काग्रेस में सन्नाटा है । सन्नाटे की वजह हार नहीं है । बल्कि हार ने उस कवच को उघाड दिया है जिस कवच तले अभी तक बडे बडे काग्रेसी सूरमा छिपे हुये थे । और अपने बच्चो के लिये काग्रेस की पहचान और काग्रेस से मिली अपनी पहचान को ही इन्वेस्ट कर जीत पाते रहे । पहली बार इन कद्दावरो के चेहरे पर शिकन दिखायी देने लगी है कि क्योकि उनका राजा भी चुनाव हार गया । और बिना राजा कोटरी कैसी । चापलूसी कैसी । कद किसका । और बिना कद कार्यकत्ताओ की फौज भी नहीं । मान्यता भी नहीं । और चाहे अनचाहे काग्रेसी राजा यानी राहुल गांधी ने उस सच को अपने इस्तीफे की धमकी से उभार दिया जिसे सुविधाओ से लैस काग्रेसी राहुल गांधी की घेराबंदी कर अपनी दुकान को अरामपस्ती से अभी तक चलाते रहे । काग्रेस खत्म हो नहीं सकती इसे तो नरेन्द्र मोदी भी जानते है और रईस काग्रेसियो का झुंड भी जानता समझता है । क्योकि काग्रेसी की पहल किसी राजनीतिक दल की तर्ज पर कभी हुई ही नहीं । उसे शुरुआती दौर में आाजादी के संघर्ष से जोड कर देखा गया तो बाद में व्यक्तितव का खेल बन गया । गांधी परिवार से जो जो निकला , उसका जादूई व्यक्तित्व जब जब जनता को अछ्छा लगा उसने काग्रेस के हाथो सत्ता सौप दी । नेहरु, इंदिरा, राजीव की राजनीतिक पारी में मुद्दो का उभारना और व्यक्तित्व का जादुई रुप ही छाया रहा । लेकिन सोनिया गांधी के दौर में विपक्ष के अंधेरे ने काग्रेस को सत्ता दिला दी । और राहुल गांधी के वक्त गांधी परिवार के व्यक्तितव की चमक को अपने नायाब नैरेटिव या कहे मुद्दो के काकटेल तले कही ज्यादा चमक रखने वाले मोदी उभर आये । लेकिन काग्रेस की व्याख्या या काग्रेस का परिक्षण का ये आसान तरीका है । दरअसल काग्रेस की यात्रा या कहे नेहरुकाल से भारत को गढने का जो प्रयास गवर्नेंस के तौर पर हुआ उसमें गांव या कहे पंचायत से लेकर महानगर या संसद तक काग्रेसी सोच बिना पार्टी संगठन के भी पलती बढती गई । सीधे समझे तो जिस तरह पन्ना प्रमुख से लेकर संगठन महासचिव के जरीय बीजेपी ने खुद को राजनीतिक दल के तौर पर गढा उसके ठीक उलट देश की नौकरशाही [बीडीओ से आईएएस़] , देश में विकास का इन्फ्रस्ट्क्चर , औघोगिक और हरित क्रातिं या फिर सूचना के अधिकार से लेकर मनरेगा तक की पहल को काग्रेसी सोच तले देखा परखा गया । यानी काग्रेसी कार्यकत्ताओ ने या फिर काग्रेसी संगठन ने जो भी काम किया वह काग्रेसी सत्ता से निकली निकली नीति या देश में लागू किये गये निर्णयो की कारपेट पर ही चलना सीखा । और सत्ता के मुद्दे के साथ गांधी परिवार के व्यक्तित्व से नहायी काग्रेस को इसका लाभ मिलता चला गया । जबकि इसके ठीक उलट ना तो जनता पार्टी की सरकार में ना ही वाजपेयी की सत्ता के दौर में कोई ऐसा निर्णय लिया गया जिसे कभी जनसंध या फिर बीजेपी को लाभ मिलता । बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद पहली बार मोदी कार्यकाल में ही नये तरीके से सत्ता के नैरेटिव को इतनी मजबूती से बनते देखा कि बीजेपी का संगठन या संगठन के साथ खडे स्वयसेवको की फौज यानी आरएसएस की चमक भी गायब हो गई । यानी एक वक्त मंडल को कउंटर करने के लिये कंमड की फिलासफी । या फिर अयोध्या आंदोलन के जरीये बीजेपी-संघ परिवार को एक साथ मथते हुये देश को पार्टी से जोडने की कोशिश जिस अंदाज में हुई वह बीजेपी को सत्ता मिलते ही गायब हो गई । यानी बीजेपी को सत्ता हमेशा अपने राजनीतिक संगठन की मेहनत से मिली । पर सत्ता मेंआते ही संगठन को ही कमजोर या घता बताने की प्रक्रिया को भी बीजेपी ने ही जिया । लकिन काग्रेस ने कभी संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं और संगठन हमेशा काग्रेसी सत्ता के निर्णयो या कहे कार्यों पर ही निर्भर रहा । शायद इसीलिये पहली बार जब बीजेपी का अंदाज बदला । उसका सबकुछ नेतृत्व में समाया तो काग्रेस के सामने संकट ये उभरा कि वह पारंपरिक राजनीति को छोडे या फिर पारंपरिक राजनीतिक करने वाले दिग्गज नेताओ को ही दरकिनार करें । क्योकि काग्रेस मथने की जो पूरी प्रक्रिया है उसमें नेतृत्व को ना सिर्फ क्रूर होना पडेगा बल्कि निर्णायक भी होना होगा । और राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश इसी की शुरुआत है । क्योकि राहुल गांधी भी इस सच को जाने है कि जबतक उनके पास संपूर्ण ताकत नही होगी तबतक चिंदबरम या गहलोत या कमलनाथ के बेटे कही ना कहीं टकराते रहेगें । सिंधिया का महाराजा वाला भाव जागृत रहेगा । और चारो तरफ से चापलूस या गांधी परिवार के दरवाजे पर दस्तक देने की हैसियत वाले ही काग्रेस क भीतर बाहर खुद को ताकतवर दिखलाकर कद्दावर कहलाते रहेगें । राहुल गांधी अब काग्रेस के उस ठक्कन को ही खोल देना चाहते है जिस ठक्कन के भीतर सबकुछ गांधी पारिवार है । यानी सोनिया गांधी के आगे हाथ से राह दिखाते नेता , प्रियका गांधी के आगे खडे होकर रास्ता बनाते नेता या फिर खुद उनके सामने नतमस्तक भूमिका में खडेहोकर बडे काग्रेसी बनने कहलाने की सोच लिये फिरते काग्रेसियो से काग्रेस को मुक्त कैसे किया जाये अब इसी सवाल से राहुल गांधी ज्यादा जुझ रहे है ।
सवाल है कि अगर चिंदबरम, कमलनाथ या गहलोत को राहुल गांधी रिटायर ही कर दें तो किसी पर क्या असर पडेगा । या फिर इस कतार में सलमान खुर्शीद हो या पवन बंसल या फिर श्रीप्रकाश जयसवाल या सुशील कुमार शिंदे या फिर किसी भी राज्य का कोई भी वरिष्ट काग्रेसी । सभी के पास खूब पैसा है । सभी के लिय काग्रेस एक ऐसी राजनीति की दुकान है जहा कुछ इनवेस्ट करने पर सत्ता मिल सकती है यानी लाटरी खुल सकती है । और काग्रेस क पास अगर इन नेताओ का साथ ना रहेगा तो होगा क्या ? शायद पहचान पाये चेहरो की कमी होगी या फिर गांधी परिवार के सामने संकट होगा कि वह