कौन है महारथी। प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक। अखबार या न्यूज़ चैनल। बहस करने वाले और कोई नहीं खुद मीडियाकर्मी हैं। हर जेहन में यही है कि खबरें जब अखबार के पन्ने से लेकर टीवी स्क्रीन तक से नदारद है तो ऐसी बहस के जरिये ही अपने होने का एहसास कर लिया जाये। लेकिन पत्रकार के लिये एहसास होता क्या है, संयोग से इसी दौर में खुलकर उभरा है। ताज-नरीमन हमला, आम लोगों का आक्रोष, पाकिस्तान से लेकर तालिबान और ओबामा।
इन सब के बीच लिट्टे के आखिरी गढ़ का खत्म होना। 27 जनवरी को जैसे ही श्रीलंकाई सेना के लिट्टे के हर गढ़ को ध्वस्त करने की खबर आयी दिमाग में कोलंबो से निकलने वाले 'द संडे' लीडर के संपादक का लेख दिमाग में रेंगने लगा। हर खबर से ज्यादा घाव किसी खबर ने दिया तो पत्रकार की ही खबर बनने की। पन्द्रह दिन पहले की ही तो बात है। लासांथा विक्रमातुंगा का आर्टिकल छपा । कोलंबो से निकलने वाले द संडे लीडर का संपादक लासांथा विक्रमातुंगा। जिसने अपनी हत्या से पहले आर्टिकल लिखा था। और हत्या के बाद छापने की दरखास्त करके मारा गया। बतौर पत्रकार तथ्यों को न छिपाना और श्रीलंका को पारदर्शी-धर्मनिरपेक्ष-उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर देखने की हिम्मत संपादक लासांथा ने दिखायी। जिसने अपने आर्टिकल के अंत में श्रीलंका को ठीक उसी तरह हर जाति-समुदाय-कौम के लिये देखा जैसे ओबामा ने अमेरिका को इसाई-यहुदी-मुस्लिम-हिन्दु...सभी के लिये कहा। लासांथा ने भी लिखा सिंहली-तमिल-मुस्लिम-नीची जाति-होमोसैक्सुअल-अंपग सबके लिये श्रीलंका है । लासांथा अपनी रिपोर्ट के जरीये दुनिया को बता रहे थे कि लिट्टे एक क्रूर आतंकवादी संगठन है लेकिन राज्य का आतंक उसके सामानांतर अपने ही नागरिकों की हत्या को लेकर कैसे चल रहा है।
दरअसल, लासांथा का विश्वास था कि सरकार के इशारे पर उसकी हत्या कर दी जायेगी । और हत्या के पीछे राष्ट्रपति महिन्द्रा का ही इशारा होगा । खुद संपादक लासांथा के मुताबिक 2005 में महिन्द्रा जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तब उसके साथ श्रीलंका के बेहतरी को लेकर चर्चा करते और राष्ट्पति बनने के बाद दर्जनों ऑफर राष्ट्रपति महिन्द्रा ने संपादक लासांथा को दिये। लेकिन लासांथा पत्रकार थे। सरकार का ऑफर ठुकराने के बाद जब मौत का ऑफर आने लगा तो भी अपने छोटे-छोटे बच्चों के मासूम चेहरों की खुशी से ज्यादा संपादक लासंथा को सरकार के आंतकित करते तरीको ने अंदर से हिलाया।
लासांथा यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि तमिल-सिंहली के नाम पर देश के नागरिकों को ही बम में बदलने का काम सरकार कर रही है। 8 जनवरी को लासांथा की हत्या कर दी गयी और ठीक वैसे ही जांच का आदेश राष्ट्रपति महिन्द्रा ने दिया जैसा मारे जाने से पहले संपादक लासांथा आर्टिकल में लिख गये थे। कमोवेश हालात तो भारत में भी वैसे ही हैं।
सवाल बटाला या ताज-नरीमन पर हमलों के बाद सरकार की लाचारी का नहीं है। सवाल समाज के भीतर पैदा होती लकीर का है । जिसमें सड़क पर खड़ा होकर कोई मुसलमान चिल्ला कर कह नहीं सकता कि वह मियां महमूद है और हिन्दुस्तानी है । दूसरी तरफ कोई बजरंगी-रामसेना का भगवा चोला ओढ़कर चिल्ला सकता है कि देश को बचाना है।
