अगर मैं आपको आतंकित कर सकता हूं, तो यकीन जानिए अपनी सुविधानुसार आपको आतंकित न करने का मेरा फैसला लोकतंत्र कहलाएगा। आप इसे उलट भी सकते हैं। अगर आप मुझे आतंकित कर सकते हैं तो आपकी हर वह पहल लोकतंत्र सरीखी होगी, जहां मै डर कर कहूं कि आप ही मुझे असल पनाह दे सकते हैं। बाजार अर्थव्यवस्था का आतंक भी कुछ इसी तरह आया। बाजार के आगे देश के 70 करोड़ लोग लाचार हो गये। सरकार भी घुटने टेक नागरिको को उपभोक्ता बनाने में ही लोकतंत्र देखने लगी। लेकिन मुंबई हमलों ने बाजार को दिखला दिया कि उसकी तानाशाही को अगर कोई चैलेंज कर सकता है तो वह आतंकवाद है।
तो क्या यह माना जाए कि नया न्यायतंत्र आतंक पर टिका है। जिसका आतंक जितना बड़ा होगा, उसे उतनी बडी सत्ता, उतना व्यापक लोकतंत्र और उतना ही बड़ा सौदेबाज माना जायेगा। लोकतंत्र का नया चेहरा सामाजिक आतंक के खिलाफ पूंजी के आतंक की मान्यता है। सिर्फ छह साल पहले ही तो देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने का पाठ पढ़ाया था। आम आदमी से लेकर पूंजीपति और उघोगपतियो की लंबी फेहरिस्त उस वक्त हर तबके ने मोदी की राजनीति को समाज और देस को बांटने वाला करार दिया था। तब देश के बड़े उघोगपतियों ने मोदी को लोकतंत्र में दाग कहा था।
लेकिन इन छह सालों में क्या कुछ बदला इसका पहला असर तो इसी से समझा जा सकता है कि टाटा-अंबानी-मित्तल सरीखे उद्योगपति मोदी को खुल्लमखुल्ला देश का प्रधानमंत्री बनते हुआ देखना चाहते हैं। इसे कहने से नहीं चूक रहे। सवाल यह नही है कि मोदी ने अपने आपको बदल लिया है या आतंक के खिलाफ मोदी के तेवर आतंक को भी आंतकित कर देते हैं। सवाल यह भी नही है पूंजीपति-उद्योगपति मोदी के साये में खुद को सुरक्षित मान रहे हैं। सवाल है कि आतंक की नयी परिभाषा में आतंक ही उस लोकतंत्र की जगह ले रहा है। संविधान ने देश के हर नागरिक को बराबर अधिकार दिये हैं। तो क्या संविधान मायने नहीं रखता। यकीन जानिये जो स्थिति है उसमें देश के भीतर लोकतंत्र की नहीं आतंक की चौसर बिछायी गयी है । कैसे...कहां खुद देखिये ।
इस पर एक आम सहमति है कि मुबंई में हुये आतंकवादी हमलो के बाद देश में सरकार चलाने वालों के खिलाफ आक्रोष है । राजनेताओं के तौर तरीकों ने लोगो के अंदर गुस्सा भरा है कि उनकी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जा रहा है। आतंक पर कोई रोक लगाने में सरकार सक्षम नहीं है । आतंक पर नकेल कसने वाले संस्थानों की ही नकेल खुली हुई है। संसदीय राजनीति के लोकतंत्र के खेल में हर सरकारी संस्थान मनमाफिक तरीके से छुट्टा है। कोई नीति या योजना देश के सामने नहीं है जिसमें देश के नागरिको को भरोसा हो सके कि देश में वाकई कोई लीडर है या सरकार है, जिसपर भरोसा किया जा सकता है कि उसे लोगो की फिक्र है या लोग उसकी मौजूदगी में बेफिक्र हो जाये। असल में आम लोगो का आक्रोष आतंकवाद के मद्देनजर जान गंवाने को लेकर पैदा हुआ है...