यह सवाल वाकई अबूझ होगा कि प्रधानमंत्री पद के किसी भी दावेदार को पीएम बना दिया जाये तो वह करेगा क्या ? यहां ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि जो मौजूदा पीएम हैं उन्होने ही ऐसा क्या किया, जिससे लगे की उन्हे हटाया न जाए ? मनमोहन सिंह के दौर में जिस न्यू इकनॉमी की पटरी बिछाई गयी, उसमें डिब्बे इतने कम थे कि अस्सी फीसदी लोग प्लेटफार्म पर ही छूट गये। और न्यू इकनॉमी की गाड़ी में सवार लोग इतने आगे निकल गये कि उनके लिये पीछे मुड़कर देखना असभंव हो गया।
हालांकि, ये अहसास उस मध्यम तबके में समाया रहा कि मनमोहन की गाड़ी में डिब्बे कम थे, जिस पर उन्होंने सवारी तो की लेकिन उस समाज को ही पीछे छोड़ आये, जिसमें उनकी जड़ है। इसलिये पाप से ग्रसित मध्यम तबके में समाज सेवा का भाव जगा जो रिफॉर्म के जरिये लगातार सामने आता रहा। इसीलिये देश में पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की न्यूनतम जरुरत भी चुनावी मेनिफ्स्टो में दिखायी दी। वर्ना कैसे संभव होता कि जिस घोड़े की सवारी मनमोहन सिंह करा रहे थे, उसमें कांग्रेस तीन रुपये चावल-गेंहू देने की बात करती।
बतौर पीएम मनमोहन की पहचान पिछले पांच साल की यही न्यू इकनॉमी है, जो अमेरिकी चकाचौंध की लैंपपोस्ट के नीचे भारत की लंबी होती परछाई को ही भारत का सच मान कर देखना चाहती है। लेकिन पीएम इन वेटिंग के पास ऐसा कौन सा एजेंडा है, जिसमें कहा जाये कि जब आडवाणी देश के डिप्टी पीएम या गृह मंत्री रहे तब वे जो चाहते थे, वह काम नही कर पाये। पीएम इन वेटिंग की पहचान उस प्रशासनिक कामकाज के तरीके से रही, जिसमें समाज के भीतर लकीर खिंची गयी।
समूचे देश को एक धागे में पिरोने के लिये देश में रहने वाले लोगो के बीच कांट-छांट के तौर तरीको ने एक नयी प्रशासनिक समझ पैदा की। आदर्शवाद की सोच को अपनी अंटी में आडवाणी ने जिस तरह बांधा, वह सिर्फ गुजरात दंगो के बाद ही नहीं उभरा बल्कि बाबरी मस्जिद के बाद पहली बार मुस्लिमों के कमोवेश हर संगठन को लेकर देश की आंखो में संदेह और सवालिया निशान पैदा हुआ। यह शक देश के भीतर ही आर्थिक-सामाजिक सच के तौर पर दिखाया गया, जिससे जान बचाने के लिये जान लेने की एक नयी थ्योरी भारतीय मानस पटल पर खुल कर उभरी। इस लकीर को गाढ़ा करने का काम खोखली नीतियों ने किया। यह एक तरफ कश्मीर के रिसते खून पर दर्द का बाम लगाने से लेकर पडोसी देश पाकिस्तान-बांग्लादेश के घुसपैठ को लेकर भी सामने आया । फिर न्यूनतम की लडाई में जूझते बहुसंख्यक तबके को शाइनिंग इंडिया का वही चेहरा दिखाने की कोशिश की, जिसे मनमोहन सिंह ने ही 1991 में खिंचा था । डिप्टी पीएम बनने के बाद आडवामी तो अपनी ही राजनीतिक जमीन को भुला बैठे। जिस स्वदेशी राजनीति की समझ आरएसएस ने आडवाणी को घुट्टी बनाकर पिलायी, उसे भी अपनी नीतियो तले ना सिर्फ पीस डाला बल्कि स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ से लेकर आरएसएस के चालिसों संगठनो को लगा कि सत्ता में कोई संघी नही बल्कि कांग्रेसी शासन कर रहा है। यहां वाजपेयी को याद कर कोई भी संघी इतना ही कह सकता है कि आडवाणी वाजपेयी से आगे निकल नहीं सकते।
तो क्या ये मान लिया जाये कि आडवाणी की अगुवाई देश को अभी के हालात से आगे नही ले जा सकती । लेकिन पीएम बनने की चाहत तो शरद पवार की भी है । उनके पास ऐसा क्या है जो उन्होने अपने दौर में कर ना दिखाया हो । पवार को महाराष्ट्र का सबसे पावरफुल नेता माना जाता है । 6 दिसंबर 1992 के बाद जिस तरह मुंबई और महाराष्ट्र में सांप्रायिक तनाव बढा, इस पर लगाम लगाने के लिये पवार को ही नरसिंह राव ने दिल्ली से मुंबई भेजा था। लेकिन पद संभालने के हफ्ते भर बाद ही देश ने मुंबई में एक ऐसा आंतकवादी हमला देखा, जिसे करने वालो को आजतक पकड़ा नहीं जा सका । 1993 ब्लास्ट के उन्हीं दोषियो को 13 साल बाद सजा मिली, जिन्होने सीरीयल ब्लास्ट की साजिश में हिस्सेदारी की थी । संयोग देखिये ब्लास्ट के आका आज भी पाकिस्तान में है। और दाउद सरीखे आका से पवार के संबंध है, यह आरोप आरएसएस खुल कर लगाता है।
पिछले दिनो जब पवार ने मालेगांव ब्लास्ट के पीछे हिन्दुवादी संगठन और आरएसएस का नाम लिया तो आरएसएस ने बिना व्क्त गवाये कहा, पवार के रिश्ते तो दाउद से हैं । लेकिन पवार की पहचान देश के कृषि मंत्री की है । जो पांच साल में सिर्फ तीन बार अपने गृह राज्य के उस विदर्भ में गये, जहां दर दिन औसतन दो से तीन किसान आत्महत्या इन्ही पांच साल में करते रहे । संयोग से 20-20 के विश्वकप में जीत का जश्न जिस दिन मुंबई में मनाया जा रहा था और युवराज को 6 बॉल में 6 छक्के मारने के लिये एक करोड का चेक बतौर बीसीसीआई के तौर पर पवार दे रहे थे, उस दिन यवतमाल,अकोला और अमरावती के छह किसानो ने भी आत्महत्या की । पवार की समूची पहचान हर काम को धंधे में बदल कर पैसे बनाने की ही रही है इसलिये उनका मैनेजमेंट कांग्रेस को भी मात देता है । ऐसे में पवार का पीएम प्रेम एनसीपी को तो राष्ट्रीय दल बना सकता है । कांग्रेस को तोड़ सकता है । लेकिन देश में क्या सुधार सकता है यह सवाल पद्म सम्मान न लेने वाले धोनी और हरभजन पर खामोशी बरतने से समझा जा सकता है। वहीं पीएम की चाहत मायावती में भी है।
लेकिन मायावती ने ऐसा कुछ नहीं छोड़ा है, जिसे वह करना चाहती हो और उत्तर प्रदेश में सत्ता पाने के बाद ना किया हो । अपराध पर नकेल कसने के लिये अपराधियों को पार्टी में जोड़ना। भ्रष्टाचार को फैलने से रोकने के लिये खुद ही हर वसूली से जुडना और मुलायम से इतर भ्रष्ट्राचार की कई खिडकी खोलने की जगह सिर्फ एक खिडकी खोलना। और नाजायज काम को भी जायज तरीके से कर के दिखाना । जिस तबके की नुमाइन्दगी करती है उसकी भावनाओ को कभी देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने देना। जिससे उसके भीतर यह एहसास जागे कि सत्ता में भागेदारी का मतलब अपनी पहचान को विस्तार देना भी होता है । मायावती की राजनीतिक समझ उनके अपने गांव उत्तर प्रदेश के बादलपुर में भी देखी जा सकती है । जहां विकास की कोई लकीर खिंचना तो दूर उस एहसास में ही मजबूती आयी है कि दलित की बेटी सत्ता में रहेगी तो उंची जाति वाला कोई नजर उठा कर नहीं देख पायेगा। लेकिन बहुजन से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग ने मायावती की फटी चादर में एक ऐसा मखमली पैबंद लगाया है, जहा हर पैसे वाले और बाहुबल वाले को लगता है राजनीति का विशेषाधिकार उसके साथ जुड़ सकता है अगर वह मायावती के साथ जुड़ गया । तो पीएम बनने की स्थिति में देश की दिशा आर्थिक-वैदेशिक और सुरक्षा के मद्देनजर किस रुप में हो सकती है यह समझ मायावी होगी ।
