2019 की दौड में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी अगुवाई कर रहे है तो
अगुवाई करते नेता के पीछे खडे क्षत्रप की एक लंबी फौज है जो अपने अपने
दायरे में खुद की राजनीतिक सौदेबाजी के दायरे को बढा रहे है । इस कडी में
ममता , मायावती , अखिलेश , चन्द्रबाबू, चन्द्रशेखर राव, कुमारस्वामी ,
तेजस्वी , हेमतं सोरेन ,नवीन पटनायक सरीखे क्षत्रप है । लेकिन जैसे जैसे
वक्त गुजर रहा है वैसे वैसे तस्वीर साफ होती जा रही है कि राजनीतिक बिसात
बनेगी कैसी ।ध्यान दे तो नरेन्द्र मोदी की थ्योरी राष्ट्रवाद को लेकर रही
है । इसलिये वह चार मुद्दो को उटा रहे है । पहला विदेशो में मोदी की वजह
से भारत का डंका बज रहा है । दूसरा, डोकलाम में चीन को पहली बार मोदी की
कूटनीति ने ही आईना दिखा दिया । तीसरा , सर्जिकल स्ट्राइक के जरीये
पाकिस्तान धूल चटा दी । और चौथा हिन्दुत्व के रास्ते सत्ता चल रही है ।
और इसके लिये वह नार्थइस्ट में बांग्लादेशियो को खदेडने के लिये कानून
बनाने से भी नहीं चूक रही है । लेकिन राहुल गांधी की थ्योरी खुद को
राष्ट्रवादी बताते हुये अब मोदी के राष्ट्रवाद की थ्योरी तले इक्नामी के
अंधेरे को उभार रही है । राहुल गांधी का कहना है राष्ट्रवादी तो हम भी है
। और जहा तक हिन्दुत्व की बात है तो जनेउधारी तो हम भी है । लेकिन दुनिया
भर में डंका पिटने के बावजूद मोदी का राष्ट्रवादी गरीबो के लिये कुछ नही
कर रहा है ये सिर्फ कारपोरेट हित साध रहा है । यानी 2019 की तरफ बढते कदम
मोदी की व्यूह रचना में राहुल की सेंध को ही इस तरह जगह दे रहे है जैसे
एक वक्त की काग्रेस की चादर अब बीजेपी ने ओढ ली है और गरीब गुरबो का
जिक्र कर काग्रेस में समाजवादी-वामपंथी सोच विकसित हो गई है । यानी 2019
की बनती तस्वीर में क्षत्रपो के सामने संकट पाररंपरिक जाति और धर्म के
मुद्दे के हाशिये पर जाने से उभर रहा है । यानी आर्थव्.यवस्था को लेकर
जिस तरह काग्रेस सक्रिय हो चली है और राममंदिर को जिस तरह मोदी के साथ
संघ परिवार ने भी चुनाव तक टाल दिया है उसमें जातिय समीकरण के आधार पर
राजनीति करने वाले क्षत्रपो के सामने ये संकट है कि उनका वोट बैक भी उस
विकास को खोज रहा है जो उनके पेट और परिवार से जा जुडा है । इससे
क्षत्रपो की सौदेबाजी भी खासी कमजोर हो चली है । यानी इस तस्वीर का पहला
पाठ तो यही है बीजेपी क्षत्रपो को जीने नहीं देगी और काग्रेस क्षत्रपो को
अपनी शर्तो पर समझौता कराने की दिशा में ले जायेगी । राहुल प्रियका की
जोडी काग्रेस में आक्सीजन भर रही है या फिर क्षत्रपो के सामने जीवन मरन
का संकट खडा कर रही है । ये सवाल धीरे धीरे इसलिये बडा होता जा रहा है
क्योकि काग्रेस के कदम एकला चलो या फिर लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटो
पर चुनाव लडकर अपनी संख्या को बढाने के फार्मूले की तरफ बढ चुके है । और
