इस बहस के बीच बहुत कुछ याद आ रहा है। दिनकर भी याद आ गए। राष्ट्रकवि दिनकर को 1973 में जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था तो उन्होने उस मौके पर काफी कुछ कहा था । दिनकर ने कहा, "मै गांधी और मार्क्स के बीच झुलता रहा। मै रविन्द्रनाथ ठाकुर और इकबाल के बीच झूलता रहा। लेकिन इसी दौर में जब मैंने इलियट को पढ़ा तो मुझे लगा यह किस तरह की कविता है। परिस्थितियों का भेद किस हद तक होता है। इलियट उस दुनिया के कवि है, जो समृद्धि की अधिकता से बेजार है, जिस दुनिया ने आत्मा को सुलाकर शरीर को जगा दिया है."
लेकिन अब के हालात देखें तो दोनों दुनिया भारत में है। समृद्धि की अधिकता से लेकर पीठ और पेट के एक होने का सच भी आंखो के सामने मुंह बाएं मौजूद है। इन दो दुनिया या कहे समाज के बीच गांधी या इकबाल किस बिंब में तब्दील हो चुके है, यह कहने या समझाने की जरुरत नहीं है। दिनकर जी का यह भी मानना था कि उन्हे सफेद और लाल रंग ही भारत में नजर आता है। वह भरोसा भी जताते है कि इन दोनो रंगो के मिलने से जो रंग बनेगा वहीं भारत के भविष्य का रंग होगा। लेकिन अब के हालात में देश के बहुसंख्य तबके की दुनिया के सामने गाढ़ी धुंध है, जिसका कोई रंग नहीं है। लेकिन दूसरी दुनिया अभी भी लाल-हरे-भगवा में ही भारत को देखने में बेचैन है। ऐसे मौके पर जर्मनी के पस्टोर मार्टीन निमोलर की एक कविता याद आती है, जो उन्होने-"फर्स्ट दे कम " के नाम से लिखी है।
जब नाज़ी कम्यूनिस्टों के पीछे आए,
मैं खामोश रहा
क्योकि, मैं कम्यूनिस्ट नहीं था
जब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद किया
मैं खामोश रहा
क्योकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था
जब वो यूनियन के मजदूरों के पीछे आए
मैं बिलकुल नहीं बोला
क्योकि, मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था
जब वो यहूदियों के लिए आए
मैं खामोश रहा
क्योकि, मैं यहूदी नहीं था
लेकिन,जब वो मेरे पीछे आए
तब, बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
क्योंकि मै अकेला था।
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Friday, October 3, 2008
क्योंकि मैं अकेला था.....
Posted by Punya Prasun Bajpai at 8:53 AM
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कम्यूनिस्ट,
ज्ञानपीठ पुरस्कार,
डेमोक्रेट्स,
दिनकर
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25 comments:
बहुत प्रसिद्ध कविता है, आप के ब्लाग पर देख कर अच्छा लगा।
संपूर्णता लिए कविता! पढ़ी तो पहले भी थी पर अँगरेज़ी में! सुंदर उदाहरण!
