1955 का वाकया है। बिहार रोड ट्रांसपोर्ट और पटना विश्वविद्यालय के बी.एन. कॉलेज के छात्रों के बीच किसी बात को लेकर मामूली झगड़ा हुआ। लेकिन राज्य सरकार के रवैये ने कालेज छात्रों को भड़का दिया । छात्र एकजुट हुए। पटना ही नहीं समूचे बिहार के छात्र परिवहन विभाग के खिलाफ खड़े होते गये। छात्रों ने सरकार के रवैये के खिलाफ ग्यारह सदस्यीय छात्र एक्शन कमेटी बना ली। इस आन्दोलन की अगुवाई शाहबुद्दीन कर रहे थे। कमेटी में हर विभाग का छात्र टापर शामिल था। वे नेतृत्व कर रहे थे, जो खुद टॉपर थे। आंदोलन इतना जबरदस्त था कि जुलाई में शुरु हुये आंदोलन के बीच में 15 अगस्त आया, तो छात्रों ने जगह-जगह तिरंगा फहरने नहीं दिया। उसी दौर में नेहरु भी पटना के गांधी मैदान में भाषण देने पहुंचे तो उन्होंने छात्रों को भाषण में चेताया कि एक्शन कमेटी बनाकर सरकार को धमकी ना दें। एक्शन कमेटी बनानी है तो जर्मनी चले जाएं। भारत में यह नहीं चलेगा । लेकिन छात्र आंदोलन टस से मस नहीं हुआ । आखिरकार, सरकार झुकी । चुनाव हुये तो परिवहन मंत्री महेश प्रसाद समेत तीन मंत्री चुनाव हार गये ।
दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंध
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
12 comments:
सही मुद्दआ रखा है, एकता ही वह ताकत है जो समस्याओं को हल कर सकेगी।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।
सही कहा।
100% sahi baat kaha hai. Per in chatron ko smajhaye koun ki bina tod fod bhi ye sab kaam kiya ja sakta hai!
बिलकुल ठीक कहा आपने . लेकिन जे.पी. जैसा अनुभव साथ हो तभी छात्रशक्ति परिवर्तन कर सकती है .इतिहास गवाह है जे. पी . को नकार कर उस समय के छात्र आज नेता तो बन गये लेकिन धार खो बैठे .आसाम का छात्र आन्दोलन सत्ता मिलने के बाद बर्वाद हो गया .
सुप्रीम कोर्ट ने ३ नवम्बर को होनेवाले जे एन यू छात्र संघ के चुनाव पर अगले फैसले तक रोक लगा दी है।
यह सच है की अधिकांश कॉलेज और विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति हिंसा, धनबल, बाहुबल और भ्रष्टाचार के कारण असली राजनीति में जाने की प्रयोगाशालामात्र बनकर रह गयी है पर जे एन यू एक ऐसा विश्वविद्यालय है जहाँ छात्र राजनीति आज भी लोकतान्त्रिक मूल्यों को न सिर्फ़ सहेजे हुए है बल्कि दिनोंदिन उन्हें और भी सशक्त बना रही है। यहाँ के चुनाव में विश्वविद्यालय प्रशासन कोई भूमिका नही निभाता; चुनाव का पूरा संचालन छात्रों के द्वारा निर्वाचित एक स्वतंत्र और निष्पक्ष इलेक्शन कमिटी द्वारा किया जाता है। जहाँ तक धनबल और बाहुबल के प्रयोग की बात है तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा की आज भी यहाँ चुनाव हाथ से बने पोस्टरों और पर्चों से लड़ा जाता है और यहाँ के चुनावी इतिहास में मारपीट की घटनाएँ उँगलियों पर गिनने लायक हैं। जे एन यू में आज तक शायद ही कभी कोई आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति चुनाव जीता हो। जे एन यू में छात्र राजनीति के कारण यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता में कोई कमी आई हो या शैक्षिक माहौल पर कोई असर पडा हो, ऐसा भी नहीं है।
आज इक्कीसवीं सदी में भी अगर जे एन यू में बी ए और एम ए जैसे कोर्सेज़ की फीस मात्र ५०० रुपये प्रतिवर्ष है तो इसके पीछे कुछ योगदान यहाँ की सशक्त छात्र राजनीति का भी है। आज अगर सुदूर पिछडे गावों के गरीब छात्र भी बिना अपने घरवालों पर कोई आर्थिक बोझ डाले विश्वा-स्तर की गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं तो इसके पीछे कुछ योगदान यहाँ की सशक्त छात्र राजनीति का भी है।
ऐसे में सरकार और सुप्रीम कोर्ट का बिना तथ्यों और परिस्थितियों को जाने समझे एक ही डंडे का प्रयोग सबको हांकने के लिए करना निराशाजनक है। मैं इस विषय में आपकी राय जानना चाहूंगा.
