कामरेडअब आप आगे क्या करेंगे ? मैं जंगल लौट जाऊंगा । लेकिन आपकी उम्र और सेहत जंगल की स्थितियों को सह पायेगी ! सवाल सहने या जीने का नहीं है । मै जंगल में मरना चाहता हूं । शहर में मेरा दम यूं ही घुट जाएगा। यहां मैं ज्यादा अकेला हूं । वहां जो भी काम बनेगा करुंगा...कम से कम जिस सपने को पाल कर यहां तक पहुंचे हैं, वह तो नहीं मरा है । शहर में तो जीने के लिये अब कुछ भी नहीं बचा । न मां...न सपने ।
ये वाक्या ठीक एक साल पहले का है । कामरेड नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। दो साल पहले कामरेड की 82 साल की मां की हालत बिगडती गयी तो भूमिगत गतिविधियो को छोड़कर या कहें लगातार आंध्र प्रदेश से बंगाल-बिहार में अपने नक्सली संगठन को मजबूती देने में लगे कामरेड को मां की सेवा में शहर लौटना पड़ा । क्योंकि बाकी तीनों भाई या छह बहनें देश की मुख्यधारा से जुड़ कर उस व्यवस्था में जीने की जद्दोजहद कर रहे थे, जहां नौकरी से लेकर उनके अपने परिवार इस सच को नही मान पा रहे थे कि बुढी हो चली मां की सेवा के लिये भी वक्त निकाला जाना चाहिए ।
आखिरकार पार्टी ने निर्णय लिया कि कामरेड को मां की सेवा के लिये घर लौटना चाहिये । काफी चर्चा और तर्क इस बात को लेकर पार्टी में हुये कि किसी भी कामरेड के लिये अगर मां ही सबकुछ हो जायेगी तो उस माओवादी आंदोलन का क्या होगा, जिसने हर मां के लिये एक खूबसूरत दुनिया का सपना उन तमाम कामरेड में पैदा किया है, जो अपनी मां को छोड़कर सपने को सच बनाने में जान गंवा रहे हैं । कामरेड के घर लौटने के वक्त तर्क यह भी आया कि अगर सपना बेटे ने पाला है तो इसमें मां का क्या कसूर । जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में अगर मां को बेटे की जरुरत है, तो कामरेड को लौटना चाहिये। पार्टी में बहस इस हद तक भी गयी कि 82 साल की उम्र में कई बीमारियो से लैस मां ज्यादा दिन नही टिकेगी । ऐसे में जल्द ही कामरेड लौट कर संगठन का कामकाज संभाल भी सकता है।
लेकिन कामरेड की मां सेवा ने असर दिखाया और जिन बेटे बेटियो के हंसते-खेलते परिवार ने मान लिया था कि मां एक महीने से ज्यादा जिन्दा रह ही नहीं सकती, वह मां कामरेड के घर लौटने पर सवा साल तक न सिर्फ जीवित रही, बल्कि 27 साल बाद घर लौटे कामरेड बेटे के साथ हर क्षण गुजारने के दौरान कामरेड के सपने को ही अपना सच भी मानने लगी।
कामरेड के मुताबिक, मां अगर इलाज जारी रखती तो एक-दो साल तो और जिन्दा रह सकती थी । लेकिन दिसंबर 2007 को एक दिन अचानक मां ने निर्णय लिया कि वह अब डॉक्टर से अपना इलाज नहीं करवायेंगी । और चार महीने बाद अप्रैल 2008 को मां की मौत हो गयी । इलाज न करवाने वाले चार महीने में मां ने कामरेड से उसके सपनो को लेकर हर उस तरह के सवाल किये, जो बचपन में कामरेड ने अपनी मां से किये होगे। अगर सपने न हों तो जीने का मतलब बेमानी है। सपने तो बहलाने और फुसलाने के लिये होते हैं लेकिन यह जिन्दगी बन जायें, यह कामरेड ने कैसे सीख लिया । मां ने बचपन में तो ऐसा कोई किस्सा नहीं सुनाया, जिसे बेटा गांठ बनाकर जीना शुरु कर दे।
