चुनाव परिणाम आने के 48 घंटे बाद मायावती के गांव बादलपुर के निवासी रामप्रवेश से जब मैंने चुनाव में बीएसपी को मिली शिकस्त पर सवाल पूछा तो बिना कुछ बोले रामप्रवेश ने अपनी अंगुली मायावती के घर की तरफ उठा दी। रामप्रवेश का घर मायावती की इमारत के पीछे करीब पांच सौ मीटर की दूरी पर है। जहां से मायावती का बंगला साफ दिखायी देता है। खपरैल और कच्ची मिट्टी में ईंट के सहारे बने रामप्रवेश के घर से मायावती का बंगला पत्थर से बना दिखता है। हांलाकि यह कमाल रंग-रोगन का भी है।
खैर मायावती के बंगले की तरफ उठी रामप्रवेश की अंगुली को देखकर मैंने फिर पूछा- इसमें इस बंगले का क्या कसूर। रामप्रवेश ने बिना बोले अंगुली उन घरों की तरफ उठा दी, जो कुकरमुत्ते की तरह बंगले के इर्द-गिर्द नजर आ रहे थे। तभी रामप्रवेश की पत्नी ननकी घर से बाहर निकली और मेरे सवाल पूछते ही बिदक गयीं। हर सवाल के सैकड़ों जबाब उसके पास थे। लेकिन चुनाव में मायावती की खस्ता हुई हालत पर एक ही टिप्पणी थी, जो बोओगो, वही काटागे। इस सवाल का जबाब बादलपुर की गलियों में लगातार घूमते हुये मैं भी टटोलता रहा कि मायावती ने ऐसा बोया क्या जो चुनावी परिणाम में उसे वही काटना पड़ रहा है।
नुक्कड पर पुलिस पिकेट के सामने चाय की चुस्कियो के बीच बार बार मैंने यह सवाल चाय पीने वालो के बीच सीधे उछाला कि मायावती का चुनाव परिणाम तो वैसे ही है, जैसे जो बोया वही काटने को मिला । मैंने देखा विरोध किसी ने किया नहीं । हां, चुनावी तिकड़म के इस सच को सभी बताने से नहीं चूके की बहनजी के पास हर कोई टिकट के लिये इसीलिय चल कर आता है, क्योकि हमारा वोट हाथी पर ही लगता है। हम भी जानते है और बहनजी भी कि हाथी का रिश्ता चुनाव का नही बहुजन का है। लेकिन बहनजी ने ऐसा क्या बोया जो चुनाव परिणाम दगा दे गये , इस सवाल पर चाय पीने बालों से हटकर चाय बनाकर पिलाने वाले जगत ने केतली में उबलते पानी को दिखाकर मुझ पर ही सवाल ठोंका कि अगर बाल्टी में पडी इस सडी चाय पत्ती को पानी में दुबारा डाल दे तो फिर आप इस दुकान पर चाय पीने आओगे। फिर खुद ही कहा जब स्वाद आयेगा नही तो आओगे नहीं और उसपर प्लास्टिक के कप की जगह चमकती प्याली में भी चाय दे दू तो प्याली का झटका तो एक बार ही खाओगे ना। जगत रुका नही कि करीब अस्सी साल के बुजुर्गवार बीडी फूंकते हुये बोले, जीत-हार से जिन्दगी नहीं संवरती। कांशीराम चुनाव को हथियार बनाये थे, बहनजी हथियार को ही चुनाव माने बैठी हैं।
जाहिर है बातचीत में चुनाव और हथियार पर भी चर्चा शुरु हुई, जिसमें बहुजन से सर्वजन को चुनावी हथियार बनाने को लेकर भी कई तरह के सवाल उठे लेकिन मायावती की राजनीतिक धार जिस राजनीतिक अंतर्विरोध को पकड कर लाभ उठाती है, उसमें अगर कोई दूसरा मायावती के अंतर्विरोध को ही अपना हथियार बना ले तो मायावती क्या करेगी।
इस सवाल पर बादलपुर की आंखो के सामने कांशीराम के न होने का दर्द और मायावती के भटकने की त्रासदी पहली बार दिखी। मायावती का उत्तरप्रदेश में जनाधार बहुत ज्यादा सिकुड़ा हो ऐसा भी नहीं है । राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती को मिलने वाले वोट में दशमलव का ही अंतर आया है । लेकिन पहली बार मायावती का चुनावी हथियार ही अगर उन हाथों को पूरी तरह ट्रेंड नहीं पा रहा है जो हथियार चला रहे है , तो सवाल गहरा है। इसमें दो मत नही कांशीराम ने आंबेडकर के उस राजनीतिक मुहावरे को कई बार कहा कि चुनावी राजनीति साधन है, साध्य नहीं। लेकिन मायावती ने सत्ता को साध्य माना