लेकिन देश जिस मुहाने पर आ खडा हुआ है । जिसमें अर्थव्यवस्था और बाजारवाद हावी है उसमें देश के सामने वैक्लपिक समझ विकसित कौन कर सकता है । खासकर तब, जब बाजार व्यवस्था ढह चुकी है। पूंजी से पूंजी बनाने के संस्थानों का दिवालिया निकल रहा है। आतंकवाद का नया चेहरा देश की कमजोर नसों को पकड़ कर अपने विस्तार को अंजाम दे रहा है। गरीबी-मुफलिसी और सांप्रदायिक आधार पर हाशिये पर ढकेले जा रहे लोग खुद जीने के लिये किसी की भी जान लेने को तैयार हैं। आतंक का तरीका राजनीतिक और सामाजिक तौर पर खुद की पहचान और मान्यता पाने की दिशा में बढ़ चुका है। सीमाओं की सुरक्षा और दूसरे देशो से दोस्ती का आधार भी आतंक के खिलाफ आंतक का नया चेहरा लेकर सामने खड़ा है। ऐसे में पीएम बनने के लिये मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, जयललिता से लेकर बुद्ददेव तक में क्या बचा है, जो देश को पटरी पर लाने की दिशा में कदम उठेगा । पीएम बनने के लिये राहुल गांधी की बैचैनी समझी जा सकती है। क्योकि यह परिवारवाद तले कांग्रेसी संगठन की ट्रेनिंग है। और पीएम बनने के लिये संगठन में सहमति होनी चाहिये ।
लेकिन राहुल के आसरे देश की मौजूदा परिस्थितियो से निपटने की कला ना तो कांग्रेस के पास है ना ही राहुल खुद गांधी परिवार के ‘ऑरा’ से बाहर निकल पा रहे हैं । देश चलाने की जो भी छविया अतीत के आसरे देखी जा रही हैं, उसमें नरेन्द्र मोदी और प्रियका गांधी का नाम उभर सकता है।
लेकिन देश की स्थितियां न तो सरदार पटेल के दौर की हैं, न ही इंदिरा गांधी के वक्त की। देश का विस्तार पहली बार जरुरत और बाजार ने किया है जबकि नेहरु,सरदार पटेल से लेकर इंदिरा तक देश का विस्तार नेताओं के आसरे होता रहा । यानी नेताओं का विजन ही देश को चलाता था, लेकिन नयी परिथितियो में देश के विस्तार के अनुकूल नेताओं का विस्तार न तो हो पाया और ना ही कोई नेता इस विस्तार का हिस्सा बने बगैर देश की नब्ज को पकड़ पाया। उल्टे समूची राजनीति ही देश के विस्तार में छोटी पड़ती गयी क्योंकि लोगो की जरुरत से न नेता जुड़ा न राजनीति बल्कि अपनी जरुरत के लिये लोगो को जोडने की पहल शुरु हुई। इसलिये इसबार पीएम हर कोई बनना चाहता है क्योंकि पीएम बनकर देश चलाना नहीं है बल्कि अपने अंतर्विरोधो से चलते हुये देश में पीएम बनकर निज सुकुन के आतंक तले मरे हुये देश का सबसे बडा टुकड़ा पाना है ।
संसदीय लोकतंत्र इससे आगे जाता नही और नेता इससे आगे देश की सोच नहीं सकते।
Tuesday, April 28, 2009
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देश को पीएम नहीं पीएम को देश चाहिये |
Monday, April 20, 2009
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राजनीतिक अंधेरे में नक्सली हिंसा के मायने |
चुनाव के पहले चरण में बैलेट पर बुलेट दाग कर नक्सलियों ने अपनी पांच साल पहले की उस सोच को ही मूर्त रुप देना शुरु किया है, जिसे एमसीसी और पीडब्लूजी ने मिलकर पाला था। ठीक पांच साल पहले 2004 में बिहार-झारखंड में सक्रिय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और आंध्रप्रदेश से लेकर बस्तर तक में सक्रिय पीपुल्सवार ग्रुप यानी पीडब्ल्युजी एक हुये थे। उस वक्त नक्सली संगठनों के अंदर पीडब्ल्यूजी की पहचान हथियारबंद संघर्ष के लिये मजबूत ट्रेनिंग दस्ते का होना था तो एमसीसी की पहचान प्रभावित इलाकों में लोगो को सामूहिक तौर पर जोड़ कर किसी भी हमले को अंजाम देना था।
लेकिन, 2004 में जब दोनों संगठन एक हुये और सीपीआई माओवादी का गठन किया तो पहला सवाल दोनों के बीच इसी बात को लेकर उठा कि संसदीय राजनीति के चुनाव में माओवादियों की पहल का तरीका इस तरह का होना चाहिये, जिससे आर्म्स स्ट्रगल में बहुसंख्यक लोगों की भागेदारी नजर आये। सांगठनिक तौर पर संघर्ष के नक्सली तरीकों में आम लोगो की गोलबंदी को एमसीसी ने बखूबी अंजाम देना जहानाबाद जेल ब्रेक से ही शुरु किया । जेल ब्रेक को सफल प्रयोग मान कर माओवादियो ने बीते पांच साल में जो भी प्रयोग किये, उसमें आंध्र के नक्सलियों ने अगर उपरी कमान संभाली तो बिहार झारखंड के नक्सलियों ने जमीनी कमान संभाली ।
पहले चरण के मतदान के वक्त माओवादियों की यही रणनीति सामने भी आयी । लेकिन माओवादियों की सोच को सिर्फ चुनावी हिंसा से जोडकर देखना भूल होगी । हकीकत में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में नक्सली हिंसा हुई हैं, वहां की सामाजिक आर्थिक स्थिति के उपर पहली बार राजनीतिक हालात हावी हुये है। यानी पहले नक्सल प्रभावित इलाको में बहस की गुंजाइश विकास को लेकर होती रही। जिसमें रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरतों का सवाल माओवादी उठाते रहे। नक्सली संगठन पीपुल्सवार ने हमेशा इसी नजरिये को राजनीतिक आधार भी बनाया। जिस वजह से राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा नक्सली संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक समस्या के ही इर्द-गिर्द रखा गया। लेकिन बीते पांच साल में सीपीआई माओवादी ने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से इतर राजनीतिक तौर पर ही अपने प्रभावित इलाकों में हर कार्रवाई शुरु की। जिसका असर आंध्र प्रदेश के तेलागंना, महाराष्ट्र के विदर्भ और छत्तीसगढ के बस्तर से लेकर मध्यप्रदेश, उडीसा, झारखंड बिहार और पश्चिमी बंगाल के हर उस मुद्दे में नजर आया जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रहा था।
तेलांगना में माओवादियों ने शुरु से ही इस प्रचार को आगे बढाया कि वह किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं है। और तेलागंना राष्ट्रवादी पार्टी की राजनीति उनकी सोच से अलग है। इस थ्योरी ने माओवादियो की राजनीतिक जमीन झटके में चन्द्रशेखर से अलग की और वायएसआर रेड्डी को भी चेताया कि वह एनटीआर की बोली अन्ना या बडे भाई वाली ना बोले। वहीं, विदर्भ के चन्द्रपुर और गढ़चिरोली में किसानों की आत्महत्या से लेकर उघोगपतियो के मुनाफे को भी उस राजनीति से जोड़ा, जहां सवाल सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर पिछड़े आदिवासियों का आंकलन ना हो, बल्कि राजनीतिक दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विद्रूप चेहरा ही उभरे।