ये सब कैसे हो रहा है ये देखना बेहद दिलचस्प है । क्योकि राहुल और
प्रियंका एक साथ जब चुनाव प्रचार के लिये उतरेगें तो इसका मतलब साफ है कि
यूपी बिहार झारखंड बंगाल, आध्र प्रदेश और उडीसा को लेकर साफ थेयोरी होगी
कि क्षत्रपो को राज्यो में अगुवाई की बात कहकर लोकसभाचतुनाव में ज्यादा
से द्यादा सीट खुद लडे । और मोदी विरोध की थ्योरी के सामानातंर पं बंगाल,
आध्रप्रेदश और उडिसा में किसी भी क्षत्रप के साथ समझौता ना करें । इस
थ्योरी को सिलसिलेवार समझे । यूपी में एक तरफ मायावती को लेकर मुस्लिम
समेत जाटव छोड बाकि दलित जातियो में ये सवाल अब भी है कि क्या चुनाव के
बाद मायावती सत्ता के लिये कही बीजेपी के साथ तो खडा नहीं हो जायेगी । तो
दूसरी तरफ अखिलेश के सामने यादव वोट बैक के अलावे ओबीसी जातियो के बिखराव
का संकट भी है और मायावती के साथ गठबंधन के बावजूद दलित वोट का ट्रासंभर
ना होने की स्थिति भी है । फिर काग्रेस को लाभ सीधा है । पहला, -काग्रेस
आर्थिक आधार पर अपने पारंपरिक वोट बैक को जोडने उतरेगी । तो दूसरा ,
महिला, युवा और अगडी जातियो के वोट को प्रियंका के आसरे जोडेगी । तो यूपी
से सटे बिहार झरखंड में काग्रेस अपनी सौदेबाजी के दायरे को बढा रही है
।इसलिये बिहार में तेजस्वी हो या झरखंड में सोरेन । दोनो के सामने
काग्रेस का प्रस्ताव साफ है , -तेजस्वी-सोरन सीएम बने लेकिन लोकसभा की
सीट ज्यादा काग्रेस के पास होगी । और ज्यादा सीटो पर चुनाव लडने का
फार्मूला ही पं बंगाल और आध्रपर्देश में काग्रेस को गटबंधन के बोझ से
मुक्त कर चुका है । उसलिये काग्रेस ने बंगाल में ममता बनार्जी के साथ तो
आध्र में चन्द्रबाबू के साथ मिलकर चुनाव ना लडने का फैसला किया है । यानी
काग्रेस इस हकीकत को बाखूबी समझ रही है कि लोकसभा चुनाव में जिसके पास
ज्यादा सीट होगी उसकी दावेदारी ही चुनाव के बाद पीएम के उम्मीदवार के तौर
पर होगी । और इसके लिये जरुरी है अपने बूते चुनाव लडना । तो ऐसे में
प्रियंका की छवि कैसे नरेन्द्र मोदी के औरे को खत्म करेगी इसपर काग्रेस
का ध्यान है । क्योकि 2014 में नरेन्द्र मोदी जिस हंगामे और जिस तामझाम
के साथ आये ये कोई कैसे भूल सकता है । और तब प्रचार में बीजेपी कही नहीं
थी सिर्फ मोदी थे । लेकिन इसके उलट प्रियंका गांधी की इंट्री बेहद खामोशी
से हुई । काग्रेस मुख्यालय में नेम प्लेट टांगने से लेकर कार्यकत्ताओ से
बिना हंगामे मिलने के तौर तरीके ने ये तो साफ जतला दिया कि प्रिंयका को
किसी प्रचार की जरुरत नहीं है । और काग्रेस का मतलब ही नेहरु गांधी
परिवार है । लेकिन बीजेपी यहा भी अपने ही कटघरे में फंस गई । जब उसने
खामोश प्रियका को खानदान और बिना हंगामे के राजनीति तले सिर्फ परिवार के
अक्स में देखना शुरु किया । यानी प्रिंयका की छवि बीजेपी ने ही अपनी
आलोचना से इतनी रहस्मयी और जादुई बना दिया कि प्रियका के बारे में जानने
