Friday, October 24, 2008

रगों में दौड़ती मुंबई का चेहरा बदल चुका है

साठ के दशक की फिल्म 'शहर और सपना' से लेकर सुकेतु मेहता की किताब 'मैक्सिमम सिटी' के बीच चार दशकों का फासला है। मुंबई को लेकर बनी फिल्म 'शहर और सपना' राजकपूर और दिलीप कुमार के दौर की है। इसमें रोजगार की तलाश में बिहार-उत्तर प्रदेश-बंगाल से मुंबई पहुंचे मजदूरों के दर्द का किस्सा है,जो सोलह से अठारह घंटे खटता है। रात कहीं पाइप में तो कहीं पटरी पर तो कही पुल के नीचे या सीढियों तले गुजारता है।

फुर्सत के क्षणों में सिनेमा ही उसका साथी है और उन सब के बीच कहीं बॉलीवुड का कोई नायक-खलनायक या नायिका को शूटिंग के दौरान देख लेता है, तो उसकी जिन्दगी तर जाती है। होली-दिवाली या ईद के मौके पर जब वह गोरखपुर-छपरा-दरभंगा-आसनसोल लौटता है, तो मुंबई की चकाचौंघ उसकी कहानियां होती हैं और उन कहानियों में वह खुद को भी कहीं ना कहीं खड़ा कर मुंबई का हिस्सा बनता है। और मुंबई जाने की चाह इन छोटे शहरों के लड़कपन छोड़ जवान होती पीढियों की आंखों में बड़े हो रहे सपनो को पंख लगाते हैं।

इसलिये मुंबई चार दशक पहले मैक्सिम सिटी नहीं थी । वह सपनों का शहर था, जिससे जुड़ने की चाह हर किसी में पनपती थी। गांव की मिट्टी का सोंधापन अगर किसी के आंगन में खत्म होता और बडी इमारत वहां बनती तो उसके साथ अगर मुंबई की कमाई जुड़ी होती तो इमारत या हवेली का अंदाज राजकपूर-देवआनंद या युसुफ मियां यानी दिलीप कुमार के सात जुड़ ही जाता। अगर दिवाली या ईद के मौके पर कोई नया फैशन किसी की घरवाली दिखा जाती तो मीना कुमारी-वहीदा रहमान या साधना से जोड़ कर मुंबई की महक गांव की किस्सागोई का हिस्सा बनती चली जाती।

यह किस्से मुबंई को उस वक्त भी गांव और छोटे शहरों में जिलाये रखते, जिस वक्त पिया का इंतजार होता । और एक दिवाली से दूसरी दिवाली इसी आस में कट जाती कि फिर मुंबई की चकाचौंध समूचे गांव में एक नया किस्सा गढ़ेगी और इंतजार का दर्द झटके में फुर्र हो जायेगा।

लेकिन चार दशक बाद सपनों को ध्वस्त कर मुंबई की नयी तस्वीर मैक्सिम सिटी के तौर पर उभरती है, जिसमें अपराध और पैसा अफरात में है। जिसमें पटरी से लेकर पाइप और ढाबा से लेकर पुल के नीचे का सराय भी माफियागिरी का हिस्सा है । जिसमें सबकी हिस्सेदारी है । हिस्सेदारी में किसी तरह की भागेदारी का संघर्ष समूची मुंबई को खाये जा रहा है। और मुबंई के सपने की जगह उस पूंजी ने ले ली जो हिस्सेदारी और भागेदारी से एक नये समाज को बनाने में जुटी है । यह समाज अपने पैरो की जगह उस अफरात पैसे को पैर बनाने पर आमदा है, जो उसे एक झटके में समाज से अलग कर सात संमदर पार ले जा सकता है।

