Monday, October 13, 2008

बाटला हाउस के इर्द-गिर्द

आतंकवाद से बड़ा है बटला इनकाउंटर और बटला से बड़े हैं अमर सिंह और अमर सिंह से छोटी है राष्ट्रीय एकात्मकता परिषद और इस परिषद से छोटा है बटला और बटला से छोटा है आंतकवाद। अब इंडियन मुजाहिद्दीन के आंतक तले सबसे शक्तिशाली कौन है? यह सवाल देश के किसी भी हिस्से में अनसुलझा हो लेकिन दिल्ली के जामियानगर में यह कोई पहेली नहीं है। बटला एनकाउंटर के बाद जामियानगर में जिस जिस के पग पड़े, उसने अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी ताकत का भी अहसास कराया और कमजोरी का भी। लेकिन ताकत और कमजोरी दोनों के सामने जामियानगर हार गया। यह बटला एनकाउंटर के इलाके का नया सच है।

बटला एनकाउंटर को लेकर जामियानगर में अगर सवाल दर सवाल ईद से लेकर दशहरा तक घुमड़ते रहे तो इसी दौर में आजमगढ़ में पुलिसिया खौफ भी कम नही हुआ। लेकिन राजनीति के मिजाज ने जिस तरीके से एनकाउटंर को लेकर समूचे तबके को वोटर में तब्दील करने की शुरुआत की और इस मिजाज ने सरकार बचाने और गिराने तक की चाल शुरु की, उसमे जामियानगर को पहली बार समझ में आने लगा है कि इस बार बिसात भी वही है और प्यादा भी वही। ढाई चाल चलते हुये भी वही नजर आयेगा और मंत्री से कटते हुये भी वही दिखायी देगा। यह सभी रंग जामियानगर के भीतर ही मौजूद है...नजर खोलिये...लोगो से मिलिये- सब दिखायी देगा ।

जामियानगर के बटला हाउस यानी एल-18 के दरवाजे पर जाने की हिम्मत किसमें है। यह शर्त जामियानगर के स्कूली बच्चों का खेल है। पुलिस की मौजूदगी वहीं हमेशा रहती है। यूं समूचे जामियानगर पर पुलिस की पैनी नजर लगातार टिकी है लेकिन बटला हाउस के नीचे पुलिसकर्मियो की मौजूदगी है। तो जो शर्त जीत गया उसे बर्फ के गोले से लेकर जुम्मे के दिन किसी नयी फिल्म का टिकट मिल सकता है । इस खेल के कुछ नियम भी हैं, जिसमें बटला हाउस में पुलिस के सवाल जबाव का सामना किये बगैर अंदर जाने से लेकर तीसरी मंजिल तक जा कर लौट आना हिम्मत और शर्त का रुतबा बढ़ा देती है। हसन मिया के मुताबिक, उन्होंने यह खेल ईद के दिन बच्चो को खेलते देखा था। उस दिन तो फटकार कर भगा दिया लेकिन क्या पता था वक्त के साथ साथ यह खेल बढता जायेगा और इसका तरीका-नियम सबकुछ बदलते हुये खेल में बच्चो की रोचकता बढ़ा देगा। पुलिस की मौजूदगी सबसे ज्यादा जामिया यूनिवर्सिटी की तरफ से रिहायशी इलाके में धुसते वक्त है। ऐसे में खास कर यूनिवर्सिटी के दाये तरफ की दीवार के साथ मुड़ते रास्ते को पकड़ कर जो बच्चा बटला हाउस तक पुलिस के सवाल जबाब दिये पहुच सकता है, वह अपने दोस्तों के बीच नया हीरो है। नये हीरो की तालाश जामियानगर के युवा तबके में भी है। बटला हाउस एनकाउंटर में जो मारे गये, उनको लेकर चलने वाली बहस में अचानक राजनीति का ऐसा घोल घुल गया है कि युवा तबके में राजनीति की ओट सबसे कारगर लगने लगी है। जामियानगर में मस्जिद के सामने बनाये गये अस्थायी मंच पर इरफान ने पांव छू कर अमर सिंह को सलाम किया था। जिसे युवा तबका पचा नही पा रहा है। असलम और सादिक जामिया के ही छात्र है और वही हॉस्टल में रहते है । उन्हे अपनों के बीच एक ऐसे हीरो की तलाश है, जो उनके बीच से निकल कर देश के किसी भी हिस्से में संजीदगी से उनकी मुशकिलात को रखने का माद्दा रखता हो । उन्हे यह बर्दास्त नहीं है कि जामियानगर में आकर तो राजनेता उनके घाव को उभार कर मलहम लगाने का सवाल उठाये और जामियानगर की सीमा पार करते ही मलहम को राजनीति का घोल बना लें। इसलिये इरफान को लेकर उनके भीतर आक्रोष है, लेकिन उन्हे लगने लगा है कि तबको में बांटकर राजनीति की जा सकती है, अपने तहके के दर्द को जगाकर राजनीति की जा सकती है लेकिन कोई मुसलमान ऐसा क्यो नहीं है जो देश के तमाम संकटों को लेकर सभी की बात कहने की हिम्मत रखता है।