के लिये वोटरो में भी उत्सुकता जाग गई । और काग्रेस ने प्रियंका की छवि
को मुद्दो को आसरे जिस तरह उभारने की कोशिश शुरु की है वह ना सिर्फ
प्रियाका को दिरा गांधी से जोड रही है बल्कि इंदिरा के दौर में जिस तरह
गरीबी हटाओ का नारा बुलंद हुआ । और जिसतरह मोदी के कारपोरेट प्रेम तले
किसान मजदूर का सवाल काग्रेस उटा रही है उसमें चाहे अनचाहे 2019 का चुनाव
अमीर बनाम गरीब की तरफ बढता जा रहा है । तो सवाल तीन है । पहला, क्या
प्रियका को सिर्फ यूपी तक सीमित रखा जायेगा । दूसरा , क्या प्रिंयका को
यूपी के सीएम के तौर पर प्रजोक्ट भी किया जायेगा । -तीसरा , क्या
प्रिंयका की छवि राहुल के लिये मुश्किल पैदा करेगा । पर इन सवालो का जवाब
भी काग्रेस के पास है । ध्यान से परखे तो प्रिंयका गांधी को चुनावी
मैदान में तब उतारा गया जब राहुल गांधी की छवि पप्पू से इतर एक परिपक्व
नेता के तौर पर बनने लगी । फिर राहुल गांधी ने अपनी राजनीति से मोदी को
कारपोरेट के साथ खडा करने में राजनीतिक सफलता पायी । और -तीसरा , किसान
और बेरजगारी के सवाल को जिस तरह राहुल ने मथा उसका ठीकरा मोदी सत्ता पर
फूटा । और इसी अक्स में प्रियका का राजनीतिक इन्ट्री ही राहुल गांधी ने
इस स्ट्रेटजी के साथ किया कि इंदरा की छवि में गरीबो के सावल को साथ लेकर
अगर प्रयका प्रचार मैदान में कूदेगी तो मोदी का औरा खत्म होगा ।
Tuesday, February 12, 2019
2019 की चुनावी बिसात पर राहुल की व्यूह रचना
Posted by Punya Prasun Bajpai at 6:05 AM
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18 comments:
प्रसूनजी,
चुनाव ज़रूरी है ये समझ मे आता है।
चुनाव मे चुनावी मुद्दे, चुनावी वादे और चुनावी भाषण चुनाव के साथ साथ ढलने भी लगते है।
तो इस हालत मे जनता कैसे चुनाव करे ये एक चैलेंज हो गया है।
कोई कहता है शक्ल देखो, तो कोई कहता है अक्ल देखो और बुद्धिजीवी या कह लिजिए जागरूक जनता ये दोनो ही गुण एक मे खोज रहे है पर मिल नही रहा है।
तो क्या, अब समय आ गया है कि कोई नया उम्मीदवार एक नई उम्मीद लेकर चुनाव लड़े?
वर्तमान परिस्थिति में ये और एक बड़ा चैलेंज है।
फिर क्या, जैसी खिचड़ी पक रही है सब तरफ वही एक बार फिर से परोसा जायेगा और जनता ना चाहते हुए भी इसी को अपना नियती मान लेगी?
कहिं ऐसा ना हो कि अन्ग्रेजी का एक पोपुलर कहावत फिर से दोहराना पड़े:
"बेगार्स आर नॉट चुज़र्स"
Very nice Sir.
write blog daily..
Aap politics me aaye hum aap mil ke
बहूत कुछ है लेकिन अभी और दिखाना है
की सरकार पानी माँगने लगे
मैं चाहता हूं आप किसानों और गरीब तबके पर ज्यादा ध्यान दें,और इन तबकों की सच्चाईयों को सामने लाएं,
देश मे खाद का प्रयोग किसान के अलावा कोन करता है, कोई नहीं , फिर भी D A P खाद की एक बोरी का मूल्य 1450 रुपये क्यों । ऐसे विषय पर ज्यादा से ज्यादा चर्चा करें
घन्यवाद
Please upload jai hind 13 Feb show on YouTube.