मुझे लगता है कि छात्र आंदोलन की बात सोचने के साथ आज की कुछ जमीनी हकीकतों पर गौर करना भी जरूरी है। तकनीकी/व्यावसायिक शिक्षा के कालेज खुलने से परंपरागत कैंपसों का चरित्र बदलता जा रहा है। छात्रों की बड़ी आबादी एकेडेमिक्स के बजाय तकनीकी शिक्षा की ओर जा रही है जहां सोचने-विचारने-बहसने से लेकर संगठित होने और प्रतिरोध करने का स्कोप ही खत्म कर दिया जाता है। साथ ही परंपरागत कैंपसों में पहले की अपेक्षा निम्न मध्य वर्ग और गरीब घर के लड़कों का प्रवेश कम हुआ है। यह वो तबका है जिस पर हर तरह की जनविरोधी राजनीति का असर सबसे ज्यादा पड़ता है लिहाजा यह आंदोलनों में भी सबसे ज्यादा लड़ता है। अम्बानी-बिड़ला कमेटी ने शिक्षा के स्वायत्तीकरण (फीस बढ़ाने) और कैंपसों के विराजनीतिकरण की सिफारिशें की थी। एक बहुत बड़ी युवा आबादी आज रेग्युलर एजुकेशन के सिर्फ सपने ही देख सकती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि परंपरागत कैंपसों में आम घरों के लड़के आने बंद हो गये हैं लेकिन ट्रेंड यह है कि बीए, एमए पत्राचार से करके रोजी के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा लड़के पड़ते जा रहे हैं। आज कैंपसों से किसी सही राजनीति के उठ खड़े होने की उम्मीदें क्षींण होती जा रही हैं। फिर भी कैंपसों में कुछ विद्रोही चेतना से लैस छात्र तो हमेशा रहेंगे। इसलिए आज इनके साथ उन नौजवानों को खड़ा किये जाने पर एक सही आंदोलन खड़ा होने की संभावना अधिक है जो चाहे पढ़ते हुए छोटी-मोटी नौकरी कर रहे हों या बिना पढ़ते हुए। यकीनन बांटने वाली राजनीति के खिलाफ नौजवानों को ही आगे आना होगा। आज नौजवानों को एक सही विकल्प की तलाश है। वरना हताशा में राहुल राज या रंग दे बसंती के युवाओं जैसा ही रास्ता लोग निकालने लग जाएंगे। इस विषय को उठाने के लिए धन्यवाद।
SIRF CHATR AANDOLAN KYA KAFI HOGA? AGAR BIHAR AUR UP ME HI AIK RAI NA HO IS MUDDE PAR TO KYA KIJIYEGA? JIS TARAH SE TAMAM GHATNAWO KE BAD BHI MAYAWATI CHUP RAHI AUR RASTRIYA ISTAR KI PARTI BHI KATHOR SHABD KAHNE SE BACHI.. WO USI POLITICS KI PARICHAYAK THI JISME VOTE BANK TALASHA JA RAHA THA....KYA MATALAB KISE NIKALA JA RAHA HAI..MATLAB TO ISASE HAI KI KAHA KE VOTE SE KIS PARTY KA SAROKAR HAI....PICHALE DINO TRAIN ME AIK NAWNIRWACHIT ASAM KE JUDGE AUR BIHAR SE TALOOK RAKHNE WALE SAJJAN SE PARICHARCHA ME YE BAT UBHAR KAR AAI KI DES TO KAPHI PICHE CHUT CHUKAA HAI ....KYA UP KYA BIHAR .... CHATR KHUD KO KEWAL BACHAKAR APNI JAGAH BANANA CHAHATE HAI..NAWNIUKT JUDGE NE KAHA" LAJJA AATI HAI KI JINDAGE EXAM DETE BIT GAI..AAJ KUCH BAN BHI GAY HAI TO KYA KAR SAKTE HAI...KISASE KAHE KI AAGE AAO...LOG YAHI KAHEGE..KHUD TO KAMYAB HO GAYE AUR HAME AANDOLAN GHASIT RAHE HO.......JAJBA HI KHATM HO CHUKA HAI..YADI KUCH BACHA HAI TO BHITAR CHUPA GUSSA AUR NAFRAT....JO PHOOTEGA JAROOR PAR BHALA KISKA HOGA..............?