इसलिये कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों के जरीये उनके नेताओं के लाभ का लेखा-जोखा भी इन इलाको में रखा गया। कुछ उसी तर्ज पर छत्तीसगढ में भी माओवादियों की पहल राजनीतिक तौर पर ही हुई, जिसके एवज में सलमा जुडुम को राज्य सरकार ने खड़ा किया। लेकिन माओवादियों ने सलवा-जुडुम के सामानातंर उस राजनीतिक लाभ को इन इलाकों में उभारना शुरु किया जो प्रकृतिक संपदा को निचोड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ कौडियो के भाव जा रहा है। इसी आधार का असर उडीसा में नाल्को के अधिकारियो पर हमले में नजर आया । जबकि झारखंड और बिहार में सीधे राजनेताओ पर निशाना साध कर माओवादियों ने राजनीतिक संदेश देने की ही पहल को आगे बढाया।
असल में माओवादियों की नयी थ्योरी कहीं ज्यादा राजनीतिक चेतावनी वाली है । खासकर संसदीय राजनीति के उस तंत्र को वह सीधे चेतावनी देने की स्थिति में खुद को लाना चाहती है, जो अभी तक विकास के अंतर्विरोध के मद्देनजर ही पिछड़े इलाकों में सक्रिय माओवादियो का आईना देश को दिखाती रही है । एसइजेड यानी स्पेशल इकनॉमी जोन की अधिकतर योजनाएं उसी रेड कारिडोर में हैं, जहा माओवादी सक्रिय हैं । लेकिन पहली बार एसईजेड का विरोध सामाजिक-आर्थिक तौर पर करने की जगह माओवादियों ने उसे उसी राजनीति से जोड़ा, जिसकी आर्थिक नीतियों को लेकर आम शहरी जनता में भी सवाल उठ रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर इस मायने में पारदर्शी राजनीति का प्रतीक है । जहां माओवादियो ने वाम राजनीति के सामानातंर उस प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढाया, जिसने वामपंथियों को सत्ता के लिये विचारधारा से उतरते देखा। बंगाल में वाममोर्चा का यह बयान दुरस्त है कि ममता के पीछे माओवादियो का राजनीतिक संघर्ष काम कर रहा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि ममता की राजनीति उसी वाम राजनीति का विकल्प है। हकीकत में पहली बार माओवादी राजनीतिक तौर पर उस सोच को खारिज करना चाहते हैं जिसके जरीये यह सवाल खड़ा होता है कि सत्ता अगर बंदूक की नली से नहीं निकलती तो माओवाद की थ्योरी संसदीय राजनीति में सिवाय हिंसा के क्या मायने रखती है। यह सवाल माओवाद के सामने इसलिये भी बड़ा है क्योकि पहली बार केन्द्र सरकार ने नक्सल हिंसा को आंतकवाद सरीखा माना है। जिसे उन्हीं वामंपथियों ने सही ठहराया है, जो एक दशक पहले तक अतिवाम को भटकाव या बड़े भाई के तर्ज पर देखते थे। लेकिन सरकार की इस पहल को भी माओवादियों ने राजनीतिक तौर पर ही उठाया । जिसका असर नंदीग्राम में दिखा । लेकिन चुनाव में वोटिंग के दौरान नक्सली हिंसा लोकतंत्र के खिलाफ की भाषा मानी जायेगी, यह भी हकीकत है ।
लेकिन, देश की राजनीति का नया सवाल लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दलों के आम लोगो से गैर सरोकार वाले मुद्दों का उठना भी है और सरोकार के उन मुद्दो को लोकतंत्र का ही नाम लेकर हाशिये पर ढकेल देना भी, जो लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मसलन , अपराधियों और बाहुबलियों से कोई राजनीतिक दल नहीं बच पाया है लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनने दिया गया। बालीवुड या क्रिकेट खिलाडियों के जरीये राजनीति का गैर राजनीतिक राग हर राजनीतिक दल ने छेड़ा । रोजगार और मंहगाई के निपटने का कोई तरीका किसी दल के पास नहीं है। अगर इन सवालों ने गांव और छोटे शहरो में चुनाव के लोकतंत्र को लेकर वोटरो में सवाल खडे किये हैं तो आंतकवाद के सवाल ने शहरी मतदाताओ के बीच राजनीति को लेकर एक आक्रोष भी पैदा किया है।
यह वही परिस्थितयां हैं, जिसमें पहली बार विकल्प का सवाल खड़ा तो हो रहा है लेकिन बिना किसी रास्ते के विकल्प का सवाल सवाल ही बना रह जा रहा है । इसलिये चुनाव के वक्त नक्सली हिसा ने नक्सल प्रभावित इलाको में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। बिना स्थानीय मदद के चुनाव के वक्त हिंसा कैसे संभव है । स्थानीय वोटरों का यह एहसास खत्म हो चुका है कि वह चुनाव के जरीये लोकतंत्र को जीते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवार खलनायक माने जाते हैं। हिंसा का अंदेशा जब सरकार और सुरक्षाकर्मियों को भी था तो भी नक्सली कार्रवाई कर कैसे सुरक्षित निकल गये। राजनीतिक दलों ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी। और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक को क्यों कहना पडा कि नक्सलियों से निपटने में राज्य सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। और उनसे नक्सल संकट सुलझ भी नही सकता है। असल में माओवादियों के लेकर बड़े सवाल अब शहरी मतदाताओ तक भी पहुंच रहे हैं । क्योंकि जिन राजनीतिक परिस्थियों से वोटर यह जानते समझते हुये गुजर रहा है कि चुनावी लोकतंत्र में उसकी शिरकत सिवाय वोट डालने भर की है। उसमें चुनाव के जरीये सत्ता बनाना या बदलना लोकतंत्र का नही सौदे का हिस्सा है, जो उन्हीं नेताओं के हाथ में है, जिन्हे वह लगातार सवाल उठाता रहा है । यानी चुनावी लोकतंत्र का जो खाका पिछले साठ साल से चला आ रहा है, उसमें राजनीति के जरीये विकल्प के सपनो को संजोना खत्म हो चला है। और माओवाद की नयी राजनीतिक दस्तक चुनावी लोकंतंत्र के टूटे सपने से निकल कर फिर से सत्ता बंदूक की नली से निकलने का अंदेशा जगाना चाह रही है ।
Thursday, April 16, 2009
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घायल ताज की छांव ने बदल दी चुनाव की तस्वीर |
गेट-वे के सामने खड़े होकर ताज होटल की फोटो खिंचना नया टूरिज्म है । पुराना टूरिज्म ताज को पीठ दिखाते हुये गेट-वे आफ इंडिया की तस्वीर खिंचना था । आतंक को लेकर खौफजदा मुंबई शहर में कोई भी बाहरी सबसे पहले उसी जगह पहुंचना चाहता है, जहां साठ घंटे तक गोलिया चलती रही...धमाके होते रहे और समूचे देश के कमोवेश हर घर में यह सब टीवी पर लाइव देखा जाता रहा । गेट-वे पर खड़े होकर समुद्र देखने से ज्यादा हसीन घायल ताज लगता है। खासकर जब सूरज ढल रहा हो...इसीलिये ढलते सूरज को समुद्र की ओट में देखने से ज्यादा हसीन सूरज की लालिमा में ताज की फोटो को कैद करने की होड़ हर दिन देखी जा सकती है।