Its request sir
लोकतंत्र की यही विडम्बना है कि चुनाव पर चुनाव होते रहते हैं, जनता बदल बदल कर अपना नेता चुनती रहती है और प्रत्येक चुनाव के बाद जनता अपने को ठगा महसूस करती है। विपक्षी नेता को सत्ताधारी नेता चोर नज़र आता है और जब विपक्षी सत्ता में पहुंचता है तो वो भी चोर हो जाता है, हर हाल जनता ठगी जाती है। कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे जनता यह जान सके कि वास्तव में कौन ईमानदार है और कौन बेईमान है। लगता है आम जनता के हाथ में वोट देने के सिवा और कुछ है ही नहीं।एक बार जिसको जितना दिया वह अपने कार्यकाल के लिए बादशाह हो जाता है।
डा० मारकण्डेय दीक्षित
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 75वीं पुण्यतिथि - दादा साहेब फाल्के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
Jai hind🙏
9baze surya samachar par aapko dekha....apar harsh huaa....shreekant jee ka dard dikhane ke liye bahut bahut dhanywad! Rahen prashst ho yahi meri shubhkamna hai...sadar pranam
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Dear Media,
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So please! Stream it separately, And provide some name and data of manuscripts in description.
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Very nice
लगभग छ: हजार वर्ष से हमारे देश में लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र/जनतन्त्र/जनता का शासन/पूर्णत: स्वदेशी शासन व्यवस्था नहीं है। लोकतन्त्र में नेता / जनप्रतिनिधि चुनने / बनने के लिये नामांकन नहीं होता है। नामांकन नहीं होने के कारण जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार की नाममात्र भी आवश्यकता नहीं होती है। मतपत्र रेल टिकट के बराबर होता है। गुप्त मतदान होता है। सभी मतदाता प्रत्याशी होते हैं। भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं होता है। लोकतन्त्र में सुख, शान्ति और समृद्धि निरन्तर बनी रहती है। सत्तर वर्ष से गणतन्त्र है। गणतन्त्र पूर्णत: विदेशी शासन प्रणाली है। गणतन्त्र का अर्थ है- गनतन्त्र = बंदूकतन्त्र, गुण्डातन्त्र = गुण्डाराज-जंगलराज, जुआंतन्त्र = चुनाव लडऩा अर्थात् दाँव लगाना, पार्टीतन्त्र = दलतन्त्र, तानाशाहीतन्त्र, परिवारतन्त्र = वंशतन्त्र, गठबन्धन सरकार = दल-दलतन्त्र = कीचड़तन्त्र, गुट्टतन्त्र, धर्मनिरपेक्षतन्त्र = अधर्मतन्त्र, सिद्धान्तहीनतन्त्र, आरक्षणतन्त्र = अन्यायतन्त्र, अवैध पँूजीतन्त्र = अवैध उद्योगतन्त्र - अवैध व्यापारतन्त्र - अवैध व्यवसायतन्त्र - हवाला तन्त्र अर्थात् तस्करतन्त्र-माफियातन्त्र; फिक्सतन्त्र, जुमलातन्त्र, विज्ञापनतन्त्र, प्रचारतन्त्र, अफवाहतन्त्र, झूठतन्त्र, लूटतन्त्र, वोटबैंकतन्त्र, भीड़तन्त्र, भेड़तन्त्र, भाड़ातन्त्र, भड़ुवातन्त्र, गोहत्यातन्त्र, घोटालातन्त्र, दंगातन्त्र, जड़पूजातन्त्र (मूर्ति व कब्र पूजा को प्रोत्साहित करने वाला शासन) अर्थात् राष्ट्रविनाशकतन्त्र। गणतन्त्र को लोकतन्त्र कहना अन्धपरम्परा और भेड़चाल है। अज्ञानता और मूर्खता की पराकाष्ठा है। बाल बुद्धि का मिथ्या प्रलाप है। निर्दलीय हो या किसी पार्टी का- जो व्यक्ति नामांकन, जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार