काग्रेस में सन्नाटा है । सन्नाटे की वजह हार नहीं है । बल्कि हार ने उस कवच को उघाड दिया है जिस कवच तले अभी तक बडे बडे काग्रेसी सूरमा छिपे हुये थे । और अपने बच्चो के लिये काग्रेस की पहचान और काग्रेस से मिली अपनी पहचान को ही इन्वेस्ट कर जीत पाते रहे । पहली बार इन कद्दावरो के चेहरे पर शिकन दिखायी देने लगी है कि क्योकि उनका राजा भी चुनाव हार गया । और बिना राजा कोटरी कैसी । चापलूसी कैसी । कद किसका । और बिना कद कार्यकत्ताओ की फौज भी नहीं । मान्यता भी नहीं । और चाहे अनचाहे काग्रेसी राजा यानी राहुल गांधी ने उस सच को अपने इस्तीफे की धमकी से उभार दिया जिसे सुविधाओ से लैस काग्रेसी राहुल गांधी की घेराबंदी कर अपनी दुकान को अरामपस्ती से अभी तक चलाते रहे । काग्रेस खत्म हो नहीं सकती इसे तो नरेन्द्र मोदी भी जानते है और रईस काग्रेसियो का झुंड भी जानता समझता है । क्योकि काग्रेसी की पहल किसी राजनीतिक दल की तर्ज पर कभी हुई ही नहीं । उसे शुरुआती दौर में आाजादी के संघर्ष से जोड कर देखा गया तो बाद में व्यक्तितव का खेल बन गया । गांधी परिवार से जो जो निकला , उसका जादूई व्यक्तित्व जब जब जनता को अछ्छा लगा उसने काग्रेस के हाथो सत्ता सौप दी । नेहरु, इंदिरा, राजीव की राजनीतिक पारी में मुद्दो का उभारना और व्यक्तित्व का जादुई रुप ही छाया रहा । लेकिन सोनिया गांधी के दौर में विपक्ष के अंधेरे ने काग्रेस को सत्ता दिला दी । और राहुल गांधी के वक्त गांधी परिवार के व्यक्तितव की चमक को अपने नायाब नैरेटिव या कहे मुद्दो के काकटेल तले कही ज्यादा चमक रखने वाले मोदी उभर आये । लेकिन काग्रेस की व्याख्या या काग्रेस का परिक्षण का ये आसान तरीका है । दरअसल काग्रेस की यात्रा या कहे नेहरुकाल से भारत को गढने का जो प्रयास गवर्नेंस के तौर पर हुआ उसमें गांव या कहे पंचायत से लेकर महानगर या संसद तक काग्रेसी सोच बिना पार्टी संगठन के भी पलती बढती गई । सीधे समझे तो जिस तरह पन्ना प्रमुख से लेकर संगठन महासचिव के जरीय बीजेपी ने खुद को राजनीतिक दल के तौर पर गढा उसके ठीक उलट देश की नौकरशाही [बीडीओ से आईएएस़] , देश में विकास का इन्फ्रस्ट्क्चर , औघोगिक और हरित क्रातिं या फिर सूचना के अधिकार से लेकर मनरेगा तक की पहल को काग्रेसी सोच तले देखा परखा गया । यानी काग्रेसी कार्यकत्ताओ ने या फिर काग्रेसी संगठन ने जो भी काम किया वह काग्रेसी सत्ता से निकली निकली नीति या देश में लागू किये गये निर्णयो की कारपेट पर ही चलना सीखा । और सत्ता के मुद्दे के साथ गांधी परिवार के व्यक्तित्व से नहायी काग्रेस को इसका लाभ मिलता चला गया । जबकि इसके ठीक उलट ना तो जनता पार्टी की सरकार में ना ही वाजपेयी की सत्ता के दौर में कोई ऐसा निर्णय लिया गया जिसे कभी जनसंध या फिर बीजेपी को लाभ मिलता । बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद पहली बार मोदी कार्यकाल में ही नये तरीके से सत्ता के नैरेटिव को इतनी मजबूती से बनते देखा कि बीजेपी का संगठन या संगठन के साथ खडे स्वयसेवको की फौज यानी आरएसएस की चमक भी गायब हो गई । यानी एक वक्त मंडल को कउंटर करने के लिये कंमड की फिलासफी । या फिर अयोध्या आंदोलन के जरीये बीजेपी-संघ परिवार को एक साथ मथते हुये देश को पार्टी से जोडने की कोशिश जिस अंदाज में हुई वह बीजेपी को सत्ता मिलते ही गायब हो गई । यानी बीजेपी को सत्ता हमेशा अपने राजनीतिक संगठन की मेहनत से मिली । पर सत्ता मेंआते ही संगठन को ही कमजोर या घता बताने की प्रक्रिया को भी बीजेपी ने ही जिया । लकिन काग्रेस ने कभी संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं और संगठन हमेशा काग्रेसी सत्ता के निर्णयो या कहे कार्यों पर ही निर्भर रहा । शायद इसीलिये पहली बार जब बीजेपी का अंदाज बदला । उसका सबकुछ नेतृत्व में समाया तो काग्रेस के सामने संकट ये उभरा कि वह पारंपरिक राजनीति को छोडे या फिर पारंपरिक राजनीतिक करने वाले दिग्गज नेताओ को ही दरकिनार करें । क्योकि काग्रेस मथने की जो पूरी प्रक्रिया है उसमें नेतृत्व को ना सिर्फ क्रूर होना पडेगा बल्कि निर्णायक भी होना होगा । और राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश इसी की शुरुआत है । क्योकि राहुल गांधी भी इस सच को जाने है कि जबतक उनके पास संपूर्ण ताकत नही होगी तबतक चिंदबरम या गहलोत या कमलनाथ के बेटे कही ना कहीं टकराते रहेगें । सिंधिया का महाराजा वाला भाव जागृत रहेगा । और चारो तरफ से चापलूस या गांधी परिवार के दरवाजे पर दस्तक देने की हैसियत वाले ही काग्रेस क भीतर बाहर खुद को ताकतवर दिखलाकर कद्दावर कहलाते रहेगें । राहुल गांधी अब काग्रेस के उस ठक्कन को ही खोल देना चाहते है जिस ठक्कन के भीतर सबकुछ गांधी पारिवार है । यानी सोनिया गांधी के आगे हाथ से राह दिखाते नेता , प्रियका गांधी के आगे खडे होकर रास्ता बनाते नेता या फिर खुद उनके सामने नतमस्तक भूमिका में खडेहोकर बडे काग्रेसी बनने कहलाने की सोच लिये फिरते काग्रेसियो से काग्रेस को मुक्त कैसे किया जाये अब इसी सवाल से राहुल गांधी ज्यादा जुझ रहे है ।
सवाल है कि अगर चिंदबरम, कमलनाथ या गहलोत को राहुल गांधी रिटायर ही कर दें तो किसी पर क्या असर पडेगा । या फिर इस कतार में सलमान खुर्शीद हो या पवन बंसल या फिर श्रीप्रकाश जयसवाल या सुशील कुमार शिंदे या फिर किसी भी राज्य का कोई भी वरिष्ट काग्रेसी । सभी के पास खूब पैसा है । सभी के लिय काग्रेस एक ऐसी राजनीति की दुकान है जहा कुछ इनवेस्ट करने पर सत्ता मिल सकती है यानी लाटरी खुल सकती है । और काग्रेस क पास अगर इन नेताओ का साथ ना रहेगा तो होगा क्या ? शायद पहचान पाये चेहरो की कमी होगी या फिर गांधी परिवार के सामने संकट होगा कि वह खुद को कद्दावर कैसे कहे जब वह काग्रेसी कद्दावरो से घिरे हुये नही है तो । लेकिन इसका अनूठा सच तो गुना संसदय सीट पर मिले जनादेश में जा छुपा है । जहा महाराज जी को उनका ही कारिदा या कह जनता से निकला एक आम शख्स हरा देता है । और वही से सबसे बडा सवाल भी जन्म लेता है कि बदलते भारत में पारंपरिक नेताओ को लेकर जनता में इतनी घृणा पैदा हो चुकी है कि वह उसकी रईसी से तंग आ चुका है । फिर युवा के मन में कभी कोई नेता आदर्श नहीं होता । और ना ही युवा किसी भी कद्दावर नेता को बर्दाश्त करता है । युवा भारत जब बोलने की स्वतंत्रता को ना सिर्फ राजनीतिक मिजाज से अलग देखता है बल्कि क्रियटीव होकर अब तो वह राजनीतिक पर किसी भी विपक्ष की राजनीतिक समझ से ज्यादा तीखा कटाक्ष करता है । तो ऐसे में नेताओ का भी संवाद सीधा होना चाहिये । साफगोई नीतियो के सामने आना चाहिये । और ये समझ कैसे काग्रेसी समझ ना पाये ये सिर्फ सिंधिया ही नहींबल्कि मल्लिकाजुर्न खडगे की चुनावी हार से भी समझा जा सकता है । यानी कल तक संसद में काग्रेस का नेता । विपक्ष का नेता । और भूमि अधिगरहण से लेकर नोटबंदी और जीएसटी भी इन्ही के काल में मोदी सत्ता ल कर आई तो फिर विपक्ष के नेता के तौर पर सिर्फ दलित सोच को उभारकर मल्लिकाजुर्जन खडके को आगे करने की जरुरत क्या थी । क्या 2014 में कमलनाथ विपक्ष के नेता के तौर पर सही नहींथे । तो फैसले गलत लिये गये या गलत होते चले गये । और एक वक्त के बाद काग्रेसी ही जब गांधी परिवार से थक हार जाता रहा तो फिर उसका संयम सिवाय काग्रेस से कमाई के अलावे कुछ रहा भी नहीं । राजनीति और चुनाव के वक्त जो सामाजिक-आर्थिक या कहे राजनीतिक नैरेटिंव भीचाहिये उसपर क्या किसी ने कभ सोचा । और नहीं सोचा तो मल्लिकाजुर्न इतनी बडी पहचान के वाबजूद चुनाव हार गये । यानी जिनका पहचान ही रही कि कभी चुनाव नहीं हारते है , इसलिये मल्लिकाजुर्न खडके को " सोल्लिडा सरदारा " भी कहते थे । लेकिन काग्रेस जबसिर्फ गांधी परिवार के कंधे पर सवार होकर राजनीतिक चुनावी प्रचार ही देखती रही और राहुल गांधी अभिमन्यु की तरह लडते लडते थके भी तब भी काग्रेस में अपने अपनी गरिमा समेटे कौन सा नेता निकला । तो क्या राहुल गांधी अब अभिमन्यु नहीं बल्कि अर्जुन की भूमिका में आना चाहत है जहा उनके जहन में कृष्ण का पाठ साफ तौर पर गूंज रहा है कि काग्रेस को जिन्दा रखना है तो कोटरी, चापलूस और डरे-सहमे रईस काग्रेसो का वध जरुरी है ।
