सुबह साढ़े छह का वक्त होगा।
13 दिसंबर यानी शनिवार का दिन। पटना जक्शन पर हावड़ा राजधानी रुकी। स्टेशन से बाहर निकलते ही चहल-पहल ने इसका अहसास तो करा दिया कि आराम का कोई दिन नहीं है। लेकिन, बाहर पार्किग में खडी गाड़ियों की कतारो में कमोवेश हर गाड़ी के साथ कोई न कोई बंदूकधारी या खाकीधारी सरीखे सुरक्षाकर्मी को देखकर यह सवाल दिमाग में घुमड़ गया कि ऐसी कौन सी सुरक्षा की जरुरत है ?
तभी मुझे लेने पहुंचे ड्राइवर ने मुझसे दस रुपये मांगे और अपने साथ आये सुरक्षाधारी को नोट थमाते हुये कहा कि आप टेंपू से घर लौट जाओ। ड्राइवर का नाम तकदीर था, जो मुझे पटना किताब मेले में ले जाने के लिए पहुंचा था। मैंने तकदीर से कहा, आप उसे भी गाड़ी में बैठा लीजिये। जगह तो काफी है। तकदीर का जवाब था अब तो पौ फट गयी है....सो कोई डर नहीं। डर... किसका डर ? तकदीर का जबाब था, राजधानी के पहुंचने का वक्त सुबह पौने पांच का है। उस वक्त अंधेरा रहता है। अकेले गाड़ी ले जाना ठीक नहीं होता । तो गार्ड को भी गाड़ी में साथ ही ले आये ।
जाहिर है, मेरी आंखों के सामने स्टेशन की पार्किंग का वह दृश्य घुमड़ गया, जहां जितनी प्राइवेट गाडियां थीं, उतने की बंदूकधारी। वाक्या खत्म होता, उससे पहले ही स्टेशन चौक की धमाचौकड़ी ने घेर लिया। एक तरफ से प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के लाउड स्पीकर से पूजा की गूंज तो कई दूसरी दिशाओं से ट्रैफिक पुलिस की सीटी..बस का हार्न..रिक्शा और टेंपू के झगडे..हंगामा। सबकुछ। लगा ही नही कि सुबह का वक्त है। कोई शख्स ऐसा नही दिखा जिसको देख यह एहसास हो कि अभी तो सुबह शुरु भी नही हुई है। उबासी..जम्हाई के बदले तल्खी और तेवर का जो सुरुर हर व्यक्ति में नजर आ रहा था...उसने एक झटके में मेरे आराम करने की सोच को धराशाई कर दिया।
मैं सोच रहा था कि होटल पहुंच कर कुछ आराम कर लूंगा और दस बजे के बाद शहर में निकलूंगा। पत्नी और बच्चों को पटना दर्शन कराऊंगा, जो पहली बार पटना आये हैं। लेकिन स्टेशन से होटल पहुंचते पहुंचते लगने लगा कि पटना की बैचेनी बदल चुकी है। दो दशक पहले की कई यादें मेरे दिमाग में कौंधने लगी। उस समय राजेन्द्रनगर से गांधी मैदान तक सुबह सुबह कभी कभी जॉगिंग करने तो नही, पर टहलते हुये यूं ही आना जरुर होता था। लेकिन तब गांधी मैदान हरा भरा दिखायी लगता। चाय की चुस्कियों के साथ गांधी मैदान के भीतर बाहर बहस-चर्चा में एक गर्मी दिखायी देती जो अंदर की बैचेनी को बाहर लाती। राजनीति को लेकर सवाल खड़ा करना और आंदोलनों की सही राह को लेकर आंदोलनकर्मियों को मान्यता देते हुये सीख का पाठ पढ़ाने का तरीका कुछ इस ऐसा होता कि बहस-चर्चा में एक गुंजाइश हमेशा बरकरार रहती।
चहल पहल या कहें गाड़ी से दिखायी दे रही भीड-भडक्का ने मेरी सारी खुमारी तोड़ डाली और होटल में सामान पटक कर मैं भी अपनी यादों में पर लगाने परिवार के साथ तुरंत सड़क पर आ गया । सूबह साढे आठ बजे का वक्त और होटल मौर्या से पैदल ही गोलघर चल पड़ा। कोई टिकट नहीं है के जबाब ने बच्चो को चौंकाया लेकिन सीढियों की हालत ने तुरंत बच्चो के गणित और अर्थव्यवस्था के तार झटका दिये कि टिकट लेकर मिलने वाले पैसे से कुछ तो ठीक हो सकता है। लेकिन मेरी नज़र गोलघर के ठीक नीचे की उस जमीन पर पड़ी, जहा कूडे का ढेर था और अगल-बगल के हम कुछ लोगों का खुला पखानाघर या कहे अटैच बाथरुम।