मुझे लगता है कि दसवी कक्षा से ही पचास फीसदी बच्चों के मां-बाप...अपन कणधारों संसारिक सुख और सम्पन्नता वाले समाजिक वर्ग का हिस्सा बनवाने के लिये..आईआईटी,ट्रिपल आईआईटी,आईएमएम,और दूसरे प्रोफेशेनल कोर्सों की तैयारी में ट्यूशन और कोचिंग में झोंक देते हैं..हालांकि इनमें से कामयाब कितने होते हैं..उसका आंकड़ा अलग है...तीस फीसदी (10+2)का तमगा लिये छात्र कॉलेज...अकसर बिना किसी फारर्वड प्लान के...(राम भरोसे)कॉलेज पढ़ने पहुंचते हैं...इनमें से कुछ पहले साल में ही भटक जाते हैं..कुछ बीएड,लॉ,कर लेते हैं,कुछ को जुगाड़,परिश्रम, किस्मत के मिश्रण से सरकारी नौकरी की सौगत मिल जाती है,कुल मिलाकर बहुत से अपने लायक कुछ ना कुछ कर लेते हैं...इसके बाद दस फीसदी महानुभाव तो ऐसे भी होते हैं कि..कॉलेज में एडमिशन के लिये भी जुगाड़ लगाना पड़ता है...उनका मकसद पिताजी की दुकान पर बैठने से पहले टाइमपास या पढ़े-लिखे होने का कागजी सर्टिफिकेट हासिल करना रहता है..सर,मुझे लगता है कि केवल दस फीसदी छात्र...ही आईएएस,पीसीएस,ज्यूडिशियल सर्विस, रिसर्च,या कहें,वैज्ञानिक या प्रोफेसर बनने के मकसद से वास्तविक तौर पर कॉलेज में शिक्षा लेने के लिये पहुंचते हैं..अब कॉलेज पहुंचने वाले इन तमाम छात्रों में से कितने शिक्षित(केवल पढ़े-लिखे होना नहीं)सभ्य,वैचारिक और बौद्घिक रूप से मजबूत छात्र...राजनीति और आम आदमी के लिये सड़क पर उतरने के लिये खुद और पारिवार के समर्थन के साथ तैयार होते हैं..ये सबके सामने हैं...नतीजा छात्र राजनीति..दबंग,ठेकेदारों,छुटभय्या टाइप नेताओं और उनके बच्चों के हाथ में पहुंच जाती है...वो ही युवाओं की आवाज( बेसूरे ढंग से) बनने की कोशिश करते नजर आते हैं...लेकिन उनका मकसद..तो बस किसी तरह..मनी पॉवर,मैन पॉवर,पॉलिटिकल पॉवर,मस्लस पॉवर,
टीवीमाइक पॉवर हासिल करना रहता है..इसी मकसद से वो पूरी राजनीति करते है...उनसे करवायी भी जाती है...साथ ही शास्त्री,लोहिया,जेपी जैसे मार्गदर्शकों को गुजरे अरसा हो गया है..नेताओं की नई फसल..ईमानदारी,देशसेवा,आमआदमी से सरोकार वाले खाद से अब तैयार नहीं हो रही है...हालांकि राहुल गांधी,सचिन पायलट,उमर अब्दुल्ला,राजीव प्रताप रूडी,प्रकाश सिंह बादल के भांजे( नाम ध्यान नहीं आ रहा है)जैसे कुछ नये सियासी सितारों से उम्मीद की रोशनी आती दिखती है..लेकिन अभी दूर है...इसलिये फिलहाल तो यही है कि रामजी करेंगे बेडा पार..उदासी मन काहे को करे...
