिश की । बाद में गाडी पर गश्त लगा रहे पुलिस कर्मियों ने हमें देखा और उनसे सर को अस्पाताल ले जाने की गुजारिश की।' और उसके बाद जो हुआ वह बताने के लिये सना भी सामने ना आ सके इसकी व्यवस्था भी शुरुआती घंटों में पुलिस ने ही की। और जब सना को पुलिस ने इजाजत दे दी कि वह बता सकती है कि रात हुआ क्या तो झटके में योगी सिस्टम तार तार हो गया। उसके बाद लगा यही कि किस किस के घर में जाकर अब पूछा जाये कि कि उस रात क्या हुआ था जब किसी का बेटा, किसी का पति , किसी का बाप पुलिस इनकाउंटर में मारा जा रहा था। और खाकी वर्दी ये कहने से नहीं हिचक रही थी, अपराधी थे मारे गये। फेहरिस्त वाकई लंबी है जो एनकाउंटर में मारे गये। नामों के आसरे टटोलियागा तो यूपी के 21 नामो पर गौर करना होगा। मसलन गुरमित, नौशाद, सरवर, इकराम, नदीम , शमशाद, जान मोहम्मद, फुरकान , मंसूर, वसीम , विकास, सुमित , नूर मोहम्मद, शमीम, शब्बीर, बग्गा सिंह , मुकेश राजभर , अकबर, रेहान, विकास। ये वो नाम है तो बीते डेढ बरस के दौर में एनकाउंटर में मारे गये। तो जो एनकाउंटर में मारे गये और एनकाउंटर में मारे गये लोगो के कमोवेश हर घर के भीतर आज भी ऐसा सन्नाटा है कि कोई बोल नहीं पाता। 12 मामले अदालत की चौखट पर हैं। पर गवाह गायब हैं। चश्मदीद नदारद हैं। कौन सामने आये। कौन कहे। पर सना के तो अपनी बगल की सीट पर मौत देखी। कानून के रखवालों के उस अंदाज को देखा जो कानून में हाथ लेकर हत्या करने के लिये बेखौफ थे । खाकी वर्दी के उस मिजाज को समझा जो हत्या करने पर इस लिये आमादा थी क्योकि हत्या को एनकाउंटर कहकर छाती पर तमगा लगाना फितरत हो चुकी है। वैसे ये पहली बार हुआ हो ये भी नहीं है ।
लेकिन पहली बार हत्या करने का लाइसेंस जिस तरह सत्ता ने पुलिस महकमे को यूपी में दे दिया है उसमें एनकाउंटर हत्या हो नहीं सकती और हत्या को एनकाउंटर बताना बेहद आसान हो चला है । तो क्या बहस सिर्फ इसी कठघरे में आकर रुक जायेगी कि पुलिस से भी गलती हो डजाती है । क्योकि हत्या तो देहरादून में 3 जुलाई 2009 को भी हुई थी । जब लाडपुर के जंगलो में पुलिस ने रणवीर नाम के एक छात्र के साथ खूनी खेल खेला था । हत्या तो दिल्ली के कनाटप्लेस में भी हो चुकी है।
अदालत ने पुलिस को हत्यारा कहने में भी हिचक नहीं दिखायी । लेकिन तबतक अदालत में सुनवाई के दौरान किसी अधिकारी ने ये नहीं कहा था कि इनकाउंटर पुलिस का हुनर हो चुका है । लेकिन यूपी के योगी माडल में ही जब अनकाउंटर के बूते प्रमोशन का लालच सिपाही-हवलदार-दारोगा-कास्टेबल को दिया जा चूका है तो सिपाही के दिमाग में इनकाउंटर के अलावे और क्या जायेगा । और नतीजतन खुले तौर पर हत्या करते वक्त भी किसी सिपाही के हाथ क्यो कापंगे जबकि उसको पता है कि सत्ता में अपराधियो के भरमार है । पूरी राजनीति अपराधियों से पटा पड़ा है। तो ऐसे में सिपाही को अपराधी कहकर कैसे सियासत होगी और कौन राजनीति करेगा । यानी खुद अपने उपर से आपराधिक मामलों को कैबिनेट के जरीये जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खत्म करा लेते है। जबकि चुनावी हलफनामे में आईपीसी की सात धाराओ के साथ तीन मुदकमें दर्ज होने का जिक्र था। पर सीएम ही जब अदालती कार्रवाई के रास्ते न्याय को खारिज करते हुये अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करता हो तो फिर जिस कास्टेबल ने गोली चलायी , हत्या की उस खाकी वर्दी को बचाने का काम कौन सी सत्ता नहीं करेगी। क्योंकि सत्ता का एक सच तो ये भी है कि दस कैबिनेट मंत्री और 6 राज्य स्तर के मंत्रियों पर आईपीसी की धाराओ के तहत मामले दर्ज है । और ऐसा भी नहीं है कि दूसरी तरफ विपक्ष के सत्ता में रहने के दौर उसके कैबिनेट और राज्य स्तर के मंत्रियों के खिलाफ आईपीसी की आपराधिक धारायें नहीं थीं। डेढ दर्जन मंत्री तब भी खूनी दाग लिये सत्ता में थे। तो फिर हत्या करने