दरअसल, 1985-88 के दौर में यहां नुक्कड नाटक की ट्रेनिंग होती थी। कई संगठन सुबह या शाम को यहां जमा होते और नुक्कड नाटक के जरिये विचारधारा को राजनीतिक लेप चढाकर अपनी बैचेनी को रीलिज करते। मैं खुद सालों साल तक गोलघर से सटे इसी मैदान में अपने नौ या दस साथियों के साथ नुक्कड नाटक की प्रैक्टिस करता था। उस दौर में नुक्कड़ नाटक और रंगमंच के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती ही थी, लेकिन अक्सर राजनीति को आईना दिखाने की प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा होती। यानी नुक्कड़ नाटक में तत्कालीन राजनीतिक स्वार्थ पर किसी ना किसी दृश्य के जरिये चोट कर ही दी जाती थी, जिससे देखने वाले अपने अंदर की बैचेनी को नाटक से जोड़ते और वाहवाही मिलती।
अब वह मैदान छोटे से चबूतरे से लेकर शहरी डस्टबीन में बदला नजर आया। यकीकन मै हिम्मत नहीं जुटा सका कि बच्चों को बताऊ कि यहां थियेटर बनने का सपना कभी नुक्कड नाटक करने वाले देखा करते थे। मुझे पता है उनका अगला सवाल यही होता कि फिर बना क्यों नहीं। कौन नहीं चाहता । और इस तरह की गंदगी से बेहतर तो सिर्फ साफ मैदान रखना ही अच्छा होता। यह सवाल इसलिये आते क्योकि दिल्ली के जेएनयू में झाड़ और पहाड़ी के बीच एक खुला थियेटर मुनिस रजा ने बनवाया था। और मैंने बच्चों को जेएनयू दिखाते हुये यह जानकारी दी थी कि कुछ लड़के-लड़किया यहां नाटक की प्रैक्टिस करते थे। एक शाम टहलते हुये उस वक्त के वाइस चासंलर मुनिस रजा की नजर उन पर पड़ गयी और उन्होने उस जगह को उन्ही के मनमाफिक गढ़ दिया। तो गोलघर के मैदान पर सवाल उठाने का मतलब था राज्य के मुखिया पर सवाल उठाना क्योंकि बच्चे पूछते ही कि वीसी बड़ा होता है या मुख्यमंत्री। और अगला सवाल उठता कि वीसी कालेज में घूमता है तो मुख्समंत्री भी घूमता होगा। यह सब देख कर उन्हें क्या महसूस होता होगा।
खैर गोलघर से दूसरी तरफ से उतरते ही गेट के ठीक सामने एक पेटी दिखायी दी जिसमें दान पेटी लिखा था। पता चला इस पेटी का गोलघर से इतना ही लेना देना कि आने वाले लोग इसमे कुछ डाले तो गोलघर से सटे मंदिर के पंडित का भला हो। पंडित रामनारायण जी से भी वास्ता पडा तो उन्होंने बताया कि कभी कभी कोई विदेशी पर्यटक आते हैं तो दानपेटी को देखकर करेंसी डाल देते है। फिर पंडित जी खुद ही बोले करेंसी डालने वाले विदेशियो को लगता है कि गोलघर ने कभी काल से निजात दिलवायी, अब गोलघर की जर्जर हालत में कुछ गोलघर का भी भला कर दें।