यह नयी जमात अंडरवर्ल्ड की है । जिसमें हिस्सेदारी और भागेदारी किसी को भी कहीं का कहीं पहुचा सकती है । साठ के दशक में कैफी आजमी आजमगढ़ से ही मुंबई पहुंचे थे, और नब्बे के दशक में आजमगढ़ से ही अबू सलेम पहुंचा। नब्बे के दशक में कैफी को मुंबई तंग लगने लगी थी । वह आजमगढ़ लौटने को बैचेन रहते थे। जिस शहर के सपनों के आसरे उन्होंने अपने शहर को हवा दी, तीन दशक बाद उसी शहर मुबई में उनके सपने समा नही पा रहे थे तो वह आजमगढ़ लौट कर अपने सपनों को हवा देने लगे।

लेकिन नब्बे के दशक में अबू सलेम का जो सपना आजमगढ़ पहुंचा, वह मुंबई के पार दुबई होते हुये सिंगापुर और मलेशिया तक का था ।

पैसे ने देश की सीमा लांघी तो बाजार के खुलेपन ने सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना भी तोड़ दिया । नया समाज अगर उस पैसे पर आ टिका जो सपना नही सच है तो राजनीति ने सच को सपना करार दिया । जिस दलित आंदोलन ने मुंबई समेत महाराष्ट्र को अस्मिता और संघर्ष का पाठ पढाया, नयी अर्थव्यवस्था के सामने उसने घुटने टेक दिये। अंबेडकर ने जागरुकता तो दी लेकिन राजनीतिक तौर पर कोई ऐसा मंच नहीं दिया, जहां समाज बदलने का सपना संजोया जा सके। मुंबई सपनों के शहर से मैक्सिमम सिटी में बदली तो दलित मराठी को भी समझ में नही आ रहा कि दलित का तमगा लगाकर वह किस संघर्ष को अंजाम देगा। अचानक दलित मराठी युवक मराठी मानुष में अपने आस्तित्व को देखने लगा है।

पूंजी से पूंजी बनाने के नये खेल ने उस औघोगिकरण को भी चौपट कर दिया जो ना सिर्फ रोजगार देते थे बल्कि मजदूरो का एक समाज भी बनाये हुये थे। मुंबई समेत महाराष्ट् के चार लाख से ज्यादा छोटी बड़ी इंडस्ट्री बीते ढाई दशक में बंद हो गयी या बीमार होकर ठप पड़ गयी । राज्य के करीब पचास लाख से ज्यादा कामगार इस दौर में बेरोजगार हो गये । जो बेरोजगार हो रहे थे उनके परिवार में बच्चे स्कूली पढाई करते हुये यह समझने लगे थे कि बाप के पास रोजगार नहीं है तो पढाई तो दूर दो जून की रोटी को लेकर भी घरो में बकझक होनी है। होने भी लगी । सोलापुर की चादर या सूती कपड़े इतिहास बन गया। चार बड़ी मिलें और साठ से ज्यादा छोटे उघोग जो इन मिलों पर टिके थे, बंद हो गये ।

कमोवेश कोल्हापुर-लातूर-बीड-औरगाबाद से लेकर विदर्भ के नागपुर तक यही स्थिति होती चली गयी । जिन जमीनों पर उघोग थे या जितने उघोग थे उन्हे कोई संकट नहीं आया क्योंकि उनके लिये बाजार पंख फैला रहा था। सबकुछ मुनाफे में बदलना था तो बदला भी । लेकिन संकट इन ढाई दशको में उस पीढी को हुआ, जिसने घर में बाप के रोजगार के संकट को स्कूली जीवन में देखा और जब उसके कंधे मजबूत हुये तो रोजगार का कोई साधन उसके पास नहीं था । बाप की मजबूरी में बाप की कोई शिक्षा भी मायने नही होती, तो हुई भी नहीं । रोजगार के समूचे साधन राजनीति के आसरे टिके तो राजनीतिक विचारधाराओ ने भी दम तोड़ दिया। आंदोलन के जरिये बने राजनीतिक दल भी पैसे वाली सत्ताधारियों के जेबी पार्टियो के तौर पर झुकने लगी । इसे लुंपन राजनीति की काट महाराष्ट्र की राजनीति में आधुनिक राजनीति का लेप लगाकर बाल ठाकरे ने ही परोसी। राजनीति रोजगार है, इसे खुले तौर पर उन लड़को के सामने रखा, जिन्होंने बचपन मे अपने घरों में अंबेडकर-फुले के आंदोलन को पढ़ा समझा। सामजवादियो के परिवार के लड़के भी ठाकरे के साथ हुये । बेरोजगारी के आलम में बाप -बेटे की आंखों में आयी दूरी ने बेटे को लुंपन राजनीति को बतौर रोजगार आत्मसात करने से रोका भी नहीं।