से नेता / जनप्रतिनिधि (ग्राम प्रधान, पार्षद, जिला पंचायत सदस्य, मेयर, ब्लॉक प्रमुख, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि) बनेगा। उसका जुआरी, बेईमान, कामचोर, पक्षपाती, विश्वासघाती, दलबदलू, अविद्वान्, असभ्य, अशिष्ट, अहंकारी, अपराधी, जड़पूजक (मूर्ति और कब्र पूजा करने वाला) तथा देशद्रोही होना सुनिश्चित है। इसलिये ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमन्त्री तक सभी भ्रष्ट हैं। अपवाद की संभावना बहुत कम या नहीं के बराबर हो सकती है। इसीलिये देश की सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक, भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी और प्रान्तीय समस्यायें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनैतिक दल देश को बर्बाद कर रहे हैं। राष्ट्रहित में इन राजनैतिक दलों का नामोनिशान मिटना / मिटाना अत्यन्त आवश्यक है। विदेशी शासन प्रणाली और विदेशी चुनाव प्रणाली के कारण भारत निर्वाचन आयोग अपराधियों का जन्मदाता और पोषक बना हुआ है। इसलिये वर्तमान में इसे भारत विनाशक आयोग कहना अधिक उचित होगा। जब चुनाव में नामांकन प्रणाली समाप्त हो जायेगा तब इसे भारत निर्माण आयोग कहेंगे। यह हमारे देश का सबसे बड़ा जुआंघर है, जहाँ चुनाव लडऩे के लिये नामांकन करवाकर निर्दलीय और राजनैतिक दल के उम्मीदवार करोड़ो-अरबों रुपये का दाँव लगाते हैं। यह चुनाव आयोग हमारे देश का एकमात्र ऐसा जुआंघर है, जो जुआरियों (चुनाव लड़कर जीतने वालों) को प्रमाण पत्र देता है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पूर्णत: अविश्वसनीय उपकरण है। यह ई.वी.एम. भ्रष्टाचार का अत्याधुनिक यंत्र है। आम आदमी इन मशीनों द्वारा होने वाले जालसाजी से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि उनके पास इस विषय में सोचने का समय और समझ नहीं है। इन मशीनों द्वारा होने वाली जालसाजी को कम्प्यूटर चलाने वाले और सॉफ्टवेयर बनाने वाले बुद्धिमान इंजीनियनर/तकनीशियन लोग ही निश्चित रूप से जानते हैं। वर्तमान में सभी राजनैतिक दल ई.वी.एम. से होने वाले भ्रष्टाचार से परिचित हंै, जब तक विपक्ष में रहते हैं तब तक ई.वी.एम को हटाने की मांग करते हैं, लेकिन जिस पार्टी की सरकार बन जाती है वह पार्टी चुप रहता है। अनेक देशों में ई. वी. एम. पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित है। ई. वी. एम. के स्थान पर कुछ जगह वी. वी. पेट. का प्रयोग किया जाता है, जो बहुत खर्चीला है। उसमें निकलने वाले मतपत्रों (पर्चियों) को सुरक्षित रखने और गिनने से तो अच्छा है कि पुरानी पद्धति से बड़े-बड़े मतपत्रों में मुहर लगवाकर मतदान करवाया जाय। हमारे देश के सभी ई. वी. एम. और वी. वी. पेट मशीनों को तोड़-फोड़ कर, आग लगाकर या समुद्र में फेंककर नष्ट कर देना चाहिये। गणतन्त्र अर्थात् पार्टीतन्त्र/ दलतन्त्र/ दल-दलतन्त्र/ गठबन्धन सरकार में हमारे देश का राष्ट्रपति सत्ताधारी राजनैतिक दल की कठपुतली/ रबर स्टैम्प/ गुलाम/ नौकर/ बंधुआ मजदूर/ मूकदर्शक होता है। राजनैतिक दलों के नेताओं को आपस में कुत्तों जैसे लड़ते हुए देखकर, जनता को कष्टों से पीडि़त देखकर, देश को बर्बाद होते हुए देखकर भी चुप रहता है।
निम्नलिखित समस्याओं का एकमात्र समाधान लोकतन्त्र है-
