Saturday, May 9, 2009

मोदी पर एसिड़ टेस्ट का वक्त आ गया है

गुजरात दंगों की सुनवायी गुजरात में ही कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से किसी की आंखो में सबसे ज्यादा चमक आयी होगी तो वह नरेन्द्र मोदी ही होंगे । दंगों के बाद मोदी ने जिस तरह समाज में खिंची लकीर का राजनीतिकरण किया, उसमें चुनावी जीत बीजेपी को नहीं मोदी को मिली। सात साल में मोदी ने जिस गुजरात की अस्मिता को हवा दी, उसमें मोदी की पहचान राष्ट्रीय नेता की जगह एक ऐसे कद्दावर क्षेत्रिय नेता के तौर पर उभरी, जिसके बगैर बीजेपी अधूरी है। बीजेपी के इसी अधूरेपन का लाभ मोदी को मिला और अपनी बनायी राजनीतिक जमीन पर ही मोदी ने सारे प्रयोग किये । इसलिये मोदी का कोई प्रयोग गुजरात की सीमा के बाहर नहीं निकला।

राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का प्रयोग उस एनडीए के भीतर भी स्वीकार नहीं हुआ, जिसकी अगुवाई बीजेपी कर रही है। यानी मोदी सफल और चपल नेता अगर दिखे तो गुजरात के भीतर ही। मोदी के इसी मोदीत्व ने कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन की तरह काम किया। मोदी का ऑक्सीजन सिलेन्डर कांग्रेस को 28 फरवरी 2002 को मिला। इससे पहले के दस साल में कांग्रेस के लिये लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर प्रेम ऑक्सीजन की तरह काम कर रहा था। 1992 से 2002 तक बाबरी मस्जिद-अयोध्या की राजनीति ने कांग्रेस-बीजेपी के जरिए समाज के भीतर जो लकीर खींची. उसमें सत्ता किसी को भी मिली लेकिन नुकसान दोश को ही उठाना पड़ा। मगर 2002 को गुजरात में जो हुआ उस लकीर को गुजरात से उठाकर देश के भीतर खींचने का राजनीतिक प्रयास चौतरफा हुआ।

दंगो का सकारात्मक-नकारात्मक लाभ राजनीति ने जी भर के उठाया लेकिन नायक -खलनायक की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के ही साथ जुड़ी। कह सकते हैं मोदी चाहते भी यही होंगे । लेकिन जिस तरह आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण के जरिए संघ परिवार को झटका देकर खुद को उस राष्ट्रीय राजनीति में मान्य कराने की पहल शुरु की, वो वाजपेयी की जगह भरने की जद्दोजहद थी, जो वाजपेयी के दौर में आडवाणी को असल चेहरा माने हुये थी। ऐसे में सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मोदी को गुजरात की सीमा से बाहर स्थापित होने का जरीया तो नहीं बनेगा। देश की कमान संभालने के लिये जो राष्ट्रीय राजनीति देश में चल निकली है, उसमें कांग्रेस को बीजेपी के भीतर कट्टर हिन्दुत्व का एक ऐसा चेहरा चाहिये ही, जिसके मुंह में खून लगा हुआ हो। वहीं बीजेपी को अपने भीतर ऐसा कोई नेता चाहिये ही, जो संगठन को जयश्रीराम के नारे तले जोड़े लेकिन गठबंधन के सामने उसका चेहरा श्रीमान वाला ही हो।

जिस वक्त लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे, उस वक्त जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय ऐसा ही चेहरा थे। इसलिये 1963 के उपचुनाव में लोहिया ने जनसंघ के दीनदयाल जी को जौनपुर से लड़वाया । उस दौर में बलराज मधोक कट्टर चेहरा थे। लेकिन जब मधोक सॉफ्ट हुये तो उस समय वाजपेयी का चेहरा कट्टर हो चुका था । लेकिन जेपी के दौर में वाजपेयी ने राष्ट्रीय राजनीति की लकीर को पकड़ा और सॉफ्ट होते गये तो आडवाणी कट्टर चेहरे के तौर पर उभरे। लेकिन वाजपेयी काल खत्म होते ही आडवाणी को मोदी सरीखा चेहरा मिल गया तो श्रीमान का मुखौटा खुद-ब-खुद आडवाणी के चेहरे पर लग गया।