वाले पुलिस का मामला अदालत में जाये या फिर पूरे मामले को सीबीआई को सौप दिया जाये। अपराधी होगा कौन। सजा मिलेगी किसे । और कौन गारटी लेगा कि अब इस तरह की हत्या नहीं होगी । दरअसल लकउन के मिजाज में अब मुस्कुराना शब्द ठहाके लेने में बदल चुका है । और कल तो मुसकुराते हुये आप अदब के शहर लखनऊ में होने का गुरु पाल सकते थे। लेकिन अब ठहाके लगाते हुये हत्या करना और हत्या कर और जोर से ठहाके लगाने वाला शहर लखनऊ हो चला है। बस जहन में ये बसा लीजिये कि लखनऊ की पहचान वाजिद अली शाह से नही योगी आदित्यनाथ से है।
Sunday, September 30, 2018
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मुस्कुराना छोड़ ठहाका लगाइए आप खूनी लखनऊ में हैं |
Monday, September 17, 2018
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मोदी जी जन्मदिन की बधाई....2019 आप जीत रहे हैं! |
पहली तस्वीर....लुटियन्स दिल्ली
वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरीये पिछले दिनो प्रधानमंत्री जब सचिवों से सवाल जवाब कर रहे थे, तब किसी सवाल पर एक सचिव अटक गये। और अटके सवाल पर कोई सीधा जवाब जब सचिव महोदय नही दे पाये तो प्रधानमंत्री ने कुछ उखड़कर कहा आप ऐसे ही जवाब 2019 में हमारे चुनाव जीतने के बाद भी देते रह जायेंगे क्या? इस वीडियो कांन्फ्रेसिंग में मौजूद एक दूसरे सचिव ने जब जानकारी देते हुये ये कहा कि , "जिस अंदाज में प्रधानमंत्री ने 2019 की जीत का जिक्र किया उसमें हर किसी को लगा कि 2019 का चुनाव सरकार के लिये या कहे पीएम के लिये गैर महत्वपूर्ण है । " यानी देश में जिस तरह की बहस 2019 को लेकर चल निकली है उसमें कांग्रेस या विपक्ष क्या क्या कयास लगा रहा है। वह सब वीडियो कांन्फ्रेसिंग के वक्त काफूर सी हो गई।
दूसरी तस्वीर...बीजेपी हेडक्वार्टर
भाई साहब जिस तरह रिलायंस ने अपनी नेटवर्किग के जरीये देश भर में सर्वे किया है और हाईकमान को जानकारी दी है कि बीजेपी 2019 में तीन प्लस सीट जीत रही है । उसके बाद से तो हर नेता की या ता बांछें खिली हुई है या हर नेता घबराया हुआ है। घबराया हुआ क्यों? क्योकि अध्यक्ष जी जिससे मिलते है, साफ कहते हैं, हम तो तीन सौ से ज्यादा सीटे जीत जायेंगे पर आप अपनी सीट की सोचिये? तो बीजेपी के सांसद ने ये बताते हुये कहा, अब समझ में नहीं आ रहा है कि जब तीन सौ सीट जीत ही रहे हैं तो फिर हमारी ही सीट गडबड़ क्यों है। और कमोवेश हर सांसद के पास यही मैसेज है कि तीन सौ सीट जीत रहे हैं पर आप अपनी सीट देखिये। तो टिकट मिल रहा है या नहीं। या फिर टिकट से पहले खुद का आत्मचिंतन करना है। या फिर जीत तय करने के इंतजाम करने हैं।
तीसरी तस्वीर .... बनारस
बीते चार बरस में चार हाथ का पुल बना है। पर चारसौ हाथ के गड्डे शहर में हो गये । काशी-विश्वानाथ मंदिर के रास्ते दुकान-मकान सब उजाड़ दिये गये। शिक्षा बची नहीं। रोजगार खत्म हो गया। सड़क से लेकर गंगा घाट का हाल और खराब हो चला है। करें क्या समझ नहीं आता कि कोई कहता है कलाकार हैं। कोई कहता है तानाशाह है। कोई कुछ कहता है तो कही से कुछ और बात निकल कर आती है। पर करें क्या। आप ही बताओ। तो प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में हवाईअड्डे से लेकर बीच शहर नागरी सभागार और काशी-विश्वनाथ मंदिर से लेकर गोलडन होटल के नीचले तल में बैठे विपक्ष की राजनीति करते हर दल के सामने सवाल यही है। करें क्या । और बनारस के किसी भी कोने में सारी बात घूम फिर कर अटक जाती प्रधानमंत्री पर है। यानी संकटमोचक के शहर में सब संकट के दाता को निपटाये कैसे? बहुत घोखा हो गया । पर करें क्या।तो सत्ता की नौकरशाही , सत्ताधारी नेता और सत्ता का प्रतीक बनारस ही जिस मनोविज्ञान में जा फंसा है उसमें कोई भी पहली नजर में प्रधानमंत्री मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये तो दे ही सकता है कि, " कण कण में जब आप है और विपक्ष के पास कोई पैालेटिकल नैरेटिव है ही नहीं फिर 2019 तो आप जीत ही चुके हैं। "