और जिन काग्रेसियो से राहुल गांधी घिरे हुये है वह घबरा भी रहा है कि कही राहुल गांधी वाकई काग्रेस को पूरी तरह बदलन ना निकल पडे । तो वो पंजाब, राजस्थान , मद्यप्रदेश , छत्तिसगढ में काग्रेस की जीत का सहरा भी अपने माथे बांध लेता है । लेकिन इस सच को कोई नहीं कहता है कि इन राज्यो में काग्रेस की जीत से पहले बीजेपी की सत्ता की हार जनता ने चुनी । इसीलिये जब नारे लगते रहे कि "वसुंधरा तेरी खैर नहीं , लेकिन मोदी से बैर नहीं " तो भी काग्रेसी समझ नहीं पाये कि कौन सी व्यूबरचना मोदी ने अपने कद के लिये बना रखी है या भी वह लगातार बना रह है । बीजेपी में कद्दावर क्षत्रप भी मोदी को बर्दाश्त नहीं और काग्रेस में खुद को मजबूत क्षत्रप के तौर पर मान्यता पाने की होड अब कैप्टन से लेकर कमलनाथ और गहलोत से लेकर बधेल तक में है । लेकिन काग्रेस को पार्टी के तौर पर अवतरित सिर्फ 10 जनवपथ या 24 अकबर रोड में डेरा जमाये काग्रेसियो से मुक्ति भर से नहीं होगा बल्कि मोदी की सत्ता काल में बीजेपी की कमजोरी को काग्रेस कैसे ताकत बना सकती है और कैसे ग्राम सभा से लेकिन लोकसभा तक की लकीर सबको साथ जोडने वाली विचारधारा के साथ लेकर चला सकती है । इम्तिहान इसी का है । और इस परिक्षा का पहला सामना तो राहुल गांधी को ही करना होगा जिनके पास अभी तक जमीनी राजनीतिक समझ ही नहीं बल्कि समाज को समझने वालो की टीम तक नहीं है । जो अभी तक ये नहीं समझ पाये है कि संगठन का विस्तार या कारगर रणनीति बनाते रहना या फिर जनता से सीधा संपर्क कैसे बनाये इस समझ को अपनी कोर टीम में विकसित कर पाये । अगर अतीत में ना भी झांके की ममता और जगन ने काग्रेस क्यो छोडी या फिर वह सफल क्यो हो गये लेकिन भविष्य तो देख समझ सकते है कि आखिर ममता का साथ छोडने वाले बीजेपी से पहले काग्रेस की तरफ क्यो नहीं देख सकते है । वामपंथियो के 22 फिसदी वोट बंगाल में बीजेपी के पास क्यो चले गये जबकि वाम की पूरी फिलोस्फी ही काग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में डाल दी । फिर भी काग्रेस को लक भरोसा क्या नहीं जागा ।
इतना ही नहीं संगठन में बूथ लेबल पर काम करने वाल काग्रेसी जिन्हे एक वक्त वोट कलेक्टर माना जाता था उन्हे बेहद सम्मान मिलता था वह कहां गायब हो गये । आलम तो ये हो गया कि बूथ पर बैठे काग्रेसियो को ग्वालियर संभाग में तीन बजे के बाद खाना तक नहीं मिल पाया तो बीजेपी का बूथ लगाये लोगो ने भोजन दिया । और माहौल इस तरह बनता क्यो चला गया कि जिसने मोदी को वोट नहीं दिया वह भी बाहर आकर कहने लगा कि उसने मोदी को वोट दिया और दिसने काग्रेस को वोट दिया वह भी काग्रेस जिन्दाबाद के नारे लगाने में हिचकने लगा । कहीं तो नैतिक पतन है या फिर कहीतो राहुल गांधी को अकेले लडते छोड रईस काग्रेसियो में राहुल को लेकर ही सवाल है इसलिये सभी अपनी सुविधा बनाये रखने के लिये राहुल के इस्तीफे को भी नाटक मान रहे है और फैला भी रहे है । फिर ये सवाल अब भी अनसुलझा सा है क्या वाकई राहुल गांधी बतौर राजनीतक कार्यकत्ता रह सकते है । या फिर सिर्फ अध्यक्ष के तौर पर रह सकते है । या फिर गांधी नाम रखे हुये अध्यक्ष की कुर्सी संभालते हुये उस काग्रेसी कटघरे से बाहर निकल कर काग्रेसियो को ये पाठ पढा सकता है कि जो उनके अगल बगल खडाहोकर खुद को मजबूत मानता है दरअसल वह सबसे भ्रष्ट्र है । क्योकि सच तो ये भी है कि दिनभर राहुल के इर्द गिर्द मंडराते रईस, चेहरे वाले काग्रेसी रात में मोदी तक बात पहुंचा कर अपने नंबर संबह शाम में जोडते है और हमेशा खुश खुश नजर आते है और जब युद्द की मुनादी राहुल गांधी करते है तो पहले सभी समझाते है युद्द से कुछ नहीं होगा । फिर खुद को युद्द से बाहर कर नजारा देख हसंते ठिठोली कर शुश होते रहते है । और जब राहुल गांधी कहते है तुम्ही संभालो काग्रेस को तो रुआसा सा चेहरा बनाकर कहते है " राहुल गांधी है तो काग्रेस है ।"
तो बदलाव की बयार काग्रेस में बहेगी या फिर काग्रेस धीरे धीरे सिर्फ नाम भर में तब्दिल हो कर रह जायेगी ये नया सवाल है । जबकि इतिहास में राहुल गांधी के पास सबसे बेहतरीन मौका काग्रेस को संवारने का है । और इसकी सबसे बडी वजह मोदी सत्ता में बीजेपी-संघ परिवार की सोच के खत्म होने का है । सिर्फ मोदी की गरिमामय मौजूदगी और लारजर दैन लाइफ का जो खल खुद मोदी ने बीजेपी के 11 करोड कार्यकत्ता और 60 लाख स्वयसेवक के साथ साथ सवा सौ करोड भारतीय के नाम पर शुरु किया है । वह भारतीय राजनति के उस संघर्ष को ही झुठला रहा है जो कभी नेहरु-इंदिरा के खिलाफ लोहिया-जेपी ने किया । आज की तारिख में पुराने लोहियावादी हो या जेपी संघर्ष के दौर में तपे समाजसेवी सभी खुद को अलग थलग पा रहे है । मोदी काल में उनकी जरुरत ना तो बीजेपी को है ना ही संघ परिवार को । तो काग्रेस ने जब अपनी आर्थिक नीतियो में परिवर्तन कर कारपरेट इक्नामी को नकारना सीखा है । ग्रामिण भारत और किसान-मजदूरो के साथ न्याय को जोडा है । वामपंथी-समाजवादी एंजेडो को अपने लोकप्रिय अंदाज में समेटा है । और जिस तरह मोदी सत्ता अब अपने जनादेश को मंडल के खत्म होने के साथ जोड रही है और क्षत्रपो के सामने आस्तितव का संकट है उसमें काग्रेस के लिये खुद को खडे करने का इससे बेहतरीन मौका कुछ हो नहीं सकता । तो आखरी सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी भी काग्रेस के इस ब्लूप्रिट को समझ रहे है और उसे जमीन पर उतारने के लिये अब उन्हे बिलकुल नये सिपाही चाहिये । नये सिपाहियो के जरीये संघर्ष की मुनादी से पहले सिर्फ गांधी पारिवार का नाम नहीं बल्कि सारे अधिकार चाहिये । और जब राहुल गांधी काग्रेस के उस ठक्कन को खोल कर बोतल में बंद राजनीति को आजाद कर काग्रेस को भारत के सामाजिक-सास्कृतिक मूल्यो से जोड कर बीजेपी के छद्म राष्ट्रवाद , मोदी मैजिक और भावनात्मक हिन्दुत्व से मुक्ती दिलाने की दिशा में बढना चाहते है तो फिर सफेद कुर्ते-पजामे में खुद को समेटे गांधी पारिवार की चाकरी कर काग्रेसी होने का तमगा पाये लोगो से मुक्ति तो चाहिये ही होगी ।
Thursday, May 30, 2019
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राहुल गांधी की कांग्रेस कैसी होगी ..... |
Monday, May 27, 2019
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यूं ही नहीं ढह गया भारत का चौथा स्तम्भ .. |
नरेन्द्र मोदी को 722 घंटे तो राहुल गांधी को 252 घंटे ही न्यूज चैनलो ने दिखया । जिस दिन वोटिंग होती थी उस दिन एक खास चैनल नरेन्द्र मोदी का ही इंटरव्यू दिखाता था । बालीवुड नायक अक्षय कुमार के साथ गैर राजनीतक गुफतगु या फिर मोदी की धर्म यात्रा को ही बार बार न्यूज चैनलो ने दिखाया ।मीडिया के मोदीनुकुल होने या फिर गोदी मीडिया में तब्दिल होने के यही किस्से कहे जा रहे है या कहे तर्क गढे जा रह है । लेकिन मीडियाको लेकर मोदीकाल का सच दरअसल ये नहीं है । सच तो ये है कि पांच बरस के मोदीकाल में धीरे धीरे भारत के राष्ट्रीय अखबारो और न्यूज चैनलो से रिपोर्टिग गायब हुई । जनता से जुडे मुद्दे न्यूजचैनलो में चलने बंद हुये । जो आम जन को एहसास कराते कि उनकी बात को सरकार तक पहुंचाने के लिये मीडिया काम कर रहा है । और धीर धीरे संवाद एकतरफा हो गया । जो मोदी सरकार ने कहा उसे ही बताने का या कहे तो उसके प्रचार में ही मीडिया लग गया । मीडिया ने अपनी भूमिका कैसे बदली या कहे मीडिया को बदलने के लिये किस तरह सत्ता ने खासतौर से मीडिया पर किस तरह का ध्यान देना शुरु किया । या फिर सत्तानुकुल होते संपादक-मालिको की भूमिका ने धीरे धीरे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ही खत्म कर दिया । कमोवेश यही हाल लोकतंत्र के बाकि तीन स्तम्भ का भी रहा लेकिन बाकि की स्वतंत्रता पर तो सत्ता की निगाह हमेशा से रही है और हर सत्ता ने अपने अनुकुल करने के कई कदम अलग अलग तरीको से उठाये भी है । लेकिन मीडिया की भूमिका हर दौर में बीच का रास्ता अपनाये रही । इस पार या उस पार खडे होने के हालात कभी मीडिया में आये नहीं । यहा तक की इमरजेन्सी में भी कुछ विरोध कर रहे थे पर अधिकतर रेंग रहे थे । लेकिन पहली बार उस पार खडे [ सत्तानुकुल ना होने ] मीडिया को जीने का हक नहीं ये मोदी का में खुल कर उभरा । और जब लोकतंत्र ही मैनेज हो सकता है तो फिर लोकतंत्र के महापर्व को मैनेज करना कितना मुश्किल होगा ।