वो कौन से लोग हैं, जिनके बीच 27 साल कामरेड बेटे ने गुजार दिये । क्यों कभी मां या भाई बहनों को देखने.... उनसे बातचीत कर प्यार करने की इच्छा कामरेड बेटे को नहीं हुई। घर के सबसे बड़े बेटे ने आखिर एक दिन सरकारी नौकरी छोड़ कर क्यों कामरेड का नाम अपना लिया। मां इतनी बुरी तो नहीं थी। इस तरह के ढेरों सवाल उन आखिरी चार महिनों में मां लगातार कामरेड से पूछती रहती और दिन-रात हर सवाल का जबाब भी 60 साल का कामरेड 82 साल की मां को देता रहता । अप्रैल 2007 से लेकर अप्रैल 2008 तक जब मां की मौत हुई...इस एक साल में कामरेड ने मां को अपने संजोये सपनों का हर ताना-बाना उघाड़ कर बताया, जो पिछले 27 सालो में कामरेड ने गांव,जंगल, आदिवासी, गरीब- पिछड़ों के बीच काम करते हुये किया। सिर्फ दो जून की रोटी की सहूलियत और परिवार बनाने का सुकुन कामरेड को क्यों नहीं बांध पाया..यह सारे सवाल मां के थे, जिसका महज जबाब देना भर जरुरी नहीं था, बल्कि कामरेड के लिये जीवन का यह सबसे बडा संघर्ष था कि 27 साल पहले जब उसकी उम्र 33 की थी और 29 साल की उम्र में ही जब उसकी मेहनत से उसे सरकारी नौकरी मिल गयी तो महज चार साल बाद ही वह घर-मां सबकुछ छोड़कर क्यो जंगल की दिशा में भाग गया।
कामरेड को समझाना था कि वह पलायनवादी नहीं है। वह जिम्मेदारी छोड़कर भागा नहीं था, बल्कि बड़ी जिम्मेदारी का एहसास उसके भीतर समा गया था । जिसे शायद मां ने बेटे के दिल में बचपन से संजोया होगा। घर का परिवेश और शिक्षा-दिक्षा के असर ने भी उस लौ का काम किया होगा, जिसे उसने 27 साल से सपने की तरह संजोया है। मां के सवालों का जबाब कामरेड ने उस हिम्मत से भी जोड़ा, जिसे मां ने दिया । कामरेड कभी रिटायर नहीं होता । लेकिन 27 साल पहले की सरकारी नौकरी करते-करते तो मै भी रिटायर हो जाता और उम्र का गणित सरकारी तौर पर भी मुझे रिटायर कर देता । शायद कामरेड के इसी तर्क ने मां के भीतर भी संघर्ष की लौ जलायी होगी। इसीलिये कामरेड बेटे को घर की चारदीवारी में न बांधने की सोच ने ही डाक्टरी इलाज को पूरी तरह बंद करा दिया।
आखिरी चार महिनों में वहीं मां कामरेड बेटे को सपनो को पूरा करने के लिये उकसती रही, जिसे 27 साल पहले मां ने ढकोसला माना था । बेटे के घर छोडने के निर्णय को जिम्मेदारी से भागना करार दिया था । कोई दूसरा बेटा कामरेड के चक्कर में न आ जाये, इसके लिये मां ने बडे बेटे को सबसे बडा नालायक करार दिया था। लेकिन कामरेड के सपने अब अधूरे ना रह जायें. इसके लिये मां खुद मरने की राह पर चल पड़ी । बिना इलाज अप्रैल 2008 में मां की मौत हो गयी । कामरेड अब क्या करेगा, यह सवाल पूछना जायज नहीं था लेकिन उस दिन मां के अंतिम संसकार के बाद कामरेड के शहरी साथियो ने पूछा था । और मां के मरने के ठीक एक साल बाद संयोग से कामरेड से फिर मुलाकात हुई तो मां की आखिरी यादो पर चर्चा के बीच ही कामरेड ने मां को भी राजनीतिक दांव पर लगाने का जिक्र कर दिया । मेरी मां को छोडो, तुम तो पत्रकार हो वरुण की मां का उत्तर प्रदेश में क्या असर है । और राहुल की मां का देश पर क्या असर है । मैने कहा वरुण की मां मेनका जरुर राजनीतिक दांव पर है लेकिन राहुल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह मां के आसुओं का सवाल उठा सके । राजनीतिक तौर पर अभी राहुल मां का बेटा ही है । लेकिन कामरेड आपकी चर्चा में अक्सर उस बंदूक का जिक्र नही होता, जिसपर सरकार और समाज दोनो सवालिया निशान लगाते हैं । क्या आपकी मां ने कभी यह सवाल नहीं उठाया या आपने कभी इसका जिक्र नहीं किया। खुलकर बताया। लेकिन