जाहिर है अपने दर्द को समझने का मिजाज मुशरुल हसन के जरिये उन्होंने समझा है लेकिन उन्हे एक हीरो की तालाश है। उनके बीच अंजुमन एक नायिका जरुर है जो जामियानगर थाने में जा कर पुलिस को यह तमीज सिखा आयी कि बिना महिला पुलिसकर्मियो की मौजूदगी के महिलाओं से पूछताछ नहीं होनी चाहिये। घरों में पूछताछ नहीं होनी चाहिये। उसके बाद से महिलापुलिसकर्मियो की मौजूदगी हर समूह में दिखायी देने लगी है। नायक की तलाश जामियानगर के बडे बुजुर्गो को भी है । असगर के मुताबिक साड़ी का धंधा करने वाले शेख साहेब राजनीति और साड़ी में गजब का तालमेल बिठा कर अपनी अदा पर सबको फिदा करना जानते है , लेकिन नहीं जानते तो मौजूदा हालात के तनाव को । कांग्रेस के इ अहमद साहेब जामिया में आये तो शेख साहेब ने उनके सामने कह दिया कि अब न तो नौ मीटर की साड़ी होती है और नाही असल जननेता । किसी ने सोनिया का नाम लिया तो शेख साहेब बोल पडे जनाब जन नेता का मतलब उस कढाई से है,जो दिखाती है हुनर और होती है बेशकिमती। उसकी बोली नहीं लगती। यहां तो जो आता है सियासत की बोलिया लगाने लगता है ।

संयोग से हमारी मुलाकात भी शेख साहेब से हुई। जब हमने शेख साहेब के बारे में कहे गये जुमलो का जिक्र किया तो शेख साहेब ने सीधे हमीं से यह सवाल कर दिया कि जनाब, आप ही बताइये सोमवार को एनआईसी की बैठक है, इसमें शामिल होगा कौन और बात का मजमून क्या होगा । मेरे मुंह से निकल पडा कि बटला के एनकाउंटर का भी जिक्र हो सकता है और अमर सिंह साहेब तो खुद यहा आ चुके है, और वह एमआईसी के सदस्य भी है। इसलिये इन हालातो में जामियानगर से लेकर आजमगढ़ की बात तो होगी ही। शेख साहेब ने मुस्कुराते हुये कहा, जनाब यही तो आप भी मात खा रहे है। आप भी एनआईसी को अमर सिंह की तराजू में देखने लगे । जो पार्टी के भीतर राजपूत और देस के सामने मौलाना होकर राजनीति की धार पर चलना चाहते है। यह वोट की बाजीगरी है ...और बाजीगरी तभी तक चलती है जबतक बाजी लगती रही । शेख साहेब बोले, जनाब एनआईसी उन्नीस सौ इकसठ में नेहरु की पहल पर बनाया गया था । जिसका मकसद समाज के भीतर धर्म या जाति की खटास को ना फैलने देना था । लेकिन बैठकों के दौर चलते रहे और खटास बढ़ती रही । इन बैठको का सबेस ज्यादा मुनाफा किसी को हुआ तो वह राजनीति है । शेख साहेब के मुताबिक आखरी बडी बैठक 1992 में हुई थी। निशाने पर मंदिर-मस्जिद था । सहमति बनी नही। जानते हो क्यो,उन्होने बेहद रहस्यमयी तरीके से मुझसे पूछा....फिर खुद ही जबाब दिया क्योकि कोई जनता की बात नहीं कर रहा था । चर्चा में आम शख्स की मौजूदगी गायब थी । फिर बोले सोमवार की बैठक में भी जामियानगर से लेकर आजमगढ़ तक पर बात तो होगी और कधंमाल से लेकर कर्नाटक की हिंसा का भी सवाल उठेगा और अभी लिख लो इन बैठको में राजनीतिक हिसाब-किताब देखे जायेंगे। यहां इतने मरे , वहा इतने मरे । दोनो में फर्क कितना है अगर बराबर तो बैठक शांतिपूर्ण रही और अगर यहां ज्यादा मरे और वहा कम मरे तो राजनीतिक गणित में कोई एक बैठक से बाहर निकल कर घमकी भरे अंदाज में शांति की बात करेगा। जामियानगर में मकानों की खरीद फरोखत का सुझाव देने वाले और बिल्डर के नाम से दुकान चलाने वाले अफरोज और राजेन्द्र साझीदार है । दोनो ऑफ-द-रिकॉर्ड बात करते है लेकिन हर मुद्दे पर खुल कर बोलते है । यह ऑफ-द-रिकॉर्ड है , लेकिन सुन लिजिये....बटला एनकाउंटर के बाद से जामियानगर की पहचान बढ़ी है । पहले दिल्ली में जो मकान या दुकान के लिये जामियानगर पहुंचते उन्हे बहुत कुछ यहां के बारे में बताना पड़ता था लेकिन बटला कांड ने जामियानगर की हैसियत बढा दी है । मैने सीधे पूछा, हैसियत कैसे बढा दी..अब तो लोग यहा कम आते होगे....अफरोज ने कहा आफ-द-रिकार्ड है लेकिन यह जान लिजिये, जो हालात है देश में उसमें जामियानगर सरीखे जगह एक तरह का आशियाना है। उन लोगो का जो अच्छा कमाते - खाते है लेकिन हमेशा इस डर में जीते है कि कभी कोई उन्हें किसी मामाले में फंसा कर बंद ना कर दे। इस पर अफरोज के साझीदार राजेन्द्र ने आफ-द-रिकार्ड की बात कहते हुये एक तमगा यह कहते हुये जोड़ दिया कि दिल्ली मुसलमानों का पंसददीदा शहर है क्योकि यहा किसी को भी छेडने पर बवाल मच जाता है। फिर बोला सच बोलूं भाई साहब...मीडिया और राजनीति ने हमारा धंधा बढ़ा दिया है । राजनीति बांट देती है और मीडिया उसे उछाल देती है। अमर सिंह जी आये थे ना ....आप ही लोग तो टीवी में बता रहे थे कि बटला एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग की उन्होंने। और मजा देखिये हमारी तरह वह भी सौदेबाजी करने लगे । मेरे मुंह से निकला अमर सिंह जी ने तो कोई सौदेबाजी नही कि उन्होने तो हालात बताये । इस पर अफरोज आफ-द-रिकार्ड बोल पडा....लेकिन उन्होने ही जांच नहीं तो समर्थन वापस लेने की धमकी तो दी थी...अब यही तो सौदेबाजी है । लेकिन जो कहिये जामियानगर का मामला जितना उछला, उसका असर अब दिखने लगा है....श्रीनगर के हामिद अंसारी साहेब आये थे एक इमारत का सौदा पटाने और सौदा पटा तो बोले दिल्ली में ही डेमोक्रेसी है। यहीं घर लेना ठीक है, कोई छेडेगा तो नहीं । फिर जामियानगर में तो कोई पुलिसवाला छेडेगा नहीं.... । खुली हवा तो यहीं मिलेगी ।

