मिलेनियर के रास्ते स्लमडॉग का चलना कभी संभ्रात समाज को बर्दाश्त नहीं होता । जंजीर से लेकर अग्निपथ यानी करीब डेढ़ दशक तक समाज के भीतर के इसी टकराव की रोटी अमिताभ बच्चन ने चबायी है। जिसका ताना-बाना सलीम-जावेद की जोड़ी ने कागज पर उकेरा और शब्दों को अपनी अदाकारी में लपेट कर अमिताभ ने सिल्वर स्क्रीन पर जीया। अमिताभ के महानायक बनने की गाथा का सच यही है कि सैकडों दर्शकों के सामने भी अमिताभ हर दर्शक को इतना अलग कर संघर्ष के लिये तैयार करते कि हर किसी को यही लगता कि वह समाज के सबसे निचले पायदान से सबसे ऊपरी पायदान पर अपनी लड़ाई के बूते पहुंचेगा।
पहले समाज की ठोकर फिर समाज को ठोकर मारने की जो रचना दीवार-लावारिस-मुकद्दर का सिकंदर सरीखे किरदार दो से तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने जीये कमोवेश उसका आधुनिक तरीका स्लमडॉग का सच है। समाज के भीतर के असमान लिचलिचेपन से जब कोई फिल्म टकराती है तो वह फिल्म महज कलाकारों की या डायरेक्टर की नहीं होती. बल्कि फिल्म आम लोगो की हो जाती हैं।
स्लमडॉग का सच भी कुछ ऐसा ही है। पहले दिन का पहला शो। हाउस फुल सिनेमाघर । उसमें कौन बनेगा करोड़पति के खेल से लेकर स्लम की जिन्दगी जीने का जुनून। और सबकुछ खोते हुये सब कुछ पाने का ख्वाब। यह समझ बॉलीवुड की एक ऐसी हकीकत है, जिसे तीन घंटे की पोयटिक जस्टिस का नाम दिया जाता है और जिसे बच्चन के जरीये सलीम-जावेद ने खूब जीया है और खूब नाम कमाया है। इसी नब्ज को स्लमडॉग के डायरेक्टर डैनी बॉयल ने बेहद बारीकी से पकड़ा। डायलॉग की बारीकी देखने लायक हो। फिल्मी डायलॉग का पहला शब्द मादरचो.... का गूंजता है। इस एक शब्द से देखने वाले स्लमडॉग का सच समझ लें और दर्शकों में से आवाज आती है...यह तो अपनी ही फिल्म है गुरु...संवाद यही नहीं रुकता ....स्लमडॉग पुलिस के कब्जे में है, जिसके ज्ञान को पुलिस फ्राड-चीटर मान रही है।
दूसरा संवाद उभरता है....जब डाक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर और पढ़े-लिखे लाख की रकम से आगे नही जा पाये तो यह स्लमडॉग करोड़ रुपये तक कैसे पहुंच गया और उस पर पुलिसिया थर्ड डिग्री के दर्द को झेलता स्लमडॉग का छोटा सा जबाब... मै हर जबाब जानता हूं......एक ऐसी हुक दर्शको में भरती है, जहां त्वरित कामेंट आता है....अबे किताब पढ़ने से सबकुछ नहीं आता। कौन बनेगा करोड़पति में अनिल कपूर के सवाल दर सवाल और जबाब देने से पहले हर सवाल को जिन्दगी में झेलने वाला स्लमडॉग । इससे ज्यादा खुरदुरी जमीन किसी फिल्म की कैसे हो हो सकती है जो एक तरफ करोड़पति बनने का रोमांच पैदा करे तो दूसरी तरफ मिलेनियर समाज का अंदर के मवाद को रिस रिस कर जख्म दर जख्म दिये जाए। इस तरह का सामंजस्य धारावी और सलाम बाम्बे में भी नही उभर पाया और बच्चन की फिल्मो में सलीम जावेद यहीं चूक जाते थे क्योंकि उन्हें अपने समाज को बेचना था और उसकी कमजोरियो में भी एक रोमाटिज्म पैदा करना भी था। इसलिये अमिताभ की फिल्म खत्म होने के बाद जीत का नशा तो पैदा करती, लेकिन देखने वाले को अकेला छोड़ देती, जहां वह समाज की विसंगतियों में रोमांच पैदा करके जी ले यही बहुत है।