कोहरे की बजह से गोलघर से गंगा नदी दिखायी दी नहीं तो गोलघर से दस रुपये में रिक्शा कर कलेक्ट्रियट घाट चल पड़े। गंगा किनारे की गंदगी को छट पूजा के वक्त कैसे निजात मिलती है, इसकी जानकारी बच्चो को देते हुये हम तुरंत कलेक्ट्रियट घाट भी पहुंच गये। लेकिन गंगा का पानी छू भी सके यह स्थिति घाट पर नही थी। हां, गंगा का पानी छूने के लिये जरुरी है कि आपका पांव कीचड से सराबोर हो। इस कीचड में कूडे-करकट का ऐसा मिलन कि, ये एहसास भी ना हो कि आप पानी छूने निकले हैं। हकीकत में छोटे छोटे गरीब बच्चों से लेकर कुत्ते-सूअर तक का ऐसा जमघट जो अपनी अपनी जिन्दगी की जरुरत के मुताबिक वहां फेंके पड़े ढेर में से कुछ चुन रहा है। किसी की फेंकी हुई चीज किसी दूसरे के लिये जिन्दगी कैसे होती है ये इस घाट पर पहुंच कर हर कोई महसूस कर सकता है। किसी को गंगा में पूजा करनी हो तो उसके लिये नाव चलती है, जो पूजा करने वाले को नदी के बीच में बने एक दियारा पर ले जाती है । वह जमीन घाट से दिखायी भी दे रही थी। नाव खेने वाले ने पूछने पर बताया कि वहीं साफ पानी है और जमीन भी साफ है। इसलिये हम वहीं ले जाते हैं, आप भी चल सकते है । लेकिन सफाई तो यहां भी हो सकती है , वह क्यों नहीं। इस पर मल्लाह ने ठहाका लगा कर कहा, हुजूर यहां सरकार है, वहां किसी की सरकार नही है। तो गंगा के दर्शन वहीं से कर हम लौट पड़े।
किताब मेला के कार्यक्रम में जाने से पहले मैंने सोचा जिस कालेज से मैंने ग्रेजुएशन की पढायी की वह तो बच्चों को दिखा दूं और अपनी स्मृति ताजा कर लूं। बीएन कॉलेज का मुख्य गेट बदल चुका था। अशोक राजपथ पर जिस जगह मुख्य गेट बना था अस्सी के दशक में वहा दीवार तोड़ कर कॉलेज में घुसने के लिये शार्टकट रास्ता बनाया गया था, जो सुराख वक्त के साथ बड़ा हुआ तो साइकिल भी उसी सुराख से अंदर जाने लगी। लेकिन यही सुराख मुख्य द्वार में बदल जायेगा य़ह कभी दिमाग में आया नही। लेकिन कॉलेज में घुसते ही वैचारिक सुराख भी नजर आया। सामने दीवार पर लिखा था, राज ठाकरे को फांसी दो-आइसा। मुझे याद आ गया जब 80 के शुरुआत में ही पटना यूनिवर्सिटी में जातीय हिंसा का रंग चढा तो एक के बाद एक कर छह छात्रों की हत्याएं हुईं । लेकिन बीएन कॉलेज के किसी लड़के को किसी ने हाथ लगाने की हिम्मत नही दिखायी। दो वजहें तो मैं जानता हूं । पहली, बीएन कालेज में छात्रों की गजब की एकजुटता थी। जिसे जातीय आधार पर बांटने की कोशिश कई बार हुई लेकिन बीएन कालेज हर बार भारी पड़ा और दूसरा, बीएन कालेज के छात्रों ने कभी वैसे नेता को तरजीह नही दी या उसके खिलाफ भी नही हुए, जिसके साथ खड़े होने या विरोध करने से उसे मान्यता मिलती। राज ठाकरे की सोच को कैसे राजनीति के जरिये साधा जा सकता है, यह अपनी जमीनी राजनीति के आसरे बात करने का हुनुर बीएन कालेज ने 1955 के छात्र आंदोलन से सिखाया। छात्रो से बातचीत में इसका एहसास तो हुआ कि छात्र मराठी मानुष की राजनीति कर नेता बने राज टाकरे से दो दो हाथ करने तक को तैयार है। लेकिन बिहार की राजनीति के अमर-अकबर-एंथोनी यानी पासवान-लालू-नीतिश की फिल्मी राजनीति से तंग है। यह जुमला बीएन कालेज के ही एक छात्र ने दिया। लेकिन जब सवाल बिहार के नेताओं की राजनीति के आसरे ही राजठाकरे की बनी राजनीतिक जमीन का सवाल उठा तो छात्रों ने माना की विकल्प गायब है। बीएन कालेज में कभी भी विकल्प की कमी महसूस नही की हुई। यानी जो स्थितियां जीने में हौसला देती हैं, वही इस बार बीएन कालेज में टूटी सी नजर आयीं।