ध्यान दिजिये 2014 में मोदी की बंपर जीत के बाद भी मीडिया मोदी से सवाल कर रहा था । तब निशाने पर हारी हुई मनमोहन सरकार थी । काग्रेस का भ्रष्ट्राचार था । घोटालो को फेरहिस्त थी । पर मोदी को लेकर जागी उम्मीद और लोगो का भरोसा कभी गुजरात दंगो की तरफ तो कभी बाईब्रेट गुजरात की दिशा में ले ही जाती था । और राज्य दर राज्य की राजनीति ने मोदी सत्ता ही नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी से भी सवाल पूछने बंद नहीं किये थे । केन्द्र में मनमोहन सत्ता के ढहने का असर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड की काग्रेस सत्ता पर भी पडा । 2014 में तीनो राज्य काग्रेस गंवा दियें या कहे मोदी सत्ता का असर फैला तो बीजेपी तीनो जगहो पर जीती । लेकिन 2015 में दिल्ली और बिहार दो ऐस राज्य उभरे जहा मोदी सत्ता ने पूरी ताकत झोक दी लेकिन उसे जीत नहीं मिली । और अगर उस दौर को याद किजियगा तो बिहार में जीत को लेकर आशवस्त अमित शाह से जब चुनाव खत्म होने के दिन 5 नवंबर को पूछा गया तो वह बोले मै 8 नवंबर को बोलूगा । जब परिणाम आयेगें । और 8 नवंबर 2015 को जब बिहार चुनाव परिणाम आये तो उसके बाद अमित शाह ने खामोशी ओढ ली । और तब भी मीडिया ना सिर्फ गुजराज दंगो को लेकर सवाल कर रहा था बल्कि संघ परिवार की बिहार में सक्रियता को लेकर सवाल कर रहा था । क्योकि तब यही सवाल नीतिश - लालू दोनो अपने अपने तरीके से उछाल रहे थे । वैसे उस वक्त बिहार और गुजारत के जीडीपी से लेकर कृर्षि विकास दर तक को लेकर मीडिया सक्रिय रहा । रिपोर्टिंग -आर्डिकल लिखे गये । मनरेगा के काम और न्यूनतम आय को लेकर रिपोर्टिंग हुई । इसी तरह दिल्ली चुनाव के वक्त यानी 2015 फरवरी में भी दिल्ली में शिक्षा, हेल्थ , प्रदूषण , गाडियो की भरमार सरीखे मुद्दे बार बार उठे । और शायद 2015 ही वह बरस रहा जिसने मोदी सत्ता को भारतीय लोकतंत्र का वह ककहरा पढा दिया जिसके अक्स में गुजरात कहीं नहीं है ये समझा दिया । यानी 6 करोड गुजराती को तो एक धागे में पिरोयो जा सकता है लेकिन 125 करोड भारतीय की गवर्नेंस एक सरीखी हो नहीं सकती । और उसी के बाद यानी 2016 में मोदी सत्ता का टर्निग पाइंट शुरु होता है जब वह ऐसे मुद्दो पर बड निर्णय लेती है जो समूचे देश को प्रभावित करें । भूमि अधिग्रहण , नोटबंदी और जीएसटी । ध्यान दिजिये तीनो मुद्दो से हर राज्य प्रभावित होता है लेकिन राज्यो की सियासत या क्षत्रपो से कही ज्यादा बडी भूमिका में काग्रेस आ जाती है । बहस का केनद्र संसद से सडक तक होता है । और यही से मीडिया के सामने जीने के विकल्प खत्म करने की शुरुआत होती है । हर मुद्दे का केन्द्र दिल्ली बनता है और ह मुद्दे पर बहस करती हुई कमजोर काग्रेस उभरती है । जिसकी राजनीतिक जमीन पोपली थी और मजबूत क्षत्रपो के विरोध की मौजूदगी सिवाय विरोध की अगुवाई करती दिखती काग्रेस के पीछे खडे होने के अलावे कुछ रही ही नहीं । यानी 2016 से राज्यो की रिपोर्टिग अखबारो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन से गायब हो गई । अपने इतिहास में सबसे कमजोर काग्रेस संसद के दोनो सदनों बेअसर थी ।इसी दौर में भीडतंत्र का न्याय सडक पर उभरा । राजनीतिक मान्यता कानून की मूक सहमति के साथ बीजेपी शासित राज्य में उभरी । देश भर में 64 हत्यायें हो गई । लेकिन सजा किसी हत्यारो को नहीं हुई । क्योकि हत्या पर कोई कानूनी रिपोर्ट थी ही । इस कडी में नोटबंदी क दौर में लाइन में खडे होकर नोट बदलवाने से लेकर नोट गंवाने के दर्द तले 106 लोगो की जान चली गई । लेकिन सत्ता ने उफ तक नहीं किया तो फिर संसद के भीतर हंगामे और सडक पर शोर भी बेअसर हो गया । क्योकि खबरो का मिजाज किसी मुद्दे से पडने वाले असर को छोड उसके विरोध या पक्ष को ही बताने जताने लगा । तो पहली बार जनता ने भी महसूस किया कि जब उसकी जमीन भूमि अधिग्रहण में जा रही है और मुआवजा मिल नहीं रहा है । नोटबंदी में घर से नोट बदवाने निकले परिवार के मुखिया का शव घर लौट रहा है । और अखबरो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर आम जन का दर्द कही है ही नहीं । बहस सिर्फ इसी बात को लेकर चल रही है कि जो फैसले मोदी सत्ता ने लिये वह सही है या नहीं । या फिर अखबारो के पन्नो को ये लिख कर रंगा जा रहा है कि लिये गये फैसले से इक्नामी र क्या असर पड रहा है या फिर इससे पहले की सरकारो के फैसले की तुलना में ये फैसले क्या असर करेगें । ये लकीर बेहद महीन है कि मोदी सत्ता के जिन निर्णयो ने आम जन पर सबसे ज्यादा असर डाला उन आम जन पर पडे असर की रिपर्टिग ही गायब हो गई ।
खासतौर से न्यूज चैनलो ने गायब होती खबरो को उस बहस या स्टूडियो में चर्चा तले शोर से ढक दिया जो जब तक स्क्रिन पर चलती तभी तक उसकी उम्र होती । यानी ऐसी बहसो से कुछ निकल नहीं रहा था । चर्चा खत्म होती फिर अगली चर्चा शुरु हो जाती और फिर किसी और मुद्दे पर चर्चा । हां , सिवाय तमाम राजनीतिक दल के ये महसूस करने के कि उनहे भी न्यूज चैनलो में अपनी बात कहने की जगह मिल रही है । लेकिन इस एहसास से सभी दूर होते चले गय कि हर राजनीतिक दल के जन सरोकार खत्म हो चले है । और उसमें सबसे बडी भूमिका चाहे अनचाहे मीडिया की ही हो गई । क्योकि जब मीडिया में रिपोर्टिंग बंद हुई । जन-सरोकार बचे नहीं तो फिर किसी भी मीडिया हाउस को लेकर जनता के भीतर भी सवाल उठने लगे । राष्ट्रीय न्यू चैनलो में काम करने वाले जिले और छोटे शहरो के रिपोर्टरो के सामने ये संकट आ गया कि वह ऐसी कौन सी रिपोर्ट भेजे जो अखबारो मेंछप जाये या न्यूज चैनलो में चल जाये । क्योकि धारा उल्टी बह रही थी । जनता की खबर से सत्ता पर असर पडने की बजाय सत्ता के निर्णय से जनता पर पडने वाले असर पर बहस होने लगी । और धीर धीरे स्ट्रिगर हो या रिपोर्टर या पत्रकार उसकी भूमिका भी राजनीतिक दलो के छुटमैसे नेताओ को सूचना या जानकारी देने से लेकर उनकी राजनीतिक जमीन मजबूत कराने में ही पत्रकारिता खत्म होने लगी । 2016 से 2019 तक हिन्दी पट्टी [ यूपी, बिहार , झारखंड, छत्तिसगढ, मध्यप्रेदश , राजस्थान , पंजाब , उत्तराखंड ] के करीब पांच हजार से ज्यादा पत्रकार अलग अलग पार्टियो के नेताओ के लिये काम करने लगे । सोशल मीडिया और अपने अपने क्षेत्र में खुद के प्रोफाइल को कैसे बनाया जाता है या कैसे पार्टी हाइकमान को दिखाया जाता है इस काम से पत्रकार जुड गये । इसी दौर में दो सौ से ज्यादा छोटी बडी सोशल मीडिया से जुडी कंपनिया खुल गई जो नेताओ को तकनीक क जरीये सियासी विस्तार देती ष उनकी गुणवत्ता को बढाती । और राज्यो की सत्ताधारी पार्टियो से काम भी मिलने लगा उसकी एवज में पैसा भी मिलने लगा । बकायदा राज्य सरकार से लेकर निजी तौर पर राज्यस्तीय नेता भी अपना बजट अपने प्रचार के लिये रखने लगा । और इस काम को वहीं पत्रकार करते जो कल तक किसी न्यूज चैनल को खबर भेज कर अपनी भूख [ पेट- ज्ञान ] मिलाते । हालात बदले तो नेताओ से करीबी होने का लाभ स्ट्रिगर-रिपोर्टरो को राष्ट्रीय चैनलो की सत्तानुकुल रिपोर्टिंग करने से भी मिलने लगा । और ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ नीचले स्तर पर हो । दिल्ली जैसे महानगर में भी दो सौ से ज्यादा बडे पत्रकारो [ कुल दो हजार से ज्यादा पत्रकार ] ने इसी दौर में राजनीतिक दलो का दामन थामा । कुछ स्वतंत्र रुप से तो कुछ बकायदा नेता या पार्टी के लिये काम करने लगे । दिल्ली में काम करते कुछ पत्रकार दिलली में बडे नेताओ के सहारे राज्यो के सत्ताधारियो के लिय काम करने के लिय दिल्ली छोड रराजधानियो में लौटे । आलम ये है कि 18 राज्यो के मुख्यमंत्रियो के सलाहकारो की टीम में पत्रकारिता छोड सीएम सलाहकार की भूमिका को जीने वाले लोग है । और इनका कार्य उसी मुख्यधारा के मीडिया हाउस को अपनी सत्तानुकुल करना है जिस मुख्यधारा की पत्रकारितो को छोड कर ये सलाहकार की भूमिका में आ चुके है । और मीडिया की ये चेहरा चूकि राजनीति के बदलते सरोकार [ 2013-14 के चुनाव प्रचार केतौर तरीके ] और मीडिया के बदलते स्वरुप [ इक्नामिक मुनाफे का माडल ] से उभरा है तो फिर 2016 से 2018 तक के सफर में सरकार का मीडिया को लेकर बजट पिछली किसी भी सरकार के आकडे को पार कर गया और मीडिया भी अपनी स्वतंत्र भूमिका छोड सत्तानुकुल होने से कतराया नहीं । मोदी सत्ता ने 2016-17 में न्यूज चैनलो के लिये 6,13,78,00,000 रुपये का बजट रखा तो 2017-18 में 6,73,80,00,000 रुपये का बजट रख । प्रिट मीडिया के कुछ कम लेकिन दूसरी सरकारो की तुलना में कही ज्यादा बजट रखा गया । 