लेकिन स्लमडॉग जिस रास्ते को पकडती है, उसमें वह राज्य व्यवस्था के हर खांचे पर इतनी खामोशी से उंगली उठाती है कि देखने वाले के भीतर आक्रोष लाचारी के मुलम्मे में चढ़ा हुआ आता है । दंगो में जिन्दा जलते आदमी को देखने के बजाय पुलिस का ताश खेलना। चंद सेकेन्ड का दृश्य है मगर वह दिमाग में आखिर तक रेंगता है। स्लम से निकले जमाल और सलीम वैसे ही दो भाई हैं, जैसे अमिताभ की फिल्म दीवार में विजय और रवि फुटपाथ पर बड़े होते हैं। यहां विजय जिस रास्ते पर चलता है स्लमडॉग में काफी हद तक वही रास्ता सलीम पकड़ता है। दीवार में विजय यानी अमिताभ की मौत की वजह उसका अपना ही भाई रवि बनता है तो स्लमडॉग में सलीम की मौत की वजह भी उसका भाई जमाल बनता है। फिल्म दीवार में उस व्यवस्था के कवच को बचाया जाता है जिसके टूटने का मतलब नायक के हाथों राज्य व्यवस्था का हाशिये पर चले जाना है। इसलिये आदर्श की जीत होती है लेकिन स्लमडॉग किसी कवच को फिल्म में बनने ही नहीं देता उसलिये उसे बचाने का जिम्मा भी उसके कंधे पर नहीं है।
लेकिन अपनों के लिये जीने और मरने का जो जज्बा स्लम में मिलता है, उसे ही फिल्म का पोयटिक जस्टिस बनाया गया। इसलिये सलीम की मौत जमाल के लिये कुर्बानी सरीखे या शहीद होने सरीखे हैं। जबकि विजय की मौत नायक को आदर्शवाद का पाठ पढ़ाने की है। जो जिसे समाज और सत्ता चबाकर आंखों के सामने अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढने से नहीं चूक रहे। वहीं स्लमडॉग में झोपड़पट्टी के जीवन के सच के आगे संभ्रात समाज का जीवन इतना खोखला लगता है कि उससे घृणा भी नहीं हो पाती।
अमिताभ बच्चन का दर्द यही है। क्योंकि स्लमडॉग की शुरुआत में जमाल का जुनून अमिताभ की ही तरह अमिताभ को लेकर कैसा है, इसे महज एक दृश्य में जिस तरह फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ने दिखाया है वह सलीम-जावेद की जोड़ी पटकथा लिखते वक्त कभी सोच भी नहीं सकती थी। और अमिताभ इस दृश्य को सिनेमायी पर्दे पर जी भी नहीं सकते थे। फिल्म में जमाल की अमिताभ को देखने की चाहत पखाने के ढेर में नहला कर भी खुशी दे जाती है। भारतीय सिनेमा में यह दृश्य जुनून और सच की पराकाष्ठा है। संभवत यह दृश्य कोई दलित लेखक ही अपनी पटकथा में लिख सकता है। हांलाकि नामदेख ढसाल सरीखे दलित साहित्यकार भी ऐसे बिम्बो से चुके हैं। इसकी वजह हर आंदोलन के बाद दलित-पिछडे समाज के भीतर भी उसी संभ्रात समाज की तरह विकल्प बनाने की समझ है, जिसके खिलाफ आंदोलन शुरु होता है । यानी संघर्ष या आंदोलन के बाद खुरदुरी जमीन पर भी चकाचौंध दिखाने और जीने का खेल आधुनिक समाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है। इसलिये दलित पिछडे ही नही बल्कि धारावी सरीके झोपडपट्टी के नेताओं का जीवन तो स्लम से शुरु होता है लेकिन धीरे धीर उसी स्लम को बनाये ऱखकर उसी पायदान को छूने की चाहत में आगे बढता है, जिसके खिलाफ बचपन से लड़ाई लड़ी।
अमिताभ बच्चन का संकट यही है । जिन फिल्मो की कहानियों ने उन्हें महानायक बनाया संयोग से उसी सूत्र को पकडकर स्लमडॉग मिलेनियर ऑस्कर की दौड़ में आ गयी लेकिन इस दौर में अमिताभ का जीवन उस संभ्रात समाज का अक्स हो चुका है जहां संघर्ष या हक की लड़ाई के नायक पर सफल महानायक राज कर रहा है। जो सुविधा-चकाचौंध की हट में सब को डराना चाहता है । डराकर जीतने की चाहत बॉलीवुड का भी सच है। इसलिये बॉलीवुड की फिल्में कहानियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। उन बिम्बो को साध नहीं पातीं जो क्रूर हकीकत हैं।