खुद को कद्दावर कैसे कहे जब वह काग्रेसी कद्दावरो से घिरे हुये नही है तो । लेकिन इसका अनूठा सच तो गुना संसदय सीट पर मिले जनादेश में जा छुपा है । जहा महाराज जी को उनका ही कारिदा या कह जनता से निकला एक आम शख्स हरा देता है । और वही से सबसे बडा सवाल भी जन्म लेता है कि बदलते भारत में पारंपरिक नेताओ को लेकर जनता में इतनी घृणा पैदा हो चुकी है कि वह उसकी रईसी से तंग आ चुका है । फिर युवा के मन में कभी कोई नेता आदर्श नहीं होता । और ना ही युवा किसी भी कद्दावर नेता को बर्दाश्त करता है । युवा भारत जब बोलने की स्वतंत्रता को ना सिर्फ राजनीतिक मिजाज से अलग देखता है बल्कि क्रियटीव होकर अब तो वह राजनीतिक पर किसी भी विपक्ष की राजनीतिक समझ से ज्यादा तीखा कटाक्ष करता है । तो ऐसे में नेताओ का भी संवाद सीधा होना चाहिये । साफगोई नीतियो के सामने आना चाहिये । और ये समझ कैसे काग्रेसी समझ ना पाये ये सिर्फ सिंधिया ही नहींबल्कि मल्लिकाजुर्न खडगे की चुनावी हार से भी समझा जा सकता है । यानी कल तक संसद में काग्रेस का नेता । विपक्ष का नेता । और भूमि अधिगरहण से लेकर नोटबंदी और जीएसटी भी इन्ही के काल में मोदी सत्ता ल कर आई तो फिर विपक्ष के नेता के तौर पर सिर्फ दलित सोच को उभारकर मल्लिकाजुर्जन खडके को आगे करने की जरुरत क्या थी । क्या 2014 में कमलनाथ विपक्ष के नेता के तौर पर सही नहींथे । तो फैसले गलत लिये गये या गलत होते चले गये । और एक वक्त के बाद काग्रेसी ही जब गांधी परिवार से थक हार जाता रहा तो फिर उसका संयम सिवाय काग्रेस से कमाई के अलावे कुछ रहा भी नहीं । राजनीति और चुनाव के वक्त जो सामाजिक-आर्थिक या कहे राजनीतिक नैरेटिंव भीचाहिये उसपर क्या किसी ने कभ सोचा । और नहीं सोचा तो मल्लिकाजुर्न इतनी बडी पहचान के वाबजूद चुनाव हार गये । यानी जिनका पहचान ही रही कि कभी चुनाव नहीं हारते है , इसलिये मल्लिकाजुर्न खडके को " सोल्लिडा सरदारा " भी कहते थे । लेकिन काग्रेस जबसिर्फ गांधी परिवार के कंधे पर सवार होकर राजनीतिक चुनावी प्रचार ही देखती रही और राहुल गांधी अभिमन्यु की तरह लडते लडते थके भी तब भी काग्रेस में अपने अपनी गरिमा समेटे कौन सा नेता निकला । तो क्या राहुल गांधी अब अभिमन्यु नहीं बल्कि अर्जुन की भूमिका में आना चाहत है जहा उनके जहन में कृष्ण का पाठ साफ तौर पर गूंज रहा है कि काग्रेस को जिन्दा रखना है तो कोटरी, चापलूस और डरे-सहमे रईस काग्रेसो का वध जरुरी है ।