2016-18 के दौर में 9,96,05,00,000 रुपये का बजट प्रिट मीडिया में प्रचार के लिये रखा गया । यानी मीडिया को जो विज्ञापन अलग अलग प्रोडक्ट के प्रचार प्रासर के लिये मिलता उसके कुल सालाना बजट से ज्यादा का बजट जब सरकार ने अपने प्रचार के लिये रख दिया तो फिर सरकार खुद एक प्रोडक्ट हो गई और प्रोडक्ट को बेचने वाला मीडिया हो गया । हो सकता है इसका एहसास मीडिया हाउस में काम करते पत्रकारो को ना हो और उन्हे लगता हो कि वह सरकार के कितने करीब है या फिर सरकार चलाने में उनी की भूमिका पहली बार इतनी बडी हो चली है कि प्रधानमंत्री भी कभी ट्विट में उनके नाम का जिक्र कर या फिर कभी इंटरव्यू देकर उनके पत्रकारिय कद को बढा रह है । और इसी रास्ते धीरे धीरे मीडिया भी पार्टी बन गया और पार्टी का बजट ही मीडिया को मुनाफा देने लगा । यानी एक ऐसा काकटेल जिसमें कोई गुंजाइश ही नहीं बचे कि देश में हो क्या रहा है उसकी जानकारी देश के लोगो को मिल पाये । या फिर संविधान में दर्ज अधिकारो तक को अगर सत्ता खत्म करने पर आमादा हो तो भी मीडिया के स्वर सत्तानुकुल ही होगें । इसीलिये ना तो जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट से निकली आवाज ' लोकतंत्र पर खतरा है ' को मीडिया में जगह मिल पायी । बहस हो पायी । ना ही अक्टूबर 2018 में सीबीआई में डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर का झगडा और आधी रात सरकार का आरपेशन सीबीआई कोई मुद्दा बन पाया । और ना ही मई 2019 में चुनाव आयोग के भीतर की उथल पुथल को मीडिया ने महत्वपूर्ण माना । ध्यान तो तीनो ही संवैधानिक और स्वयत्त संस्था है और तीनो के मुद्दे सीधे सत्ता से जुडे थे । और मीडिया इसपर बहस चर्चा या फिर खबर के तौर पर परतो को उघाडने के लिये तैयार नहीं था । तो मीडिया निगरानी की जगह सत्तानुकुल हो चला और लोकतंत्र की नई परिभाषा सत्ता में ही लोकतंत्र खोजने या मानने का हो जाय पर्सेप्सन इसी का बनाया गया । हालाकिं इस पूरे दौर में विपक्ष ने ना तो बदलते हालात को समझा ना ही अपनी पारंपरिक राजनीति की लीक को छोडा । यानी लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल बेहद कमजोर साबित हुये । जिनके पास ना तो अपने राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक नैरेटिव थे ना ही हिन्दुत्व में लिपटे राष्ट्रवाद की थ्योरी का कोई विकल्प । तो मीडिया ने खुद को छोडा और सत्ता को थामा ।
यानी एक तरफ मोदी काल के पहले पांच साल में 164 योजनाओ के एलान की जमीनी हकीकत है क्या , इसपर मेनस्ट्रीम मीडिया ने कभी गौर करना जरुरी नहीं समझा । उसके उलट अपनी ही योजनाओ की सफलता के जो भी आकडे सत्ता ने बताये उसे सफल मानकर विपक्ष से सवाल मीडिया ने किया जैसे विपक्ष ही मीडिया की भूमिका में हो और मीडिया सत्ताधारी की भूमिका में । और दूसरी तरफ संविधान के जरीये बनाये गये अलग-अलग संस्थानो के चैक एंड बैलेस को ही सत्ता की कार्यप्रणाली ने डिगाया तो भी मीडिया के सवाल सत्ता के हक में ही उठे । और राष्ट्रीय मीडिया में हिन्दी हो या अग्रेजी में होने वाली पत्रकारिता के नये मिजाज को समझे तो सत्ताधारियो का इंटरव्यू । उनसे संवाद बनाना । उनकी योजनाओ को उन्ही के जरीये उभारना । सत्ता के मुद्दो पर कई पार्टियो के नताओ को बैठाकर चर्चा करने से आगे अब हालात ठहर गये है । और चाहे अनचाहे न्यू मीडिया के केन्द्र में सत्ता की खासियत है । यानी 2014-19 मोदी काल के पहले सियासी सफर ने चुनावी जीत को अपने अनुकुल बनाने का हुनर पा लिया । लोकतंत्र मैनेज इस अंदाज में हुआ जिसमें जमीनी सच और जनादेश के अंतर पर कोई सवाल ना कर सके । तो कल्पना किजिये 2019-24 में आप हम या भारत किस सफर पर निकल रहा है । क्योकि अब ये दुविधा भी नहीं है कि मीडिया कोई सवाल करेगा । ये उलझन भी नहीं है कि स्वयत्त संस्धानो में कोई टकराव होगा । शिक्षा संस्थान या कहे प्रीमियर एजुकेशन सेंटर [ जेएनयू, बीएचयू ,जामिया या अलीगढ समेत तमाम राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी ] से भी कोई आवाज उठेगी नहीं । मुस्लिम या दलित के सवालो को उके अपने समुदाय से आवाज उठाकर राजनीति करने वालो की हैसियत खत्म की जा चुकी है । मायावती कमजोर हो चुकी है । काग्रेस में बैठे सलमान खुर्शिद या गुलाम नबी आजाद सरीखे नेताओ के पास ना तो पालेटिकल नैरेटिव है ना ही राजनीतिक जमीन । बीजेपी के सहयोगी दलो को प्रधनमंत्री ने एनडीए की बैठक में ही एहसास करा दिया कि जो उनके साथ है वह बचेगा बाकि खत्म हो जायेगें । जैसे राहुल अमेठी में हार गये । सिधिया गुना में हर गये जंयत बागपत में हार गये । डिंपल कन्नोज में हार गई । दिग्विजय भोपाल में हार गये । दीपेन्द्र हुडा रोहतक में हार गये । लालू के परिवार का पूरी तरह सफाया हो गया । तो फिर आगे सवाल करेगा कौन और जवाब देगा कौन । ये सवाल अब मोदी सत्ता के दूसरे काल किसी के मन में घुमड सकता है । क्योकि अब तो बीजेपी में कोई क्षत्रप बचा नहीं और दूसरे दलो के मजबूत क्षत्रप कमजोर हो चुके है । पर जो अब होगा उसमें अगर मीडिया तंत्र भी ना होगा तो यकीन जानिये जो मीडिया आज सत्ता से चिपट मुस्कुरा रहा है गर्द उसकी भी कटेगी और मोहरे बदले भी जायेगें । क्योकि अब नये भारत की असल नींव पडगी और उसमें वह मोहरे कतई काम नहीं करेगं जिन्होने 2014 से 2019 तक के दौर में ना तो पकौडे पर सवाल किया ना ही कारपोरेट पर अंगुली उठायी । या फिर जो इंटरव्यू लेते लेते आत्ममुग्ध होकर मोदीमय हो गये । और धीरे धीरे युवा पत्रकारो के सामने भी ये सवाल तो उभरा ही क्या पत्रकारिता यही है । क्योकि संपादक ही जब सवाल पूछने से कतराये या फिर इंटरव्यू का अंदाज ही जब सामने वाले के कसीदे पढने में जा छुपा हो तब भविष्य में पत्रकारो की कौन सी टीम जवा होगी । और मोदी दौर में मीडिया सस्थानो से जुडे युवा पत्रकार क्या वाकई अपने संपादको को आदर्श मानेगें या फिर मोदी सत्ता को मीडिया को रेगते हुये बनाते के तौर पर देख पायेगें और भविष्य में उसकी व्याख्या करेंगे । जाहिर है ये सवाल किसी भी देश को मजबूत शासक से नहीं जोडते । क्योकि ये मोदी भी समझते है जिस भारत को वह गढना चाहते है उसमें ईंट और गारद बनने वाले मीडिया की उपयोगिता इमारत बनते ही खत्म हो जाती है । और 2019 का जनादेश बताता है कि मोदी इमारत बना चुके है अब उसमें जिन विचारो की जान फूंकनी है और खुद को अमर करना है उसके लिये नये हुनरमंद कारिगर चाहिये जो 2014-19 के दौर में मर चुके सवालो को 2019-24 के बीच जीवित कर सके । जिससे संघ के सौ बरस का जश्न सिर्फ स्वयसंवको की टोली या नागपुर हेडक्वाटर भर में ना समाये बल्कि भारत को नेहरु -गांधी की मिट्टी से आजाद कर सावरकर- हेडगेवार- गोलवरकर के सपनो में ढाल दें ।
Friday, May 24, 2019
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ना मुद्दे ना उम्मीदवार सिर्फ मोदी सरकार |
