दिल्ली के 11 अशोक रोड पर खडे होकर आज भी कोई महसूस कर सकता है कि बीजेपी का मतलब था क्या । वाजपेयी की सादगी जो हर किसी का स्वागत करती । आडवाणी की मनन मुद्रा जो हंसी ठहाके के बीच गंभीर खामोशी ओढ लेती । मुरली मनोहर जोशी का चिंतन जो बिना किसी रैफरेन्स के बात ही नहीं करते । भैरो सिह शोखावत का गले लगाने का अंदाज । जसवंत सिंह का हाथ मिलाकर हाथ दबाते हुये आंखो से इशारो में समझाने की अदा । खुराना का बात बात पर ठहाके लगाना । 1989 में छलाग लगाकर 85 सीटो पर कब्जा करने का जश्न हो या फिर 1990 में आडवाणी का सोमनाथ से अयोध्या तक राम की मुद्रा में भ्रमण कर संघ परिवार को एकजूट कर उग्र हिन्दुत्व का सुलगाने का प्रयास । अशोक रोड तो हर बात का गवाह रहा है । और 1992 में बाबरी मस्जिद की भूमि को समतल करने के एलान और 1996 में 13 दिन में भी बहुमत ना जुटा पाने के बाद वाजपेयी का कथन, '"विपक्षी कहते है वाजपेयी तो अच्छा है पर बीजेपी ठीक नही है "। अशोक रोड ने हर बयान , हर कथन के पहले और बाद के हालात उसके झंझावतो को भी बाखूबी महसूस किया है । और महसूस तो वाजपेयी सत्ता के खिलफ दत्तोपंत ठेंगडी का स्वदेश राग हो या फिर अर्थनीति को विश्वबैक और आईएमएफ के गुलाम बनाने के तौर तरको को खुला विरोध , हर बात का गवाह अशोक रोड का बीजेपी हडक्वाटर रहा है । और तो और 2014 का मोदी जश्न भी 11, अशोक रोड को बाखूबी याद है । लेकिन 2019 की आहट से पहले 11, अशोक रोड पर सन्नाटा है । कौवो की आवाज है । लोगो की आवाजाही ठहरी हुई है । क्योकि 2019 के जनादेश को देखने क चाहत दिल्ली के ही दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर बने पांच मंजिला लेकिन सात सितारा इमारत से हो चल है । जहां हेडक्वाटर को देखने के लिये सिर उठाना पडता है । नजरो का सीधा मेल यहा किसी का किसी से नहीं होता । चूंकि मार्ग दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर है तो भरोसा जागना चाहिये था कि बीजेपी हेडक्वाटर जाते आते मौजूदा वक्त के बीजेपी के चेहर कम से कम आखरी व्यक्ति तक पहुंचने का प्रयास तो करेगें । लेकिन बीजेपी हेडक्वाटर तो आडवाणी-जोशी सरीखे अपने पहले लोगो से ही कट गया । तो क्या बीजेपी की उम्र 39 बरस की ही थी । जो 2019 में पूरी हो गई । क्योकि 2019 में चुनाव बीजपी नहीं लड रही है । 2019 के चुनाव में बीजेपी की विचारधारा को लेकर कोई चर्चा नहीं है । संघ परिवार जिन सांस्कृतिक मूल्यो का जिक्र करते हुये अपनी विचारधारा को वाजपेयी की सत्ता के दौर में भी उभारती रही वह भी 2019 के चुनाव में लापता है । यानी सत्ता ही विचारधारा हो जाये । और सत्ता पाने के तरीके ही संघ परिवार के सरोकार हो जाये तो फिर कोई भी सवाल कर सकता है कि बीजेपी है कहां । और 2019 में अगर मोदी चुनाव हार गये तो फिर बीजेपी होगी कहां । अशोका रोड लौटना चाहेगी या फिर सात सितारा पांच मंजिला लाल पत्थर में दफ्न हो जायेगी । शायद यही सवाल आडवाणी ने अपने ब्लाग में उठाया है । पहला संकेत तो यही दिया कि वह इशारो में बात कर रहे है तो मोदी समझ जाये कि उम्र