और जिन काग्रेसियो से राहुल गांधी घिरे हुये है वह घबरा भी रहा है कि कही राहुल गांधी वाकई काग्रेस को पूरी तरह बदलन ना निकल पडे । तो वो पंजाब, राजस्थान , मद्यप्रदेश , छत्तिसगढ में काग्रेस की जीत का सहरा भी अपने माथे बांध लेता है । लेकिन इस सच को कोई नहीं कहता है कि इन राज्यो में काग्रेस की जीत से पहले बीजेपी की सत्ता की हार जनता ने चुनी । इसीलिये जब नारे लगते रहे कि "वसुंधरा तेरी खैर नहीं , लेकिन मोदी से बैर नहीं " तो भी काग्रेसी समझ नहीं पाये कि कौन सी व्यूबरचना मोदी ने अपने कद के लिये बना रखी है या भी वह लगातार बना रह है । बीजेपी में कद्दावर क्षत्रप भी मोदी को बर्दाश्त नहीं और काग्रेस में खुद को मजबूत क्षत्रप के तौर पर मान्यता पाने की होड अब कैप्टन से लेकर कमलनाथ और गहलोत से लेकर बधेल तक में है । लेकिन काग्रेस को पार्टी के तौर पर अवतरित सिर्फ 10 जनवपथ या 24 अकबर रोड में डेरा जमाये काग्रेसियो से मुक्ति भर से नहीं होगा बल्कि मोदी की सत्ता काल में बीजेपी की कमजोरी को काग्रेस कैसे ताकत बना सकती है और कैसे ग्राम सभा से लेकिन लोकसभा तक की लकीर सबको साथ जोडने वाली विचारधारा के साथ लेकर चला सकती है । इम्तिहान इसी का है । और इस परिक्षा का पहला सामना तो राहुल गांधी को ही करना होगा जिनके पास अभी तक जमीनी राजनीतिक समझ ही नहीं बल्कि समाज को समझने वालो की टीम तक नहीं है । जो अभी तक ये नहीं समझ पाये है कि संगठन का विस्तार या कारगर रणनीति बनाते रहना या फिर जनता से सीधा संपर्क कैसे बनाये इस समझ को अपनी कोर टीम में विकसित कर पाये । अगर अतीत में ना भी झांके की ममता और जगन ने काग्रेस क्यो छोडी या फिर वह सफल क्यो हो गये लेकिन भविष्य तो देख समझ सकते है कि आखिर ममता का साथ छोडने वाले बीजेपी से पहले काग्रेस की तरफ क्यो नहीं देख सकते है । वामपंथियो के 22 फिसदी वोट बंगाल में बीजेपी के पास क्यो चले गये जबकि वाम की पूरी फिलोस्फी ही काग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में डाल दी । फिर भी काग्रेस को लक भरोसा क्या नहीं जागा ।
इतना ही नहीं संगठन में बूथ लेबल पर काम करने वाल काग्रेसी जिन्हे एक वक्त वोट कलेक्टर माना जाता था उन्हे बेहद सम्मान मिलता था वह कहां गायब हो गये । आलम तो ये हो गया कि बूथ पर बैठे काग्रेसियो को ग्वालियर संभाग में तीन बजे के बाद खाना तक नहीं मिल पाया तो बीजेपी का बूथ लगाये लोगो ने भोजन दिया । और माहौल इस तरह बनता क्यो चला गया कि जिसने मोदी को वोट नहीं दिया वह भी बाहर आकर कहने लगा कि उसने मोदी को वोट दिया और दिसने काग्रेस को वोट दिया वह भी काग्रेस जिन्दाबाद के नारे लगाने में हिचकने लगा । कहीं तो नैतिक पतन है या फिर कहीतो राहुल गांधी को अकेले लडते छोड रईस काग्रेसियो में राहुल को लेकर ही सवाल है इसलिये सभी अपनी सुविधा बनाये रखने के लिये राहुल के इस्तीफे को भी नाटक मान रहे है और फैला भी रहे है । फिर ये सवाल अब भी अनसुलझा सा है क्या वाकई राहुल गांधी बतौर राजनीतक कार्यकत्ता रह सकते है । या फिर सिर्फ अध्यक्ष के तौर पर रह सकते है । या फिर गांधी नाम रखे हुये अध्यक्ष की कुर्सी संभालते हुये उस काग्रेसी कटघरे से बाहर निकल कर काग्रेसियो को ये पाठ पढा