गुलाब की पंखुडियों से पटी पडी जमीन। गेंदा के फूलो से दीवार पर लिखा हुआ धन्यवाद । दरवाजे से लेकर छत तक लड्डु बांटते हाथ । सडक पर एसयूवी गाडियो की कतार । और पहली बार पांचवी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता भी खुला हुआ । ये नजारा कल दिल्ली के नये बीजेपी हेडक्वाटर का था । दीनदयाल मार्ग पर बने इस पांच सितारा हडक्वाटर को लेकर कई बार चर्चा यही रही कि दीनदयाल के आखरी व्यक्ति तक पहुंचने की सोच के उलट आखरी व्यक्ति तो दूर बीजेपी कार्यकत्ताओ के लिये हेडक्वाटर एक ऐसा किला है जिसमें कोई आसानी से दस्तक दे नही सकता । जबकि अशोक रोड के बीजेपी हेडक्वाटर में तो हर किसी की पहुंच हमेशा से होती रही । और 2014 की जीत का नजारा कैसे 2019 में कही ज्यादा बडी जीत के जश्न के साथ अशोका रोड से दीनदयाल मार्ग में इस तरह तब्दिल हो जायेगा कि बीजेपी को समाज का पहला और आखरी व्यकित एक साथ वोट देगें । ऐसा कभी पहले हुआ नहीं था और ऐसा हो सकता है ये कभी किसी ने सोचा ना होगा कि बहुमत की सरकार दूसरी बार अपने बूते करीब 50 फिसदी वोट के साथ सत्ता में बरकरार रहे । और सिर्फ चार राज्य छोड कर [ तमिलनाडु , आध्रप्रदेश,केरल और पंजाब ] हर जगह बीजेपी ऐसी घमक के साथ सत्ता की डर अपने साथ रखगी कि ना सिर्फ क्षत्रप बल्कि राष्ट्रीय पार्टी काग्रेस को भी अपनी राजनीति को बदलने या फिर नये सिरे से सोचने की जरुरत पडेगी । जबकि देश के सामने सारे मुद्दे बरकरार है । बेरोजगारी , किसान , मजदूर , उत्पादन कुछ इस तरह गहरया हुआ कि आर्थिक हालात बिगडे हुये है । उसपर घृणा , पाकिस्तान से युद्द , हिन्दु राष्ट्र की सोच और गोडसे को जिन्दा भी किया गया लेकिन फिर भी जनादेश के सामने मुद्दे-उम्मीदवार मायने रखे ही नहीं । जातिया टूटती नजर आयी । उम्मीद और आस हिन्दुत्व का जोगा उडकर देशभक्ति व राष्ट्रवाद में इस तरह खोया कि ना सिर्फ पारंपरिक राजनीतक सोच बल्कि अतित की समूची राजनीतिक थ्योरी ही काफूर हो गई । पश्चिम बंगाल में धर्म को अफिम कहने मानने वाले वामपंथी वोटर खिसक कर धर्म का जाप करने वाली बीजेपी क साथ आ खडे हुये । और जिस तरह 22 फिसदी वामपंथी वोट एकमुश्त बीजेपी के साथ जुडे गया उसने तीन संदेश साफ दे दिये । पहला , वामपंथी जमीन पर जब वर्ग संघर्ष के नारे तले काली पूजा मनायी जाती है तो फिर वही काली पूजा , दशहर और राम की पूजा तले धर्मिक होकर मानने में क्या मुश्किल है । दूसरा , वाम जमीन पर सत्ता विरोध का स्वर हमेशा रहा है तो वाम के तेवर-संगठन-पावर खत्म हुआ तो फिर विरोध के लिये बीजेपी के साथ ममता विरोध में जाने से कोई परेशनी है नहीं । तीसरा , मुस्लिम के साथ किसी जाति का कोई साथ ना हो तो फिर मुस्लिम तुष्टिकरण या मुस्लिम के हक के सवाल भी मुस्लिमो के एक मुश्त वोट के साथ सत्ता दिला नहीं सकते या फिर सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में आ सकते है ।
दरअसल , जनादेश तले कुछ सच उभर कर आ गये और कुछ सच छुप भी गये । क्योकि 2019 का जनादेश इतना स्थूल नहीं है कि उसे सिर्फ मोदी सत्ता की एतिहासिक जीत कर खामोशी बरती जा जाये । क्योकि बंगाल से सटे बिहार में एमवाय जोड टूट गया । लालू यादव की गैर मौजूदगी में लालू परिवार के भीतर का झगडे और महागंढबंधन के तौर तरीके ने उस मिथ को तोड दिया जिसमें यादव सिर्फ आरजेडी से बंधा हुआ है और मुसलिमो को ठौर महागंठबंधन में ही मिेलेगी ये मान लिया गया था । चूकि तेजस्वी, राहुल , मांझी , कुशवाहा , साहनी के एक साथ होने क बावजूद अगर महागंठबंधन की हथेली खाली रह गयी तो ये सिर्फ नीतिश-मोदी-पासवान की जीत भर नहीं है बल्कि सामाजिक समीकरण के बदलने के संकेत भी है । और जिस तरह बिहार से सटे यूपी में अखिलेश - मायावती के साथ आने के बावजूद यादव - जाटव तक के वोट ट्रासफर नहीं हुये उसमें भविष्य के संकेत तो दे ही दिये कि अखिलेश यादव ओबीसी के नेता हो नहीं सकते और मायावती का सामाजिक विस्तार अब सिर्फ जाटव भर है और उसमें भी बिखराव हो रहा है । फिर बीजेपी ने जिस तरह हिन्दु राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर वोट का ध्रुवीकरण किया उसने भी संकेत उभार दिये कि काग्रेस जिस तरह सपा-बसपा से अलग होकर उंची जातियो के वोट बैक को बजेपी से छिन कर अपने अनुकुल करने की सोच रही थी जिससे 2022 [ यूपी विधानसभा चुनाव ] तक उसके लिये जमीन तैयार हो जाये और संगठन खडा हो जाये उसे भारी धक्का लगा है ।
जाहिर है बीजेपी और काग्रेस के लिये भी बडा संदेश इस जनादश में छुपा है । एक तरफ बीजेपी का संकट ये हो कि अब वह संगठन वाली पार्टी कम कद्दावर नेता की पहचान के साथ चलने वाली सफल पार्टी के तौर र ज्यादा है । यानी यहा पर बीजेपी कार्यकत्ता और संघ के स्वयसेवक की भूमिका भी मोदी के सामने लुप्त सी हो गई । जो कि वाजपेयी-आडवाणी युग से आगे और बहुत ज्यादा बदली हुई सी पार्टी है । क्योकि वाजपेयी काल तक नैतिकता का महत्व था । मौरल राजनीति के मायने थे । तभी तो मोदी को भी राजधर्म बताया गया और भ्र्ष्ट्र यदुरप्पा को भी बाहर का रास्ता दिखाया गया । लेकिन मोदी काल महत्वपूर्ण सिर्फ जीत है । इसलिये महात्मा गांधी का हत्यारा गोडसे भी देशभक्त है और सबसे ज्यादा कालाधन खर्च कर चुनाव जीतने का शाह मंत्र भी मंजूर है । पर इसके सामानांतर काग्रेस के लिये सभवत ये सबसे मुश्किल दौर है । क्योकि बीजेपी तो मोदी सरीखे लारजर दैन लाइफ वाले नेता को साथ लेकर भी पार्टी के तौर पर लडती दिखायी दी । लेकिन काग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी होकर भी सिर्फ अपने नेता राहुल गांधी को ही देखकर मंद मंद खुश होती रही । लड सिर्फ राहुल रहे थे । प्रिंयका गांधी का जादुई स्पर्श अच्छा लग रहा था । लेकिन काग्रेस कही थी ही नहीं । और शायद 2019 के जनादेश में जिस तरह की सफलता जगन रेड्डी को आध्रे प्रदेश में मिली उसने काग्रेस की सबसे बडी कमजोरी को भी उभार दिया कि उसने ना तो अपनो को सहेजना आता है ना ही काग्रेस को एक राजनीतिक दल के तौर पर संभालना आता है । क्योकि एक वक्त ममता भी काग्रेस से निकली और जगन रेड्डी भी काग्रेस से निकले । दोनो वक्त गांधी परिवार में सिमटी काग्रेस ने दिल बडा नहीं किया उल्टे अपने ही पुराने नेताओ के सामने काग्रेस के एतिहासिक सफर के अंहकार में खुद को डुबो लिया । और जिस मोड पर राहुल गांधी ने काग्रेस संभाली तो वह पार्टी को कम नेताओ को ही ज्यादा तरजीह दे मान बैठे कि नेताओ से काग्रेस चलेगी । असर इसी का है कि काग्रेस शासित किसी भी राज्य में नेता को इतना पावर नहीं कि वह बाकियो को हाक सके । तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ के सामानातंर दिग्विजय हो या सिधिया या फिर राजस्थान में गहलोत हो या पायलट या फिर छत्तिसगढ में भूपेश बघेल हो या ताम्रध्वज साहू व टीएस सिंह देव । सभी अपने अपने तरीके से अपने ही राज्य में काग्रेस को हाकते रहे । तो कार्यकत्ता भी इसे ही देखता रहा कि कौन सा नेता कितना पावरफुल है और किसके साथ खडा हुआ जा सकता है या फिर अपनी अपनी कोटरी में सिमटे काग्रेसी नेताओ को संघर्ष की जरुरत क्या है ये सवाल ना तो किसी ने जानना चाहा और ना किसी ने पूछा । तो तीन महीने पहले अपने ही जीते राज्य में काग्रेस की 2014 से भी बुरी गत क्यो हो गई इसका जवाब काग्रेसी होने में ही छिपा है जो मान कर चलते है कि वे सत्ता के लिये ही बने है ।
आखरी सवाल है , इस जनादेश के बाद होगा क्या ? क्योकि देश ना तो विज्ञान को मान रहा है । ना ही विकास को समझ सका । ना ही सच जानना चाहा है । ना ही प्रेम या सोहार्द उसकी रगो में दौड रहा है । वह तो हिन्दु होकर देशभक्त बनकर कुछ ऐसा करने पर आमादा है जहा शिक्षा-स्वास्थय-पानी-प्रर्यावरण बेमानी से लगे । और देश का प्रधानमंत्री उस राजा की तरह नजर आये जिसे जनता की फिक्र इतनी है कि वह दुश्मनके घर में घुस कर वार करने की ताकत रखता हो । और राजा किसी देवता सरीखा नजर आये । जहा संविधान , सुप्रीम कोर्ट , चुनाव आयोग भी बेमानी हो जाये । क्योकि तीन महीने पहले "इस बार 300 पार " का ऐलान करते हुये तीन महीने बाद तीन सौ पर कर देना किसी पीएम के लिये चाहे मुश्किल हो लेकिन किसी राजा या देवता के लिये कतई मुश्किल नही है ।