ये इलाका कोलाबा के नाम से जाना जाता है और चुनावी मौके पर दक्षिणी मुंबई की लोकसभा सीट के तौर पर इसकी पहचान है। लेकिन पहली बार सिर्फ ताज या गेट-वे का देखने का नजरिया ही नहीं बदला है, बल्कि दक्षिणी मुबंई की लोकसभा सीट का समूचा चरित्र बदल गया है । अगर मछली मार और बोट चलाने वालो की राह पकड़ कर आतंकवादी गेट-वे से मुबंई में घुसे और उन्होने शहर की तासीर बदल दी तो परिसीमन के बाद रईसों के इस क्षेत्र में मच्छी मार से लेकर झोपड़पट्टी वालों की बड़ी तादाद के शामिल होने से चुनावी चेहरा भी बदल गया है। पहले जो इलाका मुबंई साउथ-सेन्ट्रल में था, उसका बड़ा हिस्सा अब दक्षिण मुंबई के क्षेत्र में आ गया है। यानी डौक का वह पूरा इलाका इसी दक्षिणी मुंबई में सिमट गया है, जहां से मुंबई अंडरवर्ल्ड खड़ा होता है। हाजी मस्तान से लेकर दाऊद की कहानी भी यहीं से शुरु होती है।
डौक यानी बंदरगाह पर लगने वाले जहाजों से माल उतारने वाले कामगारों से हफ्ता वसूली सत्तर के दशक से आज भी जारी है । अमिताभ बच्चन ने दीवार में हाजी मस्तान के इस चरित्र का बखूबी जीया और प्रसिद्दी भी पायी। मुबंई के इस इलाके में कभी ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सांमत की तूती बोलती थी। हर कामगार दत्ता सामंत की यूनियन का सदस्य था। ट्रेड यूनियन को मुबंई के विकास के खिलाफ बाल ठाकरे उस दौर से मानते रहे, जब जार्ज फर्नाडिस ढाबा और मिल मजदूरों को यूनियन के झंडे तले लाकर संघर्ष करते रहे। दत्ता सांमत के खिलाफ भी शिवसेना रही । इसलिये दत्ता सांमत की हत्या के बाद शिवसेना ने इस उलाके पर कब्जा कर लिया।
मुंबई की यह एकमात्र सीट है, जहा शिवसेना को हराना मुश्किल है । 1991 से शिवसेना के पास ही यह सीट रही है। मोहन रावले लगातार जीतते रहे है । लेकिन अब इस इलाके की तासीर बदली है तो रईसों की बस्ती में झोपडपट्टी की पकड़ ने ताज की तरह इस इलाके को भी धायल कर दिया है। यानी जो बहस ताज पर हमले के बाद मोमबत्ती जलाते लोगो को लेकर छत्रपति स्टेशन टर्मिनस यानी सीएसटी में मारे गये लोगो से बेरुखी को लेकर उभरा था । कुछ उसी तरह की स्थिति दक्षिण मुबंई की सीट को लेकर खड़ी हो गयी है। ताज पर हमले के बाद झौपडपट्टी के लोगों पर गाज गिरी थी । पांच सितारा जीवन आतंक के निशाने पर आया था तो महिनों झौपडपट्टी के लोगो की नींद हराम हुई थी। आतंकवादियो को मदद देने के नाम पर पच्चतर लोगो को गिरप्तार कर लिया गया था । दर्जनों परिवारो को कई राते थाने में काटनी पड़ी थी । जिसकी शिकायत इन झौपडपट्टी वालो ने शिवसेना से की थी । जिस पर शिवसेना भड़की भी थी। शिवसेना ने कहा भी था कि सिर्फ घायल ताज-नरीमन की रईसी को सरकार जांच में ना देखे। सीएसटी और सडको पर मारे गये आम लोगो के दर्द को भी सरकार समझे और बेगुनाहो को थानो में बंद ना करे ।
लेकिन कांग्रेस कहती रही जांच होगी तो पुलिस जिसे चाहेगी उसे तो पकड़ेगी । जाहिर है बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं की रईस बेखौफ रहें, इस पर कांग्रेस का जोर रहा । दक्षिण मुबंई के इलाके में ही हर नेता-मंत्री की रिहाइश है और अंबानी बंधुओं से लेकर मुंबई में रहने वाला हर रईस इसी इलाके में रहता है। लेकिन अब दक्षिण मुबंई की सीट में जब दोनो तबके शामिल हो गये हैं तो दोनो मिजाज भी खुलकर आमने सामने हैं ।
लेकिन, पहली बार अंडरवर्ल्ड ने भी इसी सीट पर दस्तक दी है। सोशल इंजीनियरिंग को नये तरीके से महाराष्ट्र में आजमाने निकली मायावती ने मुंबई के इसी रंग को पकड़ा है । यानी झोपडपट्टी, कामगार और दलित का मिश्रण जिस सोशल इंजिनियरिंग की ओर ले जाता है, उस दिशा में नेता नहीं अंडरवर्ल्ड की पकड़ वाला व्यक्ति ही राजनीतिक खेल खेल कर सकता है । इसलिये पहली बार बालीवुड और अंडरवर्ल्ड से निकलते हुये राजनीति में भी इसकी सेंध पांच सितारा लोगो के बीच लग रही है । दाऊद के लिये वसूली करने वाला हाजी मोहम्मद अली शेख इसी इलाके से चुनाव लड़ रहा है। शेख को मायावती ने अपनी पार्टी का टिकट दिया है । पुलिस के रिकार्ड में करोड़पति हाजी मोहम्मद अली शेख दाउद के लिये डौक से हफ्ता वसूली का काम करता है। इस समीकरण ने ताज और गेट-वे की तरह ही अंडरवर्ल्ड के रिश्तो में भी जबरदस्त बदलाव ला दिया है। असल में इस सीट पर चिंचपोकली के विधायक और अंडरवर्ल्ड से जुड़े अरुण गावली चुनाव लडना चाहते थे। लेकिन जीतने के लिये वह मायावती की सोशल इंजिनियरिंग का हिस्सा बनना चाहते थे। मायावती ने उनसे ज्यादा सीधे अंडरवर्ल्ड से जुड़े शेख को तरजीह दी। और तलोजा जेल में बंद अरुण गावली को यह भी कहलवा दिया कि अगर शेख का साथ उन्होंने इस चुनाव में दिया तो भविष्य में गावली को साथ खड़ा कर लेंगी ।
स्थिति बदली और और कभी दाउद के खिलाफ खडा होने वाला अरुण गावली चुनाव में दाउद के गुर्गे को मदद कर रहा है। लेकिन मुंबई की इस सीट के जरिये आतंकवाद के खिलाफ राजनीतिक आतंकवाद की त्रासदी यही नही रुकती। मराठी माणुस के नाम पर उत्तर भारतीयों को पहली बार इसी इलाके में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के जिस शख्स की अगुवाई में निशाना बनाया गया, वह भी चुनाव मैदान में है । एमएनएस के करोड़पति मालागावनकर ने भी आतंकवादी हमले से ज्यादा खतरनाक उत्तर भारतीयो को करार दिया था। मच्छीमार बस्तियों में और मराठी कामगारो के बीच राज ठाकरे की हैसियत ठीक उसी तरह है, जिस तरह बाला साहेब ठाकरे के दौर में दक्षिण भारतीयों पर अंडरवर्ल्ड डॉन वरदराजन की पकड़ थी । तब ठाकरे से बचाने के लिये वरदराजन की छाया दक्षिण भारतीयों को मिली और अब राज ठाकरे ने अपने आतंक से शिवसेना के वोट बैक में सेंध लगा कर मराठी माणुस शब्द अपने साथ जोड लिया। इसलिये शिवसेना के मोहन रावले को अपनी तर्ज पर राजनीतिक आतंक को परिभाषित करने में भी परेशानी हो रही है।
लेकिन आतंकवादी हमले से घायल ताज का दर्द सिर्फ झौपडपट्टी और अट्टालिकाओ में ही नहीं खोया है। पहली बार मोमबत्ती और हाथो में हाथ थामकर हूयमन चेन बनाते हुये आतंक के खिलाफ घुटने टेके सरकार को ठेंगा दिखाने वाले भी अपनी राजनीतिक सोच के साथ चुनाव मैदान में है । बहुराष्ट्रीय बैंक एबीएन एम्बरो बैंक की कंट्री हैड मीरा सान्याल भी दक्षिण मुंबई से निर्दलीय चुनाव लड़ रही हैं। हर शाम ताज में चाय की चुस्की के साथ बिगड़ती मुबंई की आबो-हवा पर चर्चा करने के दौरान पहली बार मीरा सान्याल को 26-11 यानी ताज पर हमला अंदर से हिला गया। जिन अपनों के साथ ताज में चाय की चुस्की के साथ अरब सागर की लहरो में डूबते सूरज को देखते हुये मुंबई के हालात पर चर्चा होती थी...हमले ने जब उन अपनो को ही खत्म कर दिया तो मीरा सान्याल को लगा अब चुनाव के जरीये ही रास्ता निकलेगा। बचपन से मुंबई में रही सान्याल की पहचान चाहे दो हजार से लेकर दस हजार स्काव्यर फुट के वही बंगले हैं, जिसमें हम दो हमारे दो वाले आदर्श परिवार पांच सितारा जीवन जीते है । लेकिन सान्याल के पास हर उस आतंक के सवाल है, जो घायल ताज की ओट में छुप गये है । महज एक भारी बरसात समूचे शहर को ठहरा देती है। झौपड़पट्टी में प्राथमिक शिक्षा से पहले बाल मजदूरी पहुंच जाती है। हॉस्पिटल में चाक के टुकड़े दवाई की गोली में तब्दिल हो जाते हैं। और आतंक से लड़ती पुलिस के हाथ में वह दुनाली है, जो ट्रेगर दबाने पर भी नहीं चलती।