लगातार अखबारों में लिखा गया। न्यूज चैनलों में बहस में गूंजा...वे कितने टफ थे..बादाम, काजू खाकर मरने मारने के बीच का जीवन...खिलौने की तरह बंदूकों को हाथ में संभाले...समूची कमांडो फोर्स लगी तब.... सवाल है आतंकवादियों को महिमामंडित करने की जरुरत क्या है। आतंकवादियों के इरादे ने तो भारतीय समाज में कोई लकीर नहीं खिंची...मुंबई में जब गोलियां चलीं तो मुस्लिम भी मारे गये और हिन्दू भी । सिख और इसाई भी मारे गये । हमला तो भारत पर था और इसी इरादे से आतंकवादी आये थे लेकिन हमले के बाद किसने लकीर खींचनी शुरु की । अगर मियां महमूद को चिल्ला कर अपने हिन्दुस्तानी कहने की तरुरत नहीं है तो किसी को भगवा चोला ओढकर या गले में पट्टा लटकाकर देश बचाने का नारा लगाकर आतंकित करने की जरुरत क्या है। दोनों तनाव पैदा कर रहे है तो क्या प्रिंट और क्या इलेक्ट्रॉनिक....दोनो के लिये यही तथ्य हो चला है जैसे ही यह लिखा जायेगा या दिखाया जायेगा पढने या देखने वाला चौकेगा जरुर।
यकीन जानिये ताज-नरीमन के हमले ने देश को चौंकाया और 60 घंटे तक जो अखबारों के पन्नों पर लिखा जा रहा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिखाया जा रहा था, उसे कवर करने गये मीडिया के शब्दो को अगर मिटा दें तो आपको अंदाज होगा आतंकवादी घटना थी क्या। घटना को समूचा देश कैमरों के जरिये देख रहा था । लेकिन कैमरापर्सन का नाम न्यूज चैनलों की चिल्लाती आवाज में कहीं नही उभरा । अखबार के जरिये भी पहली बार फोटोग्राफर को ही काम करने का मौका मिला लेकिन रिपोर्टरों और संपादकों की कलम ने तस्वीरों में ऐसा हरा और भगवा रंगा भरा जो तिरंगे को चुनौती देता ही लगा। जिन्हे नाज है कि 60 घंटे तक अखबार या न्यूज चैनलों ने मीडिया का मतलब देश को समझा दिया, अगर वही पत्रकार इमानदारी के साथ अखबार में बिना तस्वीरों के रिपोर्ट पढ़े और न्यूज चैनल के पत्रकार विजुअल की जगह अंधेरा कर एक बार सुन ले कि क्या रिपोर्टिंग की जा रही थी। और उसके बाद सिर्फ तस्वीरों को देखें तो काफी हकीकत सामने आ जायेगी।
शायद इसीलिये कसाब की तस्वीर खिचने वाले डिसूबा और वसंतु प्रफु का पत्रकारीय सम्मान कहीं नही हुआ । और 26 जनवरी को ऐलान हुये सरकार के सम्मान को ठुकराने की ताकत किसी पत्रकार ने नहीं दिखायी। यही वजह है कि अखबार की रिपोर्टिंग राहुल गांधी-आडवाणी से होते हुये संजय दत्त में देशभक्ति का सिरा ढूढ रही है और चैनल तालिबानी गीत में मशगूल है।
इसलिये मामला महारथियो का नहीं...अपराधियों का है...और 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
Sunday, February 1, 2009
'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएंगे'
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:00 AM
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21 comments:
parsoon ji raajniti to chalti hi isi fande par hai aaj tak yahi to hota aayaa hai sahi likha hai aapne
मुझे खुशी है कि प्रसून जी कम से कम आपकी थोडी ही सही आंख तो खुली, वर्ना भगवा आतंकवाद के नाम से आप लोगो ने जो ये नई दुकानदारी चलानी शुरू की है मै तो समझ रहा था की सारे मिडियावाले हरा चश्मा लगाये बैठे है ,:)
पहली बार आपका लेख सच मे बहुत अच्छा लगा . एक दर्द आप भी सीने मे दबाये बैठे हो लेकिन सूडो सेकुलिरिज्म के शिकार हो जाते हो . जो सच है वह लिखे देखे ,भगवा या हरा का आवरण ओढे चेहरों को बेनकाब करे .