मुझे याद आया पहली बार पटना से चुनाव लड़ने मैदान में उतरे डॉक्टर सी पी ठाकुर को भी अपनी जीत के लिये बीएन कालेज के बाहुबल और वैचारिक समझ का आसरा लेना पड़ा था । उनके भाषण कॉलेज हॉस्टल में ही लिखे जाते और जीप में भर भर के प्रचार करने लड़के भी बीएन कॉलेज से ही निकलते । राजनीतिशास्त्र के किसी प्रोफेसर से मुलाकात की सोच स्टाफ रुम की तरफ कदम बढाये तो पता चला अभी कोई प्रोफेसर पहुंचा नहीं है । ग्यारह बजने को थे । साढे ग्यारह से पहले कोई नही मिलेगा। एक बाबू ने जानकारी दी। बच्चों को साइकिल स्टैड दिखाने ले गये। वही एक जगह थी जो जस की तस । वैसे ही साइकिलों की भरमार। हां दीवारो पर हरी काई खासी ज्यादा जमी थी। मकड़ी के जाले और कुत्तों का बसेरा कुछ ज्यादा था। कॉलेज में पढ़ने आने वालो छात्रों की आर्थिक गवाही साइकिल स्टैंड दे रहा था। बेटे ने तस्वीर उतारी तो कुछ छात्रो ने कुछ धुंधले तरीके से मुझे पहचाना...कॉलेज के हालात का रोना रोया लेकिन हर आंखो में पहली बार मुझे बेबसी दिखी जो इंतजार कर रही थी कि कोई तो कुछ बदलेगा। मुझे लगा बीएन कॉलेज ने कभी दूसरो के कंधो पर टेक नही लगायी कि वह खुद कुछ नही कर सकता। मुझे लगा अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने पंगू बनाया है , भरोसा तोड़ा..डिगाया है।
(जारी.......)
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Wednesday, December 17, 2008
पंगु बना दिया "अमर-अकबर-एंथोनी" की राजनीति ने
Posted by Punya Prasun Bajpai at 5:39 AM
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1985-88 के दौर,
पटना,
राजनीतिक
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17 comments:
itna bhi bura nahi hai patna
dilli me rahne ke bad to karab lagega hi
aap kuchh bhee ho jao, ban jao, magar atit hai ki bas aapko apne saath liye chalta hai har sthan par or aap us atit ke sath taja hote rahte hain. narayan narayan
यहाँ सरकार है, वहां किसी की सरकार नही है - बात पते की है।
बहुत खुब आपने ने बिहार बदल रहा हैं इस बात का ढिढोरा पिटने वाले को सच दिखाने का प्रयास किया हैं।उम्मीद हैं सरकार और उसके रहनुमाई आपकी भावना को समझने का प्रयास करेगे।दस वर्ष पूर्व मैं भी दिल्ली से पढाई पूरी कर बिहार लौटा था तो इसी तरह की भावनाये मन में उभर रहे थे।लेकिन आज मेरी भावनायें इस भीङ में कही खो गयी हैं।चलिये इसी बहाने एक बार फिर बिहार को बदलने की इक्छा जागृत हुई हैं। (संतोष ई0टी0भी0,पटना)
Lekin sudridh kaun karega? HAM AUR AAP na. Aaj subah maine Akhbar padha usame shirshak tha-"Nitish ne lee Shatrughan kee Khabar". Nitish ne kaha ki bihar ki janata ko Gujrat jaisi teji ki ummid nahi karani chahiye. Wah Nitish ji- Sharm to kariye. Nitish bihar ki janata ko ab THAG rahe hain. 3 varshon mein unhone sirf GUNDAGARDI ko kuchh had tak aam janata ke liye samapt kiya hai.Aaj dekha jaye to unki rajnit Anant Singh Lalan singh aadi ke ird-gird hi chal rahi hai.
Ab Nitish yah bhi dhamkane lage ki bihar ki rajnit karani hai to unake sharan mein jana ho jaisa ki unhone Shatrughan jee ko isharo-isharo mein kaha.........