लेकिन सान्याल के यह सवाल दस स्कावयर की उस झौपड़पट्टी में नहीं गूंज पाते, जहां आठ से पन्द्रह लोगों का परिवार रहता है। जिन्हे अपनी सफलता के लिये पुलिस कभी भी आतंकवादी बता देती है । जिन्हे राजनीतिक सफलता के लिये कभी एमएनएस मराठी माणुस का पाठ पढाते है तो कभी अंडरवर्ल्ड अपनी वसूली का निशाना बनाकर अपने आतंक को पसारता है । और राजनेता विकास का नारा लगा कर अपने पढ़े लिखे बेटे को अपनी राजनीतिक विरासत देकर अपने कुनबे को आगे बढाता है। और इन सब के बीच गेट-वे आफ इंडिया को पीठ दिखाकर घायल ताज की तस्वीर जब हर किसी को सबसे हसीन लगती है तो साफ झलकता है आतंक की कडी दर कडी में देश की पहचान बदल चुकी है ।
Tuesday, April 14, 2009
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अवॉर्ड, बहस और छत्तीसगढ़ की वो रिपोर्ट |
1 साल में सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे गए आदिवासी
नाम, उम्र, गाँव, तिथि
सोडी कोसा, 33, गोरनम, 15 मई
उइके सन्नू, 50, कोत्रापाल, 1 जुलाई
बाजाम मंडा, 55, कोत्रापाल, 1 जुलाई
माडबी विज्ïजा, केशकुत्तुल, 11 जुलाई
सोमार, पूसलक्का, जुलाई
मनकू, मरकापाल, जुलाई
वोक्काल, बेलनार, जून
मडकाम कुमाल, हालवूर. 9 अगस्त
लेखामी बुधराम, 35, कोत्रापाल, 11 अगस्त
आटम बोडी, 30, कोत्रापाल, 11 अगस्त
तामोरामा, 35, कर्रेमरका, 16 अगस्त
लेखम लक्कू, 35, जांगला, 27 अगस्त
माडवी पाकलू, 35, गोंगला, 27 अगस्त
बोगमी सन्नु, 18, मुण्डेर, 28 अगस्त
तामो सुखराम, 20, डुमरी परालनार, 1 सितंबर
बोगामी कोटलाल, 40, दोरूम, 1 सितंबर
बोगामी सोमवारी, 36, दोरूम, 1 सितंबर
कड़ती बप्पाल, 45, पुल्लादी, 1 सितंबर
हेमला रेकाल, 50, पुल्लादी, 1 सितंबर
पूनेम बुधू, पुंबाड़, 1 सितंबर
कारम पाण्डु, 45, ईरिल, 2 सितंबर
कड़ती चिन्ना, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती सन्नु, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती कमलू, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती आपतू, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती रामाल, 45, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती कुमाल, 12, अरियाल, 2 सितंबर
उजी मसाराम, 40, अरियाल, 2 सितंबर
उजी जयराम, 35, अरियाल, 2 सितंबर
एमला सुक्कु, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती बधरू, 35, अरियाल, 2 सितंबर
माडवी मेस्सा, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कोरसा संतो, 20, पुल्गट्टा, 2 सितंबर
वेद्दो जोगा, कोंडम, 3 सितंबर
माडवी मेस्सा, 35, हिंडरी, 3 सितंबर
लेखम लखमू, 50, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
माडवी सोमू, 35 पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
आलम महदेव, 30, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
मोडियम बोड्डïल, 25, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
मोडियम सुदरू, मनकेल, 15 सितंबर
एंडीवु गुल्लू, 22, गोंगला, 20 सितंबर
पोट्टम सोनू, 20, गोंगला, 20 सि तंबर
कोरसा संतो, 20, गोंगला, 20 सितंबर
माडवी लक्ष्मण, पल्लेवाया, 22 सितंबर
कोरसा सुक्कू, मनकेल, 25 सितंबर
पूनम काण्डाल, मनकेल, 25 सितंबर
एमला कोवा, मनकेल, 3 अक्टूबर
वाडसे सोमू, परालनार, 9 अक्टूबर
मडकाम, चन्नू परालनार, 5 अक्टूबर
कड़ती कमलू, मुण्डेर, 10 अक्टूबर
पाँच अक्टूबर को बीजापुर तहसील के मुक्कावेल्ली गाँव की दो महिला वेडिंजे नग्गी और वेडिंजे मल्ली पुलिस गोली से मारी गईं। अक्टूबर के पहले हते में जेगुरगोण्डा के राजिम गाँव में पाँच महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। इनके साथ पकड़े गए एक किसान की दो दिन बाद मौत हो गई, मगर पुलिस फाइल में कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। इसी दौर में पुलिस की गोली के शिकार बच्चों का मामला भी तीन थानों में दर्ज किया गया। मगर मामला नक्सलियों से लोहा लेने के लिए तैनात पुलिसकर्मियों से जुड़ा था, तो दर्ज मामलों को दो घंटे से दो दिन के भीतर मिटाने में थानेदारों ने देरी नहीं की।
दो सितंबर 2006 को नगा पुलिस की गोली से अडिय़ल गाँव का 12 साल का कड़ती कुमाल मारा गया। तीन अक्टूबर 2006 को 14 साल के राजू की मौत लोवा गाँव में पुलिस की गोली से हुई। पाँच अक्टूबर 2006 को तो मुकावेल्ली गाँव में डेढ़ साल के बच्ïचे को पुलिस की गोली लगी। 10 अक्टूबर 2006 को पराल गाँव में 14 साल का लड़का बारसा सोनू पुलिस की गोली से मरा। ऐसी बहुतेरी घटनाएँ हैं जो थानों तक नहीं पहुँची हैं। इस सच की पारदर्शिता में पुलिस का सच इसी बीते एक साल के दौर में आधुनिकीकरण के नाम पर सामने आ सकता है। मसलन, सात सौ करोड़ रुपये गाडिय़ों और हथियारों के नाम पर आए। बारह सौ करोड़ रुपये इस इलाके में सड़क की बेहतरी के लिए आए। थानों की दीवारें मजबूत हों, इसलिए थानों और पुलिस गेस्टहाउसों की इमारतों के निर्माण के लिए सरकार ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये मंजूर किए हैं, जबकि इस पूरे इलाके में हर आदिवासी को दो जून की रोटी मिल जाए, महज इतनी व्यवस्था करने के लिए सरकार का खुद का आँकड़ा है कि सौ करोड़ में हर समस्या का निदान हो सकता है। लेकिन इसमें पुलिस प्रशासन, ग्राम पंचायत और विधायक-सांसदों के बीच पैसों की बंदरबाँट न हो, तभी यह संभव है। हाँ, बीते एक साल में जो एक हज़ार करोड़ रुपये पुलिस, सड़क, इमारत के नाम पर आए, उनमें से सौ करोड़ रुपये का खर्च भी दिखाने-बताने के लिए इस पूरे इलाके में कुछ नहीं है।
इन तमाम पहलुओं का आखिरी सच यही है कि अगर तमाम परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया जाएगा तो राज्य की 60 फीसद कृषि योग्य ज़मीन किसानों के हाथ से निकल जाएगी। यानी स्पेशल इकोनामिक जोन (एसईजेड) के बगैर ही 50 हज़ार एकड़ भूमि पर बहुराष्ïट्रीय कंपनियों का कब्ज़ा हो जाएगा। करीब दस लाख आदिवासी किसान अपनी ज़मीन गँवाकर उद्योगों पर निर्भर हो जाएँगे।