सकता है कि जो उनके अगल बगल खडाहोकर खुद को मजबूत मानता है दरअसल वह सबसे भ्रष्ट्र है । क्योकि सच तो ये भी है कि दिनभर राहुल के इर्द गिर्द मंडराते रईस, चेहरे वाले काग्रेसी रात में मोदी तक बात पहुंचा कर अपने नंबर संबह शाम में जोडते है और हमेशा खुश खुश नजर आते है और जब युद्द की मुनादी राहुल गांधी करते है तो पहले सभी समझाते है युद्द से कुछ नहीं होगा । फिर खुद को युद्द से बाहर कर नजारा देख हसंते ठिठोली कर शुश होते रहते है । और जब राहुल गांधी कहते है तुम्ही संभालो काग्रेस को तो रुआसा सा चेहरा बनाकर कहते है " राहुल गांधी है तो काग्रेस है ।"
तो बदलाव की बयार काग्रेस में बहेगी या फिर काग्रेस धीरे धीरे सिर्फ नाम भर में तब्दिल हो कर रह जायेगी ये नया सवाल है । जबकि इतिहास में राहुल गांधी के पास सबसे बेहतरीन मौका काग्रेस को संवारने का है । और इसकी सबसे बडी वजह मोदी सत्ता में बीजेपी-संघ परिवार की सोच के खत्म होने का है । सिर्फ मोदी की गरिमामय मौजूदगी और लारजर दैन लाइफ का जो खल खुद मोदी ने बीजेपी के 11 करोड कार्यकत्ता और 60 लाख स्वयसेवक के साथ साथ सवा सौ करोड भारतीय के नाम पर शुरु किया है । वह भारतीय राजनति के उस संघर्ष को ही झुठला रहा है जो कभी नेहरु-इंदिरा के खिलाफ लोहिया-जेपी ने किया । आज की तारिख में पुराने लोहियावादी हो या जेपी संघर्ष के दौर में तपे समाजसेवी सभी खुद को अलग थलग पा रहे है । मोदी काल में उनकी जरुरत ना तो बीजेपी को है ना ही संघ परिवार को । तो काग्रेस ने जब अपनी आर्थिक नीतियो में परिवर्तन कर कारपरेट इक्नामी को नकारना सीखा है । ग्रामिण भारत और किसान-मजदूरो के साथ न्याय को जोडा है । वामपंथी-समाजवादी एंजेडो को अपने लोकप्रिय अंदाज में समेटा है । और जिस तरह मोदी सत्ता अब अपने जनादेश को मंडल के खत्म होने के साथ जोड रही है और क्षत्रपो के सामने आस्तितव का संकट है उसमें काग्रेस के लिये खुद को खडे करने का इससे बेहतरीन मौका कुछ हो नहीं सकता । तो आखरी सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी भी काग्रेस के इस ब्लूप्रिट को समझ रहे है और उसे जमीन पर उतारने के लिये अब उन्हे बिलकुल नये सिपाही चाहिये । नये सिपाहियो के जरीये संघर्ष की मुनादी से पहले सिर्फ गांधी पारिवार का नाम नहीं बल्कि सारे अधिकार चाहिये । और जब राहुल गांधी काग्रेस के उस ठक्कन को खोल कर बोतल में बंद राजनीति को आजाद कर काग्रेस को भारत के सामाजिक-सास्कृतिक मूल्यो से जोड कर बीजेपी के छद्म राष्ट्रवाद , मोदी मैजिक और भावनात्मक हिन्दुत्व से मुक्ती दिलाने की दिशा में बढना चाहते है तो फिर सफेद कुर्ते-पजामे में खुद को समेटे गांधी पारिवार की चाकरी कर काग्रेसी होने का तमगा पाये लोगो से मुक्ति तो चाहिये ही होगी ।
Thursday, May 30, 2019
राहुल गांधी की कांग्रेस कैसी होगी .....