यह भी अबूझ नहीं है। मायावती ने उस भोक्तावादी समाज को भी पकडने की कोशिश की जिसको लेकर अंबेडकर और कांशीराम दोनो यह कहने से नहीं चूके कि दलित राजनीति को उन मुद्दों से अलग नहीं किया जा सकता जो दैनन्दनी से जुडे हों और समाज के भीतर उसको लेकर प्रतिस्पर्धा हो। आंबेडकर चाहते थे कि दलितो के भौतिक पक्षो को भी नेतृत्व देखें। लेकिन कांशीराम की राजनीति ने जिस तरह इसकी अनदेखी की उससे दलित समस्याएं रहस्मय बनती चली गयी। वहीं मायावती की भौतिकवादी समझ उस पूंजी पर टिकी जिसने चुनावी तिकडमो को तो जुबान दी लेकिन दलित आंदोलन में जीवन के वास्तविक मुद्दो को लेकर एक तरह की अरुचि पैदा कर दी। हो सकता है बादलपुर के रामप्रवेश की अंगुली इसीलिये मायावती के बंगले की तरफ उठी होगी।
असल में दलित राजनीति की यह कमजोरी आंबेडकर से लेकर मायावती तक पहुंचते पहुंचते ऐसा रुप धारण कर लेगी, जहां संघर्ष और मुद्दों को भी भौतिकता के आधार पर टटोला जायेगा, यह किसी ने सोचा ना होगा । लेकिन न्यू इकनामी में जिस तरह समाज के भीतर जातीय बंधनो से इतर भी सामाजिक संबंध बनने लगे, वह गौरतलब है। युवा दलित पहचान के लिये दलित पैंथर की लीक पकडने के बदले अब उस धारा को पकड़ना चाह रहा है, जो वर्ग और जाति को तोडकर पूंजी प्रेम में समा रहे हैं। यह युवा मायावती की राजनीति पर सवाल नहीं करता लेकिन मायावती की तर्ज पर अपने घेरे में सौदेबाजी करने से भी नही चूकना चाहता। मनमोहन की अर्थव्यवस्था में समाने के बाद वह अपनी सौदेबाजी का दायरा सामाजिक और राजनीतिक दोनो तौर पर बठता हुआ देख रहा है। इसलिये बादलपुर का युवा बीएसपी को वोट डालने के बावजूद मनमोहन की जीत में अपना नफा-नुकसान टटोलने लगा है। ग्रेजुएट राधव और बलवान यह कहने से नहीं कतराते कि मंदी में शेयर बाजार को एनडीए उस तरह नहीं संभाल पाती, जैसा यूपीए संभाल लेगी । मायावती के पास इस समझ की काट कबतक आयेगी यह दूर की कौडी है लेकिन दो दशकों से जिस तरह मायावती की समूची राजनीति दलित भावना को हवा देती रही है, पहली बार उसपर भी भौतिक जरुरत सवाल उठा रही है।
लेकिन, सवाल सिर्फ बादलपुर या उत्तर प्रदेश का नही है, सवाल महाराष्ट् सरीखे राज्य का भी है, जहा मायावती का हर उम्मीदवार औसतन सौ करोड़ का मालिक था। इसमें हर जाति-धर्म के उम्मीदवार थे। बिल्डर से लेकर अंडरवर्ल्ड से जुड़े उम्मीदवार भी हाथी की सवारी कर रहे थे। लेकिन मायावती के समूचे समीकरण सीधे वोट बैंक के आसरे टिके रहे। जबकि महाराष्ट्र आंबेडकर के राजनीतिक प्रयोग की जमीन रही है। जहा राजनीतिक तौर पर दलितो को चुनाव में पहला मंच आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पक्ष बनाकर दिया था। अस्पृश्य समाज के राजनीतिक अधिकारो के लिये 15 अगस्त 1936 में इसकी स्थापना मुबंई में की गयी। आंबेडकर के इस राजनीतिक मंच बनाने के पीछे 16 जून 1934 की गांधी के साथ पहली मुलाकात की खटास भी थी। पहली मुलाकात में ही आंबेडकर ने गांधी जी के सामने अस्पृश्य समाज की मुश्कलों को उठाया। आंबेडकर ने कहा कि हिन्दुओं के अमानवीय अत्याचार अस्पृश्य समाज पर होते हैं और न्याय के लिये अस्पृश्य ना तो पुलिस के पास जा पाता है ना ही अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है । ऐसे में हरीजन सेवक संघ को अस्पृश्य समाज के लिये काम करना चाहिये। उनके लिये एक बजट बनाकर न्याय की दिशा में बढ़ना चाहिये । लेकिन गांधी इसपर राजी नहीं हुये । आंबेडकर की पहली राजनीतिक पहल यही से शुरु हुई। लेकिन उनके जहन में इस मंच के जरीये मजदूर-श्रमिको को भी साथ लाने की योजना थी। जिसपर कांग्रेस ने फूट डलवाकर पानी में मिला दिया।
