" हमनें ज़मीन से जुड़ी ज़िन्दगी बचाने के लिये विरोध किया।" सिंगुर के कुछ किसानों से की गई बातचीत का यही लब्बोलुआब निकला, जो ममता के साथ हैं और पुलिस उन्हें गैरकानूनी तरीके से सिंगुर की घेराबंदी करने के आरोप में गिरफ्तार कर ले गयी । इस तेवर ने चार दशक पहले के नक्सलबाडी की याद दिला दी। उस वक्त विद्रोही किसानों ने गिरफ्तारी के बाद कहा था "हमने ताजा हवा में सांस लेने के लिये विद्रोह किया।"
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
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Monday, September 15, 2008
नैनो ने बदल दी बंगाल की राजनीतिक जमीन
Posted by Punya Prasun Bajpai at 3:15 PM
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7 comments:
ममता हों या माया
किसान की चिंता किसी को नही....
वाजपेयी जी आपका ब्लाग पढ़ा ..आपने बगाल सरकार के बारे मे लिखा है। गाहे-बगाहे आपने लिख डाला कि जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, ।पढ़कर दुख महसूस हो रहा है कि आप जैसे विचारक भी इस प्रकार की भावना मन में रखते है।बंगाल में बामपथी सरकार का शासनकाल पिछले ३२ वषॆ से है लेकिन मै नही समझता हू कि बंगाल सरकार ने अबतक गरीब लोगो और किसानो के लिए कुछ किया है ।नही तो बंगाल की आम जनता की ऐसी माली हालत नही होती। मुझे तो यही लगता है कि ये सरकार बुजुॆआ रहमोकरम पर चलती है नाम केवल किसानो और गरीबो का लिया जाता है ।गरीब और किसान तो सत्ता तक पहुंचने का एक जरिया है उसके बाद तो फिर वही सरकार गरीबो और मजदूरो का खुलेआं शोषण किया है ।सिंगुर के मामले की बात कई बार आपके ही प्रोगाम से सुन चुका हूं ..सरकार ने गरीब किसानो की जमीन हथियाने के लिए गोली तक चलाई ।१४ लोगो की हत्या भी हुई तो आपसे यह सवाल है कि क्या आप इस सरकार को किसानो की सरकार कहेंगे। सरकार चाहे कितनी भी साल क्यो न पूरा कर ले लेकिन अभी भी दिल्ली जैसे महानगरो मे बंगाली रिक्शा चालको की कमी नही है । फिर विकास और गरीबी की बात तो बैमानी ही लगती है ।फिर किसानो का हित देखनेवाली सरकार नैनो के लिए अपने राज्य के किसानो की हत्या करने में कोई गुरेज नही किया। इसे आप क्या कहेगे । आपके विचार चाहिये ।
किसी के एक आंसू पर हजारों दिल धड़कते है,किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है ! अब तो आंसू पोछने मैं भी कोताही बरती जाने लगी है हाय रे उदारवाद !हजारों किसानों की आवाज को टाटा की एक धमकी ने चुप करा दिया ! नंदीग्राम और सिंगुर जैसी घटना भी बेअसर रही भारतीय उदारवाद के सच को नंगा करने में ,क्या ये बलिदान भी बेकार जाएगा ? आखिर क्या होगा इन आवाजों का ?आपके विचार जानने को बेकरार एक दबी सी आवाज
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। ...सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा। ...व्यापक विष्लेषण। अच्छा लगा।
एक के बाद एक बम घमाको से दिल वालो का शहर दहल उठा । धमाका इतना खौफनाक कि २६ लोगो को जाने गवानी पड़ी औऱ १०० से अधिक घायल लोग अस्पताल में जिन्दगी औऱ मौत से लड़ रहे है । ये धमाका कई सवाल खड़ा करता है कि न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश का कोई शहर महफूज नही है । जिस शहर का नाम ले ले वही धमाका हुआ है । मालेगांव,जयपुर ,बंगलुरू,अहमदाबाद ,दिल्ली ......ताजा मिसाल पेश कर रहा हूं। अब हम ये मान ले कि हम महानगर मे रहते है और कभी भी काल के गोद में समा सकते है । हमलोग जान को हथेली में लेकर चलते है । आखिर इतने बड़े देश में सारा का सारा खूफिया से लेकर इंटेलीजेंस ब्यूरो तक फेल है ।आखिर हम किसके सहारे है । गृहमंती अपना बयान दे चुके है ...लग रहा है कि चार साल पहले भी यही बोले थे । बेचारे को कपड़ा बदलना भाड़ी पर रहा है ..मामले को इतना तूल नही देना चाहिए था ..