सच यही है देश में बहुसंख्य तबका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 2019 में हराना चाहता है । और यही बहुसंख्यक तबका खुद को इतना बेबस और असहाय महसूस र रहा है कि उसके पास संकट बताने का तो भंडार है पर संकट से निजात कैसे पाये इसका कोई मंत्र नहीं है । कोई तस्वीर नहीं है । किसी पर भरोसा नहीं है । और बहुसंख्यक होकर भी अपने अपने दायरे में सभी इतने अकेले है कि कोई छोटी सी किरण उसे नजर आ जाये तो वह उसे सूरज मान कर या बनाने की चाह में उसकी तरफ खिचता आता है । पर दूसरी तरफ कांग्रेस के पास कोई पॉलिटिकल नैरेटिव नहीं है । क्षत्रप कांग्रेस की बिना नैरेटिव राजनीति का लाभ अपनी सत्ता की जमीन मजबूत करने के लिये उठाने के सौदेबाजी बोल रहे है । और इस मनोविज्ञान का लाभ मोदी-शाह की जोडी ने इस तरह उठाया है बिना जमीन ही 2019 की जीत का महल हर दिमाग में खड़ा कर दिया है। नौकरशाही में वही खुश है जो डायरेक्ट बेनेफेशरी फंड के निस्तारण से जुडा है। वहीं बीजेपी नेता खुश हैं, जिसको टिकट मिलेगा या जिसके पांव बीजेपी हेडक्वार्टर की पांचवी मंजिल तक पहुंच पाते हो । जनता वही खुश है जो मान बैठे है 2019 में मौजूदा हालात से निजात मिल जायेगी। विपक्ष इसी खुशी से सराबोर है जनता परेशान है तो फिर निर्णय वहीं दें। और परेशान जनता के नाम पर राजनीतिक गठबंधन में सीटों की सौदेबाजी का खुला खेल तो होना ही है। होगा ही। नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन पर 2019 में जीत की बधाई देने के लिये बात कही से भी शुरु कर सकते है । क्योकि यूपी की जमीन जो काफी कुछ तय करेगी , वहा समाजवादी अखिलेश यादव संघर्ष की जगह अगले तीन महीने खामोश रहना चाहते है । क्यों ? क्योकि पता नहीं किस मामले में जेल हो जाय़े या फिर जो औरा यूवा
समाजवादी का बना कर खुद ही जीये जा रहे है वह एक सरकारी दबिश में टूट ना जाये । मायावती सिवाय अपने वोट बैंक को दूसरो के खिलाफ उकसाने वाले हालात बनाकर सत्ता के खिलाफ खामोशी बरतते हुये विपक्ष की एकता में अपनी ताकत को सबसे ज्यादा दिखाकर कभी सत्ता को मोहती है। तो कभी विपक्ष को चुनौती देती हैं। यानी मोदी का नाम जपते हुये मोदी की किसी योजना के खिलाफ सड़क पर आकर संघर्ष करने की ताकत तो दूर की गोटी है। बंद कमरे में भी नही कहती। क्योंकि पता नहीं कब दीवारों के कान लग जाये और बाहर सत्तानुकुल सिस्टम घर में घुस कर दबोच ले। क्योंकि कौन सोच सकता था जिस दौर में नक्सलवाद सबसे कमजोर है, उस दौर में शहर दर शहर गैर राजनीतिक तबका ये कहने से नहीं चूक रहा है कि "मी टू नक्सल"। और जिस कांग्रेस ने नक्सवाद को लेकर ना जाने कौन कौन सी लकीरें खिंची आज उसी के वकील शहरी नक्सलियों की वकालत करते हुये भी नजर आ रहे हैं। और तो और जो कारपोरेट मनमोहन सरकार को एक दौर [ 2011-12] में चार पत्र भेज कर कहने की हिम्मत दिखाता था कि मनमोहन सरकार की गवर्नेंस फेल है अब उसी कारपोरेट को सूझ नहीं रहा है कि रास्ता होगा क्या। क्योंकि पंसदीदा कारोपरेट सत्ता के साथ है। और पसंदीदा कारपोरेट 2019 में सत्ता बदलने पर आने वाली सत्ता के दरवाजे शाम ढलने के बाद खटखटा भी रहा है। पर रास्ता है क्या या होगा क्या ये कोई नहीं जानता। और इसी मनोविज्ञान को मोदी-शाह ने पकड़ लिया है तो फिर नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये तो दी ही जा सकती है कि 2019 में आप जीत रहे हैं।
