झकाझक कपड़ों से लैस नयी पीढ़ी। कोट-टाई, बंद गले का मॉडलर कोट, आंखों में शानदार धूप का चश्मा। किसी के कांधे से लटकता चमड़े का बेहतरीन बैग तो किसी के हाथ में मिनरल वाटर की बोतल। संवरे बाल और सौद्दर्य प्रसाधन में लिपटे साफ सफेद चेहरे। लेकिन आवाज में गुस्सा। भरोसा टूटने का गुस्सा। खुद के होने की छटपटाहट...जिसे नकारा जा रहा है।
चकाचौंध में लिपटी युवा पीढ़ी की एक ऐसी तस्वीर जो आसमान में उड़ान भरने के लिये ही बेताब रहती है, वही बेबस होकर सड़क पर एक अदद नौकरी की मांग जिस तरह कर रही थी, उसने झटके में उस सपने को किरच-किरच कर दिया जो खुली अर्थव्यवस्था में सबकुछ जेब में रख कर दुनिया फतह करने का सपना संजोये हुये है । जेट एयरवेज के साढे आठसौ प्रोबेशनर, जो चंद घंटे पहले तक उस आर्थिक सुधार के प्रतीक थे, जिसने बाजार को इस हद तक खोल दिया था कि हर चमक-दमक वाले प्रोफेशनल यह कहने से नहीं कतराते थे कि खर्च करना आना चाहिये। धन का जुगाड़ तो बाजार करा देगा। आज वही प्रोफेशनल जब यह कह रहे है कि हमारी डिपॉजिट करायी गयी रकम जो 50 हजार से लेकर सवा लाख तक है, उसे तो लौटा दो। तब कई ऐसे चेहरे सामने आने लगे जो सालों साल से अपनी जमीन का मुआवजा मांग रहे हैं।
लेकिन उन चेहरों पर कोई चमक कभी किसी ने नहीं देखी। टपकता पसीना और फटेहाल कपड़ों में अपने हक की लड़ाई को अंजाम देने के लिये सडक पर खून-पसीना एक करते किसान-मजदूरो की सुध कभी किसी ने नहीं ली । इन चेहरो को कभी टेलीविजन स्क्रिन पर भी तवज्जो नहीं मिली । न्यूज चैनलों के भीतर वरिषठों में तमाम असहमतियो के बीच इस बात को लेकर जरुर सहमति रहती कि किसान-मजबूर के हक की लड़ाई को दिखाने का कोई मतलब नहीं है। यह चेहरे नये बनते भारत से कोसो दूर है...इन्हे कोई देखना नहीं चाहता । फिर टीआरपी की दौड़ में यह चेहरे बने बनाये ब्रांड को भी खत्म कर देंगे।
सहमति का आलम इस हद तक खतरनाक है कि अगर किसी जूनियर ने इन चेहरो को ज्यादा तरजीह दे दी तो उसे अखबार में काम करने की खुली नसीहत भी दे दी जाती । लेकिन उसी अंदाज में जब चमकते-दमकते चेहरे चकाचौंध भारत से सराबोर होकर आश्चर्य के साथ सड़क पर आये तो विवशता या कहें कमजोरी इस हद तक थी कि यह पीढी अपने सीनियर ही नहीं न्यूज चैनलो के पत्रकारों से भी गुहार लगा रही थी कि कल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है इसलिये उनकी लड़ाई में सभी शामिल हो जाये।
कमोवेश इसी तरह का सवाल नौ महिने पहले जमीन से बेदखल हुये 25 की तर्ज पर लगती थी जिसे कोई सुनना नही चाहता । बाजार समूची युवा पीढ़ी को चला रहा था और ब्रांड बनते पत्रकार भी इस एहसास को समेटे न्यूज चैनलों को चला रहे हैं, जहां बाजार की लीक छोड़ने का मतलब पिछड़ते जाना है। पिछड़ना कोई चाहता नहीं इसलिये चमक-दमक से भरपूर नयी पीढ़ी भी जब अपनी रोजी-रोटी का सवाल लेकर सड़क पर ही पिल पड़ी तो न्यूज चैनल फिर अपने राग में आ गये । 15 अक्तूबर को दोपहर एक बजकर बीस मिनट पर जैसे ही यह खबर ब्रेक हुई और तस्वीरों के जरिये स्क्रीन पर हवा में उड़ान भरती युवा पीढ़ी जमीन पर खुले आसमान तले नजर आयी तो सभी चैनल दिखाने में जुटे लेकिन किसी ने अपने उस व्हील को तोड़ने की जहमत नहीं उठायी जो प्रायोजक कार्यक्रम पहले से तय थे। डेढ़ बजते ही कमोबेश हर न्यूज चैनल पर हास्य-व्यंग्य से लेकर मनोरंजन और फैशन दिखाया जा रहा था। कहीं