प्रसून सर, आप जो मुद्दे उठाते हैं वे बड़े ही ज्वलंत हैं, लेकिन प्रश्न ये उठता है कि क्या ये मुद्दे सिर्फ़ ब्लॉग या अखबार के पन्नों में पर बहस के मुद्दे बन कर रह गए हैं? क्यों नही, इन देश के सौदागरों के कान पर जूँ रेंगती, क्या ये किसी सिविल वार की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब जनता दिल्ली पर हमला कर इन्हे इनके पॉश बंगलों से निकाल कर सड़क पर चिथड़े चिथड़े करके मारे.
लेकिन निराशा के बादल भी छा जाते हैं... अस्सी के दशक के अंत में श्रीमान विश्वनाथ प्रताप सिंह , भगवान् शंकर के नाम को कलुषित करते हुए जो ज़हर का बीज बो गए हैं, उस से उबरने में इस राष्ट्र को शायद सदियाँ लग जाएँ, यदि आप उस दौर की जवान होती पीढी पर गौर करें तो जवाब मिल जायेगा, जातिगत वोट बैंक के नाम पर जहर पिलाकर, उस दौर की पीढी को परिपक्व किया गया. कहाँ राजे महाराजे विष कन्याएं पालते थे, इस देश के राजनेताओं ने तो पीढी दर पीढी जातिवाद और सम्प्रदायवाद के ज़हर बुझे मानव तैयार किए हैं. राज ठाकरे नाम का शख्श तो ज़हर बुझे मानवों के दस्ते का एक प्रतीक मात्र है...
बचपन से ही यह पंक्तियाँ सुनता आ रहा हूँ ...जब विद्यालय में थे, हिन्दी साहित्य और इतिहास की कक्षा में यह घुट्टी पिलाई गई "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी, बरसों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा..." प्रश्न यह है कि कंधार से बर्मा तक विस्तृत सीमायें निरंतर सिकुड़ती जा रही हैं, हम अभी भी अपनी निरंतर संकुचित होती हस्ती की डींगे हांक रहे हैं. हिंदुस्तान की हालत तो किसी ऐसे दिवालिया रईस की सी लगती है, जिसके पास अमीरी के दिनों का फटा पुराना कोट बचा हो और वो उसे दिखा कर अपने धनाड्य अतीत की दुहाई दे रहा हो.क्या अवशेषों का बच जाना आप अपनी उपलब्धि मानते हैं?
सादर
अनुराग
"....... बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है ......" आपकी यह बात गौर करने लायक है. दूसरी बात - यदि छात्रों को आन्दोलन के लिए उकसाया जाता है तो इसका फायदा अंततोगत्वा यही लोग उठाएंगे...... नुक्सान तो आम आदमी का ही होगा न ? कोई दूसरा उपाय सोचना होगा प्रसून जी. अब हम तंग आ चुके हैं इन आन्दोलनों से.
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