मजदूर संगठन से लेकर करीब 22 संगठन शिवसेना ने नब्बे के दशक में बनाये । 1995 के चुनाव में ठाकरे के साथ हर सभा में युवा नारा लगाता था, जिधर बम उधर हम । लेकिन सत्ता मिलने के बाद रोजगार के तरीकों को सत्ता से जोड़कर कैसे चलाया जाये, जिससे हिस्सेदारी और भागेदारी का खेल बंद हो, इसे शिवसेना ना समझ पायी। लेकिन इस पीढी को यह समझ आ गया कि सत्ता के खिलाफ खड़े होने की राजनीति रोजगार का धन तो मुहैया करा सकती है। विरोध को लामबंद जो करेगा, सत्ता की सौदेबाजी में उसके सामने सभी को नतमस्तक होना भी पड़ेगा। हुआ भी यही । बाल ठाकरे, जहां उम्र की वजह से चूकते हैं, वहा राज ठाकरे खड़े होते हैं। राज ठाकरे उस राजनीतिक दौर की देन हैं, जहा राजनीति सरोकार की भाषा भूल चुकी है और पूंजी के आसरे सत्ता को बनाये रखने का मंत्रजाप कर रही है।

माना जाता है शरद पवार ने जब कांग्रेस छोड़कर एनसीपी बनायी तो जलगांव में एक सभा की और जो उनके साथ शामिल हुआ उसे एक बैग और महेन्द्रा की एक नयी जीप की चाबी दी गयी। उस दौर में पवार बतौर मराठा ही नही, पोटली के मामले में भी सबसे ताकतवर थे । ताकतवर पवार अब भी है लेकिन अब कई नेताओ की पोटली भारी है । पूंजी सबके पास है। और रुपया से रुपया बनाने का खेल मनमोहन सिंह की बाजार अर्थव्यवस्था ने सिखला दिया है तो सत्ता भी उसी रास्ते चल पड़ी है । इसलिये यह कहना बेमानी होगा कि कांग्रेस-एनसीपी ने राज ठाकरे पर पहले लगाम नहीं लगायी, जिसका परिणाम अब नजर आ रहा है।

असल में आम लोगो से सरोकार की राजनीति हाशिये पर कांग्रेस-एनसीपी ने ही ढकेली है, इसलिये मामला कानून-व्यवस्था का नहीं है । मामला उस राज्य को बनाने का है, जहां जीने के लिये कोई रास्ता चाहिये । संयोग से मराठी मानुष का रास्ता सत्ता को सीधे चुनौती देकर सौदेबाजी कर सकता है, तो यही ठीक है । वजह भी यही है कि मुबंई से निकली आग जब बिहार के उन शहरो में फैल रही है, जहां कभी मुंबई से खुद को जोड़कर सपने रचे जाते थे, तो समझ उन सपनों को रचने की नहीं बल्कि अपने घेरे में उसी मुंबई को बनाने की है, जहां हिस्सेदारी और भागेदारी की मांग सीधे सत्ता से की जा सके। लेकिन इसके लिये सत्ता को भी पूंजी की ताकत चाहिये , जो नेता लोग पहली बार युवा पीढी को झोंककर बनाना चाहते है। इसीलिये पहली बार राजठाकरे ने मुंबई के कामगारों में नहीं बिहार के नेताओं में यह टीस भरी है कि फिर बिहार मुंबई क्यों नहीं । बिहार के सत्ताधारियों के लिये न्यूइकनामिक्स का यही मॉडल आधुनिक संपूर्ण क्रांति है ।

15 comments:

Manuj Mehta said...