"कॉमेडी कमाल की" चल रहा था तो कही "आजा हंस ले", "हंसी की महफिल","फैशन का टशन","खेल एक्सट्रा" यानी सभी उसी बाजार के प्रचार से धन जुटाने में जुटे थे जो मंदी की मार तले किसी को भी सड़क पर लाने को आमादा है।
लेकिन बिजनेस चैनलों ने इस संकट के सुर में अपने संकट को भी देखा समझा और अचानक सरकार को बेल आउट की दिशा में सुझाव देने में जुट गये। यानी संकट जेट एयरवेज पर आया हो तो उससे निपटने के लिये देश का धन एयरवेज को दे दिया जाये, जिससे वह अपने नुकसान की भरपायी करे और सभी प्रोफेशनलो को नौकरी पर रख ले। लेकिन किसी चैनल ने इस रिपोर्ट को दिखा कर सरकार को समझाने की जहमत नही उठायी कि भुखमरी में भारत का नंबर 66 हैं और भुखमरी से बेलआउट करने के लिये सरकार को पहल करनी चाहिये ।
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Friday, October 17, 2008
मीडिया, चमक और सपना
Posted by Punya Prasun Bajpai at 8:46 AM
Labels:
अर्थव्यवस्था,
चैनलों,
मीडिया,
युवा पीढ़ी
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13 comments:
आखिर ये सारे चैनल प्रोफेशनल हैं , आप ही बताहए भला उन्हें अपने अस्तित्व को सिर्फ बनाए रखना ही नहीं , वरन् नं 1 की दौड़ में भी आगे रहना है। वे तो सोंच समझकर निर्णय लेंगे ही।
सही मुद्दा उठाया है आपने. प्रियदर्शन जी भी लगभग यही मुद्दा उठा चुके हैं. यदि जूनियर कुछ परिवर्तन करवाने की हिमाकत नहीं कर सकते हैं तो आप जैसे सीनिअर को यह पहल तो करनी होगी. शुरुआत यदि आपके चैनेल से हो तो बेहतर होता.
इस भागते दौड़ते वक़्त में अब सब ख्वाहिशे EMI बन गई है ...जिंदगी खबरिया चैनल सी ओर आदमी विज्ञापन सा है .
ये मीडिया की मेहनत का नतीजा है जो जेट ने अपने कर्मचारियों को वापस काम पर रख लिया है....
अचानक नौकरी चले जाना अन्दर तक हिला कर रख देता है. इस बात से यह एक फ़िर साबित हो गया कि बाज़ार की चमक स्थाई नहीं होती. नौकरी भी जरुरी नहीं है कि हमेशा बनी रहे. इस लिए अपने खर्चे काबू में रखना जरुरी है. एक कहावत पढ़ी थी बचपन में - चादर देख कर पैर फैलाने चाहिए. इस कहावत को हमेशा याद रखना चाहिए.
सही लिखा है।पर प्रसून जी जो हाल जेट के कर्मचारिओं का हुआ उसकी वज़ह सिर्फ़ खुली अर्थव्यवस्था नही है ।
dear sir,
u got better iq then others
aap pr sarswati ka ashirwad he
but do u feel media is on absoulte write path
i wriiten some thing from my level in my blog if in u r busy schedule got time just visit
regards
पहले प्राइवेटाइजेशन और अब प्राइवेट पूंजी को मदद?
