साल नया है, उम्मीद भी नयी होगी। लेकिन जब देश के माथे पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने का तमगा लगा हो तो चुनाव से बड़ा लोकतंत्र कुछ हो नही सकता और इसे बरकरार रखने में दुनिया के सामने सबसे बडी राजनीतिक तानाशाही भी होती होगी। क्योंकि लोकतंत्र के उलट तानाशाही होती है।
तो साल नया है। उम्मीदे चाहें जो हो लेकिन नज़रे सभी की आम चुनाव पर ही हैं। क्योंकि चुनाव का मतलब देश में रोजगार का सबसे बड़े धंधे का खेल है। जिसमें अरबों के वारे-न्यारे झटके में हो जाते है और देश नारा लगाता है चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद। क्योंकि चुनावी राजनीति में जीत ही अगर देश के लोकतंत्र और संविधान की जीत है तो पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में लोकतंत्र की राजनीतिक तानाशाही का अक्स छुपा है, यह भी अब खुलकर उभर रहा है। यह माना गया कि आतंकवाद को लेकर बीजेपी की राजनीति कांग्रेस के कुछ ना करने के सामने हार गयी। यह माना गया कि विकास का ढिढोरा न्यूनतम जरुरतों के सामने हार गया। यह माना गया कि महंगाई का दर्द नेताओ के लाभ भरे भरोसे के सामने हार गया। अगर यह सब हुआ है तो चुनावी लोकतंत्र को पूंछ से नही सूंड से पकड़ें।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा माना जाता है। लेकिन यहां विकास की परिभाषा की लकीर इतनी छोटी है कि तीन रुपये चावल उपलब्ध कराने का ऐलान कर जीत के लिये चावल वाले बाबा का शब्द ‘मुख्यमंत्री’ पर भारी पड़ गया । जिन इलाको में तीन रुपये चावल करीब चालीस लाख परिवारों को मिलने का दावा किया गया है वह इलाका खनिज संपदा से भरा पड़ा है। अगर विकास की लकीर यहां जनता के अनुकूल खींच दी जाये तो समूचे इलाके में यानी करीब सात जिलो में चावल दस रुपये किलो बेच कर राज्य के खजाने पर बिना कोई बोझ डाले हुये भी इन्हीं चालीस लाख परिवारो को रोजगार और पैसा दोनों दिलाया जा सकता है। यानी किसी भी राज्य को चलाने की जो आर्थिक व्यवस्था होती है, उसे लागू किया जा सकता है।
लेकिन यहां की बीस से पच्चीस हजार करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा कौडियों के मोल देशी विदेशी उधोगपतियों को दी गयी, जिसकी एवज में राजनीतिक सत्ता को मुनाफे के तौर पर दस से बारह फीसदी मिले और राज्य के खजाने में गये महज तीन फीसदी। अगर यहां विकास की सही लकीर मुनाफे की जगह कल्याणकारी राज्य की समझ के मुताबिक खींची जाये तो अनुमान के मुताबिक पचास हजार करोड़ से ज्यादा का मुनाफा राज्य के खजाने को सिर्फ प्रकृतिक संपदा के जरीये हो सकती है ।
लेकिन चुनावी लोकतंत्र में पांच सौ करोड़ का चावल सब पर भारी पड़ जाता है । चुनावी जीत का मतलब सलवा जुडुम को ना सिर्फ मान्यता मिलना है बल्कि नक्सली हिंसा से प्रभावित आदिवासियों के हाथो में हथियार थमाना भी सही है। चुनावी लोकतंत्र में सुरक्षा के लिये खुद ही हथियार लेने की थ्योरी उस राज्य व्यवस्था को ही खारिज कर रही है, जो बताती है कि कानून के दायरे में हथियार से मुकाबला करना राज्य पुलिस और सुरक्षाकर्मियो का काम है।