पर बधाई की सीमा सिर्फ इतनी भर भी नहीं है । उसके पीछे हो सकता है समाज में खिंचती लकीरें हों। धर्म के नाम पर बंटता देश हो। जाति-संघर्ष की नई इबारत गढ़ने की तैयारी हो। सपनों की दुनिया में और ज्यादा हिलोरे मारने की तैयारी हो। मसलन गरीब सवर्णों को दस फिसदी आरक्षण दे दिया जाये। दलित उत्पीड़न के कानून को मजबूत करते हुये बाबा साहेब आंबेडकर के परिवार के सदस्य आनंद तेलतुम्ब्रडे [प्रकाश आंबेडकर की बहन के पति ] को जेल में बंद भी कर दिया जाये। जिलेवार को जातीय आधार पर बांटा जाये । उसमें से जातीय तौर पर नेताओ की पहचान कर सत्ता से जोड़ा जाये। हर योजना के क्रियान्वयन के लिये किसी भी अधिकारी से ज्यादा ताकत इन जातीय नेताओं के हाथ में दे दी जाये। मौजूदा 80 फीसदी सांसदों को टिकट ना दिया जाये। किसी भी दागी को टिकट ना दिया जाये। क्योंकि दूसरी तरफ जब पार्टियों का गठबंधन होगा तो सभी 2014 के उन्ही प्यादों को टिकट देंगे, जो ये कहते हुये
सामने आयेंगे कि 2014 की हवा तो गुजरात से चली थी तो वह उड़ गये। पर अब तो दिल्ली की हवा है और जवाब देने के लिये सत्ता के पा कोई बोल नहीं है तो फिर वह जीत जायेंगे। यानी विपक्ष के 80 फिसदी वहीं उम्मीदवार होंगे जो 2014 में थे। तो क्या वाकई नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई ये कहते हुये नहीं दे देनी चाहिये कि 2019 में आप जीत रहे हैं। या फिर अपने अपने दायरे में अकेले सोचती बहुसंख्य जनता कि 2019 में बदलाव होगा। पर होगा कैसे इसकी कोई तस्वीर उनके सामने नहीं उभरती और विपक्ष ये सोच कर खामोश है कि आने वाले तीन महीने किसी तरह बीत जाये । तो फिर उसके बाद तो सत्ता उसी की है। इस कतार में सिर्फ अखिलेश, मायावती भर नहीं है बल्कि ममता बनर्जी , चन्द्रबाबू नायडू , देवेगौडा , चन्द्रशेखर राव , उमर अब्दुल्ला या फारुख अब्दुल्ला । हर कोई अपनी सुविधा और सत्तानुकुल हालात के नेता है ।
तो दूसरी तरफ वामपंथी महज जेएनयू की जीत से आगे जा नही पा रहे और कांग्रेस के पास सिवाय मोदी विरोध के कोई नैरेटिव नहीं है। यानी जो बहुसंख्य जनता राहुल गांधी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी को कोस रही है, वह जनता राहुल गांधी को भी खुद की तरह मोदी को कोसते हुये सुनती है तो फिर उसके सामने ये संकट उभर कर आता है कि विकल्प क्या है । क्योंकि कांग्रेस को जिस दौर में पालेटिक नैरेटिव देश के सामने रखना चाहिये उस दौर में कांग्रेस सिर्फ सत्ता का खिलाड़ी बनकर खुद को पेश कर रही है। यानी इस सच से काग्रेस सरीकी राजनीतिक पार्टी भी कोसों दूर है कि गठबंधन की आंकडेबाजी से कहीं आगे देश की राजनीति निकल चुकी है। और सपनों को सपनों से खारिज करने की जगह उस जमीन को बताने-दिखाने और उसी के लिये संघर्ष करने की जरुरत है जिसकी चाहता किसी भी भारतीय नागरिक में फिलहाल है । वह मसला किसान - मजदूर का हो या शिक्षा या रोजगार का । या फिर उत्पादन या कारपोरेट इक्नामी का । या कहे मौजूदा वक्त का राजनीतिक विकल्प होगा क्या ? आने वाले वक्त में भारत कि दिशा होगी कैसी । क्यों मोदी दौर की राजनीति ने लोकतंत्र को हडप लिया है ? पालेटिकल नैरेटिव इस दिशा में जा ही नहीं
रहा है । राफेल लडाकू विमान घोटाला है । एक खास कारपोरेट को लाभ है । इसे कमोवेश हर कोई जान चुका है । गूगल पर सारे तथ्य मौजूद है । पर यह तो अतित की सत्ता का ही दोहराव है । यानी सत्ता इधर हो या उधर दोनो में फर्क चुनावी भाषणो में दिखायी - सुनायी देने वाले तथ्यों के आसरे पालेटिकल नैरिटिव बनाये नहीं जा सकते । और ये तमीज अभी तक काग्रेस को आई ही नहीं है कि संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा में वह पालेटिकल नैरेटिव तब खोज रही है जब संविधान और लोकतंत्र को ही बेमानी बना दिया गया है । यानी मौजूबदा सत्ता के पॉलेटिकल नैरेटिव में संविधान और लोकतंत्र मायने नहीं रखता है । लेकिन कांग्रेस को लगता है कि संविधान-लोकतंत्र के दायरे तले उन कंकडो को उटाया जाये जो चुभ रहे है । क्योकि अगर उसने पत्थर उठा लिया तो फिर 2019 के लिये राजनीतिक तौर जिसनी मशक्कत करनी होगी उसकी काबिलित उसमें है नहीं । या फिर वह इतनी दूर तक सोच पाने में ही सक्षम नहीं है ।