क्रूरता/संवेदनहीनता; सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक मत परिवर्तन; सरकारी जमीन पर नये-नये मूर्ति, मन्दिर तथा मजारों-कब्रों आदि का निर्माण; तीर्थ यात्रा, हज यात्रा, काँवड़ यात्रा, सत्संग के नाम पर कुसंग, फलित ज्योतिष, विभिन्न प्रकार के अंधविश्वास, अर्धकुम्भ और महाकुम्भ मेला, उर्स, अन्य सब पाखंड, गुरुडमवाद; काला धन, चिटफंड घोटाला, नकली बीमा कम्पनी, नकली बैंक, नकली शेयर, नकली नोट, नोटबंदी; बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, विदेशी कर्ज, शत-प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश, विदेशी शासकों का दबाव; राजनैतिक अस्थिरता; रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, पुलिस तथा न्यायालय प्रक्रिया में देरी और अन्याय, सरकार (सत्ताधारी राजनैतिक दल) और न्यायपालिका में विवाद तथा टकराव; हिन्दू-मुस्लिम दोहरे कानून, तुष्टिकरण; दहेज प्रथा, छेड़छाड़, महिला उत्पीडऩ, कन्या भू्रण हत्या, अपहरण, एकल-सामूहिक दुष्कर्म और हत्या, लव जिहाद, फिल्म जिहाद, स्त्रियों की खरीदी-बिक्री-तस्करी, तेजाबी हमला, वेश्यावृत्ति; पाश्चात्य जीवन शैली; समलैंगिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद, देशद्रोह, विदेशी घुसपैठ, साम्प्रदायिक दंगे; चोरी, डकैती, ठगी, राहजनी, तस्करी; भाषायी तथा प्रांतीय संकीर्णता, राष्ट्र विभाजन (नये-नये राज्यों का गठन), राष्ट्र विभाजन की मानसिकता वाले लोगों का सम्मान, चुनाव से पहले ओपीनियन पोल, चुनाव परिणाम से पहले रूझान; मिलावटी खाद्यान्न पदार्थ, कोल्ड ड्रिंक्स के नाम पर तेजाब पीना-पिलाना, रासायनिक खाद व कीटनाशक-दवा युक्त कृषि उपज, संकरित बीजों से उत्पन्न रोगकारक अन्न-सब्जी-फल-मेवे आदि से विभिन्न बीमारियाँ, गन्दे नालों-तालाबों के पानी से उत्पन्न सब्जियाँ; नकली दवाईयाँ, नकली दूध-घी आदि का उत्पादन-विक्रय, असली दूध और घृत की कमी/अभाव; गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी, सुअर आदि पशुओं की कत्लखानों में निर्मम हत्या, जल को शुद्ध करनेवाली मछलियों का शिकार तथा विक्रय, माँसाहार, गांजा-अफीम-चरस-बीड़ी-सिगरेट-शराब एवं अन्य मादक पदार्थों का प्रचलन, मनुष्यों की औसत आयु १०० वर्ष से कम; निरक्षरता, सह-शिक्षा, महँगी एवं दोषपूर्ण विदेशी शिक्षा व्यवस्था, टॉपर घोटाला, परीक्षाओं में नकल, अंग्रेजी भाषा थोपने का षडयंत्र, रेंगिंग; आरक्षण, बेरोजगारी, किसानों एवं युवाओं द्वारा आत्महत्या, बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी; हड़ताल, चक्का जाम, धरना, प्रदर्शन, तोडफ़ोड़, पत्थरबाजी, आगजनी, नगर-प्रान्त-राष्ट्रव्यापी बंद; ब्राह्मणवाद, जन्मना जाति प्रथा, छुआछूत, महँगाई, गरीबी, भूखमरी, भिक्षावृत्ति, कामचोरी-हरामखोरी; लाटरी-जुआं, क्रिकेट आदि खेलों में सट्टेबाजी; वृद्धों, अनाथों की दुर्दशा; समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं-सिनेमा-टी.वी.-इन्टरनेट द्वारा अश्लीलता का प्रचार; जल-थल-वायु-दृश्य-ध्वनि प्रदूषण; जलवायु एवं मौसम परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण; पशु-पक्षियों की जातियों का विलुप्त होना; सूखा तथा बाढ़, भूकम्प; वनों की अवैध कटाई, खदानों की अवैध खुदाई; सड़क, रेल, हवाई दुर्घटनाएं तथा अन्य अनेक समस्याएँ।
निम्नलिखित समस्याओं का एकमात्र समाधान लोकतन्त्र है-