उस तरह नहीं जैसे सरकार बताती है। देश के सामने माओवाद प्रभावित इलाको को भारत के नकशे पर रख कर देख लें । हमारे हथियारबंद कामरेडों की संख्या को देश के सुरक्षाकर्मियों की संख्या के सामने लिख कर देख लें । सभी बेहद छोटे हैं । रंग भी और संख्या भी । लेकिन सवाल देश के भीतर के कई देशों का है । हर राजनीतिक दल आज चुनाव में अपनी जीत का रंग अपने प्रदेश में रंगता है । अगर उन आंखो से देश का नक्शा देखेंगे तो माओवाद का रंग कांग्रेस,बीजेपी,वामपंथी या किसी भी राजनीतिक दल के रंग से ज्यादा बडा हमारे आंदोलन का इलाका नजर आयेगा । ठीक इसी तरह एक देश का सवाल सुरक्षाकर्मियो को लेकर भी कहां है । ज्यादा सुरक्षाकर्मी तो नेता और रईसों को ही सुरक्षा देने में लगे रहते है । फिर हर राज्य की अलग अलग सरकार अपनी सहूलियत के लिये सुरक्षाकर्मियो का प्रयोग करती हैं । अगर आपको सुरक्षाकर्मियों का कामकाज देखना है, तो तेलगांना से लेकर बंगाल-बिहार तक के हमारे दंडकाराण्य या सरकारी रेड कारीडोर में देख सकते हैं। यहा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियो की परियोजनाओ की सुरक्षा में ही समूची फौज सरकार लगाये हुये है। झारखंड,छत्तीसगढ,उडीसा में तो अर्से से यह सब चल रहा है । नया नजारा बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी अपना लिया है । नंदीग्राम के बाद लालगढ के इलाके में जा कर देखे, वहा सुरक्षाकर्मियो की तादाद आपको कश्मीर की याद दिला देगी। इन जगहो पर दो जून की रोटी मिलती नही है, लेकिन पचास हजार का बारुद से भरा लांचर सुरक्षाकर्मियो के पास पड़ा रहता है । आप झारखंड में जाइये । वहां के हालात को देखिये ।
इन हालातों पर मैंने मां को मरने से पहले सबकुछ बताया। आप कह सकते है कि इन हालात पर देश का कोई भी शख्स भरोसा कर ले तो उसे अपने होने पर शर्म आने लगेगी। हो सकता है मेरी मां को भी शर्म आने लगी है क्योकि झारखंड में अब भी 25 पैसे की मजदूरी भी होती है । और 25 पैसे में पेट भी भरता है । आप वहा 25 पैसे के अर्थशास्त्र में साफ पानी,स्कूल,डाक्टर की कल्पना भी कर सकते है । मां के इलाज में डॉक्टर को हर हफ्ते दवाई समेत पांच सौ रुपये देने पडते थे । उसके दूसरो बेटो के पास पैसा था, वक्त नहीं था इसलिये मां का इलाज तो करा ही सकते थे। लेकिन सवाल है, जिस दिन मां ने मेरे संघर्ष और सपने को मान्यता दे कर डाक्टरी इलाज बंद करने के निर्णय लिया उस दिन मुझे उनका चेहरा चमकता हुआ लगा । वह संतुष्ट थी कि मेरे सपनो का कोई सौदागर नहीं है बल्कि संघर्ष ही सपना है ।
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Wednesday, May 6, 2009
कामरेड की मां
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:10 AM
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कामरेड,
राजनीति
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13 comments:
शुक्रिया, शानदार लेखन के लिए। दिल को छू लिया।
आभार
यशवंत
Bahut khoobsurat andaz men aapne ek Comrade ke vicharon ko abhivyakti dee hai. Kash yeh duniya is sachchai ko samajh sake.Vaise aapka kya Irada hai Ex. Comrade?
awesome , what a breathless stuff.
thought provoking , we need such kindaa catalyst 4 life . aaaah...
shukriyaa saathi
आपने सही कहा है..