पहली नजर में यह सही लग सकता है । लेकिन इस पहली नजर का बड़ा आधार आतंकवाद से लोगो में पैदा हुई एकजुटता भी है। जातीय या धार्मिक आधार पर राजनीति को महत्वहीन बनाते हुये आम सहमति भी है। और देशहीत में हाथों में हाथ डाल कर खड़े होने की ताकत भी है। हकीकत में इस एकजुटता भरे माहौल से ही कई सवाल पैदा हुये है, जो बार बार इस सच को हवा में उछाल रहे है कि अगर आतंकवादी घटना न होती तो देश सचेत ना होता। या फिर देश जिस राह पर चल निकला है उसमें आतंकवाद ही असल नकेल है जो देश को जगाये रख सकती है।
अगर आतंकवाद की गिरफ्त में आये देश को 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट से ही परखा- देखा जाये और इस दौर में देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों को परखे तो उपर उठे दोनो सवालों को टटोला जा सकता है । 15 साल पहले मुंबई व्लास्ट के बाद कंधार विमान अपहरण ने आतंकवाद का सबसे बडा झटका देश को दिया । इसके बाद से चले सिलसिले में ताज-नरीमन पर हमले तक के दौर में देश के अलग अलग हिस्सों में दो सौ से ज्यादा आतंकवादी हमले हुये, जिसकी बड़ी शुरुआत सात साल पहले श्रीनगर विधानसभा के परिसर में विस्फोट से भरी जीप के जरीये तीन दर्जन से ज्यादा लोगो की मौत और सौ से ज्यादा लोगो के साथ हुई। डेढ दशक के दौर में आतंकवादी हिंसा में करीब सोलह हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई । आर्थिक नुकसान का आंकड़ा नब्बे हजार करोड़ के करीब का है। इस त्रासदी से निजात पाने के लिये राजनीतिक दलों में जमकर टकराव हुआ जो सड़क से संसद तक में नजर आया। कड़े कानून की मांग से लेकर गृह मंत्रालय की नाकामी और सुरक्षा एजेंसियों में लगातार लगने वाली सेंघ का मामला बार बार उठा। जिससे लोगों में आक्रोष जमता गया । लेकिन उस परिभाषा के सामानातर इसी दौर में सामाजिक तौर पर साप्रंदायिक हिंसा और क्षेत्रिय अलगाववादी हिंसा भी हुई। जिसको थामने के लिये राजनीतिक दलो ने कभी किसी योजना या कानून की वकालत नहीं की बल्कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जमकर चलता रहा। कमोवेश इसकी शुरुआत भी 15 साल पहले ही हुई। अयोध्या की आग में बाबरी मस्जिद का ढहना मात्र नहीं था बल्कि समाज के बीचो बीच लकीर खिंचना और उसे मिटाने की जगह और गाढ़ा करते जाना देश की राजनीतिक सत्ता की फितरत रही। इस दौर में महज गुजरात ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र, उडीसा, कर्नाटक, बिहार, पंजाब , हरियाणा, असम समेत 16 राज्य सांप्रदायिक हिंसा की गिरफ्त में आये।
गुजरात के पांच लाख घरो को अलग कर दें तो भी देश के सत्तर लाख से ज्यादा परिवारो में सांप्रदायिक हिंसा की आग पहुंची, जिसने इन्हें बरबाद कर दिया। सांप्रदायिक हिंसा में आर्थिक नुकसान भी पचास हजार करोड़ को पार कर गया । लेकिन इस नुकसान को सरकार ने सरकारों के माथे पर ही मढ़ा। राज्य सरकार के मामलो में केन्द्र सरकार दखल देती नहीं है और सांप्रदायिक हिंसा ने हमेशा सत्ता का कंघा टेका। जिसे कभी समाज तो कभी राजनीति की जरुरत बताकर संविधान के हर स्तंभ के आसरे