जाहिर है कोई सत्ता सुरक्षा न देने के नाम पर खुद सुरक्षा के लिये हथियार उठाने का नायाब प्रयोग कर अपना वोटबैक बनाकर चुनाव जीत सकती है। यह चुनावी लोकतंत्र की जीत है। दुनिया भर के पच्चीस नोबल विजेताओं की नक्सलियो के हिमायती विनायक सेन को जेल से बाहर निकालने की मांग भी चुनावी लोकतंत्र के आगे हार गयी। राजनीति का पाठ तो यही कहता है कि विनायक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होते तो सत्ताधारियों को हार मिलती। तब तो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी देने की मांग बेमानी है । दिल्ली में जब चुनाव प्रचार का आखरी दिन था, उस वक्त मुंबई आंतकवादी हमलों से लहूलुहान थी। 27 नबंवर को दिल्ली के तमाम अखबारो में बीजेपी ने कांग्रेस पर आतंकवाद के सामने नतमस्तक होने का आरोप जड़ा और अफजल गुरु को फांसी तक न दे पाने की सोच को कांग्रेस का राजनीतिक परिहास करार दिया। दिल्ली की हर बड़ी सभा में बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने अफजल का मामला उठाया। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार वीके मल्होत्रा ने तो हर सभा में अफजल को लेकर ही बात शुरु की। लेकिन चुनावी लोकतंत्र के आगे संसद पर हमले के दोषी की फांसी की मांग हार गयी।
तो क्या अब बीजेपी यह मांग नहीं करेगी। रौशनी की चकाचौंध और फ्लाई-ओवर से लेकर पांच सितारा होटलों की जिंदगी को राहत देती दिल्ली में यमुनापार का नरकीय जीवन हार गया तो क्या पूर्वी दिल्ली की सात सीटों के छह लाख परिवार की न्यूनतम की जुगाड़ की मांग मायने नहीं रखेगी। बटला हाउस एनकाउंटर को लेकर कांग्रेस की कसमसाहट और शहीद पुलिसकर्मी को लेकर सवालो का घेरा सही है, तो क्या मान लिया जाये कि डेक्कन मुजाहिद्दिन का जुमला पुलिस ने गढ़ा। आजमगढ़ के सेक्यूलरवाद को घायल करने का काम एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया। बीजेपी ने समाज के ताने बाने को तार तार करने के लिये चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जुमले गढ़े। जिसकी हार हुई । दक्षिण दिल्ली में गाड़ीवालो की रफ्तार कम कर बीआरटी कारिडोर के जरिये आमलोगो की सार्वजनिक सवारी बस की रफ्तार को बढाने की जो थ्योरी शीली दीक्षित ने परोसी, क्या वह सही है। एक तरफ दिल्ली का मतलब रफ्तार और दूसरी तरफ न्यूनतम की लड़ाई । चुनावी लोकतंत्र का यह कौन सा समाजवाद है, जिसमें बीजेपी कॉरिडोर का विरोध करती है और यमुनापार के दर्द को उबारती है। वहीं कांग्रेस बीआरटी के साथ खड़ी होती है और मगज बीस लाख लोगों के लिये दिल्ली को पांच सितारा में बदलने का ख्वाब भी परोसती है। दिल्ली में लोगो की सुरक्षा दिल्ली सरकार नही कर सकती है इसलिये पूर्ण राज्य का दर्जा की मांग ही बेमानी है। इसे दस साल से सत्ता में बैठी शीला दीक्षित ने माना और लोगों ने हाथो हाथ ले लिया। जबकि, बीजेपी ने उलट राग दिया कि जो केन्द्र किसी को सुरक्षा नहीं दे सकता उसके पास दिल्लीवालो की सुरक्षा कैसे छोड़ी जा सकती है। बीजेपी ने पूर्ण राज्य की मांग चुनावी मैनिफेस्टो में रखा। वह चुनाव हार गयी। तो सुरक्षा केन्द्र ही देगा। लेकिन जहां राज्य ने सुरक्षा के बदले गोली दी उसका क्या होगा ।
राजस्थान में गुर्जरो पर आरक्षण की मांग को लेकर नौ बार गोलियां चलीं। सौ से ज्यादा परिवारों में मातम मना। किसी का बच्चा मरा, किसी का पति । लेकिन चुनावी लोकतंत्र के सामने गोली का दर्द मलहम में बदल गया। गुर्जर बहुल इलाकों में अस्सी फीसदी सीटों पर उसी महारानी को जीत मिली जो आंदोलन के दौर में बातचीत करने तक से तकराती रही। आंदोलन की हिंसा में रेलवे को सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगा और देश को दो हजार करोड़ से ज्यादा का । हांलाकि महारानी गद्दी