Tuesday, May 21, 2019
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अंधेरे की सियासत का लोकतंत्र |
अंधेरा घना है और अंधेरे की सियासत तले लोकतंत्र का उजियारा खोजने की कोशिश हो रही है । मौजूदा वक्त में लोकतंत्र का ये ऐसा रास्ता है जिसने आजादी के बाद से ही सत्ता हस्तातरण के उस मवाद को उभार दिया है जिसमें देश चाह कर भी बार बार 1947 की उसी परिस्थिति में जा खडा होता है जहा न्याय और समानता शब्द गायब रहे । ये कोई आश्चयजनक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट आज लोकतंत्र को खतरे में होने एलान कर दें और देश में आह तक ना हो । न्यायपालिका खुद के संकट को उभारे और समाज में कोई हरकत ना हो । चुनाव आयोग की स्वतंत्र पहचान खुले तौर पर गायब लगे और आयोग के भीतर से ही आवाज आये कि सत्तानुकुल ना होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है या सत्ता के विरोध के स्वर को जगह भी चुनाव आयोद में दर्ज नहीं की जाती और समाज के भीतर कोई हलचल नहीं होती । एक तरफ ईवीएम के जरीय तकनीकी लोकतंत्र को जीने का सबब हो तो दूसरी तरफ यही ईवीएम सत्ता के लिये खिलौना सरीखा हो चला हो । पर देश तो लोकतंत्र तले जीने का आदी है तो कोई उफ नही निकलता । आश्चर्य तो इस बात भी नहीं हो पा रहा है कि रिजर्व बैक जनता के पैसो की लूट के लिये समूची बैकिंग प्रणाली को भी सत्ता के कदमो में झुकाने को तैयार है और जनता के भीतर से कोई विरोध हो नहीं पाता । खुलो तौर पर जनता के पैको में जमा रुपयो क कर्ज लूट होती है । रईस कानून व्यवस्था को घता बता कर फरार हो जाते है लेकिन संसद कानून का राज कहकर लोकतंत्र क चादर ओढ लेती है । और तो और किसी तरह की कोई बहस अपने ही बच्चो की शिक्षा के गिरते स्तर या शिक्षा की तरफ की जा रही अनदेखी को लेकर भी मां-बाप में नही जाग रही है । प्रीमियर जांच एंजेसी सीबीआई के भीतर डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर यानी वर्मा-आस्थाना के खुले तौर पर भ्रष्ट होने के आरोपो पर भी समाज में कोई हरकत नहीं हुईऔर खुले तौर पर पीएमओ की दखलअंदाजी को लेकर भी बहुसंख्यक तबका सिर्फ तमाशबीन ही बना रहा है । कैसे और किस तरह से पीने लायक पानी, स्वच्छ पर्यावरण, हेल्थ सर्विस सबकुछ बिगाड कर सत्ताधारियो ने लोकतंत्र का पाठ चुनाव के एक वोट पर जा टिकाया और बेबस देश सिर्फ देखता रहा । और कैसे बेबसी से मुक्ति के लिये हर पांच बरस बाद होने वाले चुनाव को ही उपचार मान लिया गया । यानी सत्ता परिवर्तन के जरीये लोकतंत्र के मिजाज को जीना और सत्ता के लिये देश में लूटतंत्र को कानूनी जामा पहना देना , दोनो हालातो को को देश के हर वोटर ने जिया है और हर नागरिक ने भोगा है । इससे इंकार कौन करेगा । 1947 के बाद संसद हर पांच बरस में सजती संवरती रही । जनता की भागीदारी संसद को ही लोकतंत्र का मंदिर मान कर समती गई । और 2014 में जब पहली बार किसी नये नवेले प्रधानमंत्री ने संसद की जमीन को माथे से लगाया तो लोकतंत्र का पावन रुप हर उस आंख में बस गया जिन आंखो ने 1952 से लेकर 2014 तक संसद के भीतर बाढ-सूखा की तबाही ,मंहगाई तले पिसते मध्यम वर्ग , अनाज की किमत तक ना मिलपाने से कर्ज में डूबे किसान की खुदकुशी , न्यूनतम मजदूरी के ना मिलने पर तिल तिल मरते परिवार , गांव गांव में पीने के पानी के लिये भटकते लोग , दो जून की रोटी के लिये गांव से पलायन करते किसानी छोड मजदूर बन शहरो की सडको पर भटकते परिवार के परिवार । तमाम मुद्दो पर संसद की अंसेवनशीलता भी हर किसी ने हर दौर में देखी । आलम ये भी रहा कि 15 फिसदी सांसदो की मौजदगी भी इन मुद्दो पर बहस के वक्त नहीं रहती और बिना कोरम पूरा हुये संसद में जिन्दगी से जुडे मुद्दो को सिर्फ सवाल जवाब में खत्म कर दिया जाता । जिन मुद्दो पर सत्ता को विपक्ष घेरता और उन्ही मुद्दो पर न्याय दिलाने की आस बनाकर विपक्ष सत्ता पाता और सत्ता पाने के बाद उन्ही मुद्द को भूल जाता । ये सब कैसे कोई भूल सकता है । शायद इसीलिये अंधेरा धीरे धीरे गहराता रहा और समूचे समाज ने आंखे मूंद रखी थी ।क्योकि लोकतंत्र के आदि हो चले भारत में आवाज उठाने कर असर डालने का हक उसी राजनीति , उस सियासत के मत्थे थोप दिया गया जिसने अंधेरे को फैलाया और धीरे धीरे गहराया । 1947 में बहस थी हाशिये पर जी रही जातिया या समुदायो को भारत की मुख्यधारा से जोडने के लिये आरक्षण के जरीये रियायत दी जाये । आर्थिक तौर पर विपन्न तबको को सत्ता रुपये बांट कर राहत दें । मुफ्त या सस्ते आनाज को बांटे । पर धीरे धीरे आरक्षण राजनीतिक हथियार बन गया और हाशिये पर रहने वाली जातियो को मुख्यधारा से जोडने के बदले उन्हे ही मुख्यधारा बनाने की कोशिश शुरु हो हई । दलित-आदिवासी-मुस्लिमो की बस्तियो मे स्कूल, हेल्थ सेंटर या जीने की जरुरतो की व्यवस्था नहीं की गई बल्कि हाशिये पर के लोगो को सियासी दान-दक्षिणा या सब्सडी या राजनीतिक रुपयो की राहत तले ही लाया गया । हर राज्य ने दो से पाच रुपये में सस्ता खाना मुहैया कराने के लिय दुकाने खोल दी । और लूट उसमें भी होने लगी । रईसो को मुफ्त आनाज बांटने का ठका भी चाहिये और मीड डे मिल का टेंडर भी चाहिये । क्योकि देश बडा है करोडो लोग है तो लूट का एक कौर भी करोडो के वारे न्यारे कर देता है ।
ऐसे में कोई क्या कहे क्या सोचे कि 70 बरस की उम्र युवा लोकतंत्र के नारे तले छोटी लग सकती है लेकिन 70 बरस का मतलब पांच पीढियो का खपना है और 31 करोड की जनसंक्या से 130 करोड तक पहुंचना भी है । और साथ ही 1947 के वक्त के भारत के बराबर तीन भारत को गरीबी मुफलिसी , हाशिये पर ढकेल कर संसदीय लोकतंत्र के रहमो करम पर टिकाना भी है । और जो पीडा इस अंधेरे में समाये भारत के भीतर है उससे अनभिज्ञ या फिर उस तरह आंख मूंद कर कौन से भारत को विकसित बनाया ज सकता है ये सवाल मुबई की झोडपट्टियो में से निकले एंटीला इमरत को देख कर कुछ हद तक तो समझा जा सकता है । लेकिन समूचा सच 2014 के बाद जिस तरह खुले तौर पर उभरा उसने पहली बार साफ साफ संकेत दे दिये कि अंधेरो की रजामंदी से उजियारे में रहने वालो को खत्म किया जा सकता है या फिर उनके लोकतंत्र को धराशायी कर हशिये पर लडे तबको में इस उल्लास को भरा जा सकता है कि सत्ता ने उनके लोकतंत्र को जिन्दा कर दिया है । कयोकि देश में अब सिर्फ अंधेरा होगा । और सडक पर बिलबिलाते समाज को ये रोशनी दिखायी देगी कि उनके हिस्से का अंधेरा और हर जगह छाने लगा है । लोकतंत्र के इस मवाद को कोई सत्ता के लिये भी हथियार बना सकता है ये इससे पहले कभी किसी ने सोचा नहीं या फिर इससे पहले संसदीय लोकतंत्र की उम्र बची हुई थी इसलिये किसी ने ध्यान ही नहीं दिया । हो जो भी लेकिन अंधेरे की सत्ता लोकतंत्र के उजियारे को कैसे अपनी मुठठी में कौद कर सकती है और कैसे ढहढहाकर लोकतंत्र सत्ता के आगे नतमस्तक हो सकता है उसकी लाइव कमेन्ट्री देस देश भी रहा है और भोग भी रहा है । संसदीय लोकतंत्र में अब ये इतिहास के पल हो चुके है कि जनता के मुद्दे होने चाहिये । उम्मीदवारो की पहचान होनी चाहिये । मुद्दो के जरीये संसद की जरुरत होनी चाहिये और उम्मीदवारो क जरीये समाज के अलग अलग तबके से सरोकार होने चाहिये । यानी ये महसूस होना चाहिये कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व करने वाले पहुंचे है । और भारत की विवधता को संसद समेटे हुये है । पर अब तो ना मुद्दे मायने रखते है ना ही उम्मीदवार । और ना ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिन्दगी से जुडे मुद्दो पर बात होगी । रास्ता निकलेगा । अब ना तो हमारे पास संसद की गरिमा है । ना ही हमारे पास संविधान की व्याख्या करने वाली सु्रीम कोर्ट है । ना ही कोई संविधानिक सस्थान है जो सत्ताधारियो पर लगते आरोपो की जाच तो दूर सत्ता की मर्जी के बिना अपने ही काम को कर सके । ना ही हर पांच बरस बाद लोकंतत्र को जीने की स्वतंत्रता का एहसास कराने वाला चुनाव आयोग है । ना ही मानवाधिकार आयोग है जो