उनपर हावी हुई नहीं है और वह अब भी जिन्दा है । दूसरा संकेत साफ है कि बीजेपी के भीतर भी लोकतंत्र खत्म हो चला है । यानी बीजेपी की विचारधारा को मोदी सत्ता ने हडप लिया है । और जब आडवाणी जिक्र करते है कि किसी को देशद्रोही करार देना या राजनीतिक तौर पर विपक्ष को दुशमन मान कर कार्रवाई करना बीजेपी की धारा नहीं रही है तो फिर अब समझने के जररत यह भी है कि 2019 के बाद क्या वाकई बीजेपी का पुनर्जन्म होगा या फिर बीजेपी फिर से 1980 में पहुंच जायेगी जब वाजपेयी जनसंघ के हिन्दु-मुस्लिम से निकल कर बीजेपी को गांधीवादी समाजवाद की थ्योरी तले ले कर आये । हालाकि 1984 में महज दो सीट की जीत ने बीजेपी के भीतर उग्र हिन्दुत्व के उभार को हथियार माना । इसलिये अयोध्या का राग विहिप ने पकडा और 1989 के चुनाव में 85 सीटो की जीत ने बीजेपी के भीतर इस उम्मीद को भर दिया कि वह कमंडल के राग तले और ज्यादा सफल हो सकती है । आडवाणी की रथयात्रा । बाबरी मस्जिद विध्वसं और फिर उग्र हिन्दुत्व के राग ने भी बीजेपी को अपने बूते सत्ता दिलायी नहीं । 1998-99 में 182 सीटो से आगे बीजेपी बढ नहीं सकी । और हो सकता है कि भारत के लोकतांत्रिक मिजाज को आडवाणी के उसके बाद ही समझा और बलाग के जरीये मोदी को सीख देनी चाही कि भारत तो लोकतंत्र के रंग में ना सिर्फ रंगा हुआ है बल्कि भारत की हवाओ में भी लोकतंत्र समाया हुआ है ऐसे में नरेन्द्र मोदी के कामकाज का तरीका अगर लोकतंत्र विरोधी है तो फिर वह बीजेपी नहीं है । यानी संकेत साफ है कि लोकसभा चुनाव के बाद आडवाणी-जोशी फिर बीजेपी नेताओ के कन्द्र में होगें । लेकिन संकेत यह भी है कि जब मोदी मुश्किल दिनो में अपने साथ खडे आडवाणी को हाशिये पर ढकेल सकते है तो आने वाले दिनो में मोदी का भी कोई प्रिय ताकतवर होते ही मोदी को भी हाशिये पर ढकेल देगा । यानी बीजेी के भीतर की नई पंरपरा और संघ परिवार के राजनीतिक शुद्दीकरण का ये नया मिजाज क्या बीजेपी का सच हो चुका है ।
दरअसल बीजेपी को परखते हुये अब नरेन्द्र मोदी को समझना भी जरुरी है और इसके लिये आपको चलना होगा सन् 2000 में जब अटलबिहारी वाजपेयी अमेरिका की यात्र पर थे और वहा रह रहे मोदी के मित्र जो कि वाजपेयी जी को भी जानते थे उन्होने तब वाजपेयी जी से अमेरिका मे मुलाकात कर मोदी के बारे में वाजपेयी जी को जानकारी दी थी । पत्रकार विजय त्रिवेदी की किताब "हार नहीं मानूगां" में अपनी रिपोटिंग का जिक्र करते हुये वह लिखते है कि मोदी के मित्र से उनकी मुलाकात हुई और उन्होने बताया कि किस तरह वाजपेयी के पास जाकर उन्होने कहा कि नरेन्द्र मोदी भी अमेरिका में है । आपके कार्यक्रम से दूर है । लेकिन आप उनसे मिलना चाहेगें क्या । इसपर वाजपेयी जी बोले बिकुल । और जब वाजपेयी से मिलने मोदी पहुंचे तो वाजपेयी जी ने मोदी से कहां , " ऐसे भागने से काम नहीं चलेगा , कब तक यहा रहोगे ? दिल्ली आओ... " । और फिर गुजरात । गुजरात में गोधरा कांड । दंगो का होना । वाजपेयी का राजधर्म का पाठ । कोई कैसे भूल सकता है लेकिन अब जब आडवाणी का ब्लाग सामने आता है और बीत पांच