लोकतंत्र का गुणगाण करने वाली संसदीय राजनीति ने पल्ला झाड़ा। जाति और धर्म के आसरे इस हिंसा को क्षेत्रियता ने नया कैनवास दिया। असम से लेकर मुंबई तक में स्थानीय नागरिकों के हक के नाम पर भूमि पुत्रों की राजनीतिक हिंसा में लोगों की मौत का आंकडा तो एक हजार से नीचे का रहा। लेकिन पचास लाख से ज्यादा परिवारों की रोजी-रोटी पर जरुर बन आयी। बाहरी लोगों पर स्थानीय लोगो का हक छीनने का आरोप लगा कर जिस राजनीति ने पंख फैलाये उसने संविधान या कहे कानून के राज की धज्जिया उडायीं लेकिन किसी सरकार की हिम्मत इसे थामने की नहीं हुई।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी संसद की जबरदस्त बहस में फुसफुसाहट सरीखा ही लगा । इसी दौर में देश को विकास की लकीर पर चलाने का भी इंतजाम किया गया। 1991 में जिस नयी अर्थव्यवस्था की हिमायती सरकार की नीतियां बनीं, उसने 1992 के बाबरी मस्जिद कांड और 1993 के मुबंई ब्लास्ट से कही ज्यादा समाज को बांटा। कहीं ज्यादा हिंसा को बढ़ाया। कहीं ज्यादा हत्याओं को अंजाम दिया। कहीं ज्यादा देश का संप्रभुता पर आंच पहुचायी। आर्थिक नीतियों के इस घेरे ने आजादी के संघर्ष तक को खारिज कर विकास की ऐसी अनूठी परिभाषा गढ़ी, जिसमें भारत दुनिया के सामने खरीदारो की फौज के तौर पर उभरा। 25 करोड़ उपभोक्ताओं की ताकत को दुनिया के आठ विकसित देशो से भी आगे रख कर भविष्य का खाका आर्थिक तौर पर रखने का मंत्र उसी सत्ता ने दिये, जिसे देश के सौ करोड़ का हिमायती माना जाता है।
लेकिन जो 80 करोड़ उपभोक्ताओं के घेरे में न आ सकें, उन्हें घेरे में आने के लिये छटपटाकर जीने की नीतियों को उन्हीं राजनेताओं ने परोसा जिन पर देश को भरोसा था कि वह सभी को एकसमान देखेंगे। चूंकि नयी आर्थिक नीतियों को नया भगवान करार दिया गया तो नीतियां आम लोगो से बडी होती चली गयी। उसे लागू करने वालों का सीधा वास्ता दस्तावेजों से था । तो सरोकार या आम लोगों की जरुरतों को समझने के लिये भी नीतियों की लकीरों को ही आड़ा-तेड़ा खिंचा गया। देश के वित्त मंत्री से लेकर योजना आयोग तक के अधिकारी और राज्यों में विकास का परचम लहराने का ख्वाब संजोने वाले मंत्री से अधिकारी तक और जिला परिषद से लेकर पंचायत समिति तक के नुमाइंदों तक को आर्थिक विकास का पाठ नयी आर्थिक नीतियों में ही समझ में आया, जहां खरीदने की ताकत के आगे हर सत्ता दम तोड़ दे देती। राज्य और संविधान भी छोटे पड़ने लगते। लोकतंत्र का पैमाना पूंजी के सामने नतमस्तक हो जाता। बाजार अर्थशास्त्र के इस आर्थिक आतंक ने सुरक्षा के नियम भी गढे और राजनीति को नया सरमायेदार भी बनाया।