माफी चाहूंगा अवांछित हस्तक्षेप के लिए लेकिन मेरी निगाह में क्रंदन ही अनावश्यक है। आप इस बात से तो सहमत होंगे ही कि पूंजी ही बाज़ार का वाहक है। पूंजीवालों के पास मीडिया की कमान है। वे अपने मतलब की न लिखें या न दिखायें, तो बाज़ार कैसे आकर्षित होगा "उत्पाद" की ओर? मैं सिर्फ इतना ही जानना चाहता हूं कि आप किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त मस्तिष्क से साफ-सुथरी बातें निकलने की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं। आज की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि जो लोग बिल्कुल निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करना चाहते हैं, उन्हें हमारे देश की पचास करोड़ टेलीवीज़न देखनेवाली आबादी कभी स्वीकार नहीं करेगी। हिन्दू समाज को उसके रहनुमाओं ने यह समझा दिया है कि भले ही हर मुसलमान आतंकी नहीं होता, लेकिन हर आतंकी मुसलमान जरूर होता है...शायद उन्हें असम में हिन्दू आदिवासियों को नंगा करनेवाले आतंकियों का धर्म नहीं मालूम, शायद उन्हें कंधमाल में आदि धर्म के मानने वालों को ईसाई कहकर घर से नंगाकर भगाये जानेवाले आतंकियों का धर्म नहीं मालूम, शायद उन्हें कोरापुट (उड़ीसा) में गांव के कुएं से एक चुनिंदा जाति के परिवार को पानी नहीं देने का आदेश पारित करनेवाले आतंकियों का धर्म नहीं मालूम होता और साहब भारत में तो ऐसे कई शेर हैं, जिन्हें शाया करने पर आज के ग़ालिबों की ज़बान भी शीरीं हो जाये...माफी चाहूंगा...
bilkul sahi likh rahe hain sir. kisi bhi journlist ko rajniti ki chadar nahi odhni chahiye.
bilkul sahi likh rahe hain sir. kisi bhi journlist ko rajniti ki chadar nahi odhni chahiye.
bilkul sahi likh rahe hain sir. kisi bhi journlist ko rajniti ki chadar nahi odhni chahiye.
कसाब की तस्वीर खिचने वाले डिसूबा और वसंतु प्रफु का पत्रकारीय सम्मान कहीं नही हुआ । और 26 जनवरी को ऐलान हुये सरकार के सम्मान को ठुकराने की ताकत किसी पत्रकार ने नहीं दिखायी। यही वजह है कि अखबार की रिपोर्टिंग राहुल गांधी-आडवाणी से होते हुये संजय दत्त में देशभक्ति का सिरा ढूढ रही है और चैनल तालिबानी गीत में मशगूल है।
इसलिये मामला महारथियो का नहीं...अपराधियों का है...और 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
सही कह रहे आप।
देश की वर्तमान स्थित पर सार्थक लेख
देश की वर्तमान स्थित पर सार्थक लेख
"जिसमें सड़क पर खड़ा होकर कोई मुसलमान चिल्ला कर कह नहीं सकता कि वह मियां महमूद है और हिन्दुस्तानी है । दूसरी तरफ कोई बजरंगी-रामसेना का भगवा चोला ओढ़कर चिल्ला सकता है कि देश को बचाना है।"
इन उदगारों के ज़रिये आप क्या कहना चाहते हैं ? क्या आप हिन्दुस्तानियों को जातियों में बांट कर देखना चाहते हैं ? जलेबियों की तरह बातों को उलझाने से आप की महानता प्रदर्शित नहीं हो सकेगी । आप भी महाजनी पत्रकारिता करने के सिवाय कर क्या रहे हैं । लसांथा की बात करना और बात है और उसे आचरण में लाना और बात ...।
"जो अपराधी नहीं हैं ,वो मारे जाएंगे ....। " लेकिन आप तो ज़िन्दा हैं.....? आप ही की लिखी लाइन्स को आप दोबारा पढियेगा और खुद से सवाल पूछिएगा कि क्या वाकई आप ईमानदार पत्रकार कहलाने के हकदार हैं ?