क्रूरता/संवेदनहीनता; सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक मत परिवर्तन; सरकारी जमीन पर नये-नये मूर्ति, मन्दिर तथा मजारों-कब्रों आदि का निर्माण; तीर्थ यात्रा, हज यात्रा, काँवड़ यात्रा, सत्संग के नाम पर कुसंग, फलित ज्योतिष, विभिन्न प्रकार के अंधविश्वास, अर्धकुम्भ और महाकुम्भ मेला, उर्स, अन्य सब पाखंड, गुरुडमवाद; काला धन, चिटफंड घोटाला, नकली बीमा कम्पनी, नकली बैंक, नकली शेयर, नकली नोट, नोटबंदी; बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, विदेशी कर्ज, शत-प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश, विदेशी शासकों का दबाव; राजनैतिक अस्थिरता; रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, पुलिस तथा न्यायालय प्रक्रिया में देरी और अन्याय, सरकार (सत्ताधारी राजनैतिक दल) और न्यायपालिका में विवाद तथा टकराव; हिन्दू-मुस्लिम दोहरे कानून, तुष्टिकरण; दहेज प्रथा, छेड़छाड़, महिला उत्पीडऩ, कन्या भू्रण हत्या, अपहरण, एकल-सामूहिक दुष्कर्म और हत्या, लव जिहाद, फिल्म जिहाद, स्त्रियों की खरीदी-बिक्री-तस्करी, तेजाबी हमला, वेश्यावृत्ति; पाश्चात्य जीवन शैली; समलैंगिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद, देशद्रोह, विदेशी घुसपैठ, साम्प्रदायिक दंगे; चोरी, डकैती, ठगी, राहजनी, तस्करी; भाषायी तथा प्रांतीय संकीर्णता, राष्ट्र विभाजन (नये-नये राज्यों का गठन), राष्ट्र विभाजन की मानसिकता वाले लोगों का सम्मान, चुनाव से पहले ओपीनियन पोल, चुनाव परिणाम से पहले रूझान; मिलावटी खाद्यान्न पदार्थ, कोल्ड ड्रिंक्स के नाम पर तेजाब पीना-पिलाना, रासायनिक खाद व कीटनाशक-दवा युक्त कृषि उपज, संकरित बीजों से उत्पन्न रोगकारक अन्न-सब्जी-फल-मेवे आदि से विभिन्न बीमारियाँ, गन्दे नालों-तालाबों के पानी से उत्पन्न सब्जियाँ; नकली दवाईयाँ, नकली दूध-घी आदि का उत्पादन-विक्रय, असली दूध और घृत की कमी/अभाव; गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी, सुअर आदि पशुओं की कत्लखानों में निर्मम हत्या, जल को शुद्ध करनेवाली मछलियों का शिकार तथा विक्रय, माँसाहार, गांजा-अफीम-चरस-बीड़ी-सिगरेट-शराब एवं अन्य मादक पदार्थों का प्रचलन, मनुष्यों की औसत आयु १०० वर्ष से कम; निरक्षरता, सह-शिक्षा, महँगी एवं दोषपूर्ण विदेशी शिक्षा व्यवस्था, टॉपर घोटाला, परीक्षाओं में नकल, अंग्रेजी भाषा थोपने का षडयंत्र, रेंगिंग; आरक्षण, बेरोजगारी, किसानों एवं युवाओं द्वारा आत्महत्या, बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी; हड़ताल, चक्का जाम, धरना, प्रदर्शन, तोडफ़ोड़, पत्थरबाजी, आगजनी, नगर-प्रान्त-राष्ट्रव्यापी बंद; ब्राह्मणवाद, जन्मना जाति प्रथा, छुआछूत, महँगाई, गरीबी, भूखमरी, भिक्षावृत्ति, कामचोरी-हरामखोरी; लाटरी-जुआं, क्रिकेट आदि खेलों में सट्टेबाजी; वृद्धों, अनाथों की दुर्दशा; समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं-सिनेमा-टी.वी.-इन्टरनेट द्वारा अश्लीलता का प्रचार; जल-थल-वायु-दृश्य-ध्वनि प्रदूषण; जलवायु एवं मौसम परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण; पशु-पक्षियों की जातियों का विलुप्त होना; सूखा तथा बाढ़, भूकम्प; वनों की अवैध कटाई, खदानों की अवैध खुदाई; सड़क, रेल, हवाई दुर्घटनाएं तथा अन्य अनेक समस्याएँ।
चुनाव!