कल तक पूंजीवाद के इन पैरोकारों को सरकार और पब्लिक सेक्टर राह में रोड़ा लगता था। जब नौकरी गई तो राजनीतिक पार्टी याद आने लगी। मैं तो अब भी मानता हूं कि अगर लोकतंत्र नहीं होता और बेईमान ही सही चाहे वोट के लिए ही क्यों ना हो, ये नेता न होते तो हम जैसे गरीब जो प्रसूण जी आपकी लेखनी पढ़ते हैं। इसे पढ़ने लायक नहीं होते। डेढ़ करोड़ की आबादी वाला ये देश सिर्फ चंद बेइमाना नौकरसाहों और किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने वाले दलालों की बपौती है। कल तक ये टाई कोर्ट वाले राजनीति और लोकतंत्र को गंदा समझते थे। जरूरत पड़ी तो उसी के गोद में जाकर आंसू बहाने लगे। शायद कभी इन्होंने किसी पार्टी के लिए वोट भी नहीं डाला होगा। लेकिन उन किसानों और मजदूरों की कौन पूछे जो सुबह जगकर लाइन लगाकर लोकतंत्र को जिंदा रखे हुए है। रही बात मीडिया के सरोकार की तो, प्रसूण सर आप तो आजतक, एनडीटीवी और न जाने कई बड़े चैनलों में काम कर चुके हैं। आपको तो पता ही हैं ये जो नई पीढ़ी इसमें आ रही है। वो इसे पत्रकारिता नहीं बल्कि प्रोफेशन कहती है। जिसने कभी जीवन में शहरों के चकाचौंध के आलावा कुछ देखा ही नहीं। जिनकी पढ़ाई लिखाई ऐसे स्कूल में हुई हो जहां गरीब बच्चों को क्या गरीबी को भी फटकना मना है वो क्या समझेंगे मजदूरों और गरीबों का दर्द। कभी सोचा है कितने लोग मीडिया में हैं जो संत टाइप के स्कूल के आलावा सरकारी स्कूल से पढ़े लिखे हैं। जिन्हें राशन कार्ड से लेकर तेलहन और दलहन की खेती पता है। जिसे रवि फसल की जानकारी है। या फिर वे राहुल गांधी की तरह इनको समझने की कोशिश भी करता हो। कभी कभी तो लगता है मैं दुनिया का सबसे बेवकूफ आदमी हूं जो आपका ब्लॉग पढ़ता हूं और रोज ऑफिस में गाली सुनता हूं। कहा जाता है तुम में प्रोफेश्नलिज्म नहीं है। गांव के गवार हो। कपड़ा तो अच्छा पहन नहीं सकते। पत्रकारिता क्या खाक करोगे।
बाजार के विफल होने के बाद सरकार की शरण में आ गिरा है । अब अमेरिका के अनेक वित्तीय संस्थानो में बाजार का पैसा नही बल्कि सरकार का पैसा लगा होगा । यानी अथॆव्यवस्था को नियंत्रित करने वाली उंचाईयों पर बाजार का नही सरकार का कब्जा होगा । औऱ यही तो समाजवादी व्यवस्था में होता है । आज स्थिति यह है कि जो अथॆव्यवस्ता पर ज्यादा आधारित है वह उतना ही ज्यादा संकट में है । जिसका असर न केवल अमेरिका बल्कि भारत में भी दिख रहा है । भारत का तकदीर इस मायने में अच्छा है कि यहां पूणॆ ऱूप से निजीकरण सफल नही हो पाया है बरना जेट एयरवेज जैसे कई कम्पनियो के कमॆचारी सड़क पर गुहार लगाते मिलते । औऱ अपनी चमक पर स्व्यं पदाॆ डालने की कोशिश करते । यही तो बाजारवाद है ।
bilkul hi sahi vimarsh hai pumy prasun ji,par shayad jet prakaran aur khuli arthvyavastha ko thoda alag najariye se dekhne ki jarurat hai.
ALOK SINGH "SAHIL"
ye media ka kaun sa chehra hai jaha mehnatkasho ki awaj kahi gum ho gayi hai aur khabaro ki jagah manoranjan ne le liya hai.news chenels ka naya chehra kafi nirasha janak hai.
नई पीढ़ी ka अस्तित्व or पत्रकारिता संकट में है
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