जनता के हक की रक्षा का भरोसा जगाये । ना ही किसान-गरीब-मजदूरो के हके के सवालो को लिये संघर्ष करने वाले समाजसेवी संगठन है । ना ही ऐसे शिक्षा संस्थान है जो दुनिया की दौड में भारतीय बच्चो पर खडा कर सके , शिक्षित कर सके । और ना ही हमारे पास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वो एहसास है जो राजनीति को सहकार-सरोकार और बहुसंख्यक जनता से जोडने की दिशा में ले जाये । अब हमारे पास मजदूरो की ऐसी फौज है जिसके लिये कोई काम है ही नहीं । किसानो की बदहाली है जिनके लिये सिवाय खुदकुशी के कुछ देने की स्थिति में सत्ता नहीं है । अब हमारे पास अरबपतियो की ऐसी कतार है जो देश में लूट मचाकर दुनिया के बाजार में अपन धमक बनाये हुये है । अब हमारे पास बेरोजगारो की ऐसी फौज है जो राजनीति पार्टियो में नौकरी कर रही है या कैरियर बनाने के लिेये नेताओ की चाकरी में जुटी है । अब हमारे पास अपराधी और भ्रष्ट्र सांसदो विधायको की ऐसी फौज है जो जनता के प्रतिनिधी बनकर संविधान को खत्म कर संविधान से मिले विशेषाधिकार का भी लुत्फ उठा रही है और अपराध भी खुले तौर पर कर रह है । अब हमारे पास कानून-व्यवस्था नहीं है बल्कि सडक पर लिचिंग कर न्याय देने का जंगल कानून है । अब हमारे पास ऐसी फौज है जो बिना वर्दी फौज से ज्यादा ताकत रखती है । फिर हमारे पास अब नये चेहरे के साथ नाथूराम गोडसे भी है । और इस आधुनिक पूंजी पर अंगुली उटाने वाले या सवाल करने वाले या तो लुटियन्स के बौध्दिक करार दिया जा चुके है या फिर शहरी नक्सलवादी या फिर खान मार्केट के ग्रूप या फिर देश द्रोही या पाकिस्तान की हिमायती । तो संविधान के नाम पर ही जब सत्ता लोकतंत्र को हडप कर अंधेरे को ही देश का सच बताने निकल पडी हो तो फिर सवाल ये नही है कि चुनाव के जरीये देश के नागरिको ने लोकतंत्र को जीया या नहीं । बल्कि सवाल तो ये है कि एक वोट का लोकतंत्र भी गायब हो गया । क्योकि नागरिक भी ईवीएम के सामने बौना हो गया और ईवीएम में समाये लोकतंत्र में सत्ता को ना तो बीजपी की जरुरत है और ना ही संघ परिवार की । तो लोकतंत्र को जीते देश में जनता के प्रतिनिधी हो या नौकरशाही या फिर न्यायपालिका हो या मीडिया । जो जितनी जल्दी मान लें कि उसकी भागेदारी बटी ही नहीं उसके लिये उतनी ही जलदी ठीक हालात होगें । क्योकि लोकतंत्र की नई परिभाषा में सत्ता के लिये काम करते लोकतंत्र के स्तम्भ ही असल स्तम्भ है । इसीलिये जो सोच रहे है कि आने वाले वक्त में चुनाव की जररत ही नहीं होगी । उसका पहला एहसास तो 2019 में ही हो गया कि जितना लोकतंत्र [ ईवीएम़ ] वोटिंग बूथों के भीतर थे उससे ज्यादा लोकतंत्र बूथो के बाहर था । आप बूथो के बाहर कतारो में खडे थे और बाहर बिना कतार ज्यादा अनुशासत्मक तरके से लोकतंत्र का ठप्पा लग रहा था । तो एक वक्त इंदिरा ने लोकतंत्र खत्म कर एमरजेन्सी को अनुशासनात्मक कारर्वाई कहा था और अब सत्तानुकुल अनुशासानात्मक ठप्पे को ही लोकतंत्र कहा ज रहा है । देश बहुत आगे निकल चुका है । आप कहीं पिछड तो नहीं गये ।
Wednesday, May 1, 2019
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मोक्ष नगरी में मोदी का मायावी संसार |
खाक भी जिस ज़मी की पारस है, शहर मशहूर यह बनारस है। तो क्या बनारस पहली बार उस राजीनिति को नया जीवन देगा जिस पर से लोकतंत्र के सरमायेदारों का भी भरोसा डिगने लगा है। फिर बनारस तो मुक्ति द्वार है । और संयोग देखिये वक्त ने किस तरह पलटा खाया जो बनारस 2014 में हाई प्रोफाइल संघर्ष वाली लोकसभा सीट थी , 2019 में वही सीट सबसे फिकी लडाई के तौर पर उभर आई । जी, देश के सबसे बडे ब्रांड अंबेसडर के सामने एक ऐसा शख्स खडा हो गया जिसकी पहचान रोटी - दाल से जुडी है । यानी चाहे अनचाहे नरेन्द्र मोदी का ग्लैमर ही काफूर हो गया जो सामने तेज बहादुर खडा हो गया । राजनीतिक तौर पर इससे बडी हार कोई होती नहीं है कि राजा को चुनौती देने के लिये राजा बनने के लिये वजीर या विरोधी नेता चुनौती ना दे बल्कि जनता से निकला कोई शख्स आ खडा हो जाये , और कहे मुझ राजा नहीं बनना है । सिर्फ जनता के हक की लडाई लडनी है । तो फिर राजा अपने औरे को कैसे दिखाये और किसे दिखाये । कयोकि राजा की नीतियो से हारा हुआ शख्स ही राजा को चुनौती देने खडा हुआ है तो फिर राजा के चुनावी जीत के लिये प्रचार की हर हरकत अपनी जनता को हराने वाली होगी । जो जनता की नहीं राजा की हार होगी । और ये सच राजा समझ गया तो व्यवस्था ही ऐसी कर दी गई कि जनता से निकला शख्स सामने खडा ही ना हो पाये । तो सूखी रोटी और पानी वाले दाल की लडाई करने वाले तेजबहादुर का पर्चा ही उस चुनाव आयोग ने खारिज क दिया जो खुद राजा के रहनुमा पर जी रहा है । तो क्या ये मान लिया जाये कि ये बनारस की ही महिमा है जिसने मुक्ति द्वार खोल दिया है और मोक्ष के संदेश देने लगा है । क्योकि बनारस को पुराणादि ग्रंथो के आसरे परखियेगा तो पुराणकार बताते है कि काशी तीनो लोकों में पवित्रतम स्थान रखती है , ये आकाश में स्थित है तछा मर्त्यलोक से बाहर है....
वाराणसी महापुण्या त्रिषुलोकेषु विश्रुता । / अन्तरिक्षे पुरी सा तु मर्त्यलोक बाह्रात ।।
हे पार्वती ! तीनो लोको का सार मेरी काशी सदा धन्य है :
वाराणसीति भुवनत्रयसारभूता धन्या सदा ममपुरी गिरिराजपुत्री ।
लेकिन बनारस तो सियासी छल कपट । घोखा फरेब की सियासत में इस तरह जा उलझी है । जहा राजा एक राज्य संभालते हुये चुनावी दस्तावेज में खुद को अविवाहित बताता है । लेकिन देश संभालने के वक्त खुद को विवाहित बताता है । शिक्षा करत हुये मिलने वाली डिग्री भी चुनाव दर चुनाव बदलती है । लेकिन राजा तो राजा है । इसलिये वसंतसेना भी जब पांच बरस में ग्रेजुएट से बारहवी पास हो जाती है तो भी चुनाव आयोग को कुछ गलत नहीं लगता । और तो और देश भर में चुनाव लडने वालो में 378 उम्मीदवार आपराधी या भ्रष्ट्राचर के दायरे में है , लेकिन लोकतंत्र ऐसी खुली छूट देता है कि चुनाव आयोग उन्हे छू भी नहीं पाता । लेकिन जनता से निकला तेजबहादुर जब राजा की नीतियो पर रोटी का सवाल उठाकर शिंकजा कसता है तो पहले नौकरी से बर्खास्गी फिर लोकतंत्र की परिभाषा तले चुनाव लडने पर ही रोक लगाने में समूचा अमला लग जाता है । जिससे राजा को कोई परेशानी ना हो कि आखिर वह जनता को क्या कहगा ..... जनता को हरा दो । मुस्किल है । तो फिर राजा काशी की महत्ता उसके सच को क्या जाने । वह तो आस्था को चुनावी भावनाओ की थाली में समेट पी लेना चाहता है । तभी तो काशी की पहचान को ही बदल दिया जाता है । ऐसे में काशी की वरुणा और अस्सी नदी तो दूर गंगा तक ठगा जा रहा है तो फिर अतित की काशी को कौन परखे कैसे परखे । एक वक्त माना तो ये गया कि वरुणा और अस्सी नदियो के बीच स्थित बनारस में स्नान , जप , होम, मरण और देवपूजा सभी अक्षय होते है । लेकिन गंगा का नाम लेकर सियासत इन्हे भूल गई और गंगा की पहचान बनारस में है क्या इस समझ को भी सत्ता सियासत समझ नहीं पायी । बनारस में गंगा का पानी भक्त कभी घर नहीं ले जाते । क्योकि बनारस में तो गंगा भी मुक्ति द्वार है । काशी के प्रति लोगो में आस्था इस हद तक बढी कि लोग विधानपूर्वक आग में जलकर और गंगा में कूदकर प्राण देने लगे , जिससे कि मृतात्मा सीधे शिव के मुख में प्रवेश कर सके । उन्नीसवी सदी तक लोग मोक्ष पाने के विचार से , यहा गंगा में गले में पत्थर बांधकर डूब जाते थे । आज भी इस विचार को समेटे लोगो के बनारस पहुंचने वाले कम नहीं है । लेकिन अब तो इक्किसवी सदी है । और गंगा मुक्ति नहीं माया का मार्ग है । इसीलिय तो बनारस की सडको पर मु्कित नहीं सत्ता का द्वार खोजने के लिये जब तीन लाख से ज्यादा लोगो को नरेन्द्र मोदी के प्रचार क लिये लाया गया और गंगा को समझे बगैर , बनारस की महत्ता जाने बगैर अगर मेहनताना लेकर सभी राजा के लिये नारा लगाते हुये आये और खामोशी से लोट गये तो फिर चाहे अनचाहे भगवान बुद्द याद आ ही जायेगें । भगवान बुद्द भी अपने धर्म का प्थम उपदेश देने सबसे पहले बनारस ही आये थे । उन्होने कहा था....