22 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत लम्बा आलेख है, कुछ पढ़ा। पर शाम को पढ़ कर टिप्पणी करेंगे।

Anonymous said...

राष्ट्रीय एकात्मकता परिषद की बैठक की पूर्व सन्ध्या पर दिया गया एक बयान ,जो गौरतलब है ।

अनुनाद सिंह said...

हमेशा की तरह वागाडम्बर से भरपूर, सारहीन, लम्बा लेख।

त्यागी said...

पहले भी बहुत घटिया लिखा था और आज भी और आप जनाब जी टीवी पैर भी जेएनयू टाइप स्टोरी ही बोलते हो. बस करो प्रसून जी. घिसी पिट्टी राजनीती कब तक मीडिया में चलोऊगे/

Unknown said...

पंडित जी, मिजाज के अलावा कोई शब्द सीखा है या नहीं। ऐंकरिंग करो या फिर ब्लागिंग हर बार मिजाज ही मिजाज। अरे पंडित जी इसके अलावा भी अगर हिंदी पढ़ी होती तो ज्यादा अच्छा रहता। और रही आपकी बात तो आपसे कोई भी कुछ भी लिखवा ले। आडंबरपूर्ण और स्यूडो विद्वान के तौर पर आप नंबर एक आदमी है। अगर आपको यकीन न हो तो शीशे के सामने एक लंबी स्पीच रिकार्ड करे और देखे कि आखिर तक आते-आते आप पहली बात का विरोध करने लगते अपने आप और मिजाज कई बार गर्म बताने लगते है। अब पता नहीं ये मिजाज है या फिर आप मजाक है।

सुमो said...

महाराज
कहानी घर घर की खत्म हो गया लेकिन आपकी ये घटिया बयान बाजी कब खत्म होगी
ब्लागिंग में आये हो तो दिल की बात लिखो, ये एम्बेडेड जर्नलिज्म के लिये तो टीवी ही काफी है

आज से कुछ साल बाद अपने लिखे को पढोगे तो अपने आप पर बहुत शर्म आयेगी
याद रखना

SHAILESH SHUKLA said...

सियासत की चाल देखिये , मिजाज़, परत दर परत इस , तस्वीर के पीछे की तस्वीर , कुरेदेंगे ......break ke baad
.
.