वे भी आम इंसान है ..कपड़े के शौकीन है ,बदलते रहते है । उनके पास कपड़े है वे बदलते है जिनके पास नही है नही बदलते है । बम में मरने वालो को तो कोई जाकर देख सकता है वहां देखना ही तो है ..प्रधानमंती से लेकर सोनिया जी तक कोई जाकर देख सकती है । जो होने का था वह हो गया । फिर २०-३० आदमी के मरने से पाटिल साहब अपना कपड़ा बदलना छोड़ दे । ये तो मीडिया का कमाल है कि मामले को इतना बढा कर पेश किया गया बरना इस देश में कितने बच्चे रोज भूख से मरते है ..कभी आपने मीडिया के मुख से सुना है। उसके लिए शिवराज पाटिल साहव क्या करेगे । हर जगह भूखमरी और गरीबी है तो उसके लिए पाटिल साहब दोषी ङै । उनका अपना अलग विभाग है ...अगली बार उन्हे कपड़ा मंती बना दीजिएगा ..उस पर भी वे गुस्सा नही करेगे । बेचारे चुनाव जीतकर नही आये है तो आप जो मन है कह लीजिए । खैर कोई बात नही है बेचारे गला फाड़कर कह रहे है कि सोनिया का हाथ उनके सर पर है ।चिंता की कोई बात नही है। आप को तो टेलीविजन के माध्यम से रोज कहा जा रहा है कि आप अपनी जान-माल की जिम्मेवारी खुद रखे फिर आप पाटिल साहव पर इतना गुस्सा क्यो हो रहे है ..समझ नही आ ऱहा है ।धमाके हुए है जिन्दगी जल्द पटरी पर लौटकर आ जाएगी । हम अपनी तहजीब और संस्कार को बनाए हुए है । मुझे तो यह लगता है कि आपको गृहमंती का कपड़ा बदलना अच्छा नही लगता है
एक के बाद एक बम घमाको से दिल वालो का शहर दहल उठा । धमाका इतना खौफनाक कि २६ लोगो को जाने गवानी पड़ी औऱ १०० से अधिक घायल लोग अस्पताल में जिन्दगी औऱ मौत से लड़ रहे है । ये धमाका कई सवाल खड़ा करता है कि न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश का कोई शहर महफूज नही है । जिस शहर का नाम ले ले वही धमाका हुआ है । मालेगांव,जयपुर ,बंगलुरू,अहमदाबाद ,दिल्ली ......ताजा मिसाल पेश कर रहा हूं। अब हम ये मान ले कि हम महानगर मे रहते है और कभी भी काल के गोद में समा सकते है । हमलोग जान को हथेली में लेकर चलते है । आखिर इतने बड़े देश में सारा का सारा खूफिया से लेकर इंटेलीजेंस ब्यूरो तक फेल है ।आखिर हम किसके सहारे है । गृहमंती अपना बयान दे चुके है ...लग रहा है कि चार साल पहले भी यही बोले थे । बेचारे को कपड़ा बदलना भाड़ी पर रहा है ..मामले को इतना तूल नही देना चाहिए था ..वे भी आम इंसान है ..कपड़े के शौकीन है ,बदलते रहते है । उनके पास कपड़े है वे बदलते है जिनके पास नही है नही बदलते है । बम में मरने वालो को तो कोई जाकर देख सकता है वहां देखना ही तो है ..प्रधानमंती से लेकर सोनिया जी तक कोई जाकर देख सकती है । जो होने का था वह हो गया । फिर २०-३० आदमी के मरने से पाटिल साहब अपना कपड़ा बदलना छोड़ दे । ये तो मीडिया का कमाल है कि मामले को इतना बढा कर पेश किया गया बरना इस देश में कितने बच्चे रोज भूख से मरते है ..कभी आपने मीडिया के मुख से सुना है। उसके लिए शिवराज पाटिल साहव क्या करेगे । हर जगह भूखमरी और गरीबी है तो उसके लिए पाटिल साहब दोषी ङै । उनका अपना अलग विभाग है ...अगली बार उन्हे कपड़ा मंती बना दीजिएगा ..उस पर भी वे गुस्सा नही करेगे । बेचारे चुनाव जीतकर नही आये है तो आप जो मन है कह लीजिए । खैर कोई बात नही है बेचारे गला फाड़कर कह रहे है कि सोनिया का हाथ उनके सर पर है ।चिंता की कोई बात नही है। आप को तो टेलीविजन के माध्यम से रोज कहा जा रहा है कि आप अपनी जान-माल की जिम्मेवारी खुद रखे फिर आप पाटिल साहव पर इतना गुस्सा क्यो हो रहे है ..समझ नही आ ऱहा है ।धमाके हुए है जिन्दगी जल्द पटरी पर लौटकर आ जाएगी । हम अपनी तहजीब और संस्कार को बनाए हुए है । मुझे तो यह लगता है कि आपको गृहमंती का कपड़ा बदलना अच्छा नही लगता है
भैया,
जय माता दी,आपका ब्लॉग देखकर अच्छा लगा .
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