सही कह रहे है प्रसून जी, इसिस विषय पर मैंने एक कविता भी लिखी है अपने ब्लॉग पर "गली का सन्नाटा मायूस कर रहा है" पढियेगा, फिलहाल तो मैं यही कहूंगा...

"गीता-ओ-कुरान जला दो, बाइबल का करो प्रतिवाद,
आओ मिल कर लिखें हम एक महाराष्ट्रवाद."

मनुज मेहता
www.merakamra.blogspot.com

Sanjeev said...

आज किसी प्रदेश विशेष की जनता के मुंबई आने पर आपत्ति है। फिर ग्रामीण लोगों के शहर में आ बसने पर आपत्ति होगी। इसके बाद जाति और धर्म के नाम पर विरोध के रास्ते खुलेंगे। राजनीति के नाम पर जो हो रहा है वह कुत्सित मनोवृत्ति का नंगा नाच है।

drdhabhai said...

अच्छा लिखा आपने थोङा छोटा लिखें ये कोई अखबार का संपादकीय थोङे ही है....नये नये लगते हो

Unknown said...

मिहिरभोज की बात पर - तेज हँसी का एक दौर, याहू मेसेंजर वाला पेट पकड़कर जमीन पर लोटता हुआ स्माईली अपनी कल्पना में लायें… :) :)

sarita argarey said...

मुद्दा अच्छा है , बशर्ते आलेख छोटा होता । आपके इस आलेख को पढ कर प्रगतिशील लेखक संघ के दिन याद आ गये ,जब वक्ता ही होता था , श्रोता एक - एक कर खिसकता जाता था ।

MEDIA GURU said...

bahut achha likha hai sir ji. mumbai ab mumbai ke mayne badal rahi hai. gagar me sagar charitarth kariye .

डॉ .अनुराग said...

अब हर शहर के भीतर कई शहर है.....ओर उनमे हांफता दौड़ता आदमी.....इंसान नही.....

parth pratim said...

चाचाजी की सत्ता हथियाने के चक्कर में राज ठाकरे जो हरकत कर रहे हैं, वो मेरे हिसाब से राष्ट्र द्रोह की श्रेणी में है. उनको माइकल जैक्सन के बेहूदा डांस से अलर्जी नही है पर उ.प्र./ बिहार के लोगों से है. जिन्होंने मुंबई को मुंबई बनने में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया है/ दे रहे हैं. एक बात और .......... लगभग हर स्टेट में उ.प्र. बिहार के लोगों को " ...उस" निगाह से क्यों देखा जाता है.? ....... उन्हें भी अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए. रही बात गुंडों और माफियाओं की ...तो वो सिर्फ़ मुंबई में ही नहीं, बल्कि सभी महानगरों, उप-महानगरों, कस्बों यहाँ तक कि छोटे-छोटे गाँव में भी राज ठाकरे जैसे तथाकथित राजनेताओं के छत्र छाया में फल-फूल रहे हैं....आज भी.

Mukesh hissariya said...

जय माता दी,
बिहार ने पवन नाम के स्टुडेंट को तो खो दिया है.
वैसे मैं आपके ब्लॉग के माध्यम से म न स के लोगों को बता दूँ की मैंने मुंबई से पटना आए एक मराठी अनुज सावंत २२/१०/2008 को सुरक्षित पटना एअरपोर्ट ड्राप कर उन्हें बिहार से बाहर निकलने में हेल्प की.मेरे बताने का आशय अपने को बड़ा साबित करने का नही है बस ये बताने का है की हम हमेशा से शान्ति में विश्वास करतें हैं अमित जी ने भी अपने ब्लॉग में लिखा है -
“A seed while growing makes no sound.

A tree while falling makes huge noise.

Destruction shouts and the creation is always quiet.

This is the power of silence.”

editor said...

Adab Arz

You have summed up pretty well. Nice to see your blog, Prasun Sahab.