Sahi kaha apne KI AGAR BIHAR KA VIKASH YUVAON KO DEKHANA HAI TO Amar-Akbar-Anthoni ko UKHAR FEKNA HOGA.............
आपके अनुसार अमर यानि रामबिलास जी ..अकबर यानि लालू जी ..और एंथनी यानि नीतिश बाबू । तीनों का समय एक दूसरे के टांग खिंचने में ज्यादा बीतता है । अमर कहे कि सुबह तो अकबर बोलेगा शाम फिर एंथनी तो मौनी बाबा हैं ..मुडी हिलाकर संकेत देंगे ना सुबह ना शाम । मौना बाबा ने एक नया तमाशा खडा किया है जनता दरबार का ..दरबार तो लगता है फरियादी भी पहुंचते है लेकिन भगवान कसम समस्याओं के निपटारे की अगर हम बात करें तो नतीजा सिफर ही निकलेगा । हां जनता में आक्रोश की कमी होती है वह सोचती है बाप रे बाप राजा से डाइरेक्ट बात हो गया । लालू के कास्ट के लोग थोडा उद्दंड थे , खाया-पीया और सडक पर डकार दिया ..१५ सालों में लोगों का गुस्सा उस सरकारी जात पर टूट पडा । आज के सरकारी जात को स्पस्ट निर्देश है बेटा खाओ पीयों और कंबल ओढकर सो जाओं। नीतिश अपनी चुनावी सभाओं में कहते थे कि १०० दिन के अंदर सुशासन और ६ महिने अंदर लोगों के पलायन को रोककर राज्य में रोजगार का जाल बिछा देंगे । तपाक से लालू ने ठिक १०० दिन के बाद कहा ठिक है नीतिश बाबू लोगों को मुंबइ और गुजरात से वापस बुलाओ ..हम लोगों के लिये फ्री में ट्रेन टिकट की व्यवस्था कर देंगे । ना पलायन रुका ना रोजगार की व्यवस्था हुइ और बात वहीं रह गइ जहां से शुरु हुइ थी । कांग्रेस के वंशवाद को कोसने वाले लालू को मुख्यमंत्री के लिये सबसे उपयुक्त राबडी देवी जी लगी तो पासवान जी ने अपनी पार्टी के बिहार इकाइ का सदर अपने दुलारे भाइ को बनाया ।हालांकि बिहार में राजनीति की धुरी इन्ही तीन महारथियों के इर्द गिर्द घूम रही है तो बस बिहार के दिन बहुरने की आप दुआ ही कर सकते है ।
( नोट आपने पटना के विभिन्न धरोहरों की बदहाली का जिक्र किया उसमें कदमकुँआ स्थित हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी दर्शन कर आते साहित्यिक गोष्ठियों तो वहां होने से रही ...रात में शादी के दिनों में वहा बारात टिकती है और पूरे दिन उसके अहाते में आलू आठ रपये किलो ..बैंगन सात रुपये और नींबू चार रुपये जोडा की मधुर साहित्यिक आवाज गूंजती नजर आएगी )
लगातार कइ गंभीर लेखों के बाद ये सरल और सहज लेख पसंद आइ ।
Adarneeya Bajpaiji,
Ap sirf patna kee hee kyon bat karte hain...in amar ..akbar ...anthoniyon ...ne to pore desh ko hee kabadkhana bana diya hai.Ap kisi bhee shahar men chle jaiye...UP,Bihar...ke..kya vahan apko kuchh bhee purana..dekhne ko milega.Patna kee dhrohar aur vikas ko agar amar akbar antony kee rajneeti ne pangu bana diya hai to
lakhnau ki poori sanskriti,najakat,nafasat,sabhee kuch..khatam karne men jute hain..yahan ke karnadhar.Ek ne koi bilding banvai...doosare ne kursee pate hee use dhvast karva diya ...Bajpai ji ye khaddardharee hamaree sanskriti ko khatm karte ja rahe hain..khas taur se Bihar aur UP men.
Shubhkamnaon ke sath
Hemant Kumar
dada
pahli bar apke blog par aaye lekin ye kya apke blog par bhi kalam kam or mike jyada havi nazar aa rha hai.. tanik apni tasveer aur mike ke beech khali pade canvaas par ek kalam bhi aa jane dijiye na...
aakhir aap jaise do-chaar logo ke chalte to hum bite been tv patrkaro ko seena tanne ka housla mil jata hai..