स्लमडॉग में बच्चो से भीख मंगवाने के लिये पहले दर्शन दो घनश्याम.....गीत याद कराना और फिर गर्म चम्मच से आंखे निकाल लेना का दृश्य़ जब कौन बनेगा करोड़पति के सवाल से जुड़ता है और अनिलकपूर जमाल से सवाल करते है कि दर्शन दो घनश्याम...किसका गीत है...तुलसीदास-सूरदास-मीराबाई....और जबाब देने से पहले जमाल की आंखों के सामने उसकी अपनी हकीकत रेंगती है कि..वह बच गया....वरना आज वह भी सूरदास होता ...तो करोड़पति के खेल से भी देखने वाले को घृणा होती है। लेकिन इसे कहने के लिये फिल्म के नायक को अमिताभ की फिल्म की तरह अपनी छाती तान कर कुछ डायलॉग नही बोलने थे बल्कि स्लमडॉग पर मुंबई का चायवाला उपहास सुनते हुये महज सूरदास कहना था। यह बेचारगी ही दर्शको में हिम्मत भरती है। क्योंकि जो मौजूद है उसे बदलने का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सच बताने और दिखाने पर अलग-अलग तबके और माध्यमों की तो सहमति हो जाये। लेकिन बॉलीवुड की फिल्में सिर्फ नायक में हिम्मत भरती है और देखने वालों को अकेला कर कमजोर करती है क्योकि वह असल जमीन से हटकर सिनेमायी संघर्ष का आगाज होता है।
असल में फिल्म में मुंबई को जिस परछायी की तरह दिखाया गया वह स्लम के सामानांतर पांच सितारा अट्टालिकाओं पर भी उपहास करती है। लेकिन लाचारी और बेचारगी के बीच स्लम की जमीन पर बनी-बसी मुबंई की हकीकत का एहसास सलीम के जरीये कराने से नहीं चूकती, जहां वह मुंबई को दुनिया के बीच का शहर और खुद को मुंबई के बीच का केन्द्र मानता है । लेकिन सलीम का तरीका दीवार के विजय सरीखा लाखों की इमारत खरीद कर कराने का नहीं है। असल में अमिताभ बच्चन की सामाजिक ट्रेनिग उनकी फिल्मी सफलता का ग्राफ है जो चमकते-दमकते भारत में घुसने के लिये जोड़-तोड़ को संघर्ष का जामा पहनाता है। इसलिये महानायक बनते बनते उसकी फिल्मे नायक की धार खोकर शिक्षा और आदर्श का मुलम्मा चढाकर प्रगति गीत गाने से नहीं कतराती। सुविधा पर आंच आने या खुलेपन की कीमती चादर ओढकर कुछ भी करने में जरा भी ठेस लगती है तो अमिताभ का आक्रोष फिल्मी तर्ज पर उभरना चाहता है। इसलिये स्लमडॉग का मर्म अमिताभ के नायकत्व को हाशिये पर ले जाने का मर्म है इसलिये पश्चिम का दर्द इस तरह साल रहा है । जो इनका निजी दर्द है। ऑस्कर के दस नॉमिनेशन में से तीन में ए आर रहमान भी ऑस्कर की दौड़ में हैं। फिल्म का गीत ओ रे रिंगा....कमाल का है । हालाकि ऑस्कर की दौड में जय हो.. और ओ साया... है । लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त कभी महसूस नहीं होता कि गीत-संगीत कहीं फिल्म को आगे बढा रहा है...बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद गीत दिखायी देता है, जिसका ट्रीटमेंट बतलाता है कि स्लमडॉग मिलेनियर महज कहानी है....सच से इतर। लेकिन यही फिल्म की सबसे बडी सफलता है, जहां दर्शक गीत सुनने के लिये सिनमाहाल में यह सोच कर नहीं रुकता कि जिस स्लम के सच को उसने देखा है उसे रोमाटिंक वह कैसे बना ले। असलियत यही है । इसीलिये यह ऑस्कर की दौड़ में है और अमिताभ का रोमाटिज्म यही मात खाता है ।
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Saturday, January 24, 2009
स्लमडॉग मिलेनियर : ऑस्कर,अमिताभ,असलियत
Posted by Punya Prasun Bajpai at 8:30 AM
Labels:
अमिताभ,
फिल्म,
बॉलीवुड,
स्लमडॉग मिलेनियर
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13 comments:
बहुत सुंदर और सारगर्भित विचार ...!