और जब कांग्रेस कंकड उठा रही है तो ट्वीट कर क्यों बकायदा केक काट कर प्रधानमंत्री मोदी को जन्मदिन की बधाई देते हुये राहुल गांधी को भी कह देना चाहिये 2019 आप जीत रहे हैं।
Thursday, September 13, 2018
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अरबों रुपये लुटाकर जो संसद पहुंचा, वह तो देश लूटेगा ही और सत्ता-संसद ही उसे बचाएगी |
एक मार्च 2016 को विजय माल्या संसद के सेन्ट्रल हाल में वित्त मंत्री अरुण जेटली से मिलते हैं। दो मार्च को रात ग्यारह बजे दर्जन भर बक्सों के साथ जेय एयरवेज की फ्लाइट से लंदन रवाना हो जाते हैं। फ्लाइट के अधिकारी माल्या को विशेष यात्री के तौर पर सारी सुविधाये देते हैं। और उसके बाद देश में शुरु होता है माल्या के खिलाफ कार्रवाई करने का सिलसिला या कहें कार्रवाई दिखाने का सिलसिला। क्योंकि देश छोड़ने के बाद देश के 17 बैंक सुप्रीम कोर्ट में विजय माल्या के खिलाफ याचिका डालते हैं। जिसमें बैक से कर्ज लेकर अरबो रुपये ना लौटाने का जिक्र होता है और सभी बैंक गुहार लगाते है कि माल्या देश छोड़कर ना भाग जाये इस दिशा में जरुरी कार्रवाई करें। माल्या के देश छोडने के बाद ईडी भी माल्या के देश छोडने के बाद अपने एयरलाइन्स के लिये लिये गये 900 करोड रुपये देश से बाहर भेजने का केस दर्ज करता है। माल्या के देश छोडने के बाद 13 मार्च को हैदराबाद हाईकोर्ट भी माल्या के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी करता है। क्योंकि माल्या जीएमआर हेदराबाद इंटरनेशनल एयरपोर्ट के नाम जो पचास लाख का चेक देते हैं, वह बाउंस कर जाता है। 24 अप्रैाल को राज्यसभा की ऐथिक्स कमेटी की रिपोर्ट में माल्या को राज्यसभा की सदस्यतता रद्द करने की बात इस टिप्पणी के साथ कहती है कि 3 मई को वह माल्या को सदन से निलंबित किया जाये या नही इस पर फैसला सुनायेगी। और फैसले के 24 घंटे पहले यानी 2 मई को राज्यसभा के चैयरमैन हामिद अंसारी के पास विजय माल्या का फैक्स आता है जिसमें वह अपने उपर लगाये गये आरोपो को गलत ठहराते हुये राज्यसभा की सदस्यतता से इस्तीफा दे देते हैं। और अगले दिन यानी तीन मई 2016 को राज्यसभा के एथिक्स कमेटी माल्या की सदस्यता रद्द करने का फैसला दे देती है। उसके बाद जांच एजेंसियां जागती हैं। पासपोर्ट अवैध करार दिये जाते हैं । विदेश यात्रा पर रोक लग जाती है। तमाम संपत्ति जब्त करने की एलान हो जाता है। और किसी आर्थिक अपराधी यानी देश को चूना लगाने वाले शख्स के खिलाफ कौन-कौन सी एजेंसी क्या क्या कर सकती है, वह सब होता है। चाहे सीबीआई हो आईबी हो ईडी हो या फिर खुद संसद ही क्यो ना हो।
तो क्या वाकई देश ऐसे चलता है जैसा आज कांग्रेसी नेता पूनिया कह गये कि अगर संसद के सीसीटीवी को खंगाला जाये तो देश खुद ही देख लेगा कि कैसे माल्या और जेटली एक मार्च 2016 को संसद के सेन्ट्रल हाल में बात नहीं बल्कि अकेले गुफ्तगु भर नहीं बल्कि बैठक कर रहे थे। और यह झूठ हुआ तो वह राजनीति छोड देंगे। या फिर वित्त मंत्री अरुण जेटली बोले, माल्या मिले थे। पर बतौर राज्यसभा सांसद वह तब किसी से भी मिल सकते थे। पर कोई बैठक नहीं हुई। तो सवाल तीन हैं। पहला, जो संसद कानून बनाती है उसे ही नहीं पता कानून तोडने वाले अगर उसके साथ बैठे हैं तो उसे क्या करना चाहिये।