prasoonjee
surendrakishore.blogspot.com
dekhiye aur salaah dijiye ki Bihar se aur kya ho sakataa hai.
surendra kishore
mob.9334116589
प्रसून जी बात तो आपकी सही है..इन दिनों चैनलों पर जो तालिबानी गीत गा जा रहा है, बड़ा खतरनाक है। फोटोग्राफरों के लिए कई बार खुद डेस्क से हमें लड़ना पड़ता है उनके नाम के लिए। एक बात और पी साईनाथ जी ने पद्मश्री लेने से इसी बार मना किया है।
हे मेरे प्रभु,
मुझे वो साहस दो
कि इस दहाड़ते आतंक के दौर में
मैं सच कह सकूं
बिना इस बात की परवाह किए
कि इसका इस्तेमाल कौन करेगा...
कम शब्दों में सटीक बात .....
लेकिन इस क्रांती की शुरुआत करेगा कौन
aapne jo heading dia hai jo aapradhi nahi honge vah mare jayenge vah kavi rajesh joshi ke ek kavita ka heading hai.
abhay nema
'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
Sahi kaha aapne. Magar aisi sthiti aaj lagbhag har desh mein hai.
SIDHE TAUR PAR KAHU...TO PAHLE AAPKO NISPAKCH HONA PAREGA....AAPKA MANTAVY KUCH BHI HO KAHI N KAHI AAPKE NISPAKCH BHAW PAR PRASN CHINH LAG HI JATA HAI ..ISLIYE HAR BAR AAPKA LEKH BHI PRSN CHINH KE DAYRE ME AA JATA HAI..TOHOPA KUCH NAHI JA RAHA HAI..BASARTE KI AAP VICHAR KARE..
बहुत अच्छा लगा आपका यह आलेख....
Adarneeya Prasoon ji,
Bat chahe print kee ho ya electronic kee ..saval ye hai ki ek patrakar,riporter,ya meediakar..samaj ,desh ya janta ke prati apnee jimmedariyon,javabdehiyon ko pooree tarah mahsoos kar rahe hain?aur ye bahut kadvee sachchayee hai ki hamare desh ke print,electronik media ke log aj kis tarah se rajneeti,partiyon se apne nihit svarthon ke liye jud jate hain..unkee galat sahee har neeti ka samarthan,prachar karne lagte hain..ye bat har buddhijeevi janta aur samajhta hai.
jahan tak puraskar ,samman kee bat hai to usmen bhee rajneeti..vaise bhee parde ke peechhe ka vyakti hamesha hee upekshit rahta hai.chahe vo akhbar ke chhayakar bandhu hon ya chanel ke kameraman,ricordist,news editor...ya anya koi team members.
fir bhee jagrookta poorna lekh ke liye badhai.
Hemant Kumar
सच्चाई लिखना या दिखाना...हर किसी के बूते की बात नहीं है..बीवी-बच्चों की फिक्र,घर में चूल्हे जलने का चक्कर और सबसे ऊपर जान का खतरा...इन बातों से परे होकर टीवी स्क्रीन या अखबार के पहले पन्ने पर सच लिखने या दिखाने का माद्दा..बहुत कम पत्रकारों में है...बहुत सारे बड़े पत्रकार,बड़ी बातें लिखते और बोलते तो रहते हैं..लेकिन सवाल ये है कि क्या वो लोग मौका पड़ने पर सच का साथ देने की कुब्बत रखते हैं...मंदी के दौर में किसी तरह बस नौकरी बची रहे मेरे जैसे मामूली लोगों को तो दिन-रात बस इसी बात की चिंता है..सच की मशाल जलाने वालों को सलाम
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