बहुत बढिया पोस्ट है।आभार।
वस्तुतः यह एकाकीपन और अलगाव ही है जो लोगों को दंगों में आतंकवाद में और विघटन में झोंके जा रहा है
लोग वह सब कुछ मानने से इंकार कर देते हैं जो उनकी सोच से अलग होता है आपके पिछले पोस्ट पर मचा शोर भी इसी का उदाहरण था
हमने एक दुसरे को समझने और मानने की शक्ति खो दी है
आपने जिस कविता का उद्धहरण दिया है उस एहम बहुत दिनों से खोज रहे थे उसको यहाँ उद्धृत करने के लिए धन्यवाद
बहुत अच्छी कविता है ..नये कलेवर में आपने पोस्ट किया तो और सुंदर लग रहा है । ८० के दशक के बाद आम लोगों के सांगठनिक रुप से कमजोर करने की कोशिश वेश्विक स्तर पर जारी है । अगर बात कर्मचारियों की करें या मेहनतकश लोगों की ..अपने भले के लिये सरकार से कुछ मांगने की आवश्यकता पडी तो वो यूनियन के झंडे तले आ जाते है और दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा समवेत स्वरों में गुनगुनाते है ..लेकिन लोकतंत्र के महा पर्व में जब समतामूलक समाज के निर्माण का वक्त आता है तो वे अपनी जातियों और मजहबों में बंटकर उसी व्यवस्था का समर्थन करते है जो उनका शोषण करते आये है या कर रहे है । आज हमारी सोच ग्लोबल हो गयी है जहां समाज के निम्नतर वर्ग के हक और हूकूक की आवाज को या तो दबा दिया गया है या यूं कहे कि उनके मुंह को बंद कर दिया गया है । अगर आप कम्युनिष्टों की ही बात करें तो एक तरफ इन पार्टियों के लिये हडताल या प्रर्दशन पार्टी संविधान के मुताबिक डेमोक्रेटिक राइट है वहीं बंगाल के मुख्यमंत्री हडताल को गैरवाजिब बताते है । भारत के विभिन्न आंदोलनों पर गौर किया जाये तो कहीं इसका नेतृत्व मेघा पाटेकर कर रहीं है तो कहीं ममता बनर्जी। शंकर गुहा नियोगी जैसे ना तो आंदोलनकारी रहें ना ही सफदर जैसा रिफ्रोमिस्ट । लेकिन कविता की अंतीम पंक्तियों पर आम लोगों को गौर करना होगा और जुल्म के खिलाफ प्रतिकार में अपनी सामूहिकता की भावना को प्रर्दशित करना होगा ।
आपकी पहली पोस्ट भी पढ़ी थी, लिखने का अंदाज़ इतना दिल को छू गया था कि आपकी अगली पोस्ट का शिद्दत से इंतज़ार था, जितनी सच्चाई और ईमानदारी से आपने वो पोस्ट लिखी थी, मैं बस फैन हो गई आपकी.
आज कि पोस्ट भी वैसी ही है, आज कि सच्चाई को बड़ी ईमानदारी से उजागर करती हुई, जो कविता आपने अपनी बात को रखने के लिए चुनी है वो वाकई काबिल-ऐ-तारीफ़ है...ये कविता पहले भी पढ़ी थी, और उस समय भी दिल कि यही हालत हुयी थी जो आज पढ़ कर हुयी है..और मुझे लगता है कि आने वाले कल में भी इस कविता के मायने बदलने वाले नही हैं...बस इसे एक बार अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर समझने की ज़रूरत है...जो नामुमकिन तो नही लेकिन आजके दौर में मुश्किल ज़रूर है...बेहद शानदार पोस्ट प्रसून जी.
बहुत अच्छी कविता... कई मुद्दों पर हम गंभीर होने के बावजूद कुछ नहीं कह पाते ...क्योंकि हम अकेले होते हैं...धन्यवाद इस कविता के लिए।
Hridaysparshee..... Prernadayak....
किसी भी घटना को उसके सही परिपेक्ष्य में देख उसका निष्पक्ष रूप से विश्लेषण मीडिया की जिम्मेदारी है ,पर कई बार हम शुरूआती दौर में ही जल्दबाजी कर तुंरत -फुरंत निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते है ....कुछ वक़्त दे .समय सब कुछ साफ़ कर देगा ..... धर्म ओर राजनीती के गिनोने गठबंधन को लात मार कर हम सबको अपने अपने पूर्वाग्रह त्यागने होगे अगर हमें इस देश को बचाना है तो ! पढ़ लिख कर हम ओर अधिक असहिष्णु हो रहे है अपने अपने धर्म के प्रति ,इस प्रवति को रोकना होगा .. यही अलगाव वादी चाहते है ......जहाँ तक तक विचारो की असहमति का सवाल है एक स्वस्थ बहस से गुरेज नही होना चाहिये,न निराश ......
कविता बहुत अच्छी है
इस तरह की और भी पोस्ट का इंतजार रहेगा
Respected sir,
gone through between the lines
understand and envisaged according to my iq
regards
prasoonji,
kavita bahut prabhavshali hai. yeh panktiyan badi mahatavpurn hain.