दूसरा, सांसद बन कर अपराध होता है या अपराधी होते हुये सांसद बन कर विशेषाधिकार पाकर सुविधा मिल जाती है। तीसरा , देश में कानून का राज के दायरे में सांसद या संसद नहीं आती है क्योंकि कानून वही बनते हैं। दरअसल तीनों सवालो के जवाब उस हकीकत में छिपे हैं कि आखिर कैसे विजयमाल्या सांसद बनते है और कैसे देश की संसदीय राजनीति करोडो के वारे न्यारे तले बिक जाती है। उसके लिये विचार , कानून या ईमानदारी कोई मायने नहीं रखती है। कैसे ? इसके लिये आपको 2002 और 2010 में राज्यसभा के लिये चुने गये विजय माल्या के पैसो के आगे रेंगते कांग्रेस और बीजेपी के सांसदों के जरीये समझना होगा। या फिर कार्नाटक में मौजूदा सत्ताधारी जेडीएस का खेल ही कि कैसे करोडों-अरबों के खेल तले होता रहा इसे भी समझना होगा और संसद पहुंचकर कोई बिजनेसमैन कैसे अपना धंधा चमका लेता है इसे भी जानना होगा। 2002 में कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता थी। तो राज्यसभा के चार सदस्यों के लिये चुनाव होता है। चुने जाने के लिये हर उम्मीदवार को औसत वोट 43.8 चाहिये थे। कांग्रेस के तीन उम्मीदवार जीतते हैं और 40 विधायकों को संभाले बीजेपी के एक मात्र डीके तारादेवी सिद्दार्थ हार जाते हैं। क्योंकि बीजेपी को हराने के लिये कांग्रेस जेडीएस के साथ मिलकर निर्दलीय उम्मीदवार विजयमाल्या को जीता देती है।
और मजे की बाज तो ये भी होती है कि बीजेपी के चार विधायक भी तब बिक जाते हैं। यानी रिजल्ट आने पर पता चलता है कि विजयमाल्या को 46 वोट मिल गये। यानी दो वोट ज्यादा। और तब अखबारों में सुर्खियां यही बनती है कि करोडों का खेल कर विजय माल्या संसद पहुंच गये। तब हर विधायक के हिस्से में कितना आया इसकी कोई तय रकम तो सामने नहीं आती है लेकिन 25 करोड रुपये हर विधायक के आसरे कर्नाटक के अखबार विश्लेषण जरुर करते हैं। आप सोच सकते हैं कि 2002 में 46 वोट पाने के लिये 25 करोड़ के हिसाब से 11 अरब 50 करोड रुपये जो बांटे गये होंगे, वह कहां से आये होंगे और फिर उसकी वसूली संसद पहुंच कर कैसे विजय माल्या ने की होगी। क्योंकि वाजपेयी सरकार के बाद जब मनमोहन सिंह की सरकार बनती है और उड्डयन मंत्रालय एनसीपी के पास जाता है। प्रफुल्ल पटेल उड्डयन मंत्री बनते हैं और तब विजय माल्या उड्डयन मंत्रालय की समिति के स्थायी सदस्य बन जाते हैं। और अपने ही धंधे के ऊपर संसदीय समिति का हर निर्णय कैसे मुहर लगाता होगा, ये बताने की जरुर नहीं है। और उस दौर में किगंफिशर की उड़ान कैसे आसामान से उपर होती है, ये कोई कहां भूला होगा। पर बात यही नहीं रुकती । 2010 में फिर से कर्नाटक से 4 राज्यसभा सीट खाली होती हैं। इस बार सत्ता में बीजेपी के सरकार कर्नाटक में होती है। और औसत 45 विधायकों के वोट की जरुरत चुने जाने के लिये होती है। बीजेपी के दो और कांग्रेस का एक उम्मीदवार तो पहले चरण के वोट में ही जीत जाता है। पर चौथे उम्मीदवार के तौर पर इस बार कांग्रेस का उम्मीदवार फंस जाता है। क्योंकि कांग्रेस के पास 29 वोट होते हैं। बीजेपी के पास 26 वोट होते है । और 27 वोट जेडीएस के होते हैं। जेडीएस सीधे करोडों का सौदा एकमुश्त करती है। तो 5 निर्दलीय विधायक भी माल्या के लिये बिक जाते हैं। और 13 वोट बीजेपी की तरफ से पड़ जाते हैं। यानी 2002 की सुई काग्रेस से घुम कर 2010 में बीजेपी के पक्ष में माल्या के लिये घुम जाती है। फिर कर्नाटक के अखबारों में खबर छपती है करोडों-अरबों का खेल हुआ है। इसबार रकम 25 करोड से ज्यादा बतायी जाती है। यानी 2002 की साढे ग्यारह अरब की रकम 20 अरब तक बतायी जाती है। तो फिर ये रकम कहां से विजय माल्या लाये होंगे और जहां से लाये होंगे, वहां वापस रकम कैसे भरेंगे। ये खेल संसद में रहते हुये कोई खुले तौर पर खेलता है। इस दौर में आफशोर इन्वेस्टमेंट को लेकर जब पनामा पेपर और पैराडाइड पेपर आते है तो उसमें भी विजय माल्या का नाम होता है। यानी एक लंबी फेरहिस्त है माल्या को लेकर। लेकिन देश जब नये सवाल में जा उलझा है कि संसद में 1 मार्च 2016 को विजयमाल्या लंदन भागने से पहले वित्त मंत्री से मिले या नहीं? या क्या वह वाकई कह रहे थे कि वह भाग रहे हैं, पीछे सब देख लेना। और पीछे देखने का सिललिसा कैसे होता है, ये पूरा देश देख समझ सकता है।