अरे वाह !
हाथ मलते मलते ये तो पुण्य प्रसून टाइप लेख तैयार हो गया ....

दिमाग पर जोर मत डालिए ...
हार्ड डिस्क क्रैश कर जायेगी...
वाजपेयी जी के लेख ऐसे ही होते हैं ...

दिनेशराय द्विवेदी said...

कुल मिला कर न किसी सियासतदाँ को मुल्क की चिंता है और न ही अवाम की। सभी राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे हैं।
अवाम भी उन के ही मुताबिक अपनी गोटियाँ फिट करता है। बस जब लगे कि गोटियाँ गड़बड़ हो रही हैं, चिल्लाने लगता है।

विनीत उत्पल said...

प्रसूनजी, क्या इन सवालों का जबाव है आपके पास. आशा है आप इसका जबाव जरूर देंगे.

Some Questions for the Delhi Police and Embedded 'Journalists'

The last few days have seen the Delhi Police "returning fire" at the critics of the Jamia Nagar encounter. Pressured by the mounting skepticism about police claims, the Delhi Police have now responded with a new round of theories and stories, which nevertheless remain as riddled with holes, as their earlier version(s). Jamia Teachers' Solidarity Group responds to the latest Police claims.

1) The police was caught by surprise. Or was it?

In its response to the questions being raised by the civil society, the police say, "the presence of armed terrorists took them by surprise." "The police did not expect an encounter at L-
18." (Indian Express October 9)
However, Praveen Swami in his "Alice in wonderland" article in The Hindu (October 10) writes that "the investigators learned that top commander 'Bashir' and his assault armed squad left Ahmedabad on July 26 for a safe house at Jamia Nagar." Further he says, "the investigators came to believe that Atif Amin either provided Bashir shelter or the two were one and the same person."
Surely, there can be only one truth:
a) The police knew that a "top commander" and his "armed assault team "was residing in L-18 (as claimed confidently by Swami). In which case, the Special Cell's almost cavalierapproach is inexplicable — unless we accept Swami's contention that Inspector Sharma'steam did as well as it could "given their resources and training".
While Swami and his ilk may rue the lack of "state of the art surveillance equipment" that can be found in United States or Europe, surely, even Third World police can use, upon knowledge that "dreaded terrorists" are holed up in a house, methods such as sealing the building, and making public announcements asking them to surrender.
b) The Police went to L-18 merely for investigation and was ambushed. In which case, isn'tit surprising that it took them only a few hours to crack nearly all cases of bomb blasts thathave occurred across the country? It was of course inconvenient for UP, Gujarat, Rajasthanand Maharashtra state police, who had been claiming their own successes in uncovering their'masterminds'.
The Police commissioner Y.S. Dadwal announced at a news conference the same day that "Atif was the mastermind behind all the recent serial blasts," and that he had plotted the Saturday blasts... was also involved in the Ahmedabad blasts on July 26, Jaipur blasts on May 13, and one of the August 25 blasts last year in Hyderabad. Sajid was described as bomb-maker.
"Explosives made by him and his team bore their signature — two detonators, wooden frame, ammonium nitrate and analog quartz clocks," Dadwal said {Hindustan limes, 20 September). The question is that, the Police which did not even expect an 'encounter' in the
morning, was able to say with confidence that the bombs used in Delhi blasts bore the 'signature' of the slain Sajid by evening.
The Police must pick one of these 'truths'. It cannot claim both to be true simultaneously.

2) The puz2le of the Bullet Proof Jacket

Again, the Delhi Police has not made up its mind on this one. JCP, Karnail Singh and Deputy Commissioner of Police (Special Cell) Alok Kumar have reiterated that the Special Cell team members were not wearing BPVs. ["Entering a crowded locality would alert the suspects and give them time to escape" {Indian Express Oct 9); "To maintain secrecy in a cramped area like Batla House." Tehelka Oct 4)].
However, now we are also told that some police men were wearing Bullet proof vests.
This new version has appeared following the outcry after the publication of pictures of Sajid's body, which clearly show that he had been shot repeatedly in the head. Such bullet injuries suggest that he could have been killed from extreme close range while he was crouching or kneeling. This it self raises a huge question mark over the 'encounter'. "Senior police sources" now claim that Sajid was "lying on the floor when he opened fire at a cop. The cop, unlike Inspector Sharma, was wearing a bulletproof vest. He retaliated by firing a burst from his AK-47, which hit Sajid on his head." (Times of India, Oct 8).
Neat. It explains why and how Sajid was killed. And also, why the cop in question was not as much as injured when Sajid was supposedly firing at him. But it doesn't square with the line the Delhi Police have been pushing up till now, that Inspector Sharma's men did not deliberately wear bullet proof vests. Nor with the claim that the Special team was "armed only with small arms". (The Hindu, October 10)
Nonetheless, the Delhi Police must clearly make up its mind if the cops that day were wearing Bullet proof vests or not?