सवाल है कि इसी दौर में इन्हीं आदिवासी बहुल इलाके को लेकर केन्द्र सरकार की भी तीन बैठकें हुईं। चूँकि यह इलाका नक्सल प्रभावित है, ऐसे में केन्द्र की बैठक में आंतरिक सुरक्षा के मद्देनज़र ऐसी बैठकों को अंजाम दिया गया। नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्री-गृह सचिव और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गृह मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक के साथ बैठक हुई। तीनों स्तर की बैठकों में इन इलाकों में तैनात जवानों को ज़्यादा आधुनिक हथियार और यंत्र मुहैया कराने पर विचार हुआ।
Wednesday, April 8, 2009
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कौन ज्यादा अस्वस्थ है - जॉर्ज फर्नांडिस या संसदीय राजनीति? |
नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान का साथ छोड़कर आये गुलाम रसूल बलियावी का हाथ आपने हाथ में लेकर जैसे ही उन्हें जनतादल यूनाईटेड में शामिल करने का ऐलान किया वैसे ही दीवार पर टंगे तीन बोर्ड में से एक नीचे आ गिरा। गिरे बोर्ड में तीर के निशान के साथ जनतादल यूनाइटेड लिखा था। बाकी दो बोर्ड दीवार पर ही टंगे थे, जिसमें बांयी तरफ के बोर्ड में शरद यादव की तस्वीर थी तो दांयी तरफ वाले में नीतीश कुमार की तस्वीर थी। जैसे ही एक कार्यकर्ता ने गिरे हुये बोर्ड को उठाकर शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच दुबारा टांगा, वैसे ही कैमरापर्सन के हुजूम की हरकत से वह बोर्ड एकबार फिर गिर गया। इस बार उस बोर्ड को टांगने की जल्दबाजी किसी कार्यकर्ता ने नहीं दिखायी। पता चला इस बोर्ड को 2 अप्रैल की सुबह ही टांगा गया था। इससे पहले वर्षों से दीवार पर शरद यादव और नीतीश कुमार की तस्वीर के बीच जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीर लगी हुई थी। और तीन दिन पहले ही शरद यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान पत्रकारों ने जब शरद यादव से पूछा था कि जॉर्ज की तस्वीर लगी रहेगी या हट जायेगी तो शरद यादव खामोश रह गये थे।
लेकिन 30 मार्च को शरद यादव के बाद 2 अप्रैल को नीतीश की मौजूदगी में जॉर्ज की जगह लगाया गया यह बोर्ड तीसरी बार तब गिरा, जब प्रेस कॉन्फ्रेन्स के बाद नीतीश कुमार जदयू मुख्यालय छोड़ कर निकल रहे थे । मुख्यालय में यह तीनों तस्वीरें नीतीश के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के दौरान लगायी गयी थीं। उस दिन गुलाल और फूलों से नीतीश के साथ साथ जॉर्ज और शरद यादव भी सराबोर थे। उस वक्त तीनों नेताओ को देखकर ना तो कोई सोच सकता था कि कोई अलग कर दिया जायेगा या तीनों तस्वीरों को देख कर कभी किसी ने सोचा नहीं था की जॉर्ज की तस्वीर ही दीवार से गायब हो जायेगी। और इसके पीछे वही तस्वीर होगी, जिन्हें राजनीति के फ्रेम में मढ़ने का काम जॉर्ज फर्नांडिस ने किया।
जार्ज फर्नांडिस कितने भी अस्वस्थ क्यों ना हों, लेकिन जो राजनीति देश में चल रही है उससे ज्यादा स्वस्थ्य जॉर्ज हैं, यह कोई भी ताल ठोंक कर कह सकता है। शरद यादव को जबलपुर के कॉलेज से राजनीति की मुख्यधारा में लाने से लेकर लालू यादव की राजनीति को काटने के लिये नीतीश कुमार में पैनापन लाने के पीछे जॉर्ज ही हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस की जगह नीतीश कुमार को वह जय नारायण निषाद मंजूर हैं, जो लालू यादव का साथ छोड़ टिकट के लिये नीतीश के साथ आ खड़े हुये हैं।
सवाल जॉर्ज की सिर्फ एक सीट का नहीं है, सवाल उस राजनीतिक सोच का है जिसमें खुद का कद बढ़ाने के लिये हर बड़ी लकीर को नेस्तानाबूद करना शुरु हुआ है। और यह खेल संयोग से उन नेताओं में शुरु हुआ है, जो इमरजेन्सी के खिलाफ जेपी आंदोलन से निकले हैं। हांलाकि सत्ता की राजनीतिक लकीर में जॉर्ज ज्यादा बदनाम हो गये क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात दंगो के दौरान जॉर्ज बीजेपी को अपनी राजनीति विश्वनियता के ढाल से बचाने की कोशिश करते रहे। लेकिन गुजरात दंगो के दौरान नीतीश और शरद यादव में भी हिम्मत नहीं थी कि वह जॉर्ज से झगडा कर एनडीए गठबंधन से अलग होने के लिये कहते। दोनो ही सत्ता में मंत्रीपद की मलाई खाते रहे।
असल में जार्ज अगर ढाल बने तो उसके पीछे उनकी वह राजनीतिक यात्रा भी है, जो बेंगलूर के कैथोलिक सेमीनरी को छोड़ कर मुंबई के फुटपाथ से राजनीति का आगाज करती है। मजदूरों के हक के लिये होटल-ढाबा के मालिकों से लेकर मिल मालिकों के खिलाफ आवाज उठाकर मुंबई में हड़ताल-बंद और अपने आंदोलन से शहर को ठहरा देने की हिम्मत जॉर्ज ने ही इस शहर को दी। 1949 में मुंबई पहुंचे जॉर्ज ने दस साल में ही मजदूरों की गोलबंदी कर अगर 1959 में अपनी ताकत का एहसास हडताल और बंद के जरीये महाराष्ट्र की राजनीति को कराया तो 1967 में कांग्रेस के कद्दावर एस के पाटिल को चुनाव में हराकर संसदीय राजनीति में नेहरु काल के बाद पहली लकीर खिंची, जहां आंदोलन राजनीति की जान होती है, इसे भी देश समझे। जॉर्ज उस दौर के युवाओं के हीरो थे । क्योंकि वह रेल यूनियन के जरीये दुनिया की सबसे बड़ी हडताल करते हैं। सरकार उनसे डरकर उनपर सरकारी प्रतिष्ठानों को डायनामाइट से उड़ाने का आरोप लगाती है। इसीलिये इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब हाथों में हथकडी लगाये जॉर्ज की तस्वीर पोस्टर के रुप में आती है, तो मुज्जफरपुर के लोगों के घरों के पूजाघर में यह पोस्टर दीवार पर चस्पा होती है। जिस पर छपा था, यह हथकड़ी हाथों में नही लोकतंत्र पर है। और नीचे छपा था- जेल का ताला टूटेगा जॉर्ज फर्नाडिस छूटेगा।
जाहिर है बाईस साल पहले के चुनाव और अब के चुनाव में एक नयी पीढ़ी आ चुकी है, जिसे न तो जेपी आंदोलन से मतलब है, न इमरजेन्सी उसने देखी है। और जॉर्ज सरीखा व्यक्ति उसके लिये हीरो से ज्यादा उस गंदी राजनीति का प्रतीक है, जिस राजनीति को जनता से नही सत्ता से सरोकार होते है। इस पीढी ने बिहार में लालू का शासन देखा है और नीतीश को अब देख रहा है। नीतीश उसके लिये नये हीरो हो सकते हैं क्योकि लालू तंत्र ने बिहार को ही पटरी से उतार दिया था। लेकिन लालू के खिलाफ नीतीश को हिम्मत जॉर्ज फर्नाडिस से ही मिली चाहे वह समता पार्टी से हो या जनतादल यूनाईटेड से। लेकिन केन्द्र में एनडीए की सत्ता जाने के बाद बिहार में लालू सत्ता के आक्रोष को भुनाने के लिये जो रणनीति नीतीश ने बनायी, उसमें अपने कद को बढाने के लिये जॉर्ज को ही दरकिनार करने की पहली ताकत उन्होने 12 अप्रैल 2006 में दिखा दी। जब पार्टी अध्यक्ष चुनाव में शरद यादव और जॉर्ज आमने सामने खड़े थे । बिलकुल गुरु और चेले की भिंडत । मगर बिसात नीतिश की थी । जार्ज को 25 वोट मिले और शरद यादव को 413 । लेकिन चुनाव के तरीके ने यह संकेत तो दे दिये की नीतीश की बिसात पर जॉर्ज का कोई पांसा नहीं चलेगा और जॉर्ज को खारिज करने के लिये नीतीश अपने हर पांसे को जार्ज की राजनीतिक लकीर मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा दिखाने के लिये ही करेंगे ।