नया सवाल मायावती की राजनीतिक पहल का है । मायावती आंबेडकर-कांशीरामऔर खुद की प्रतिमाओ और अपनी वैभवता के आसरे दलित वोट बैक में जो रंग भरती रही है, वह दलितों के भीतर नये भौतिक मूल्यों से टकरा रहे हैं। इसका अंदाजा बादलपुर ही नही नागपुर में भी मिलता है। 1993 में पहली बार मायवती ने सभा की थी। नागपुर के यशंवत स्टेडियम में तीन पायदान का मंच बना था। सबसे उपर कांशीराम और मायावती बैठी थी। उसके नीचे रिपब्लिकन खोब्राग़डे के नेता और उसके नीचे स्थानीय दलित नेता। मायावती की इस सभा में दलित रंगभूमि के युवा कलाकारो ने आंबेडकर पर एक नुक्कड नाटक भी किया था। उस वक्त रिपब्लिकन पार्टी के जेबी पार्टी बनने से दुखी युवा दलित मायावती में अपना नायक देख रहे थे जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने बूते दखल दे चुकी थी। लेकिन जिस तरह की राजनीतिक सोशल इंजिनियरिंग की परिभाषा इस चुनाव में मायावती ने उम्मीदवारों के जरीये गढ़ी, उसका परिणाम यही रहा कि चुनाव में दलित रंगभूमि के कलाकार कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के लिये नाटक करते नजर आये और बीएसपी को महज साढे चार फिसदी वोट मिले जो अन्य को मिलने वाले वोट का भी एक चौथायी है । और विधानसभा की तुलना में आधे से भी कम है। यहां सवाल यह नहीं है कि मायावती के चुनावी धंधे का पाठ अब सर्वव्यापी हो चुका है और धंधे का टकराव मायावती के वोट बैंक में भी टकरा रहा है । बडा सवाल यह है कि पथरीले समाज को राजनीति उसी मखमली चादर से ढकना चाह रही है, जिसके जरीये देश के भीतर दो देश खडे किये गये। क्योंकि राहुल गांधी जिस कलावती का नाम लेकर मखमली राजनीति को चौंकाते है और सरकार किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये करोड़ों के पैकेज का ऐलान कर अपनी जिम्मेदारी से निजात पाना चाहती है। वहां कांग्रेस को भी चुनाव में शिकस्त मिलती है और मायावती की जमीन भी नजर नही आती। वहां का दलित-किसान-पिछडा-गरीब-मजदूर हर उस नेता में अपनी जिन्दगी देखता है जो न्यूनतम का जुगाड कराते हुये आंखो के सामने नजर आते रहे। असल में अमरावती की कलावती के लिये राहुल जितने दूर हैं, उससे कही ज्यादा की दूरी बादलपुर की ननकी की लखनउ की मायावती से हो चली है। बादलपुर से निकलते वक्त रामप्रवेश की पत्नी ननकी ने जब यह कहते हुये पानी का गिलास बढाया कि रामप्रवेश अबकि गुड घर लाये नहीं है, इसलिये खाली पानी दे रहे है तो झटके में लगा रामप्रवेश की उठी अंगुली कही मायावती के बंगले में बंद हाथी और कुकरमुत्ते की तरह उगे घरो में पडी जंजीर तो नहीं दिखा रहे थे।
अगर ऐसा है तो बड़ा सवाल यह भी है कि जिस जंजीर के आसरे दलित राजनीति को मायावती बांधे हुये है उसे तो झोपडी में रात गुजारने की राहुल नीति और पैकेज देने की मनमोहन नीति ही तोड देगी । फिर आंबेडकर के उस दलित संधर्ष का क्या होगा जिन्होने कभी कांग्रेस को जलता हुआ मकान कहते हुये दलितो में अपने बूते संघर्ष करने का अलख जलाया था ।
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Tuesday, May 26, 2009
बादलपुर का दर्द और मायावती की मखमली चादर
Posted by Punya Prasun Bajpai at 12:46 PM
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बादलपुर,
मायावती
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11 comments:
kya baat hai prasoonji...