3) Corroborative evidence?

Believe it or not, the evidence in support of their claim that the boys living in L-18 were terrorists, the police presents a bucket, adhesive tape and a bag! (Indian Express, Oct 9). The bucket was used to keep bombs (but was presumably empty at the time of'seizure'); the adhesive tape was used to seal the explosives (!!!); and finally the bag was used to carry the bombs (but again presumably empty when the police 'recovered' it).
Let it be noted that legal requirements were flouted with regard to seizures. The police is required to prepare a seizure list of all items recovered from the site and it should be attested by two public witnesses unconnected with the police. Given that a huge crowd had gathered at the site, surely, the police could have sought the assistance of members of the public. And why does L-18 continue to remain sealed?

4) Injuries and Bullets:

Photographs of the bodies of Atif and Sajid, taken during the ritual bathing before burial clearly indicate injury marks on the bodies. These marks could definitely not have been caused by bullets. The skin on Atif s back is ripped off. What caused these injury marks? Were they captured before they were eliminated? The Police is now citing the elusive post mortem report, saying that the two did not have any injuries on them apart from those caused by bullets, in order to buttress their claim of the "shootout being genuine". (TOI, Oct 9). The documentary proof of the existence of such marks on the bodies however belies their claims.
Rattled by the photographs of an injured Inspector Sharma being escorted from the L-18 building, where no blood stain is visible on the front, the Police have stated that he was hit from the front as "one bullet hit him in the left shoulder and exited through the left arm; the other hit the right side of the abdomen, exiting through the hip." (The Hindu, October 10) For this reason, they argue, the bleeding was from the back—the points of exit. However, according to a senior doctor who conducted the postmortem on Inspector MC Sharma at the All India Institute of Medical Sciences, "It was difficult to establish the entry and exit points of the bullet because conclusive evidence had been wiped out by the interventions of the doctors at Holy Family [where Sharma was rushed to]." (Tehelka, October 4).
But at least one enthusiastic journalist doesn't stop here. He tells us that the "abdomen wound was inflicted with Amin's weapon and the shoulder hit, by Mohammad Sajid". And how does he know? "The investigators believe that." (The Hindu, October 10)And he believes the investigators. Has he seen a copy of the post mortem? Or the videography of the post mortem? What bullets were fired upon Inspector Sharma? What was the weapon that killed Sajid and Atif?
Why are the post mortem reports of Inspector Sharma and Atif and Sajid not being made public?

5 "Over confident terrorists":

In response to why these supposed 'terrorists' left a trail of identification marks which would have made them sitting ducks, the police have a simple answer. They were over confident.
(Indian Express, October 9)
These boys (aged 17 years — 24 years) were so confident that they had their tenant verifications done in which they provided their genuine addresses; Atif had his driving license made by providing his genuine details; carried out blasts and returned home coolly to watch their exploits on television; felt no need to flee or change residences frequently; bought sim cards in their own names; registered as students in schools and institutions; sat for examinations midway through planning and executing blasts. And yet, these masterminds had no inkling of the special cell surveillance, and indeed helpfully stored material such as photographs of blast sites on their laptops and cell phones, so that their guilt could be proved promptly by the police whenever they were caught.
Mr. Praveen Swami writes that that "the allegations leveled over the encounter tell us more about the critics than the event itself." Sure, we are skeptics, unwilling to lap up everything that comes forth from "police sources", senior or otherwise; but what does taking dictations from the Special Cell tell us about you, Mr. 'journalist'?

Our doubts remain. Our questions unanswered. Only a time bound, independent inquiry under the sitting judge of the Supreme Court can illumine the truth. What does the Delhi Police and the Government have to fear if the truth is on their side?

Manisha Sethi
Member, Jamia Teachers' Solidarity Group

अखिलेश सिंह said...

aalekh to bada hota hai par baatein badi choti karte hain.

संजय पुरोहित said...

sirji, gujrat me godhra ki train me mare nireeh, masoom, aur jo karsevak nahin the, kewal bina tiket yatra kar rahe the, jo jalkar bhasm ho gaye, unke pariwaron ki khoj khabar kab karoge, karoge bhee ya nahee. shayad nahee, kyonki ye koi khabar he hi nahin, kambakht sare hindu jo the.

संजय पुरोहित said...

kash in netaon ke rishtedaar atankwadion ki golion, bamo ka shikar hote, to inhe ahsaas hota ki ek pariwar ke sadasya ki maut kaisi hoti hai. ya allah esa kar, jald kar.

parth pratim said...