कुमार संभव said...

aapki bhasha aur likhne ka andaz bemisal hai. mumbai ne jo safar pichele 100 salon me taye kiyea hai hai wo pure hindustan ki mehnat thi. abe badle mizaze me wahan ke logon ki asaflta se paeda huea gusse ko raj ne dusri taraf moda diyea hai.
yea samjhane ki jaroorat hai ki maujoda haalat ke liyea doshi kaun hai. raj thakre to bas mauke ka fayda uthaya hai.

संतोष कुमार सिंह said...

मुबंई में जो कुछ भी हो रहा हैं.उसके लिए हम आप और बिहार के राजनीतिज्ञ समान्य रुप से जिम्मेवार हैं आज बिहार का हाल वैशाली की उस नगर वधू जैसी हैं जिसे दिदार करने को हर कोई तैयार हैं लेकिन किमत अदा करने के वक्त अपने वादेसेमूकर जाते हैं।आप अपने दिल से पुछिये आपने जिस स्कूल में पढा जहां आप लोरी सूनकर जवान हुए उस धरती को आपनेक्या दिया इस संसार में लाखों बिहारी धूर्व तारे के सामन चमक रहा हैं लेकिन उन चमकते तारो ने बिहार को क्या दिया।जबतक उन तारो में बिहारी होने का मर्म पैदा नही होगा इसी तरह बिहारी पिटते रहेगे। संतोष(ई0टी0भी0पटना)

kumar Dheeraj said...

मुम्बई देश की मायानगरी है रंगीन मिजाजों के लिए पूरे देश में मशहूर है । एक पल के लिए आज भी अमिताभ के डांयलाग और मलिका के जिस्म के जलवे के सामने लोग ठहर जरूर जाते है । मशहूर शायर से लेकर गीतकार ,संगीतकार ,फिल्म उद्योग के शहंशाह यही निवास करते है । पैसे की कमी इस शहर ने नही देखा है । जाहिर है कि मजदूरों से लेकर आम जनता को यहां कि मिजाज और बाजार अपनी और खीचता है । शायद लोगो की मजबूरी भी है जो उन्हे यहां तक आने को मजबूर करता है । बरना किसी का बलम कलकत्ता कमाने क्यो जाएगा । और विरह की वेदना में मासूका दीपावली और होली की आस टिकाए क्यो रहेगी । नजरे है कि थमने का नाम नही लेती है । लेकिन राजनीति और ठाकरे के गुंडा -गदीॆ ने मायानगरी की इस विरासत को कलंकित कर दिया है । बरना गांव जाकर लोग किस मुम्बई की कहानी अपनी पत्नी को सुनाएगे और कौन सुनना पसंद करेगा । सोचने का समय है ।

kumar Dheeraj said...

मुम्बई देश की मायानगरी है रंगीन मिजाजों के लिए पूरे देश में मशहूर है । एक पल के लिए आज भी अमिताभ के डांयलाग और मलिका के जिस्म के जलवे के सामने लोग ठहर जरूर जाते है । मशहूर शायर से लेकर गीतकार ,संगीतकार ,फिल्म उद्योग के शहंशाह यही निवास करते है । पैसे की कमी इस शहर ने नही देखा है । जाहिर है कि मजदूरों से लेकर आम जनता को यहां कि मिजाज और बाजार अपनी और खीचता है । शायद लोगो की मजबूरी भी है जो उन्हे यहां तक आने को मजबूर करता है । बरना किसी का बलम कलकत्ता कमाने क्यो जाएगा । और विरह की वेदना में मासूका दीपावली और होली की आस टिकाए क्यो रहेगी । नजरे है कि थमने का नाम नही लेती है । लेकिन राजनीति और ठाकरे के गुंडा -गदीॆ ने मायानगरी की इस विरासत को कलंकित कर दिया है । बरना गांव जाकर लोग किस मुम्बई की कहानी अपनी पत्नी को सुनाएगे और कौन सुनना पसंद करेगा । सोचने का समय है ।

Anonymous said...

aap ko pahli bar maine aajtak par dustak me dekha tha.aajtak ua tarah ka koi anchor nahi dekha,aapki knowedge,style doesn`t math with any ordinary person.