गंवा बैठी लेकिन उसकी वजह कांग्रेस का लोकहित का नारा या खालीपेट को भरने के लिये कोई शिगूफा काम नही किया बल्कि चुनावी लोकतंत्र में जीत के लिये संगठन और साथी-प्रभावी नेता का दगा देना ही रहा। भैरोसिंह शेखावत से लेकर महेशप्रसाद तक और आरएसएस के संगठन का रुठना ज्यादा मायने रहा। राज्य के करीब छह दर्जन योजनाओ को पांच साल के दौर में अमली जामा पहनाने का जिम्मा महारानी ने उठाया। पूरा कोई नहीं हुआ । इन पर पचास लाख करोड़ का खर्च आंका गया। कितना खर्च हुआ वह तो पांच साल के बजट में भी उभर नहीं पाया लेकिन कांग्रेस की माने तो पांच हजार करोड़ से ज्यादा का घपला हुआ। यानी अलग अलग योजनाओं में भ्रष्टाचार की यह कीमत कांग्रेस ने लगायी। लेकिन यहां समझना ये भी होगा कि पांच साल पहले हुये चुनाव में कांग्रेस की सरकार पर बीजेपी ने कमोवेश इतने ही रुपये का घपला करने का आरोप उसके शासनकाल में लगाया था । तब सत्ता बदली और अब भी सत्ता बदली। इस इधर उधर के खेल में तीन साल पहले आयी बाढ़ का मुद्दा चुनावी लोकतंत्र तले दब गया। रेत के टीलो पर जिन्दगी बचाने वाले हजारों राजस्थानी परिवार यह समझ ही नही पाये कि अगर फिर पानी आ जाये तो बचने का उपाय क्या है।
राजनीतिक सहमति की डोर कैसे जिन्दगी लीलती है, यह जैसलमेर सरीखे जगहों पर बीजेपी-कांग्रेस के भाषणो में दिखा जो बताने को तैयार नही थे कि फिर बाढ आयेगी तो उससे बचने के उपाय वह पहले से कर देंगे। दोनो ने कहा भगवान ही जमीन पर आ जाये तो कोई क्या करे। रेगिस्तान की सरलता चुनावी लोकतंत्र तले कैसे हारी यह रोजगार मुहैया ना करा पाने और सत्ता में लौटने पर भी ना कर पाने की डोर में बीते दो दशक में बार बार उभरा । जातियो का दर्द कैसे लोगों को जुटा देता है और सबसे बडी सुरक्षा जातीय सुरक्षा होती है, जिसपर सत्ता का लेप चढ़ जाये तो मुनाफे के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं, यह पाठ राजस्थान के चुनावी लोकतंत्र ने जतला दिया। लेकिन जातीय राजनीति का पाठ धर्म के आगे नतमस्तक हो तो क्या भी चुनावी लोकतंत्र की जीत होगी।
मध्य प्रदेश ने यह पाठ नये तरीके से पढ़ाया । पांच साल पहले बीजेपी की जो नेता भगवा पहन कर बीजेपी को सत्ता में लेकर आयी, पांच साल बाद वही उमा भारती खुद हार गयी। तो क्या पार्टी से बड़ा कोई नही होता है । अगर ऐसा हो तो इस चुनाव में दर्जनो निर्दलीय कैसे जीत गये। या फिर जिस राजधर्म का पाठ उमा भारती पढ़ा रही थीं, उसमें पांच साल में ही जंग लग गयी। इतना ही नही, उमा भारती के दौर में जो सीटें बीजेपी ने जीती थीं, उसमें से तीन दर्जन सीट शिवराज सिंह चौहान गंवा बैठे । लेकिन डेढ़ दर्जन कांग्रेस से उस दौर की झटक लीं, जो भगवा चादर ओढ कर उमा के साथ पांच साल जाने को बिलकुल तैयार नही थे। अब अगर चुनावी लोकतंत्र में नेता मायने रखता है तो मध्यप्रदेश में कभी दस साल तक कांग्रेस की कमान संभालने वाले दिग्गिविजय सिंह रायगढ की छह सीटे भी कांग्रेस की झोली में ना डलवा सके । कमलनाथ-सिंधिया-पचौरी का भी यही हाल अपने अपने जिले छिंदवाडा-ग्वालियर-भोपाल में हुआ। अर्जुन सिंह सरीखा शख्स भी अपने जिले की सिर्फ तीन सीटों पर ही कांग्रेस को जितवा सका। मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल के दौर में ना सिर्फ प्रतिव्यकित आय में कमी आयी बल्कि देश के उन पिछड़े राज्यों की फेरहिस्त में आ गया, जहां पूरा भोजन सभी को नहीं मिलता। रोजगार के साधनों में बारह फीसदी तक की कमी आयी। आदिवासी बहुल छह जिलो में साफ पानी,पूरा खाना और काम तीनो से राज्य सरकार मुंह मोड़े हुये है। कुल बारह योजनाये इन इलाको के लिये बनी लेकिन पूरा होना तो दूर किसी योजना का असर आदिवासियों के जीवन पर नहीं है। उल्टे रोजमर्रा का जीवन और कमजोर हुआ है लेकिन वहां शिवराज ने चुनावी जीत हासिल की।