लेकिन, इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तिगडी की काट वही राजनीति होगी, जिस राजनीति के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की बात तीनों ने ही अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में की थी । इसीलिये जॉर्ज को अस्वस्थ बताकर मुज्जफरपुर से टिकट काटने के बाद नीतीश ठहाका लगा रहे हैं कि बिना उनके समर्थन के जॉर्ज चुनाव मैदान में कूदकर अपनी भद ही करायेंगे । वहीं, जॉर्ज अपना राजनीतिक निर्वाण लोकसभा चुनाव लड़कर ही चाहते हैं। इसीलिये जॉर्ज ने पर्चा भरने के बाद अपने मतदाताओं से जिताने की तीन पन्नो की जो अपील की है, उसका सार यही है कि जिस तरह गौतम बुद्द के दो शिष्यों में एक देवदत्त था, जो बुद्ध को मुश्किलों में ही डालता रहा, वहीं उनके दोनों शिष्य ही देवदत्त निकले । आनंद जैसा कोई शिष्य नहीं है इसलिये इंतजार मुज्जफरपुर की जनता का करना होगा, जो बताये जॉर्ज अस्वस्थ है या राजनीति।
Friday, April 3, 2009
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आडवाणी के बाद शुरु होगी संघ की असल पारी |
22 मार्च को करीब रात साढ़े दस बजे वरुण गांधी के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आया। 11 बजने से पहले ही संघ के नये मुखिया मोहनराव मधुकर भगवत का नागपुर से ये निर्देश दिल्ली पहुंच गया कि वरुण का साथ संघ परिवार देगा और वह इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे । राजनीतिक मुद्दे को लेकर इतनी तत्परता इससे पहले कभी किसी सरसंघचालक ने दिखायी तो वह गुरु गोलवरकर थे। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद मुस्लिमों को पुचकारने की सोच के खिलाफ आक्रोष को एक नयी जगह दी थी। हालांकि, उसके बाद संघ पर प्रतिबंध भी लगा।
लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।
संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"
असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"
वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।
संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।
लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।
राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।
कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।
पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।
ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।
Wednesday, April 1, 2009
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क्या वरुण गांधी एक नयी राजनीति के संकेत हैं? |
राहुल गांधी से दस साल कम उम्र के वरुण गांधी हैं। लेकिन दोनों ने कमोवेश राजनीति में एक ही वक्त कदम रखा। राहुल चुनाव लड़कर संसद पहुंच गये लेकिन वरुण गांधी उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे। राहुल को सोनिया ने अमेठी लोकसभा विरासत में दी तो वरुण को पीलीभीत सीट मेनका गांधी ने। राहुल जिस दौर से राजनीतिक उड़ान की शुरुआत करते हैं और दलितों-पिछडों के घर रात बिताने से लेकर कलावती में विकास का अनूठा सच टटोलना चाहते हैं, उस दौर में वरुण कागज पर अपने दर्द को कविता की शक्ल देकर प्रिंस आफ वाड्स यानी जख्मों का राजकुमार रचते हैं।
वह लिखते हैं- मैं मानता हूं /मै अपने पाप के साथ थोड़ी सी मुहब्बत में हूं/ क्योंकि मैं भटका हुआ हूं / इसलिये मुझे बताया गया है / सोचो मत सिर्फ देखो / चलना ही रास्ता दिखायेगा / इसलिये वहां कोई जवाबदेही नहीं है / एक अजनबी सिर्फ पीड़ित है / जिससे तुम कभी मिले नहीं..... तो क्या पीलीभीत में चली उन्मादी हवा ने पहली बार वरुण और राहुल को आमने सामने ला खड़ा किया है। बेटे की रक्षा के इरादे से पीलीभीत पहुंच कर मेनका गांधी कभी गांधी परिवार की दुहायी नहीं देती। वह खुद को सिख परिवार का बता कर हिन्दुओं की रक्षा का सवाल खड़ा करती हैं । ताल ठोंक कर वरुण के बयान को हिन्दुओं की रक्षा से जोड़कर छुपे संकेत भी देती हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चाहे बरगद गिरा हो लेकिन मेनका हिन्दुत्व की जमीन पर इंदिरा की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ भड़के दंगो पर मलहम लगाने को भी तैयार हैं।
तो क्या राहुल-वरुण से पहले सोनिया-मेनका आमने सामने खड़ी हैं? सोनिया गांधी जब कांग्रेस में ही नहीं बल्कि सहयोगियों को खारिज कर राहुल के लिये एक नयी राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में है तो क्या मेनका गांधी वरुण के जरीये देश को यह एहसास कराना चाहती है कि इंदिरा-नेहरु की असल विरासत उनके परिवार से जुड़ी है। पीलीभीत के राजनीतिक समीकरण साफ बताते है कि वरुण वहां ना भी जाये तो भी उन्हें चुनाव में जीत हासिल करने में कोई बड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। तो क्या वरुण की पीलीभीत स्क्रिप्ट महज साप्रदायिकता को उभारने के लिये नहीं लिखी गयी बल्कि उसके पिछे वरुण के उस तेवर-तल्खी को भी उभारना है जो कभी संजय गांधी में देखी गयी थी।
इंदिरा गांधी पर जितना हक राहुल का है उतना ही वरुण गांधी का है । राहुल में अगर राजीव गांधी का बिंब दिखाने में सोनिया जुटी है तो वरुण में संजय गांधी का बिंब दिखाने से मेनका चूकना नहीं चाहती हैं। और कांग्रेस के भीतर कद्द्दावर या ठसक वाले नेता को लेकर जो कसमसाहट लगातार महसूस की जा रही है तो क्या उसमें संजय गांधी के हारमोन्स की खोज हो रही है, जो युवा तुर्क पीढ़ी को दिशा दे सके । मेनका ने पहला राजनीतिक पाठ चन्द्रशेखर से पढ़ा था । माना जाता है इंदिरा गांधी के घर से बहु मेनका की विदाई को राजनीतिक तौर पर साधने की बात भी मेनका अक्सर चन्द्रशेखर से ही करती थी । सोनिया ने जब राजनीति का कहकरा नही पढ़ा था, उस वक्त मेनका राजनीतिक व्याकरण समझने लगी थीं। लेकिन मेनका जिस राजनीतिक जमीन पर खड़ी थीं, उसमें व्याकरण की नहीं फ्रंट रनर बनने के लिये अगुवायी करने की भाषा समझनी थी। यह भाषा इसलिये जरुरी थी क्योकि सोनिया के सामानातंर बगैर इसके, मेनका हो ही नहीं सकती थी।