लेकिन अब के हालात देखें तो दोनों दुनिया भारत में है। समृद्धि की अधिकता से लेकर पीठ और पेट के एक होने का सच भी आंखो के सामने मुंह बाएं मौजूद है। इन दो दुनिया या कहे समाज के बीच गांधी या इकबाल किस बिंब में तब्दील हो चुके है, यह कहने या समझाने की जरुरत नहीं है।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
भारत के बदलते परिवेश...आगे बढ़ने की अंधी होड़...और शायद आने वाले कल का इससे सजीव चित्रण नहीं हो सकता...अकेला शब्द कई मायने में प्रासंगिक होता दिखाई पड़ता है...अपनी ही बात करूं..एक छोटे से कस्बे से देश की राजधानी दिल्ली में आना..इसके बाद मीडिया की नौकरी... भीड़ में रहते हुए भी कब अकेला पड़ गया पता ही नहीं चला....शायद इन महानगरों का सामाजिक ताना-बाना ही ऐसा है जो हम जैसे छोटे शहर के नवजवानों को दूर से तो खासा आकर्षित करता है पर जब इसकी तह में जाने लगते हैं तो पहले-पहले तो रास नहीं आती..फिर बाद में 'सब चलता है' वाले धर्रे में आ जाते हैं और शायद कभी या कहुं लगभग संवेदन शून्य हो जाते हैं...आते तो हैं दुनिया बदलने पर खुद को बदलने की सोचने लगते हैं..पर फिर भी कहीं-न-कहीं उम्मीद एक किरण बाकी है...अंधेरे में भी एक चिंगारी कहीं-न-कहीं दबी दिखती है जिसे बरकरार रख शायद इस एकाकी को खत्म कर उसी तरह चलना है जिस तरह यह देश आगे बढ़ रहा है..
अद्भुत कविता है, पर काश...
कवि का नाम भी सही लिखा गया होता.
माफ़ कीजिएगा, ये पीटर मार्टिन की नहीं, मार्टिन नाइमोलर की कविता है. कुछ लोग इसे ब्रेख़्त की बता देते हैं.
यहां देख सकते हैं- http://en.wikipedia.org/wiki/First_they_came...
और यहां भी- http://en.wikipedia.org/wiki/Martin_Niem%C3%B6ller
कविता पढ़वाने के लिये शुक्रिया।
टीआरपी वाली..टीवी मीडिया के दौर में भारत और इंडिया की हकीकत..दोनों के बीच का अंतर...दोनों को ईमानदारी से पेश करना..आप जैसे चंद खबरनवीसों की जुबानी और लेख में ही देखने को मिलता है..अच्छा है उम्मीद और भरोसा बना हुआ है..एक बात कहना चाहता हूं...आज कल मैट्रो की वजह से कई जगहों पर खासा जाम मिलता है..खचा-खच भरी बस में जाम में फंसे हुए.. कई बार मजदूरों को काम करते हए देख कर सोचता हूं..कि क्या कभी उद्धघाटन के पत्थर.पर..ज्यादा ना सही...दस..बीस..मजदूरों का भी कभी नाम लिखा जाएगा..क्या कोई कभी खून-पसीना बहाकर..हवा..में चलती मैट्रो के लिये रास्ता बनाने वाले इन मजदूरों से एक बाइट लेगा..एक कॉलम की जगह देगा..दिल्ली की मुख्यमंत्री अब तक सौ से ज्यादा पुलों..फ्लाईओवरों की ईंट रख चुकी होगी..फीते काटे होंगे..लेकिन क्या कभी ये ख्याल नहीं आया कि पक्की ईंट पर ना ही..एक पोस्टर लगाकर ईंट-गार को इमारत..पुलों.फ्लाईओवर की शक्ल देने वाले मजदूरों का नाम लिखा जाये..फोटोग्राफरों और कैमरामैन की मौजदूगी में इमारतों का श्रीगणेश करने वालों में बीजेपी और दूसरे दल भी पीछे नहीं है..सब का सपना..अपना नाम अमर करना है..कर रहे हैं..पता नहीं उन इमारतों को..बनाने में कितनी जिंदगियां गयीं होंगी...कितने टन मजदूरों का पसीना और कितने किलो खून बहा होगा..कितने मजूदर रोजाना दौड़ती हुयी मैट्रो..उठते-गिरते फ्लाईओवरों से गुजरते होंगे..अजनबियों की तरह..जैसे उनका उनसे कोई नाता ही नहीं रहा हो..लेकिन हकीकत तो यही है कि मजदूरों के नाम की इबारत की बात करने वाला...मै..खुद सपनों में कई बार..कैमरा लाइट..एक्शन के साथ फीता काटते हुए पोज देते हुए अपने आप को देखता हूं..खुश होता हूं..ख्वाब को हकीकत में होते देखना चाहता हूं
पीटर मार्टीन की दमदार कविता के लिए आभार। शेष समझने की कोशिश कर रहा हूं। नासमझ हूं।
JAI MATA DI,
The quotes you have been writing on your blog are great.