जाहिर है यह सवाल मिजोरम को लेकर भी उठ सकता है कि क्षेत्रिय समझ को खारिज कर कांग्रेस को जिता कर मिजोरम मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। आंदोलन के जरीये समाधान मुश्किल है। चुनावी लोकतंत्र के आगे मिजो आंदोलन बेमानी साबित हो गया है तो अब आंदोलन खत्म हो जाना चाहिये। जाहिर है चुनावी लोकतंत्र में जीत का मतलब सत्ता है और हार का मतलब कुछ भी नहीं। तो कुछ भी नहीं के सामने विकल्प क्या होंगे और सत्ता को कुछ भी करने की जरुरत क्या है। यह सवाल इसलिये जरुरी है कि महज नब्बे दिनो के बाद इसी तरह के मुद्दे समूचे देश के सामने तमाम राजनीतिक दल फिर उठा रहे होंगे। आम चुनाव लोकतंत्र का फाइनल होता है । तो नेता और मुद्दे भी आखिरी लड़ाई लड़ रहे होते हैं। यह माना जाता है कि उस वक्त की जीत देश की धारा तय करती है, लेकिन जब चुनावी लोकतंत्र ही देश की धारा से न जुड़ी हो तो क्या हम नारा लगा सकते है लोकतंत्र जिंदाबाद। लेकिन नये साल में सिर्फ और सिर्फ आपको यही कहना होगा चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद।
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Friday, January 2, 2009
नये साल में फिर लगाएं नारा – लोकतंत्र ज़िंदाबाद
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:39 AM
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चुनाव,
राजनीति,
लोकतंत्र,
सत्ता
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10 comments:
loktantr to jindabad hamesha or har hal me hee raha hai. aapatkal ke bad bhee satta ka hastantaran bina khun kharabe ke ho gya tha.yahi to bharat ko sabse bada loktantr banata hai. narayan narayan
sahibji loktantr me itni jaagrukta bhi theek nahisone do logon ko lok tantr me nahi soyenge to kyaa gulami me soyenge? lekh ke liye bdhaaim nayaa saal mubarak
लोकतंत्र जिंदाबाद और लोकतंत्र से जिनकी दूकान चल रही है ऐसे नेता जिंदाबाद . बहुत उम्दा प्रसून जी बधाई.
स्वतंत्र और निष्पछ चुनाव भले ही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है लेकिन चुनाव के समय जो लोग बहकावे में आकर नेता के चगुल में फंस जाते है ।और चुनावी घोषणा के समय के वायदो को सच मानकर चलने लगते है । उससे स्वस्थ लोकतंत्र का निमाॆण होना संभव नही है । जैसा कि प्रसूनजी ने कहा है कि लोग मुद्दे से भटक रहे है और जो राजनीति की सेहत होनी चाहिए वह कही दिखाई नही देता है । तीन रूपये किलो चावल की घोषणा से सरकार तय हो जाती है फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि लोकतंत्र सही मिजाज से चल रहा है । अगर तीन महीने के घोषणापत्र से चुनाव जीता जा सकता है फिर पांच साल विकास करने की क्या जरूरत है । यह तो लोकतंत्र की दुहाई देने वाले को सोचना ही होगा । प्रसून जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
बहुत सही!
अन्य जगहों का तो आप ज्यादा बताएंगे पर छत्तीसगढ़ के बारे में तो बहुत ही सही लिखा है आपने।
New Day !