मान्यवर,
आपके इस आलेख का जो अर्थ मेरी समझ में आया वो ये कि - जामियानगर के एनकाउंटर को मानवाधिकार वालों, राजनेताओं और मीडिया के लोगों ने इतना अधीक उछाल दिया है कि यदि अब वहां कोई सचमुच का आतंकवादी भी आकर बस जाए तो पुलिस को उन पर हाथ डालने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा. याने यह जगह अब आतंकवादियों के लिए निरापद जगह हो गई है.
यदि मैंने सही अर्थ निकाला है ( जिसे निकालने मे मेरा 9 दिया तेल जल गया) तो आपके विचारों की मै क़द्र करता हूँ.

Unknown said...

@आतंकवाद से बड़ा है बटला इनकाउंटर और बटला से बड़े हैं अमर सिंह और अमर सिंह से छोटी है राष्ट्रीय एकात्मकता परिषद और इस परिषद से छोटा है बटला और बटला से छोटा है आंतकवाद।

ऐसे अच्छे-अच्छे लेख लिखते हैं आप. आप भी तो इस श्रृंख्ला में कहीं फिट होते होंगे.

kumar Dheeraj said...

ओडीसा में हिंसा जारी है । मामला ओडीसा के आदिवासी समुदाय का ईसाई धमॆ में परिवत्तॆन को लेकर है । जारी हिंसा इतना तेज हो चला है कि कई लोगो को वहां जान गंवानी पड़ी है ।३०० गांव को तहस-नहस कर दिया गया ,४३०० घर जला दिये गये । ५० हजार लोग बेघर हो गये । लगभग १८००० लोगो को चो‍‍ट आई १४१ चचॆ तोड़ दिए गए । १३ स्कूल को बन्द कर दिया गया । ये आंकड़े है उड़ीसा में आदिवासी समुदाय पर हुए अत्याचार का ।यू कहे तो बजरंग दल १९९५ से इस प्रकार की हिंसा करते आ रहे है । आस्टेलिया के ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेट और उनके बच्चे की हत्या इसका प्रमाण है । राज्य के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक बजरंग दल को समॆथन दे रखे है । सीधे तौर पर कहा जाय तो कि भाजपा के साथ सरकार में शामिल पटनायक ने धमाॆतरण को रोकने के लिए अपने दल और अन्य साथी समूहो को छूट दे रखी है । लेकिन मसला यह है कि बजरंग दल बार-बार कहती आयी है कि ईसाई मिशनरी पैसे का लालच देकर धमॆ परिवत्तॆन करा रही है । लेकिन राज्य में कानून है और एक भी मामला अभी तक इस तरह के मामले का सामने नही आया है । फिर सरकार के पास कानून है तो उसने इसका ठेका बजरंग दल को क्यो दे रखा है । समझ से परे है । सवाल यह भी है कि धमॆ परिवत्तॆन की जरूरत क्यो पड़ी । और इस परिवत्तॆन के पीछे कौन जिम्मेवार है सरकार ने गरीव आदिवासी तबको के लिए ऐसे उपाय क्यो नही किये जिससे इसे रोका जा सकता था । और जहां तक मामला पैसे लेकर कराने का है तो अभी भी ईसाई की संख्या ओडीसा में केवल ९ लाख है जो राज्य की पूरी जनसंख्या का ढाई प्रतिशत है । अगर ऐसा होता तो आदिवासी के लिए सबसे अच्छा वक्त अंग्रेजो के समय का था जब वे आसानी से अपना धमॆ बदल सकते थे । लेकिन उस समय ऐसी कोई बात नही थी ।
भाजपा १९६० से ही ओडीसा पर शिकंजा कसने की फिराक में है । जो १९६४ में राउरकेला ,१९६८ में कटक और १९८६ में मदक और १९९१ में पूरे देश में हुए हिन्दु -मुस्लिंम दंगो से पटा है । इतना ही नही जिसका खामियाजा १९६६ के बाद के साल में भाजपा को लक्ष्मिनंद सरस्वती की मौत से मिला है । १९६६ में संध और भाजपा ने मिलकर सरस्वती को मुसलमानो औऱ ईसाईयो पर शासन करने और उसे शांत करने के लिए भेजा था । इस तरह भाजपा का इतिहास यहां क्या रहा है कहना ठीक नही है । लेकिन ताजा जो स्थिति है उसमें बजरंग दल के ऊपर लगाम लगाने का काम ओडीसा सरकार का है नही तो जिनके घर औऱ बच्चे जलेंगे उनके बारे में क्या कहा जाए । जो भी हो अच्छी फसल तैयार नही हो पायेगी । जिसका खामियाजा आज देश झेल रहा है । इसलिए ऐसा कोई कदंम न आगे बढे जो समाज को दिशा से भटकाये और फसलो को ही बबाॆद कर दे ।

अनुराग तिवारी said...
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अनुराग तिवारी said...
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अनुराग तिवारी said...