लगता है फिल्म देखनी ही पडेगी तब ही कुछ कह पाऐगे।
Punya Prsun ji aap kab sidi aur saral bhasha mein lakh likenge?
adarniy vajpai ji aap ki najro se maine slam dog miliniyar dekhi-acchi lagi-aapke vicharo me jo oj aur tej hota h uske to hum kayal h-khair m film jaroor dekhooga--aapka DHIRENDRA PRATAP SINGH DURGVANSHI--HINDUSTHAN SAMACHAR DELHI-55
बिल्कुल सही लेखनी । आपने अमिताभ के फिल्मी कैरियर का सही आकलन किया है । स्लमडाग में जो आपने बड़ी खबर से लेकर ब्लाग के जरिये कहा है । जायज है । धन्यवाद
स्लमडॉग की बेहतरीन समीक्षा....औऱ अब लगता है कि फिल्म को जल्द ही देखना पड़ेगा....लेकिन बच्चन साहब के साथ आप कुछ ज्यादा ही ज्यादती कर गयें....फिल्म को लेकर उन्होंने जो कुछ भी कहा वो उनका निजी विचार थें....लेकिन उसके बाद भी अमिताभ बच्चन वास्तव में भारतीय फिल्मों के सबसे बड़े नायक हैं....
पिछले दिनोँ ये फिल्म देखी और उस पर कई प्रतिक्रियाएँ भी पढीँ - अमरीका मेँ जब बास्केट बोल का खेल हो और गेँद नेट मेँ निशाने से पार हो जाये उसे कहते हैँ " स्लैम डँक़ " यही किया है इस फिल्म स्लम डोग ने और अमरीकी आदत हमेशा "अँडर डोग " माने जो सर्वथा माइनस लिये हो उसके पक्ष मेँ सहानूभुति जताने मेँ अव्वल है सो, ये "अँडर डोग " बालक की गाथा भी विजयी हुई बोक्स ओफिस पर "वर्ड ओफ माउथ " माने एकदूसरे के कहने से सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त करने मेँ सफल हुई है - "गोल्डन ग्लोब विजेता रहमान को लोग पहचानने लगे हैँ ..और स्लेम डँक़ - अँडर डोग मीलीयेनर"
बेहतरीन समीक्षा...ज्ञानवर्द्धक...आंखों के सामने से गुजरती चीजों,चेहरों,को विचार में बांधना
...लिखना..बहुत अच्छा सर
काश! गरीबी की फसल काट कर आज मजा कर रहे स्मॉल बी को कौन समझाए की... दुनिया भर में वास्तविक विषयों पर ही फिल्में बनाई जाती है... न कि भारत की तरह सिर्फ चाशनी में डूबों कर रसदार जलेबी की तरह घुमावदार... ये गरीबी बेचने का विरोध नहीं है बल्कि ऑस्कर न पाने का दर्द है...
प्रसून जी बहुत अच्छा प्रयास है बॉलीवुड और अमिताभ को स्लमडॉग से समझने का... पढ़ते पढ़ते सोच रहा था कि आप फ़िल्म के बहाने समाज की बेयक़ीनी का भी ज़िक्र करेंगे लेकिन शायद आपसे छूट गया... मैं उस बेयक़ीनी की बीत कर रहा हूं जिसमें अनिल कपूर का किरदार एक सवाल पर जमाल को गुमराह करने की कोशिश करता है... लेकिन जमाल (जिसे अपने भाई पर यक़ीन नहीं है) अनिल कपूर की चालाकी को परास्त कर देता है... इसके अलावा आख़िरी द्रश्य में जमाल की कामयाबी पर अनिल कपूर को हारा हुआ साबित करने के लिये उसकी आंखों की कोर पर चमकने वाले आंसू समाज के इस विभाजन की सरहद दिखाई देते हैं...