आर्थिक नीतियों का असर देश पर किस रुप में रहा यह महज साठ हजार किसानों की आत्महत्या से परिभाषित नहीं किया जा सकता। बल्कि इस दौर में देश के ढाई करोड़ लोगों का आसरा छिन गया। विकास परियोजनाओं में एक करोड़ से ज्यादा परिवार बेघर हुये। रोजगार के जो साधन पीढियों से बिना किसी नीति के देश के करोड़ों परिवारो को संभाले हुये है, वह मुनाफा कमा कर विकास की लकीर खिंचने वालो के साथ जुड़ी। जिसपर सरकार का ठप्पा लगा। और देखते देखते देश के करीब ढाई करोड़ लोगों से वह जमीन छिनने की प्रक्रिया शुरु हुई जो बिना किसी इन्फ्रा स्ट्रक्चर की मांग के भी करोड़ों लोगो का पेट भरती। बैकिंग प्रणाली को भी बाजार अर्थव्यवस्था से जोड़ कर राज्य ने संविधान के उस हिस्से को मुनाफे के लिये बेच दिया जो सभी को ना सिर्फ बराबरी का अधिकार देता बल्कि कल्याणकारी राज्य के तहत कमजोर तबके को ज्यादा से ज्यादा राहत देने की बात भी कहता। लेकिन बैंक का मतलब विकास की आधुनिक समझ की लकीर को आगे बढाने के तरीको ने ले लिया। इस दौर में प्रति व्यक्ति आय ढाई हजार रुपये सालाना तक देश की हुई। लेकिन इसी दौर में देश के पचास करोड़ लोगों की सालाना आय एक हजार रुपये तक भी न पहुंच पायी। अरबपति और करोड़पतियों की तादाद देश में सबसे ज्यादा बढ़ी। दुनिया पर छा जाने की विकास की मदहोशी ने पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा को भी बाजार और मुनाफे के घेरे को कुछ इस तरह लिया देश के दस करोड़ लोग जितना पैसा पानी पीने के लिये एक साल में देते। इलाज के लिये जितना धन इस तबके पर साल भर में गंवाते। और महज एक डॉक्टर या इंजीनियर, कंप्यूटर या बिसनेस मैनेजमैंट की एक डिग्री के लिये एक करोड़ परिवारों में किसी एक बच्चे पर जितना खर्च होता । उतना देश के पचास करोड़ से ज्यादा लोगों को जीवन भर में नहीं मिलता। जिसमें जीने से जुड़ी हर जरुरत भर के जुगाड का हिसाब-किताब रखा जा सकता है। यानी दस करोड़ बनाम पचास करोड़ के खेल में भारत जैसे समाज में सबकुछ खामोशी से चल सकता है, जहां समाज का ताना-बाना एक चारदीवारी से दूसरी चारदीवारी के बीच बिना दीवार के चलता है।
इस दौर में राज्य कितने बेअसर हुये और लोकतंत्र के नाम पर पूंजी की तानाशाही ने जिस तरह सामाजिक मान्यता से लेकर निजी सुरक्षा तक की व्यवस्था की लकीर खिंची, उसने लोगों को उसी बाजार पर टिका दिया जो उनका नहीं था। जिसे चुने या ना चुने यह लोकतंत्र संसदीय राजनीति ने उन्हें न दिया। वजह भी यही रही कि आत्महत्या-हत्या और हिंसा में पांच से बीस फीसदी तक का इजाफा इस दौर में हुआ । समाज के भीतर तनाव-तल्खी, लोगो में आक्रोष, राजनीतिक हिंसा,लोकसभा-विधानसभा तक में राजनेताओ की जुतम-पैजार सबकुछ इस दौर में बढ़ा। संसदीय राजनीति यही से हारी क्योंकि 1991 की न्यू इकॉनामी, 1992 का अयोध्या कांड, 1993 का मुबंई सीरियल ब्लास्ट के बाद जो पहला लोकसभा चुनाव 1996 में हुआ उसने राजनीतिक सत्ता की भी नयी लकीर खिंची। जनता का भरोसा किसी भी राजनीतिक दल पर नहीं टिका। गठबंधन की राजनीति ने चाहे लोकतंत्र की वकालत की लेकिन हकीकत में विकल्पहीन स्थिति में राजनीति भी उसी बाजार के चौखट पर जा बैठी जिसने नागरिकों को उपभोक्ता में बदला। माल के उत्पादन की जगह माल को बेचने के हुनर ने ले ली। रुपये की जगह डॉलर ने ली। राज्य की जिम्मेदारी बहुसंख्यक जनता से हटकर चंद हाथों में सिमटाकर निजीकरण को बढ़ाया। मुनाफे की थ्योरी सबसे ताकतवर हुई। इस ताकत ने राजनीतिक सत्ता को भी मुनाफे तले लाकर लोकतंत्र की संसदीय समझ को कमाने-खाने का धंधा बना दिया।