जहाँ का दैनिक अर्थशास्त्र २५ पैसे से चलता हो वहां पचास हज़ार की स्टेनगन बेमानी है... २५ पैसे का क्या खोना क्या पाना. कामरेड तो पैदा होंगे ही. देश भर के लगभग एक चौथाई गाँव आज नक्सलवाद से प्राभावित हैं. यह एक बहुत बड़ी गिनती है. जब तक सरकारें यह जानने में रूचि नहीं लेंगी कि कामरेड क्यों पैदा होते हैं...यह लडाई दूर तक जाती दीखती है.
मैं नहीं समझता कि कथित माओवाद का मार्ग इस देश में परिवर्तन का सही मार्ग है। लेकिन माओवाद पनपा इस देश में मौजूद अंतर्विरोधों से ही है। वह उस आतताई शोषण का उत्तर है जिस की ओर किसी की निगाहें नहीं हैं।
पुन्य प्रसून जी
आपने मर्मस्पर्शी विवरण दिया है - कामरेड और बूढी माँ के संबंधों का. धन्य है वह माँ जिसे ऐसे बेटे का प्यार मिला. पढ़ते पढ़ते गला रूंध गया .कैसा होता है सपनों का जादू .और कैसे कैसे लोग हैं इस धरती पर .
आपकी लेखनी में भी जादू है . इन्साः अल्लाह इसका इकबाल बना रहे .
सादर
IS SANCHAR KE DAUR ME BHI DES KA AIK BADA SAMOOH IS PRAKAR KI ISTHTIWO SE ANJAAN HAI. AUR YAHI WAJAH HAI KI DIN PE DIN YE SAMSYA JATIL HI HOTI JA RAHI HAI. SARKAR TO GHERE ME AAYEGI HI LEKIN KAHI N KAHI ISTHANI UDASINTA ISME KAPHI AHAM ROL ADA KARTI HAI. YAHI WO PAHLA BHARAT HAI JO DUSRE BHARAT KO APNA NAHI MAANTA AUR MANANA CHAHIYE BHI NAHI KYOKI DUSRE BHARAT KO PAHLE BHARAT KI PHIKR HI KAHA PAR IS TARAH YE AIK DUSRE SE RUTHE RAHEGE TO DURI TO AUR BHI BADHTI JAAYEGI.SIRF SARKAR PAR HI SAB KUCHH THOP DENE SE KUCHH BHI NAHI HONE WALA,KYOKI SARKAR MATALB SIRF SATTA PAR KAABIJ LOG NAHI HOTE...USE AUR BHI BISTRIT ROOP ME DEKHNE KI JAROORAT HAI ,JO IN ISTHITIWO KO UTPANN KARNE KE LIYE SIDHE TAUR JIMMEDAR HOTE HAI.
बहुत ही अच्छा लेख
अच्छा लेख।
कुछ सालों से मीडिया की नौकरी करते करते सो गए जमीर को आपने एक झटके में जगा दिया. पता नहीं फिर कब जगलों में लौट पाऊंगा. शायद मां के मरने के बाद, क्योंकि वो नहीं चाहतीं हैं कि उनका पाला हुआ बेटा उनकी आंखों के सामने व्यवस्था नामक डायनासोर का शिकार हो। मैं भी उनके पैदा करने और पालने के बोझ तले दबा हूं, नहीं तो दिल्ली में एसी में बैठकर पत्रकारिता की वेश्यावृति करने से कब के उब चुका हूं। बस एक और लेख की जरुरत है।
Behad Khoobsoorat chitran hai samaj ki mukhya dhaara ke jeevan moolyon aur doosre samaaj ke jeevan moolyon ka. Ek taraf jungle ki Zindagi jeene waala comrade hai to doosri taraf ek bhara poora sabhya samaaj hai. Jeevanshaili yehi hai ki sabhya samaaj kisi ko bhi til til kar marne ke liye chhod deta hai aur doosra samaaj apne hiton ke viruddha jaane waalon ko ek jhatke mein khatm kar deta hai. Sawaal hai drishtikon ka, chayan ka, galat voh log hain jo ek samaaj ki mansikta, vicharsheelta ko khatma kar dete hain ya voh log jo us samaaj me basne vaale logon ko khatma karte hain. Jaahir si baat hai samaaj ke pratyaksha gunahgaar manav ke qatil hain, manavta ke qaatil humesha hi samaj me pooje jaate rahenge, yahi humari niyat hai, yahi humari niyati hai.
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