सर आप की आप की सोच और संयम दोनों ही बेजोड़ है ,
कितना समय बीत गया पर आदमी आज भी अकेला है.
ये कविता हमेशा अपनी सी लगती है...
धन्यवाद आपको...
आपके लिए पाश की चंद लाईने..
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता..महफिल नहीं देखता
सूली के गीत छेड़ लेता है..
शब्द हैं कि पत्थरों पर बह बह कर घिस जाते हैं
लहू है कि तब भी गाता है..
वेगूसराय से आगे बढ़ते ही जीरो माईल मिल जाता है । जीरो माईल पर रामधारी सिंह दिनकर की शानदार प्रतिमा स्थापित है जो बरअक्स सभी गुजरने वाले लोगो का ध्यान अपनी और खीच लेती है ।शायद इतनी भव्य प्रतिमा किसी कवि या लेखक की पूरे विहार में नही बनी हुई है ।दिनकर जी का जन्म यही के पास के गांव सिमरिया में हुआ था । इसी गांव से पढ़कर दिनकर जी राष्टकवि कहलाए ।
मौका २३ सितम्बर का था । दिनकर की जन्मशताब्दी के मौके पर प्रभास जोशी और अशोक वाजपेयी सरीखे लेखक वेगूसराय पहुंचे । इस दिन को खुशनुमा बनाने के लिए दूर-दूर से लोग सिमरिया पहुंचे थे । दिल्ली से भी कुछ लेखक और विद्वान पहुंचे । सभी लोगो ने अपनी राय ऱखी । जोशी और वाजपेयी जी ने भी दिनकर और उनकी कविताओ के संबंध में अपनी बेवाक टिप्पणी रखी । हालांकि वारिस ने मजा कुछ खराब जरूर कर दिया था कुछ ऐसे भी विद्वान थे जो यह कह रहे थे कि इस स्थिति में प्रोगाम संभव नही हो सकता है । लेकिन उस भयंकर वारिस में भी लोग मानने को तैयार नही थे । लोग जोशी जी और वाजपेयी जी के विचारो को सुनना चाहते थे । तेज होती मुसलाधार वारिस से पंडाल घटा की भांति गरज रहा था लेकिन लोग मानने को तैयार नही थे । आखिरकार अगले दिन प्रोगाम सम्पन्न किया गया ।
यहां के लोगो का कवि,साहित्य के प्रति काभी प्रेम रहा है और कायम है जिसका मिसाल यहां से ८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोदरगांवा गाव है जहां की विप्लवी पुस्तकालय का जोड़ा शायद विहार में नही है और अगर गांव की बात की जाये तो पूरे देश में नही होगा । इसी साल वहां प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन हुआ था । देश भर से विद्वान वहां जुटे थे । शायद आम जनता के जेहन में यह आया भी नही होगा कि गांव में इतने बड़े लेखक पहुंच भी सकते है । लेकिन यह साहित्यिक गांव ने इस सम्मेलन को सम्मपन कराया ।
दिनकर के जन्मशताब्दी के मोके पर भी यही नजारा देखा गया ।
दिनकर शायद इस धरती को साहित्यिक बना गये थे ।दिनकर की यह कविताये आज भी कवि,लेखको और पढ़ने वाले को अपनी और खीचती है ।
सुनी क्या सिन्धु मै गजॆन तुम्हारा
स्वयं युगधमॆ का हुंकार हूं मै
या,मत्यॆ मानव की विजय का तूयॆ हूं मै
उवॆशी अपने समय का सूयॆ हूं मै।
Very Nice Poetry and Good Thinking..........! for others human.
I have stated watching AAJ TAK only because of Mr Bajpayee Ji
adhbudh sir ghor adhbudh
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