बरस में मोदी कार्यकाल समझते हुये बीजेपी की विचारधारा या उसके तार को मोदी के काम के जरीये खोलने की कोशिश करने की इच्छा हो तो गुजरात के मोदी काल को समझना चाहिय । कैसे गोधरा के जरीये क्रिया की प्रतिक्रिया तले दंगो को हिन्दुत्व की थ्योरी तले परिभाषित किया गया । कैसे उसके बाद गुजराती अस्मिता के जरीये 6 करोड गुजरातियो के साथ क्षेत्रियता का भाव परिभाषित किया गया । कैसे बाइब्रेंट गुजरात के जरीये विकास के माडल को देश के लिये परिभाषित किया गया । और उसी कडी में कैसे देशभक्ति को अब दिल्ली की कुर्सी से परिभाषित किया जा रहा है । सबकुछ सामने है । और अब जब 6 अप्रैल 2019 को बीजेपी के 39 बरस पूरे हो रहे है तो फिर 40 वा बरस कैसे लगेगा इसके लिये 23 मई का इंतजार करना होगा जब तय होगा कि दिल्ली के लाल दीवारो में कैद सात सितारा बीजेपी हेडक्वाटर ही बीजेपी है या फिर बीजेपी को 11, अशोक रोड लौटना होगा । क्योकि वाजपेयी ने अशोक रोड में सांसे लेती बीजेपी के दौर में सत्ता नाम की कविता लिखा थी जो अब कागज से उतर कर कैसे गुजरात से होते हये पूरे देश में समा चुका है , और इनसे लडते वाजपेयी किन भावनाओ को जी रहे थे तो अटल बिहारी वाजेयी की कविता सत्ता को एक बार आप भी पढ लिजिये....मासूम बच्चों / बूढी औरतों / जवां मर्दो / कि लाशों के ढेर पर चढकर / जो सत्ता के सिहासन तक पहुंचना चाहते है / उनसे मेरा एक सवाल है / क्या मरने वालो के साथ / उनका कोई रिश्ता ना था / म सही धर्म का नाता,/ क्या धरती का भी संबंध नहीं था ? / अर्थवेद या यह मंत्र / क्या सिर्फ जपने के लिये है / जीने के लिये नहीं ? / आग में जले बच्चे, / वासना की शिकार औरतें, / राख में बदले घर / न सम्यता का प्रमाणपत्र है / न देशभक्ति का तमगा.. / वे यदि घोषमापत्र है तो पशुता का, / प्रमाण हो तो पतितावस्था का / ऐसे कपूतों से / मां का निपूती रहना ही अच्छा था..
Friday, April 5, 2019
कैसे मनाये बीजेपी का 40वां जन्मदिन
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:29 PM
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4 comments:
वाजपेयी जी व कलाम जी जैसा कोई न था और कोई न होगा, जिन्होंने कभी अपनी परवाह छोड़ कर देश को अपना जीवन समर्पित कर दिया और आज लोगो पर ऐसी सत्ता का बुखार हैं कि वे लोकतंत्र को फ़ासीवाद में बदलने कोशिश कर रहे हैं।
Very nice sir. एक पहलू यह भी है की जब तक इन बुजुर्ग नेताओं को सत्ता की मलाई खाने को मिली तब तक चुपचाप मलाई खाते रहे जब टिकट नहीं मिला तब इनको सच्चाई का आभास हो रहा है अब सीख देते हैं क्या फायदा मोदी ने तो 5 साल में भारत के लोकतंत्र का कबाडा कर दिया, इन तीनों चारों बुजुर्ग नेताओं ने अगर एक 2 साल पहले इस तरह का पहल की होती तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता।
एेसे लोग हमारे ही बीच से होते पर यदि लोकतंत्र ही नोटतंत्र में परिवर्तित हो गया हो तो कोई व्यक्ति चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता
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