New Morning !
New hopes !
New plans !
New efforts !
New success &
New feelings....Wishing u very-very Happy New Year-2009 !!
आज ही भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में बिहार के एक चर्चित आई0पी0एस पदाधिकारी से घंटो बातचीत हुई हैं।उसने उदाहरणों के माध्यम से बहुत कुछ कहा हैं जिसमें मत का दान और मंदीर से निकलने के दौरान भीखारी को दी जाने वाली दान से तुलना की दोनो हाथ जोङे आप से दान मांगते हैं।भीखाङी को जब आप दान देते हैं तो उससे आप कोई उम्मीद नही करते हैं ।लेकिन जब आप नेताओं को मत का दान देते हैं तो आप उससे काफी आस लगा बैठते हैं।यही से सब गङबङ झाला शुरु हो जाता हैं.।अन्य दान की तरह ही मतदान के बाद इस दान को भी भूल जाये सकुन मिलेगा।भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से आप परिवर्तन की उम्मीद नही कर सकते हैं।भारत को राजनीतिज्ञ और अफसर ने बरवाद कर दिया हैं।समाज अपनी भूमिका खुद तय करे और लश्र्य निर्धारित कर आगे बढे।सबसे बङे लोकतात्रिक देश होने का राग में सुर में सुर मिलाने के बजाय इनसे दूर रहे तो बेहतर हैं।
प्रिय प्रसून जी,
जय राम जी की,
अचानक ही आज आपके ब्लॉग पर ध्यान केंद्रित किया. आपकी सोच व आक्रोश का एक अजीब सा दर्शन हुआ. यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि आपको भी (बरबस अनजाने में ही सही, गोली मरने जैसे शब्दों को आख़िर मान्यता देने पर मजबूर होना ही पड़ा.) ऐसा ही होता है, जब मानव सच्चाई कि पराकाष्ठा की ओर अग्रसर होता है. बल्कि प्रकृति सच्चों को परखने के लिए ही ऐसे वातावरण को ख़ुद ही जन्म देती है. सही मायने में तो इंसान की यथार्थ जीवन यात्रा का यहाँ से ही शुभ आरम्भ होता है.
घोर अत्याचार और घोर अन्याय की नंगी तस्वीर न्याय और सत्य का वास्तविक अहसास करवा ही देती है. व अचानक ही इंसान का स्वाभाविक लक्षण ख़ुद-ब-ख़ुद प्रकट हो जाता है. निश्चय ही यहीं से आक्रोश प्रकट होकर साहस को जन्म देता है, और साहस ही बहादुर योद्धा का प्रतिक चिह्न है, आभूषण भी है. इस साहस से ही विजय की पताका फहरायी जाती है. (जाती थी, और भविष्य में भी यही नीति कायम रहेगी) यही कुदरत का पक्का और सच्चा उसूल है और सिद्धांत है.
प्रसून जी, मैं बहुत समय से आपके दर्शन के लिए लालायित हूँ, लेकिन दुर्भाग्यवश ये शुभ घड़ी अब तक मेरे नसीब को प्राप्त नहीं हो पाई है. कई माध्यमों के अलावा एक बार आपके स्टूडियो की ड्योडी पर भी माथा टेक कर ना उम्मीदी हासिल कर वापिस आना पड़ा. "क्या अपने प्रशंसक को एक बार ये सौभाग्य प्राप्त कराने में सहयोगी बनेंगे?" मुझे याचक मानकर इस बार निराश मत कीजियेगा, क्योंकि किसी की उम्मीद तोड़ने का अधिकार तो परमात्मा ने भी निषेध kar रखा है.
बस इसी विश्वास के साथ आपके आदेश की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा हूँ. इस बार तो आपको न्याय करना ही पड़ेगा.
सधन्यवाद
आपके अपनो जैसा ही 'विनोद'
e-mail id- vinodkumar.mastana@gmail.com
Dear Prasson ji, I always waiting for your words(Like BADI KHABAR on Zee News). I was very frustrated when you joind SAMAY. O.k. Leave it & Hope in future we will see the other parts of your inteligent journlism..
Thanks very-very much
बहुत अच्छे 2008 में नेताओं द्वारा किये गये धतकर्मों से एक बार फिर अच्छी तरह से अवगत कराने के लिए धन्यवाद...........
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