गलतफहमि!
सौ फीसदी गलतफहमि।
क्या चुन सकते है आप और हम?
किसे चुन सकते है हम?
आखिर क्या और किसे चुन लिया है हम सब ने?
माता पिता आप चुन नही सकते।
भाई बहन आप चुन नही सकते।
तो इश्वर कहां से चुनेंगे?
क्या औकात और हैसीयत है आपकी और हमारी?
चुनाव शब्द से देश मे पल रहे लाइलाज़ बिमारी निर्वाचन का आईडिया मिल सकता है आपको, पर वो भी एक छलाबा ही है। आपको लग सकता है आप चुन रहे है अपने प्रिय नेता को, बस ये केवल लगता है और फिर जब एक ज़ोर का झटका इन्ही नेताओँ के चालाकी और छल से लगता है तो फिर ये कभी कभी लाइलाज़ भी हो जाता है। कृपया उदाहरण ना मांगियेगा नही तो ये भी टी वी चैनलों के खोखले तर्क वितर्क में बदल जायेगा। नेता तो बस हुजूम के एक कदम आगे चलेगा, नेता लालच देता है क्यों की समर्थक लालची है।
परिवार की मानसिकता और संकीर्णता का असर बच्चोँ पर तो होगा ही, तो परिवार के अन्दर अगर माता पिता माहौल नही बना पा रहे है तो वो सोच कहां से बनेगी जिसकी अपेक्षा की जाती रही है।
कभी आपने सोचा है क्या?
नाम रखा जाता है डिफेन्स पर सारा तामझाम और इन्तेजाम है ओफेंस के लिये याने के युद्ध के लिये। सब के सब देश रक्षा कर रहे है तो आक्रमण कौन कर रहा है भाई? युद्ध का माहौल नही बनायेंगे तो शान्तिवार्ता कैसे हो? और शान्तिदूत भी क्यों पैदा होन्गे? पहले तो ज़रूरत पैदा करने पड़ेगी ना?
कन्फुज़ मत होइये।
राजनीति मे तो ये द्विविधा हमेशा बनी रहती है की उम्मिद कम रखे या भरोसा ज्यादा?
मै ये नही कह रहा हूँ कि सब सूफी बन जाये, पर कम से कम ये तो सोचना शुरू करें की आखिर आप सोच क्या रखते है और आप सोच क्या रहे है?
इन नेताओँ के भरोसे कैसे रह सकते है जो केवल और केवल आपके भरोसे सांस ले रहे है?
लड़ना ही है तो ज़रा अपने सोच के साथ भी लड़ाई किजीये, हो सकता है आप खुद ही हल निकाल लें।
जब आप जसबाती होते है तो सवाल उठाया जाता है कि जसबाती होना ठीक नही, इन्सान को व्यवहारिक होना चाहिये, भले ही उसके लिये आप अपना व्यव्हार बदल क्यों ना लें।
आपको हमेशा एक दिखावे का मुखौटा पहनकर रहने को सिखाया जाता है, और उम्मिद की जाती है की आप सच्चे और अच्छे पेश आए। अब सच्चे होन्गे तो अच्छे कैसे होन्गे? और अच्छे होन्गे तो सच्चे फिर कैसे होन्गे?
तो क्या सोचा फिर?
अब क्या करेंगे?
एक टिप दे देता हूं।
इतना तो कर ही सकते है की कम से कम एक ही गलती को दोबारा करने से तो बच ही सकते है।
करके देखियेगा ज़रूर,
कुछ नही तो खुद का कांफिडेंस ही बढ़ेगा।
नमस्कार,
शुभमोय
Sahi hai bhai ....
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