लेकिन,यह दांव मेनका के हाथ कभी नहीं लगा। राहुल के खड़े होने के बाद भी सिमटती कांग्रेस में सबसे बड़ा सवाल सभी के सामने यही उभरा कि लोकप्रियता वोट बैक में तब्दील नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी परिवार के चिराग हैं, इसे देखने तो लोग जुट जाते है लेकिन वोट नहीं डालते। यह तथ्य राहुल से भी जुड़ा और सोनिया गांधी के साथ भी। यह कमजोरी मेनका के साथ भी रही । लेकिन वरुण की उन्मादी स्क्रिप्ट ने गांधी परिवार के भीतर पहली बार ठीक इसके उलट स्थिति बनायी है। यानी मुद्दे को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने के लिये ना सिर्फ समूची बीजेपी जुट गयी बल्कि जो हालात मुलायम-लालू -पासवान के हाथ मिलाने से मंडल के दौर की जातीय गोलबंदी होने के कयास लगाये जा रहे थे, उसे भी वरुण की राजनीतिक तिकडम के आगे नये सिरे से सोचना पड़ रहा है।
इतना ही नहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बिसात भी इसमें उलझी । धार्मिक उन्माद दलित और ब्राहमण को नये सीरे से साधेगा। मायावती इमसे इस तरह उलझी भी कि पीलीभीत की कानून व्यवस्था भी मुद्दा बना और रासुका लगाना भी। यानी दोनों स्थिति में बीजेपी के खेल में वरुण के पतीले को लगातार सुलगाने की सोच मायावती के दामन से जुड़ गयी । असल में वरुण गांधी ने सिर्फ वोट जुगाड़ने या बिगाड़ने का खेल नहीं खेला बल्कि इंदिरा गांधी के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी शख्स ने राजनीतिक जमीन को हर पार्टी के लिये उर्वर बनाकर खुद को महज प्यादे के तौर पर रखा है। असल में सोनिया गांधी इस हकीकत को समझ रही हैं कि काग्रेस के भीतर भी साफ्ट हिन्दुत्व का रोग है, जो आज से नहीं नेहरु युग से चला आ रहा है। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के पीछे सरदार पटेल की ही सोच थी। अयोध्या को लेकर नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के खेल ने ही कभी जनसंघ तो अब बीजेपी को मुद्दा थमाया। लेकिन इसके पिछे कहीं ना कही मुस्लिम समुदाय को साथ खड़ा करने की चाहत कांग्रेस के भीतर हमेशा रही।
वरुण गांधी का हिन्दु रक्षा के उन्मादी भाषण सरीखा ही भाषण 15 मार्च को कांग्रेस के इमरान किदवई ने दिया। चूंकि वह अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं तो उन्होने साफ कहा कि, अगर मै मुफ्ती होता तो फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना क्रुफ है। यानी इस्लाम विरोधी है। असल में वरुण ने गांधी परिवार को लेकर वही दुविधा खड़ी कर दी है, जिसे आजादी से पहले तक कांग्रेस भोग रही थी। कांग्रेस जन्म के साथ ही मुस्लिमो को कभी साथ नहीं ला पायी। मुस्लिम समाज कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होता नहीं था। उस दौर के तीन बड़े मुस्लिम नेता , सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमिर अली और लतीफ खान कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था मानते थे। 1937 के चुनाव में 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिये कुरान के अधिकारी व्ख्याकार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को अध्यक्ष बनाया लेकिन सफलता तब भी नहीं मिली। 1945 के नेशनल असेंबली के चुनाव हों या 1946 के प्रांतीय असेम्बली के चुनाव, कांग्रेस का मुस्लिम सीटों पर जहां सूपडा साफ था, वहीं हिन्दु बहुल सीटो पर नब्बे फिसदी से ज्यादा सफलता मिली थी।
तो क्या नया सवाल बीजेपी को लेकर कांग्रेस के भीतर कसमसा रहा है कि हिन्दु वोट बैक अगर बीजेपी के साथ है और मुस्लिम समुदाय अलग अलग क्षेत्रिय दलों में अपनी रहनुमायी देख रहा है तो कांग्रेस की जमीन बढ़ेगी कैसे। कहीं वरुण गांधी के जरीये तो भविष्य में काग्रेस अपना उत्थान नहीं देखने लगेगी। सोनिया काग्रेस के अतीत की हकीकत और भविष्य के दांव के बीच वर्तमान का संकट नहीं समझ पा रही हो, ऐसा हो नहीं सकता । राहुल गांधी की राजनीति जिस आम आदमी के हाथ का सवाल खड़ा करती है, उसमें विकास की बात अव्वल है। लेकिन आम आदमी की न्यूनतम की लड़ाई जितनी पैनी है, उसमें राहुल का नारा कांग्रेस को लोकप्रिय बना सकता है लेकिन वोट नहीं दिला सकता। जबकि आईडेंटिटी यानी पहचान की राजनीति ही कांग्रेस के साथ हमेशा जुड़ी रही। जातीय गोलबंदी से लेकर आदिवासी ,पिछडों और मुस्लिम को लेकर आईडेंटिटी की कांग्रेसी राजनीति ही चली और इसी के सामानातंर सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर भी खिंची जाती रही। राहुल इस राजनीति की थाह को पकड नहीं पाये क्योंकि सोनिया गांधी ने पार्टी चलाने का समूचा खांचा इंदिरा गांधी सरीखा कर तो लिया लेकिन इंदिरा सरीखे सलाहकार नहीं रखे जो समाज की नब्ज पर उंगली रख कांग्रेस के भीतर गांधी परिवार की पैठ समाज तक ले जाते।
संयोग से सोनिया के सलाहकार भी अपने घेरे में सोनिया से कही ज्यादा अलोकतांत्रिक हैं। इसलिये वरुण गांधी को साधने का तरीका भी सतही है । जिस मुद्दे को लेकर वरुण को कांग्रेस साधना चाह रही है , उसके पीछे गांधी की समझ और सेक्यूलर भाव से मुस्लिमों को साथ खड़ा करने की चाहत है । लेकिन उम्मीद महज इतनी है कि हिन्दु-मुस्लिम की लकीर सीधे वोट बैक बांट दे। यानी जिस राजनीति ने कांग्रेस और बीजेपी सरीखे राष्ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय दलो के सामने झुकने के लिये मजबूर कर दिया अगर वरुण गांधी के जरीये उस राजनीतिक वोट बैक में सेंध लगायी जा सकती है
लेकिन गांधी परिवार की लड़ाई यही से शुरु होती है क्योकि वरुण से उन्मादी बोली से कही तीखे शब्द विनय कटियार कहते रहते हैं।
कल तक कल्याण सिंह भी कहते थे। नरेन्द्र मोदी ने भी उन्मादी शब्दों से परहेज अभी भी नहीं किया है। लेकिन वरुण का मतलब इन सबसे अलग है । चुनावी पटल पर मुद्दों के ही आसरे गांधी परिवार अगर दोनो तरफ खड़ा है तो बीजेपी की यह सबसे बडी हार है, उसे बीजेपी के रणनीतिकार समझ रहे है। क्योंकि मुद्दा हिन्दुत्व या सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि गांधी परिवार है। और सोनिया के रणनीतिकारों ने अगर वरुण के जरीये ही कांग्रेस को बढ़ाने की व्यूहरचना की तो ना सिर्फ झटके में मंडल-कमंडल की राजनीति पर पनपी क्षेत्रीय राजनीति का बंटाधार होगा। बल्कि गांधी परिवार भी आधुनिक चेहरे के साथ उभरेगा, जिसमें मुखौटा नहीं होगा।