लेकिन गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक साथ कई अंतर्विरोध को उभार दिया है। मोदी का सबसे बडा संकट यही रहा है कि गुजरात के विकास मॉडल से लेकर आंतकवाद के खिलाफ उनकी आवाज में दंगों की गूंज कुछ इस तरह समायी रही कि गुजरात में वह तानाशाह लगे तो गुजरात से बाहर अलोकतांत्रिक नेता। यानी हर प्रयोग के पीछे दंगों के दर्द पर सत्ता का आंतक ही उभरा। जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की बात संसदीय राजनीति करती है, उसमें मोदीत्व ने कील ठोंक कर एहसास कराया कि मूल्यो को पालने का मतलब अपना राजनीतिक जनाजा उठाना है। लेकिन अब गुजरात में दंगों की सुनवायी फास्ट ट्रैक अदालतों में शुरु होते ही अगर यह राजनीतिक संकेत मिलने लगें कि मुक्तभोगियों को न्याय मिल रहा है। तो क्या नरेन्द्र मोदी का चेहरा बदलने लगेगा। पांच करोड़ गुजरातियों में अल्पसंख्यकों के लिये भी न्याय मौजूद है, अगर संवाद दिल्ली तक होता है तो कांग्रेस को ऑक्सीजन कहां से मिलेगा। कांग्रेस के लिये मोदी सरीखा ऑक्सीजन कितना जरुरी है, यह गुलबर्गा सोसायटी में कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोगो के मामले तले देखा जा सकता है। जिस पर पुलिस ने कभी मुकदमा दर्ज नहीं किया और कांग्रेस ने कभी मुकदमा दर्ज कराने की पहल नहीं की।

सोनिया गांधी इस दौर में तीन बार अहमदाबाद के इस इलाके में गयीं, लेकिन कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी से उसके घर पर जाकर मिलने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व इससे डगमगा सकता था। इसे कांग्रेस के सलाहकारो ने समझा। लेकिन एसआईटी की रिपोर्ट ने ही जब गुजरात में न्याय न मिल पाने के तर्क को खारिज किया तो सवाल फिर उसी राजनीतिक ऑक्सीजन का उठा, जो मोदी के जरिए कांग्रेस को मिलता। ऐसे में सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस ने जाकिया जाफरी के जरीये गुलबर्गा सोसायटी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की, जिससे मोदी एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गये। यानी गुलबर्गा को लेकर संदेह और गुजरात में न्याय मिलने को लेकर लाभ की गोधारी लकीर मोदी को लेकर चार दिनो के बीतर उभर गयी। असल में राजनीति का यही अंतर्विरोध कांग्रेस को भी चाहिये और बीजेपी को भी । क्योकि मोदी की पहल दंगों के बाद गुजरात में जो रही, उसमें कांग्रेस-बीजेपी दोनो ने निर्णय कभी नहीं दिया। दोनों ने मोदीत्व का खेल ही खेला।

सवाल है कि जिस तर्ज पर सैकडों मंदिरो को अपने काल में ही गिरा कर सड़क चौड़ी और शहर खूबसूरत बनाने की प्रक्रिया मोदी ने शुरु की, क्या उसी अंदाज में दंगाइयों को सजा दिलाने की दिशा में मोदी बढ़ पाएंगे । जब सडक़ों के किनारे के मंदिर गिराये जा रहे थे तो विश्व हिन्दु परिषद समेत तमाम हिन्दुवादी संगठनो में खासा आक्रोष था। इसकी शिकायत आरएसएस से भी हुई । मोदी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन उस दौर में संघ के भीतर भी खटपट कहीं ज्यादा थी और मोदी का कद गुजरात में बीजेपी से कही बड़ा हो चुका था, इसलिये उन्हे कोई छू न सका लेकिन उस दौर में कांग्रेस खामोश रही। मोदी की वजह से बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आये शंकर सिंह बधेला भी चौंके थे कि मंदिर कैसे गिर रहे हैं। उन्हें कहना पड़ा कि मोदी बिल्डरों और कोरपोरेट की सुविधा-असुविधा देख रहे हैं।