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:31 AM
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30 comments:
best sir
सटीक विश्लेषण सर
यद्यपि आप से विचारधारा की दृष्टि से असहमत हूँ,किन्तु यह लेख वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष्य का बहुत ही उत्तम विश्लेषण है।
अगर इस लेख को राहुल या प्रियंका में से कोई पढ़े तो ज्यादा कुछ उन्हें सीखने को मिलेगा।
और सच्चाई भी सामने आएगी।
बात को राहुल गांधी तख पहुंचाए,शायद कुछ बात बन जाए।
राहुल गांधी को भारत भमृण करना चाहिए युवा एवं शिझित वर्ग को ध्यान में रखते हुए अपनी बात उन तक पहुंचानी चाहिए कार्यकर्ता निराश हे
Excellent sir
Itni shudh hindi baap re. Phaad di congress ke buddhon ki. Mazaa aa gaya.
आज कांग्रेस को rss के टक्कर का संगठन बनाना ही होगा)
क्या जातियों को एकजुट करा जा सकता है धर्म मजहब के नाम पर एकजुट कराया जा सकता है|
क्या कांग्रेस इन्सानो को इंसानियत और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एकजुट नही कर सकती|
you & few journalists are worried about the freedom of speech which is snatched away by reactionary forces. although i am more older than you but I salute to all courageous journalists as they working as watchdog for for us.
EXCELLENT..
Congress has taken a decision to not participate in TV debate a little too late. They should have done it long back. Majority of TV anchors only kill Congress/Rahul and sing paeons for Modi/govt. Unless there is level playing field opposition should keep away from TV.
Excellent sir
Good
कांग्रेस पार्टी को जमीनी स्तर पे काम करना पडेगा। और सभी छोटे कार्यकर्ताओं से मिलकर रहना पडेगा। कांग्रेस पार्टी जमीनी स्तर पे बहोत कमजोर है। कांग्रेस पार्टी का कोई भी नेता जनता के बीच नहीं जा पता है। और समस्या हल हो पाता है।
कांग्रेस के विचारधारा से सहमत बहुत बड़ा वर्ग है लेकिन कही ना कही संवाद का आभाव है. इस त्रुटि को दूर करना होगा जनता के बीच स्वस्थ संवाद स्थापित करना होगा
Fuck Congress and it's dalaals
बूथ , वार्ड , विधान सभाक्षेत्र के स्तर पर कांग्रेस खत्म हो चुकी है !जड़ों को खोजना , समेटना सहेजना , यहां से शुरुआत कर , फिर आगे विचारों और मुद्दों को धार देकर जमीन पर बढ़ना और लड़ना होगा !
अतिसुन्दर विश्लेषण।
सर आपका लेख अच्छा और प्रायोगिक है,लेकिन थोड़ा लंबा लग रहा है,चूंकि मैसेज छोटा ही है।
उम्मीद करता हूँ राहुल तक ये सोच भी पहुंचे।
Why not try to do Talent hunt just like the find Remya Haridas from Kerala.Someone local and trusted. In addition have support from local people and guidance by Experts. This message will create clean image and genuine concern for local people. On success the Electoral bonds donation will flow to party there by squeeze the other side.
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Nice, very nice
हिंदी में भी कम से कम सौ गलतियां है , कैसे पत्तलकार हो ? तुम जैसे दरबारी पत्तलकार पप्पू की चापलूसी करते रहो , कभी एक लेख राहुल की चवन्नी कम है इस पर भी लिख दो...
अरे प्रसून जी आप कांग्रेस के सलाहकार क्यों नही बन जाते । कितनी अच्छी व्याख्या कर लेते हैं।
Excellent sir
लोग समझ चुके हैं सर और लोगों ने समझदारी दिखाई भी थी परंतु EVM के सामने लोगों की आवाज़ दब कर रह गाई । EVM को एक तरफ रख दो तो लोकतंत्र अब भी ज़िन्दा है
Excellent Analysis Sir. Salute to your pure journalism.
आपको पूरे लेख में सिर्फ गलतियों पर ही नज़र ये
आपकी मानसिकता को दर्शाती है
बिल्कुल सही बोला सर आपने कांग्रेसमें कोई दिग्गज नेता बचा ही नहीं है जो सामने आकर जनता की आवाज बने सबने माल कमा कर बैठ गया है अब आदत पड़ गया है बने बनाए खाना चाहिए .......
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