नाज़िम नक़वी
स्लमडाग मिलिनेयर की कहानी तो आसानी से समझ में आ जाती है पर फिल्म को आस्कर मिलने की कहानी अब तक समझ में नहीं आयी ..इस उम्मीद में कि फिल्म देखने के बाद शायद कुछ समझ आ जाए फिल्म भी कई बार देख लिया लेकिन भरोसा नहीं हो पा रहा कि फिल्म इतनी सशक्त है कि उसे आस्कर मिल जाए ,,अमिताभ के सवाल अपनी जगह हैं और उनकी बनाई तिलिस्मी दुनिया भी अपनी जगह ..अमिताभ खुद को हमेशा से डायरेक्टर का अभिनेता मानते हैं और खुद को महज एक छोटा-मोटा कलाकार ..इसलिए उनके महानायक होने का जो मिथ क्रिएट किया गया है वह भी उसी वक्त खत्म हो जाता है जब हम महानायक को हाजमौले की गोलियां और सिरदर्द से बचने के लिए नवरत्न तेल लगाने की नसीहत देते देखते हैं ...मेरी परेशानी यह है कि मैं स्लमडाग मिलिनेयर को कलात्मकता और फिल्म मेकिंग के लिहाज से भी बहुत मजबूत नहीं देख पाता हूं ...इतना बस समझ में आता है कि यह फिल्म अमेरिका और वेस्ट के उस संकट को एक दिलासा देती है जहां करोडपति खुद नंगे हो रहे हैं ..आस्कर दुनिया को एक सुखद अंत का भरोसा देने का मंच बनकर रह गया ..अगर स्क्रीन प्ले की बात करें तो ब्लैक फ्राईडे इससे मजबूत दिखती है ..फिर उसे लेकर देश में किसी तरह की चर्चा नहीं होती ..कहीं ऐसा तो नहीं कि फिल्म भी गरीबी और संकट की चरचा बहुत डी-पालिटीसाईज तरीके से करती है जिसके शिकार हम अरसे से हो रहे हैं ..मौजूदा मंदी ने इस समाज और विचार के अराजनीतिकरण पर फिर से सोचने को मौका दिया था लेकिन आस्कर कमिटी उसी लिबरल केपिटिलिस्ट इकानमी को री-इस्टेबलिश करना चाहती है .. स्लमडाग के जरिए इसे लोगों के जेहन में बसाना चाहती है ..नहीं तो गरीबी और संकट को एक इंटरनेशनल कद का फिल्ममेकर इतने गैर-राजनीतिक तरीके से कैसे पेश कर सकता है ...पेश करने की आजादी तो समझ में आती है लेकिन आस्कर मे क्लीन स्वीप नहीं ....फिलहाल आस्कर कमिटी को धन्यवाद को उसने कम से कम भारत की प्रतिभा की पहचान तो की ..
I do not agree with your thoughts and overall article.
A foreigner can not come to my country and portray only the evil that exists. One should be asking the hidden motive behind this movie.
What is the real reason behind making this film at this time?
What was the reason to cast a Muslim man as the main character?
- Are their not countless kids of other religion who are facing similar situations?
Why do they have to show "riots" as the reason for this guys orphan hood?
- Are there not countless other reasons to be orphaned (unfortunately)?
Why do they have to show scenes like blinding kids?
Why do they have to use all the tools in their arsenals for 'shock factor' and tarnish India's image?
Why westerners only use slums, beggars, poverty etc (and now add to that riots and religious clashes) to depict Bhaarat?
- Well, granted USA has finally elected a Black person, but I am 100% sure they will not select a Non-Christian (and so do other white countries in world) as their premier.. Why not show that kind of strength of Bhaarat?
Why have they created so much hype about it?
Living in USA, I could see the way this film was 'marketed' with all commercial angles in it.
And people like you should be those kind of tough questions... and not question Mr Amitabh Bachchan's thoughts.
Please do your job properly.
Please be more responsible.
~Jayant Chaudhary
नमस्कार,
आपकी बेबाकी को सुना और देखा भी है, सच्ची बात जब बाहर आता हें ज्यादा कडवी हो जाती हैं, सच्ची बात को जब एक विदेशी ने अपने तरीके से सामने रखा तो शायद बच्चन साहिब को नागवार गुजरा.. फिल्म मै झुठं क्या था ?.जबकि भारतीय फिल्मो की हीरो की झोपड पट्टी कैसे होती हैं शायद अमिताभ जी भी ज्यादा जानते हैं..कुछ ऐसे किरदार उनके द्वारा भी निभाए गए हैं...और वैसे भी अमिताभ जी का
आजकल राजनीतिकरण हो चूका हैं, किसी न किसी तरह वो अपना जलवा दिख ही दैते हैं...हिंदुस्तान के महान अदाकारा हैं वो...यह सत्य हैं...लकिन अदाकार और भी है जहाँ मैं... वाजेपैयी जी आपने अपने अंदाज मैं हमें स्लम डोग दिखाई ,हमें ज्यादा अच्छी लगी... निरंतर इस प्रकार से हे हमें फिल्म दिखाते रहे...सत्य से रुबुरु कराने की लिए व्यंग भी एक सफल तरीका हैं...जय हो
संजय
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