भेदी नादयितुं धर्म्या काशी गच्छामि साम्प्रतम ।
न सुखाय न यशसे आर्तत्राणाय केवलम् ।।
यानी धर्मभेरी बजाने के लिये इस समय मै काशी जा रहा हूं - न सुख के लिये और न यश के लिये, अपितु केवल आर्तो की रक्षा के लिये ।
तो हालात कैसे बिखरे है संस्कृति कैसे बिखरी है इसलिये बनारस की पहचान अब खबरो के माध्यम से जब परोसी जाती है तो चुनावी बिसात पर बनारस की तहजीब, बनारस का संगीत , बनारस का जायका या फिर बनारस की मस्ती को खोजने में लगत है । और काशी की तुलना में दिल्ली को ज्यादा पावन बताने में कोई कोताही भी नहीं बरतता है ।
लेकिन 2019 में नरेन्द्र मोदी और तेज बहादुर का सियासी अखाड़ा बनारस बना तो फिर बनारस या तो बदल रहा है या फिर बनारस एक नये इतिहास को लिखने के लिये राजनीतिक पन्नों को खंगाल रहा है। बनारस से महज १५ कोस पर सारनाथ में जब गौतम बुद्द ने अपने ज्ञान का पहला पाठ पढ़ा, तब दुनिया में किसी को भरोसा नहीं था गौतम बुद्द की सीख सियासतों को नतमस्तक होना भी सिखायेगी और आधुनिक दौर में दलित समाज सियासी ककहरा भी बौध धर्म के जरीये ही पढेगा या पढ़ाने की मशक्कत करेगा। गौतम बुद्ध ने राजपाट छोडा था। मायावती ने राजपाट के लिये बुद्द को अपनाया। इसी रास्ते को रामराज ने उदितराज बनकर बताना चाहा और समाजवादी पार्टी ने तो गौतम बुद्द की थ्योरी को सम्राट अशोक की तलवार पर रख दिया। सम्राट अशोक ने बुद्दम शरणम गच्छामी करते हुये तलवार रखी और अखिलेश यादव ने तेजबहादुर के निर्दलिय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरन के बाद समझा कि समाजवादी बनाकर संघर्ष करवा दिया जाये तो सियासत साधी जा सकती है । तो अखिलेश ने सत्ता गच्छामी करते हुये सियासी तलवार भांजनी शुरु की। पर बनारस तो मुक्ति पर्व को जीता रहा है फिर यहा से सत्ता संघर्ष की नयी आहट नरेन्द्र मोदी ने क्यो दी। मोक्ष के संदर्भ में काशी का ऐसा महात्म्य है कि प्रयागगादु अन्य तीर्थो में मरने से अलोक्य, सारुप्य तथा सानिद्य मुक्ती ही मिलती है और माना जाता है कि सायुज्य मुक्ति केवल काशी में ही मिल सकती है। तो क्या सोमनाथ से विश्वनाथ के दरवाजे पर दस्तक देने नरेन्द्र मोदी 204 में इसलिये पहुंचे कि विहिप के अयोध्या के बाद मथुरा, काशी के नारे को बदला जा सके। या फिर संघ परिवार रामजन्मभूमि को लेकर राजनीतिक तौर पर जितना भटका, उसे नये तरीके से परिभाषित करने के लिये मोदी को काशी चुनना पड़ा। लेकिन 2019 में जिस तरह काशी को मोदी ने सियासी तौर पर आत्मसात कर लिया है उसमें मोदी कहीं भटके नहीं है । क्योंकि काशी को तो हिन्दुओं का काबा माना गया। याद कीजिये गालिब ने भी बनारस को लेकर लिखा,
" तआलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिस्ते खुर्रमो फिरदौसे मामूर, इबादत खानए नाकूसिया अस्त, हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त। "
यानी हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना, क्योंकि यह आनंदमय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों अर्थात हिन्दुओ का पूजा स्थान है, यानी यही हिन्दुस्तान का काबा है। तो फिर तेज बहादुर यहां क्यों पहुंचे। क्या तेज बहादुर काशी की उस सत्ता को चुनौती देने पहुंचे हैं, जिसके आसरे धर्म की इस नगरी को बीजेपी अपना मान चुकी है। या फिर तेजबहादुर के अक्स तले अखिलेश यादव को लगने लगा है कि राजनीति सबसे बड़ा धर्म है और धर्म सबसे बड़ी राजनीति। संघ परिवार धर्म की नगरी से दिल्ली की सत्ता पर अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को देख रहा है। और अखिलेश यादव , तेजबहादुर यादव के जरीये काशी में नैतिक जीत से दिल्ली की त्रासदी से मुक्ति चाहने लगे । तो क्या सबे प्रचिन नगरी कासी को ही सियासत पंचतंत्र की कहानियो में तब्दिल करना चाहती है जिससे यहा की सासंकृतिक महत्ता खत्म हो जाये । क्योकि बनारस की राजनीतिक बिसात का सच भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि जितनी तादाद यहां ब्राह्मण की है, उतने ही मुसलमान भी हैं। करीब ढाई-ढाई लाख की तादाद दोनों की है। पटेल डेढ़ लाख तो यादव एक लाख है और जायसवाल करीब सवा लाख। मारवाडियों की तादाद भी ४० हजार है। इसके अलावा मराठी, गुजराती, तमिल , बंगाली, सिख और राजस्थानियों को मिला दिया जाये तो इनकी तादाद भी डेढ लाख से उपर की है। तो 17 लाख वोटरों वाले काशी में मोदी का शंखनाद गालिब की तर्ज पर हिन्दुओं का काबा बताकर मोदी का राजतिलक एक बार फिर कर देगा या फिर काशी को चुनौती देने वाले कबीर से लेकर भारतेन्दु की तर्ज पर तेजबहादुर की चुनौती स्वीकार करेगा। क्योंकि गालिब बनारस को लेकर एकमात्र सत्य नहीं है। इस मिथकीय नगर की धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता को चुनौतिया भी मिलती रही हैं। ऐसी पहली चुनौती १५ वी सदी में कबीर से मिली। काशी की मोक्षदा भूमि को उन्होंने अपने अनुभूत-सच से चुनौती दी और ऐसी बातों को अस्वीकार किया। उन्होंने बिलकुल सहज और सरल ढंग से परंपरा से चले आते मिथकीय विचारों को सामने रखा और बताया कि कैसे ये सच नहीं है। अपने अनुभव ज्ञान से उन्होने धार्मिक मान्यताओं के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जो एक ओर काशी की महिमा को चुनौती देता था तो दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता को। उन्होंने दो टूक कहा-जो काशी तन तजै कबीरा। तो रामहिं कौन निहोरा। यह ऐसी नजर थी , जो किसी बात को , धर्म को भी , सुनी -सुनायी बातो से नहीं मानती थी। उसे पहले अपने अनुभव से जांचती थी और फिर उस पर भरोसा करती थी।
काशी का यह जुलाहा कबीर कागद की लेखी को नहीं मानता था, चाहे वह पुराण हो या कोई और धर्मग्रंथ। उसे विश्वास सिर्फ अपनी आंखो पर था। इसलिये कि आंखों से देखी बातें उलझाती नहीं थी…तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखन की देकी। मै कहता सुरझावनहरी, तू देता उरझाई रे। वैसे बनारस की महिमा को चुनौती तो भारतेन्दु ने १९ वी सदी में भी यह कहकर दी…..देखी तुमरी कासी लोगों , देखी तुमरी कासी। जहां बिराजे विस्वनाथ , विश्वेश्वर जी अविनासी। ध्यान दें तो बनारस जिस तरह २०१४ का सियासी अखाडा बन रहा था 2019 के हालात ठीक उसके उलट है । 2014 में नेताओ के कद टकरा रह थे । 2019 में जनता के कद के आगे राजा का बौनापन है जो बनारस को जीता है और जीत भी सकता है । यानी 2014 में सियासी आंकड़े में कूदने वाले राजनीति के महारथियो को जैसे जैसे बनारस के रंग में रंगने की सियासत भी शुरु हुई है। वह ना तो बनारस की संस्कृति है और ना ही बनारसी ठग का मिजाज। लेकिन अब तो वाकई काशी की जमीन पर गंवई अंदाज में काशी मे मुक्ति का सवाल है । और मुक्ति जीत पर भारी है । इसे दिल्ली का राजा चाहे ना समझे लेकिन काशी वासी समझ चुके है । पर उनकी समझ को भी राजा अपने छाती पर तमगे में टांगना चाहता है । पर राजा ये नहीं जानता कि काशी को जीत कर वह हार रहा है क्योकि राजा का लक्ष्य तो अमेरिका है । और बनारस को बिसमिल्ला खां के दिल को जीता है ।
बिस्मिल्ला खां ने अमेरिका तक में बनारस से जुड़े उस जीवन को मान्यता दी, जहां मुक्ति के लिये मुक्ति से आगे बनारस की आबो हवा में नहाया समाज है। शहनाई सुनने के बाद आत्ममुग्ध अमेरिका ने जब बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में हर सुविधा के साथ बसने का आग्रह किया तो बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से पूछा, सारी सुविधा तो ठीक है लेकिन गंगा कहा से लाओगे। और बनारस का सच देखिये। गंगा का पानी हर कोई पूजा के लिये घर ले जाता है लेकिन बनारस ही वह जगह है जहा से गंगा का पानी भरकर घर लाया नहीं जाता । तो ऐसी नगरी में मोदी किसे बांटेंगे या किसे जोड़ेंगे। वैसे भी घंटा-घडियाल, शंख, शहनाई और डमरु की धुन पर मंत्रोच्चार से जागने वाला बनारस आसानी से सियासी गोटियो तले बेसुध होने वाला शहर भी नहीं है। बेहद मिजाजी शहर में गंगा भी चन्द्राकार बहती है बनारस हिन्दु विश्वविघालय के ३५ हजार छात्र हो या काशी विघापीठ और हरिश्चन्द्र महाविघालय के दस -दस हजार छात्र। कोई भी बनारस के मिजाज से इतर सोचता नहीं और छात्र राजनीति को साधने के लिये भी बनारस की रंगत को आजमाने से कतराता नहीं। फिर बनारस आदिकाल से शिक्षा का केन्द्र रहा है और अपनी इस विरासत को अब भी संजोये हुये हैं। ऐसे में सेना के जवान हाथो में सूखी रोटिया और पानी की दाल का सच दिखाकर पहचान पाये है तो दूसरी तरफ गुजरात के राजधर्म और दिल्ली के लोकतंत्र पर चढाई कर नरेन्द्र मोदी बनारस में है । मोदी की बिसात पर बनारसी मिजाज प्यादा हो नहीं सकता और तेज बहादुर सियासी बिसात पर चाहे प्यादा साबित हो खारिज कर दिये गये लेकिन बनारसी मिजाज तो उन्हे मोक्ष दे रहा है । क्योकि मोदी वजीर बनने के लिये लालालियत है और तेज बहादुर मुक्ति पाने की छटपटाहट में बनारस पहुंचे है । तो फिर बनारस का रास्ता जायेगा किधर। नजरें सभी की इसी पर हैं। क्योंकि बनारस की बनावट भी अद्भुत है….यह आधा जल में है । आधा मंत्र में है । आधा फूल में है । आधा शव में है । आधा नींद में है। आधा शंख में है । और काशी का आखरी सच यही है कि यहा सूई की नोंक भर भी स्थान नहीं है , जहा जाने वाले को मोक्ष ना मिले । और मोक्ष में लिंग जाति वर्ण वर्ग का कोई भेद नहीं होता । तो आप तय किजिये मोक्ष किसे मिलेगा या किसे मिलना चाहिये ।