सवाल है क्या दंगो पर न्याय की तलवार अगर मोदी चलवाने में मदद करते है तो कांग्रेस फिर खामोश रहेगी या वह कट्टर हिन्दुत्व को उकसायेगी । जिससे उसे राजनीतिक ऑक्सीजन मिलती रहे । मोदी यह कर नहीं सकते है, इसे कोई भी कांग्रेसी खुल कर कह सकता है। लेकिन मोदी की खुद पर की गयी पहल पर गौर करे तो कई सवालो के जबाब खुद-ब-खुद मिलेंगे। मसलन 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री की शपद लेने के बाद अपने कंधो का सहारा देकर मोदी केशुभाई पटेल को लेकर मंच पर पहुंचे थे। आज केशुभाई का नाम लेना भी मोदी के सामने किसी भी बीजेपी नेता को खुद को मुशकिल में डालने वाला साबित होगा। दंगों के बाद जिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ने का वक्तव्य दिया, वही वाजपेयी 2002 में चुनाव में जीत के बाद मोदी के साथ मंच पर खडे होकर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे । साथ में आडवाणी भी मंच पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही मोदी जब 2007 में तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो मंच पर सिर्फ वही थे। निरे अकेले । बाद में आडवाणी-राजनाथ के साथ स्टेडियम का चक्कर जरुर गाड़ी पर सवार होकर लगाया। यानी मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया।

हर उस मुद्दे को गुजरात की जमीन पर आजमाया, जो देश के सामने बड़ा होता जा रहा । मनमोहन की न्यू-इकनॉमी में वाइब्रेंट गुजरात । वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण । आंतकवाद के दर्द का खांटी इलाज । बिहारी और मराठी मानुस में क्षेत्रिय राजनीतिक दलों के सन आफ सॉयल की लड़ाई के बीच गुजराती अस्मिता का वैभव। यानी मोदी ने राजनीतिक काट हर तबके को दी, लेकिन सीमा गुजरात में ही बांधी रही। लेकिन इस बार सवाल कही बड़ा है । नरेन्द्र मोदी का नाम कारपोरेट जगत से लेकर उनकी अपनी पार्टी के भीतर से पीएम बनने की काबिलियत रखने वाले नेता के तौर पर उठा है। वह भी उस दौर में जब आडवाणी पीएम बनने को बेताब खड़े हैं। कांग्रेस पूंजी का नशा पैदा कर मध्यम वर्ग को डरा रही है कि मनमोहन के पीएम न बनने का मतलब है, मंदी के गर्त में डूबते चले जाना। और कम से कम आधे दर्जन दूसरे नेताओ को लगने लगा है कि राजनीतिक सौदेबाजी में चुनाव परिणाम उन्हे पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं।

ऐसे में नरेन्द्र मोदी को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के चश्मे से ही देखा जाये कि मोदी की प्रशासनिक काबिलियत में सुप्रीम कोर्ट का भरोसा जगा है, इसलिये दंगो पर न्याय करवाने का जिम्मा सौपा गया । तो सवाल उस मोदी का ही उठेगा, जिसने भरोसा डिगाकर मोदीत्व पैदा किया और कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन का काम किया। अगर मोदी ऑक्सीजन नहीं है और बीजेपी के चश्मे के पीछे की आंख नहीं है, तो फिर मोदी की जरुरत बीजेपी या कांग्रेस को कितनी होगी। और जो चमक अभी मोदी की आंखो में दिखायी दे रही है, वह कब तक कायम रह पायेगी ।

बड़ा सवाल यही है कि इस सवाल का जबाब बीजेपी और कांग्रेस को एक सरीखा चाहिये जो पहली बार मोदीत्व तले नहीं मिल रहा । इसलिये नयी लडाई बीजेपी को कांग्रेस से भी लड़नी है और आरएसएस से भी । यह नयी लड़ाई क्या गुल खिलायेगी....कुछ इंतजार करना होगा ।

10 comments:

Arun Arora said...