अच्छा लगा जानकर कि पी. यु. सी. एल. और पी. यु. डी. आर. का लंगडा, काना और बहरा साम्प्रादायिक सदभाव , यहाँ भी अपना शो रूम खोलने में सफल हो गया. पहले तो लगा था की ये सिर्फ़ "बाटला हाउस के इर्द-गिर्द" ही अपनी दुकान चलाएंगे. काश! ये इतनी प्रेस क्लिपिंग्स इस तथ्य की भी एक्त्रतित कर पाते कि कितने बम धमाकों ने इस देश को लहू लुहान किया है?

ए. सी. कमरों में बैठकर कोई भी फैक्ट फाईनडिंग टीम एक अच्छी कांसपिरेसी थेओरी लिख सकती है, वो भी खास तौर से जब अल्प संख्यकों और दलितों का मसीहा बनकर फोरेन फंडिंग लानी हो तो.

मौलिक एलिस इन वंडरलैंड की तरह इन्हे भी फंतासी लिखने में मज़ा आने लगा है, खुदा न खास्ता इन फंतासी लेखकों का कोई अपना मारा जाए इन बम धमाकों में .... क्या ये तब भी बैठकर इस तरह की फंतासी कहानियाँ लिखेंगे और प्रेस क्लिपिंग्स एकत्र करेंगे?

धमाकों में अल्पसंख्यक भी मरे और बहुसंख्यक भी, लेकिन मरहम सिर्फ़ एक समुदाय के ऊपर लगाने की मुहीम क्यों? एनकाउंटर में मरने वाला हर शख्श हिन्दुस्तानी था, एक ने देश के लिए जान दी और दूसरे ने देश से बगावत करके जान दी. बेहतर होता, ये मानवाधिकारवादी, युवाओं को इस राष्ट्र से बगावत करने के लिए उकसाने वाले को बेनकाब करते.

अगर इन तथ्यों को कोई बहुसंख्यक सांप्रदायिक मानसिकता का मानता है, तो कोई परहेज़ नही, कम से कम यहाँ मुखौटा लगाकर लंगडे, काने और बहरे साम्प्रादायिक सदभाव की दुकान तो नही लग रही. जिस दुकान पर सामने तो अपनी खुजली मिटाने के लिए अल्पसंख्यकों के नाम का मरहम बिकता हो और पिछले दरवाज़े से सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को ध्रुवीकरण का टानिक दिया जाता हो.

ashish tiwari said...

स्थिति बड़ी विस्फोटक है..लगता है तुफान के पहले का सन्नाटा है..हमारे देश की राजनीति धर्म-संप्रदाय के ईर्द-गिर्द ही चलती दिखाइ दे रही है...एक दल रामराज्य की धुनी रमता है तो दूसरा अल्लाह-अल्लाह करता है और इनका साथ देते हैं हम...कुल मिलाकर धर्म और राजनीति हमारे देश में एक दूसरे के पर्याय हैं..कभी जब इन बातों की गहराई पर जाने की कोशिश करता हुं तो सोचता हुं आखिर गलती है किसकी...क्या इस पूरी व्यवस्था के लिए हम खुद जिम्मेदार नहीं है...फिर ये भी लगता है की हमारे पास क्या कोई राजनीतिक विकल्प है?होगा भी कैसे हमारे जैसे लोग जो स्वयं को पढ़ा-लिखा महसूस करते हैं उन्हे तो देश-राजनीति जैसी बातें सिर्फ बकवास लगती हैं..राजनीति और राजनीतिज्ञ तो जैसे गाली है..इस 1 अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में एक आदमी ऐसा बताईए जो आज के नेताओं के लिए बिना गाली बात करता हो...कुछ भी हो हम तो सुरक्षित हैं बाकी दुनिया से हमें क्या लेना देना..भाड़ में जाएं सब..लेकिन जब खुद पर आती है तो जोर-जोर से शोर मचाने लगते हैं..हम हर अन्याय को मूकदर्शक बने सहते हैं..हमारे आस-पास रोजाना ऐसी कई बातें घटती हैं जो हमें लगता है की गलत है पर हम तब तक कुछ नही बोलते जब तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से हम प्रभावित होते हों...ऐसी स्थिति में हम दूसरों पर ही सारा ठीकरा कैसे फोड़ सकते हैं...आज तक हमने देश को साफ-सुथरे लोकतंत्र बनाए रखने के लिए किया क्या है..क्या कहीं न कहीं हमने खूद अन्याय या कहें की समाज की गंदगी को बढ़ावा नहीं दिया है...बदलाव लाने के लिए खूद में बदलाव लाना जरूरी है...हम बाहर क्यों लीडर ढूढते हैं क्या कभी खूद में एक लीडर नहीं खोज पाएंगे...क्या हम में से ही कोई बाहर निकल आ पाएगा और राजनितिक व्यवस्था में बदलाव लाने की कोशिश कर एक आदर्श राजनेता की कमी पूरी करेगा..हम लोगों कुछ आए ना आए हमें दूसरों पर कीचड़ उछालना...नुख्ता चीनी निकालना जरूर आता है....एकता,प्रेम,सदभाव जैसी बातें तो ऐसे में बैमानी लगते हैं...बटला हाउस के ईर्द-गिर्द राजनीति की बात है तो वहां भी यही हो रहा है..लोग चुप हैं जो हो रहा है होने दे रहे हैं हां कहीं न कही आक्रोश जरूर पैदा हो रहा है..जो कि विस्फोटक है...जैसा आपने लिखा है कई लोगों का मानना है कि बटला हाउस की घटना ने कहीं-न-कही जामिया नगर को लोकप्रिय किया है...और कुछ का तो ये भी कहना है की मुस्लमानों के लिए एक सुरक्षित जमीन भी तैयार की है..कई तो इतना तक कह देते है कि जामिया नगर और उसके आस-पास एक ''दूसरा देश'' तैयार हो रहा है...जामिया में रह कर
कोई अगर देश विरोधी कार्य भी करता है तो कुछ उनके हिमायती नेता उन्हे बचाने जरूर आ जाएंगे...
ऐसे में किया क्या जाए समझ नहीं आता... निष्कर्ष नहीं निकलता दिखाइ देता..सर दर्द देने लगता है..शायद खूद ही कुछ कर के देखते हैं कुछ तो बदलाव होगा...