लेकिन आखिरी सवाल तो यही है कि जिस संसद में 218 सांसद दागदार हैं, उसी संसद के एक पूर्व सदस्य से अरबों रुपये लेकर कर्नाटक की सियासत और देश की संसद अगर 2002 से लेकर 2016 तक चलती रही तो यह क्यो ना मान लिया जाये कि संसद ऐसे ही चलती है और अरबों रुपये लुटाकर जो संसद पहुंचेगा वह देश को नहीं तो किसे लुटेगा।
Wednesday, September 12, 2018
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अबकी बार....सरकार नहीं आजादी की दरकार ! |
Monday, September 10, 2018
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मान लीजिए.....मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को संभालने में विफल है.. |
Tuesday, September 4, 2018
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" अब्बास भाई....माफ करना आपके दर्द को मैं दुनिया को बता रहा हूं" |
नाम -आसिफ, उम्र-25 बरस, शिक्षा-ग्रेजुएट
पिता का नाम-अब्बास, उम्र 55 बरस, पेशा-पत्रकार
मां का नाम-लक्ष्मी, उम्र 48 बरस, पेशा-पत्रकारिता की शिक्षिका
जो नाम लिखे गये हैं, वे सही नहीं हैं। यानी नाम छिपा लिए गये हैं। क्योंकि जिस घटना को मां-बाप ने ये कहकर छिपाया है और बेटे को समझा रहे हैं कि देश तो हमारा ही है तो दर्द हमें ही जब्त करना होगा, उस घटना के
पीछे शायद नाम ही हैं और नाम से जोड़कर देखे जाने वाला धर्म है। और समाज के भीतर कितनी मोटी लकीर धर्म के नाम पर खींची जा चुकी है, ये घटना उसका सबूत है कि मुस्लिम बाप बंद कमरे में सिर्फ आंसू बहा सकता है। मां हिन्दू है पर वह भी खामोश है। दोनों उच्च शिक्षा प्राप्त ही नहीं बल्कि मुंबई-दिल्ली जैसी जगह में शानदार मीडिया हाउस में काम करते हुये उम्र गुजार चुके हैं। अब भी काम कर रहे हैं। पर ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि उनके बेटे के साथ क्या हो गया।
तो ये सच देश के केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन के लिये है। और जो हुआ है, वह इन दोनों सम्मानित जनों को इसलिये जानना चाहिए क्योंकि ये दोनों ही देश की सत्ताधारी पार्टी और सबसे ताकतवर सरकार से जुड़े हैं। और दोनों ही महानुभावों को ये पढ़ते वक्त इस अहसास से गुजरना होगा कि उनका विवाह भी हिन्दू महिला से हुआ है। पर दोनों ने अपने बच्चों के मुस्लिम नाम रखे हैं। और जाहिर है दोनों के बच्चे भी अच्छे स्कूल कॉलेज से आधुनिक शिक्षा पा रहे होंगे। और जो हादसा आसिफ के साथ हुआ है, वह आज नहीं तो कल इनके बच्चों के साथ भी किसी भी जगह हो सकता है क्योंकि अगर देश में धर्म के नाम जहर फैलेगा और शिकार जब कोई इस तरह प्रबुद्द तबके का लड़का होगा, जो कि सिंधिया स्कूल सरीखे स्कूल से पढ़कर निकला हो, वहां का टॉपर हो और हादसे के बाद बेटे में गुस्सा हो और मां-बाप उससे कह रहे हों- "देश तो हमारा ही है गुस्से को जब्त करना सीखना होगा" तो?
तो दिल्ली से सटा हुआ है नोएडा। आधुनिकतम शहर। तमाम अट्टालिकाएं। दुनिया की नामी गिरामी कंपनियां। दो महीने पहले ही दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति भी इसी नोएडा में पहुंचे थे। साथ में देश के प्रधानमंत्री भी थे। दुनिया में सैमसंग मोबाइल का सबसे बडा प्लांट नोएडा में खुला तो उसका उद्घाटन करने पहुंचे थे। जाहिर है जब प्लांट का उद्धाटन करने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून-जे-इन पहुंचे तो दुनिया ने जाना कि नोएडा भारत का आधुनिकतम शहर है। पर इसी प्लांट से चंद फर्लांग की दूरी पर चार दिन पहले कुछ लड़के आसिफ को घेर लेते हैं। आसिफ को गांव में रहने वाले लड़के सिर्फ इसलिये घेरते हैं क्योंकि आसिफ का एक दोस्त ये कहते हुए अपनी गाड़ी से रवाना होता है कि "आसिफ कल मिलेंगे। और घर पहुंच कर इकबाल को कहना कि प्रोजेक्ट रिपोर्ट जल्दी तैयार करे।" और उस जगह से गुजर रहे चंद लड़कों के कानों में सिर्फ 'आसिफ' शब्द जाता है। जगह ऐसी कि लोगों की आवाजाही लगातार हो रही है। प्रोफेशनल्स का आना जाना बना रहता है । इलाके में रिहाइशी मकान बड़ी संख्या में हैं। यानी मध्यम-उच्च मध्यम वर्ग के लोग बड़ी तादाद में रहते हैं। तो उनकी आवाजाही भी खूब होती है। पर इन सब से बेफिक्र वे चार पांच लडके अचानक आसिफ के पास आते हैं। घेर लेते हैं। और उसके बाद सवाल करते हैं।