जाहिर है पिछले डेढ दशक के दौर में जिस देश को उसकी संस्कृति-सरोकार से हटाकर एक नयी पटरी पर लाने का जो प्रयास किया जा रहा है, उसमें उस आधी आबादी का क्या होगा जो पीढियों से उसी जमीन पर टिकी है, जिसे अब बेचा जा रहा है। आतंक की सही और गलत दिशा की शुरुआत यहीं से होती है । मुबंई के ताज-नरीमन पर हमले से पहले यानी 26 नबंबर को हुये हमले से पहले देश की अलग अलग जगहो पर जितने भी आतंकवादी हमले हुये उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी को लेकर देश के भीतर राजनीति और समाज दोनो पर भरोसे तार-तार हुये। मगर 26 नवंबर के हमले ने देश के उस समाज को डिगा दिया जो सबकुछ खरीदने की ताकत रखता है। जिसके आगे राजनीति भी नतमस्तक है। इसीलिये पहली बार किसी एक तबके से हटकर देश के सामने देश का सवाल उठा है। इसलिये पहली बार यह सवाल भी उठा कि क्या आतंकवादी हिंसा के जरीये ही देश जागेगा। क्योंकि आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ कड़े तेवर भारत ने जरुर अपनाये हैं, लेकिन देश के भीतर हर व्यवस्था उसी लीक पर चल रही है, जिसे सीमा पार से पाकिस्तान परोस रहा है। समाज के भीतर सत्ता की ताकत का विकेन्द्रीकरण कुछ इस तरह हुआ है कि आतंक के आसरे कोई भी अपनी पैठ राजनीतिक सत्ता में बना सकता है। और संसदीय राजनीति खुद को लोकतंत्र कहलवाने के लिये समाज के भीतर के हर आतंक को लोकतंत्र की चादर में समेट कर यह ऐलान करने से नहीं चुकेगी कि यही लोकतंत्र है। जिसमें चुनाव सबसे बड़ा हथियार है। आप इस गटर को चुनिये या उस गटर को या इस आतंक तले रहिये या उस आतंक तले। और लोकतंत्र के इस सत्तानशीन पाठ को कोई चेता सकता है तो वह सीमापार से आया आतंक होगा जो संसद या ताज-नरीमन की सत्ता को जबतक चुनौती नहीं देगा तबतक देश जागेगा नहीं। और अगर यह सही है तो महसूस कीजिये कहीं आतंकवाद ही राष्ट्रवाद का हथियार तो नहीं बन चुका है।
Wednesday, January 28, 2009
आतंकवाद का राष्ट्रवादी चेहरा
Posted by Punya Prasun Bajpai at 8:00 AM
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11 comments:
आतंकवाद राष्टवाद का वैश्विक हथियार बन चुका है, और ये परस्पर एक दूसरे को लाभ ही पहुँचा रहे हैं. मगर इसमें बीच वाले लोग पिसे जा रहे हैं; जिनकी फ़िक्र किसी को नहीं.
(gandhivichar.blogspot.com)
मान गये आपकी विशिष्ट शैली को| पूरा पढ़ने के बाद समझ नहीं आया कि आखिर आप कहना क्या चाहते हैं !
इस पर एक आम सहमति है कि मुबंई में हुये आतंकवादी हमलो के बाद देश में सरकार चलाने वालों के खिलाफ आक्रोष है । राजनेताओं के तौर तरीकों ने लोगो के अंदर गुस्सा भरा है कि उनकी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जा रहा है। आतंक पर कोई रोक लगाने में सरकार सक्षम नहीं है ।....
सही कहा आपने
सत्ता का आधार हमेशा आतंक ही रहा है बंधू.