पटना कभी देखा नहीं लेकिन आप के संस्मरण को पढ़ कर वहां की तस्वीर जरुर देख ली है.
आभार।आपने अच्छा पटना दर्शन कराया।
Vajpayee g Namaskar....
Nishchit taur par Golghar ki dasha kharab ho gai hai. arse se Patna ki tarraki ki raftar mand pad gai thi. lekin aisa bhi nahin hai ki Patna ke sabhi log Banduk ke tale hi sans lete hain.
Bihar ki isthiti bahut jyada badli hai. khaskar kanun-vyavastha ke halat pahle se kai guna behtar hue hain. Abhi aur badlaw ki jarurat hai. Is Badlaw ke liye koi ek sarkar hi nahin balki hume aur apko bhi pahal karni hogi....
Vajpayee g Namaskar....
Nishchit taur par Golghar ki dasha kharab ho gai hai. arse se Patna ki tarraki ki raftar mand pad gai thi. lekin aisa bhi nahin hai ki Patna ke sabhi log Banduk ke tale hi sans lete hain.
Bihar ki isthiti bahut jyada badli hai. khaskar kanun-vyavastha ke halat pahle se kai guna behtar hue hain. Abhi aur badlaw ki jarurat hai. Is Badlaw ke liye koi ek sarkar hi nahin balki hume aur apko bhi pahal karni hogi....
बहुत अच्छी पोस्ट है...
अमर-अकबर-एंथोनी ही नहीं.... अमर,अहमद,अरूण,राम-वाणी,राज-वाणी,प्रकाश-वाणी,लाल-वाणी,युवराज-दरबारी...भी देश की राजनीति को अंधेरे,असामान्यता,भय,डर,अविश्वास,आशंका की तरफ लगातार ले जा रहे हैं..आनेवाले कल से उम्मीदें बहुत हैं..सूरज की चमक पर यकीन भी बहुत है..अच्छा,बहुत अच्छा होने का भरोसा भी है...लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि..कहीं ना कहीं..रीड की हड्डी में लहू की जगह प्लास्टिक की रॉड सी घुसती जा रही है...
हकीकत के दर्शन करवाने के लिये आभार…
dil mein lahar uthti to hai nahin to lagta ab yahi hai ki kahin kuch hai jisne sb kuch ko das liya hai .
dodarasal ise patna ka patan aur end of civilisation kehna ya samajhana sahi nahi hai ,haqeet yahi hai hai ki vichardhara or itihas ka aunt ki baat karne ka sabse bada khamiyaja hindi belt ko hi hua .kahin koi vikalp ki rajniti ya phir udarikaran ki aandhi bhi idher se nahin gujri to Ek kism ki jadta to aayegi he ..samajhdar log apnee jamin se kat gaye aur 'creative" logon ne creativity ke liye metro ya mumbai ka rukh kar liya ..Aise main ek shahar ki yatra Khaskar jahan aapki koi yadein rahi ho wo shahar an area of darkness hi lagtaa hai ..amar akbar anthony ki rjnitee ki baat se sahmat hote huye bhi ek batt ad kar is post ko khatam karta hoon ki hum bihar ko aaj bhi ummedoon ki jammeen ke rup mein dekhte hain ,,patna mein aaj bhi dam hai bus ek disha ki jarurat hai
आपका आलेख पर पर सिर शर्म से झुक गया.मैं भी आपकी बातो से पुरी तरह से सहमत हूँ की जो सुशाशन का ढोल पिता जा रहा है ओ भी धरातल पर तो उतना कही दीखता तो नही है.लेकिन ये भी सही नही है की विकास हो ही नही रहा है.सड़क,शिक्षा पर बहुत ही अच्छा कम किया जा रहा है लेकिन ओ नाकाफी साबित हो रहा है लेकिन बिहार विकास की राह पर दौडे ये सिर्फ़ सरकार,राजनितिक दलों के भरोसे तो नही रह सकता ,बिहार बदले,आगे बढे ये तो हमारी भी जिम्मेदारी है की सहयोग करे चाहे हो जिस रूप में हो.
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