तीस्ता सीतलवाड के द्वारा झूठे मुकदमो और गवाहो की लाई बाढ पर भी कुछ कहे जनाब . या आपको भी सेकुलरता का ताब चढा है जो इस मामले पर बोलने से द्स्त लग जाने और सेकुलरता बह जाने का खतरा मदराने लगता है आपकी पीत पत्रकारिता पर

संजय बेंगाणी said...

वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण ।

तालियाँ तालियाँ तालियाँ

पूँजीवादी (?!!!!) टाटा की परियोजना महान वामपंथियों की कब से हो गई?

बौद्धिक बेईमानी का चरम है यह. वैसे लाल दिमाग इस मामले में माहिर है.

अक्षत विचार said...

samachar vachak hone ke apne fayde hain malum ho jata hai kaise lekhon ko Jyada pasand kiya jayega

A. Arya said...

खैर आपकी क्या ग़लती है , बटर और ब्रेड का सवाल है, लगता है पत्रकारिता अब यही तक सिमट गयी है, उनके पास सिर्फ़ कलम है जो टाइपिंग की तरह दूसरो की अँगुलियो के इशारो से काम करती है, मुबारक हो आपकी सोच को, इतना काफ़ी है.......

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

jee jaroor sahi kahe. Acid test kewal modi jee hi denge. Kahin padhe the ki Godhra me jo trainwa jala tha oo accident tha. Acid test oon logo ke liye hai ki nahin sir jee? Ee Acid bhi aajkal bahut partiality karne laga hai. Ab dekhiye naa Modi jee acid test karenge lekin CBI ke naam par kitane acid neutral ho jaa rahe hain wo to dekhe hi honge aap. Sita ki tarah agnipariksha kewal ek ko hi kyon jee?

निर्मला कपिला said...

अपने बिल्कुल सही चित्र खींचा है शुभकामनायें

Tiwariji said...

इन जाचो की सत्यता के बारे में सबको पता है राहुल गाँधी की स्वीकारोक्ति के बाद की सत्तारूढ़ दल सीबीआई का दुरुपयोग करती है ऐसी जाचो का कोई मतलब नहीं होता. जनता को सोचना होगा की ऐसे नेताओं के साथ क्या करे. प्रसून जी ऐसे मुद्दों को उठाते रहे जनता कभी तो चेतेगी

विधुल्लता said...

मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया।
aap kaa aalekh sateek hai ...abhi kyaa ho rahaa hai ?..gujraat men aadvaani ko aproksh roop se piche karne ki kavaayad jaari hai ..

anil yadav said...

एक आदमी जो हर दम कहता रहता था कि हमारी मांगे पूरी करो....जब उससे पूछा गया कि तुम्हारी मांगे क्या हैं.....तो उसने कहा कुछ नहीं हम तो ऐसे ही चिल्लाते रहते हैं....कुछ यही हाल भारत के वामपंथियों का भी इन्हें खुद भी नहीं पता कि इन्हें दिक्कत क्या है....दुनिया भर से लुप्त होती इस नकली विचारधारा को अभी तक गले से लगा रखा है....यही हाल कुछ प्रसून जी का है ....पता नहीं प्रसून जी आप मन से वामपंथी हैं या पेशागत मजबूरियों के चलते अपने आप को इस खोल में छुपा रखा है....
वैसे वामपंथ की इस नकली विचारधारा के बारे में एक और उदाहरण बताना चाहूंगा कि देश के लोग इसके बारे में क्या सोचते हैं.....
मेरे एक मित्र ने भारत - अमेरिकी परमाणु करार के संबंध में कहा कि भारत को सिर्फ इसलिए अमेरिका से परमाणु करार कर लेना चाहिए क्योंकि वामपंथी इसका विरोध कर रहे हैं....और वामपंथी हर उस चीज का विरोध करते हैं जो भारत के हित में होती है....

कुलदीप मिश्र said...

बिलकुल सही है, कांग्रेस के लिए तो मोदी ऑक्सीजन हैं, फिर भाजपा के लिए कार्बन डाई ओक्सएइड हैं या नहीं ?? खैर बड़ी चालाकी से बात रखी है आपने !