प्रसून जी ,
आलेख ज़रा छोटा लिखे, पढ़ते - पढ़ते मन उब जाता है....
सटीक और छोटा लिखे
AAPNE AARTHIK AATANKWAD AUR KHAS TAUR PAR SIMA PAR AATANKWAD KI BAT KI..PAR KYA AAP IS BAT KI LIYE SAHMAT HAI KI MEDIA KE DWARA PHAILAYE GAYE AATANKWAD PAR BHI BAHAS KI JAANI CHAHIYE..YE SARA HANGAMA TO MEDIA KE JARIYE HI BARPAYA GAYA HAI...MEDIA KAHE TO SONA AUR KAHE TO MATI. IS BAT KO SWIKAR KARNE BILKUL AAPATI NAHI KI MEDIA BHI AARTHIK AATANKWAD KA SIKAR HUI HAI..LEKIN SAWAL WAHI HAI KI LOKTANTR KE ANYA PRATIKO KI TARAH YADI YAH BHI USI LIK PAR CHALEGA TO ISKE ASTITWA ME BANE RAHNE KE KYA MAYNE HAI...KABHI NAHI DEKHA KI ITANA BARA HUJUM KABHI UN KISANO KE LIYE AIK SATH AAYA HO...NA HI UNKI YAD ME KUCH CHARO KE LIYE APNI AAKHE MUDI ...JAISA KI PICHLE DINO NDTV NE JAROOR MUMBAI HMALE KE SANDRABH ME KIAA....SAWAL YAHI HAI KI MEDIA KYA SOCHTA HAI...AATANKWAD CHAYE AARTHIK HO YA SIMA PAR..WAH RASTRWAD KA HATHIYAR NAHI HO SAKTI..
प्रसून जी
आपको सुनते हुवे अच्छा लगता है रोज़ जी पर.
आपका लेख विचारोतेजक है........एक छोटा सा सुझाव है बुरा लगे तो माफ़ी चाहता हूँ,लेख छोटा होगा तो और भी अच्छा लगेगा
पूरी पोस्ट सर के उपर से निकल गयी ....
बाजपेई जी कम शब्दों में अपनी बात को सही तरीके से कहना कब सीखेंगें....
बाजपेयी जी आपको टीवी पर बातें करते सुना है लेकिन यहाँ विचार पढते हुए अच्छा लगा। आंतकवाद पर बहस सबसे ज्यादा हो रही है और भारत पर आतंकी हमले भी बढ रहे है। क्यों ना कुछ ऐसी बाते करें जिससे आंतकवादी भी आंतकित हो जाए। निष्पाप लोगों पर गोली बरसती है तब उनकी राष्ट्रवाद की बात करना गलत है। वे कौनसी गुलामी में जी रहे है.
bhai prasun ji . tippani ke liye mafi . par ek baat mujhe samajh nahi aati ki aap log bar- bar wiwadit dhanche ko todne ki ghatna ko aaj ke aatankwad ka karan batate hain. lekin kya us ghatna ke liye nirdosh logon se badla lena sahi baat hai. ye kuchh waisa hi nahi lagta jaisa modi ne godhra kand ke upar gujrat dango ki jimmedari dal di . kya aap bhi ayodhya kand ko aatank ki jad batakar hajaron logo ki maut ko justify nahi kar rahe ?
इस देश में राष्ट्रीयकरण, २० सूत्रीय कार्यक्रम और भी बहुत से प्रयोग - समाजवाद के नाम पर, जिन प्रदेशों में साम्यवादियों की सरकारे रही है वहाँ साम्य्वाद के नाम पर, आपकी भाषा में कहें तो सरकारी आतंकवाद होता रहा है? इसमें राष्ट्रवाद कहाँ से आगया? सत्ता में बनें रहनें की उद्दाम लालसा न जानें कौन-कौन से कुकर्म कराती रहती है? क्या वह राष्ट्रवाद है? राष्ट्रवाद का अर्थ क्या सच में मालूम है?
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