waah waah
dhnyaho
BADHAI
बहुत विस्तृत विश्लेशण किया है.. बोये पेड़ बबुल का तो आम कहां से होय...
बहुत उम्मीद थी इस आन्दोलन से …
मायावती ने सब बेच दिया।
मायावती और लालू ने इन्हें सपने दिखाए, आवाज़ दी, मगर किया कुछ नहीं. आपका विश्लेषण सुन्दर है.
हाथी और लालटेन के काम न करने की वजह इनका जातिगत व्यवस्था को और मज़बूत करना है. मंडल के दौर में मैं विद्यार्थी था, मंडल- II में मैं उब चुका था, और अब विकास चाहता हूँ, ताकि किसी किसान को आत्महत्या न करनी पड़े, मजदूर को खाने का भरोसा रहे , और असंघटित मजदूरों और कामगारों को अपने वर्तमान और भविष्य के लिए सोचना न पड़े |
बदलपुर के लोगो की टिप्पणी यह बताती है उनमे राजनीती की कितनी ज्यादा समझ है
पुण्ये प्रसून जी कभी सोनिया के राएबराली या राहुल बाबा के अमेठी भी घूम आओ. वो पर भी देख लो की क्या विकास हो रहा है. या सत्ता की ठेकेदार कांग्रेस की पूछ नहीं आपके यहाँ.
हा एक बात और अगला पदमभूषण आपको मिलने जा रहा है.
SACH HAI PAR PURAA SACH NAHI HAI..
जिनके खिलाफ संघर्ष के लिए बसपा का जन्म हुआ था....आज एक बार फिर से वही जातियां पार्टी में हावी हो रही है .....इसकी नाराजगी तो बसपा के परंपरागत वोटरों को है ही....और इस बार के चुनावों में उन्होने मायावती को ये संदेश भी दे दिया है कि वो उनकी बंधुआ नही है.....और लगता है कि बहन जी ने भी इस संदेश को पकड़ लिया है इस लिए एक बार फिर से सभी मलाई दार पदों से पंडित जी लोगो को विदा करके दलित अधिकारियों की एक आंदोलन के तहत वापसी हो रही है.....लेकिन अब पछताने का जब चिड़िया फर्र हो गयी....
ab pachtaye kya hot jab chidiya chug gayi khet" khair prasoon ji is janadesh ke baad mayavati ko agar apni galtiyo ka ehsas ho jaaye to achcha rahega. ab dekhte hai maya kya kadam utati hai .lekin jo bhee ho baspa ki social engineering ab up ke voter to rass nahi aa rahi hai. ..
aapki yah post bahut achchi lagi. mai issepoori tarah se sahmat hu.
मायावती खुद के विकास से बाहर नहीं निकल पा रहीं हैं तो दलित विकास दूर की कौड़ी है। माया के आलावा कोई दूसरा कोई नेता बसपा में खड़ा भी नही हो पाया। डॉ भीमरॉव अम्बेडकर की आत्मा भी कराह ही रही होगी। वो दलित विकास की जगह दलित वोट खेल में मस्त हैं। बेचारी कुर्सी भी अब भार न संभाल पायेगी।
आपके ब्लॉग पर पहले भी कई बार आ चुका हूं लेकिन इस पेशकश ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।
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