"तुम्हारा नाम आसिफ है।"
"जी।"
"मुसलमान हो।"
चंद सेकेंड के लिये आसिफ को समझ नहीं आता वह क्या कहे क्योंकि मां तो हिन्दू है। और घर में रमजान या ईद के साथ साथ होली दीपावली ही नहीं सरस्वती पूजा तक मनायी जाती है।
"चुप क्यों है....मुसलमान हो।"
"हां। तो"
"बोलो जय माता दी।"
"क्या मतलब।"
"कोई मतलब नहीं बोलो जय माता दी।"
"क्यों।"
"जब बोलना होगा तो बोल लूंगा। लेकिन आप लोगों के कहने पर क्यों बोलूं।"
"नहीं तुम पहले बोलो जय माता दी।"
"मैं तुम्हारे कहने पर तो नहीं बोलूंगा।"
तभी एक लड़का मुक्का मारता है।
"ये क्या मतलब है। वाट आर यू डूइंग।"
"अरे ये तो अंग्रेजी भी बोलता है। तो बोलो जय माता दी।"
"आई विल सी यू।"
"अबे क्या बोल रहा है"
और उसके बाद चारो पांचों लड़के आसिफ पर ताबड़तोड़ हमला कर देते हैं। लात-घूंसे जमने लगते हैं। आसिफ सिर्फ विरोध कर पाता है। सूजे हुए चेहरे के साथ घर पहुंचता है। क्या हुआ पिता देखकर चौकते हैं। और सारी घटना सुनने के बाद पिता को भी समझ नहीं आता कि ये कौन सा वक्त है। आसिफ गुस्से में पुलिस में शिकायत करने की बात कहता है। उन लड़कों को सबक सिखाने के लिये कहता है। पिता किसी तरह बेटे का गुस्सा
शांत करते हैं। शाम ढलते ढलते मां भी घर पहुंचती है। मां को भी समझ नहीं आता वह करे क्या। दोनों को डर है कि पुलिस में शिकायत करेंगे तो फिर होगा क्या। भरोसा ही नहीं जागता कि पुलिस कार्रवाई करेगी। क्योंकि नोएडा जैसे आधुकितम शहर- समाज में जब बेखौफ इस तरह उनके बेटे का साथ हो गया जो कि देश दुनिया घूमे हुये हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त किये हुये हैं। हर हालात को जानते समझते हैं। फिर भी इस तरह खुले तौर पर अगर ये सब हो गया तो क्या करें। क्योंकि बेटे में गुस्सा है और पिता अपने बेटे से विनती करता है कि "खामोश हो जाओ। गुस्से को जब्त करो। ये हमारी जमीन है। ये देश हमारा है। अब अगर समाज को इस तरह बनाया जा रहा है तो फिर समाज बिगड़ने या बदला लेने के रास्ते तो हम नहीं चल सकते।" बीते तीन दिनों से मां बाप बारी बारी से घर में रहते हैं। बेटे के साथ रहते हैं। लगातार समझा रहे हैं और बात बात में घर से ना निकलने को लेकर माता -पिता जब इस घटना का जिक्र कर देते हैं तो मैं भी सन्नाटे में आ जाता हूं। बाकायदा मुझे घटना बताकर घटना भूलने का जिक्र करते हैं। मैं पुलिस थाने का जिक्र कर उन लड़कों की निशानदेही की बात करता हूं। पर जिस तरह मां बाप गुहार लगाने के अंदाज में कहते हैं, कुछ मत कीजिए। हम बेटे को समझा रहे हैं, "गुस्सा जब्त करना सीखे,ये देश हमारा ही तो है।"
"पर ये कैसा देश हम बना रहे हैं, जहां हमीं खामोश हो जाएं।"
"नही.. तो आप क्या कर लेंगे। कैसे किसे समझाएंगे। कौन कार्रवाई करेगा। कानून का खौफ होता तो क्या इस तरह होता। और कल्पना कीजिये जगह जगह से जब इस तरह की खबरें आती हैं तो क्या होता है। लेकिन इस तरह शहर में पढ़े लिखे बेटे के साथ उसके भीतर क्या चल रहा होगा.... । ये भी तो सोचिए। क्या सोचे। लड़ने निकल पड़े। आपसे भी गुजारिश है इसका जिक्र किसी से ना करें।"
बीते 24 घंटे से मैं भी इसी कश्मकश में रहा क्या वाकई हम इतने कमजोर हो चुके हैं या देश में कानून का राज है ही नहीं। या फिर समाज में जहर इतना भर दिया गया है कि जहर
निकालने की जगह जहर पीकर खामोश रहने का हमें आदी बनाया जा रहा है। मैं
क्या करुं...अब्बास भाई मुझे माफ करना मैंने आपके दर्द को कागज पर उकेर
दिया। सार्वजनिक कर रहा हूं। दुनिया का सामने ला रहा हूं। कम से कम
लेखन मुझे ये तो ताकत देता है।