Harshit G. Dhingaun said...

hi! ..................

Unknown said...

dear punya prasoon ji aur dosto
PICHLE DINO BURHANPUR ME THA...DANGO KI REPORTING KARNE GAYA THA...JO HUA WO TO THEEK.....LEKIN IS BAR EK BAT NE MUZHE HILA KAR RAKH DIYA ...2 RATE ALALG ALAG MOHALLE ME BITAI ...BURHANPUR SANKARI GALIYO KA SHAHAR HAI..MIX POPULATION..HAR GALI ME JABARDAST NAKEBANDI..RET KE BORE,TEEN KI CHADDRE LAGA KAR RASTE BAND...RAT BHAR JAG JAG KAR PAHREDARI...HAR THODI DER ME SANDESH KA AADAN-PRADAN...WO DEKHO LAGTA HAI UDHAR SE KUCH LOG AA RAHE HAI TAIYAR HO JAO..HINDU MUSLIM DONO KI GALIYO ME AISE HI NAKEBANDI..DANGO KI REPORTING KA YE PAHLA MAUKA NAHI THA...LEKIN IS BAR JITNA "AVISHWAS" DEKHA,EK DUSRE KE PRATI GHRINA(HATE) DEKHI WO KABHI NAHI DEKHA...SACH KAHU TO PAHLI BAR DANGO KI REPORTING KARTE SAMAY AISA BHAV UTHA KI...MANO PARTISION (1947)KE SAMAY SHAYAD YAHI HALAT RAHE HONGE..AISE HI AFWAHO KA DAUR... US MOHALLE ME 2 HINDU MAHILAO KA APHARAN HO GAYA...2 KO KAT DIYA...MUSALMANO KE MOHALLE ME V YAHI SUB KUCH ...ITWARIYA KI TARAF SE MAT JANA...POLICE KI GADI ME HINDU AAYE THE 4 LADKO KO LE GAYE..KAT KAR FENK DIYA...PRASOON JI BACHPAN SE HIDU-MUSLIM EKTA KA PATH PADHTE AAYE THE..KYA AB WO IN "SIYASATDANO" KI SAJISHO KE CHALTE BEASAR HONE LAGA HAI...MASOOM DIMAGO ME V ITNI NAFRAT...ITNA AVISHWAS..?KAYA "HAMARI BIRADARI" IN SIYASATDANO KE AAGE HAR JAYEFI...DIL GHABRATA HAI... KI MULK BADALNE KE NAM PAR "SIYASATDANO" DWARA KYA HINDU MUSALMANO KO ITNA BADAL DIYA JAYEGA KI PARTISION KE YE "BURHANPURI" HALAT DES BHAR ME HAR SAHAR,GAON,GALI MOHALLE KADWI HAKIKAT BANNE LANGENGE....KUCH KAHIYE NA DOSTO ...MAI GHABRAYA HUA HUN..MUZHE DILASE KI JARURAT HAI(SUNIL SINGH BAGHEL,SANJHALOKSWAMI INDORE,09826255176)

kiran said...

Aap ka lekh main hamesh padhti hun.aaj manvta khatre m h ye hum sabhi jante.aaj ke vote me hi khot h.aam jan jitna mil kar rahta h utni hi political party wale.
jis terah se bharat kuch logo ki bagawat ya kuntha se jujh raha h aise m hum logo ko kuch aisa karna chahiye jise manavta ki misal kayam ho.logo ka khatm hota vishvash barkarar rahe.koi h teyar iske liye.arop pratyarop se sahanubhuti k siwa kuch hath nahi lagega.
Safi Ara