राहुल गांधी ने ऐसे वक्त राजनीति के तार छेड़े, जब कोई भी नेता या पार्टी अपनी राजनीतिक लीक को गाढ़ा करने पर भरोसा करता है, उसे मिटाना नहीं चाहता। चुनाव के वक्त वोट बैंक को लेकर सामाजिक समझ और अपने सहयोगियो को लेकर राजनीतिक समझ में कोई भी नेता या पार्टी दरार नहीं चाहती। लेकिन राहुल के तार ने कांग्रेस को लेकर बनायी गयी, उस राजनीतिक समझ को डिगाना चाहा है, जिसको परिभाषित करने वाले और कोई नहीं बल्कि उसके अपने ही साथी है। ऐसे साथी, जो भाजपा को राजनीतिक लकीर मान कर कांग्रेस के जरीये सेक्यूलरिज्म का अनूठा तमगा ठोंक रहे है । चुनाव के वक्त राहुल की राजनीति जब विरोधियों का गुणगान करती है, तो महज राहुल की सतही राजनीतिक समझ के दायरे में देखना भूल होगी। राहुल की राजनीतिक ट्रेनिंग को समझना होगा। राहुल उस गांधी परिवार के सदस्य हैं, जिसके साथ राजनीतिक अनुभव जैसे शब्द मायने नहीं रखते। किसी भी पद से बड़ी गांधी परिवार की परछाई है जो राजनीति को अपनी आगोश में ले ही लेती है।
इसलिये, राहुल के साथ राजनीति करने से ज्यादा बड़ा सत्य प्रधानमंत्री होना जुड़ा है । क्योंकि भारतीय राजनीति में कांग्रेस खारिज हो नहीं सकती। लेकिन जिस दौर या कहें जिन मुद्दो के आसरे कांग्रेस को लेकर सवालिया निशान राजनीति में उठे, उसके कटघरे में भी सबसे पहले गांधी परिवार ही आया। राहुल गांधी की उम्र जब वोट डालने लायक हुई, संयोग से उसी साल राजीव गांधी पर भष्ट्राचार का आरोप उनके अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह ने जड़ा था । 1988 में जिस बोफोर्स घोटाले के आसरे वीपी सिंह ने राजीव गींधी के खिलाफ देशव्यापी राजनीतिक मुहिम छेडी । उसका असर सिर्फ 1989 में राजीव की दो तिहायी बहुमत वाली सरकार का भरभराकर गिरना भर नही था, बल्कि गांधी परिवार पर भष्ट्राचार का धब्बा लगना था।
हो सकता है कि उस वक्त राहुल गांधी के दिमाग में यह सवाल उठा हो कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री भष्ट्र हो और वित्त मंत्री बेदाग हो, यह कैसे हो सकता है । राहुल ने पहली बार 1989 में ही वोट डाला होगा । लेकिन उसी चुनाव परिणाम के बाद गठबंधन की अनूठी राजनीति राहुल की समझ में आयी होगी, जब वीपी सिंह को उस भाजपा का समर्थन मिला, जिसके खिलाफ चुनाव में जमकर राजनीतिक पींगे वीपी ने दिखायी । कांग्रेस के लिये यह साल बिहार को लेकर भी खासा महत्वपूर्ण रहा, जहां भागलपुर दंगों के बाद लालूयादव की राजनीति को सहारा देने के लिये कांग्रेस को आगे आना पड़ा और उसके बाद वही बिहार कांग्रेस के लिये दूर की कौड़ी बनता चला गया, जहां कभी कांग्रेस के दिग्गजों ने इंदिरा गांधी तक को हड़काया।
वोट का अधिकार मिलने के बाद अगर राजनीतिक समझ वोटरो में आ जाती है, जैसा अब के दौर में चुनाव आयोग वोट को वोटर की ताकत से जोड़ कर राजनीतिक समझ आने की बात कर रहा है, तो राहुल गांधी में निश्चित तौर पर राजनीतिक समझ उस दौर में विकसित हो चुकी होगी । बीस साल पहले 19 साल के राहुल अगर राजनीति समझ रहे होगे तो वीपी,लालू ही नहीं पचास से भी कम सांसदो के समर्थन वाले चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने और सरकार गिरने की वजहो की राजनीति को भी समझ रहे रहे होगे। मंडल की आग में धू-धू कर जलते कांग्रेस के वोट बैक को भी देख रहे होंगे और कमंडल के जरीये भाजपा की राजनीति में मौलाना होते क्षेत्रिय दलों के नेताओं का राजनीतिक चरित्र भी देख रहे होंगे ।
इसी दौर में शरद पवार का कांग्रेस की जमीन पर सेंध लगाकर अपना राजनीतिक प्रबंधन खड़ा करना भी राहुल ने देखा समझा होगा । राहुल गांधी के यह सारे एहसास 1991 में कही ज्यादा गहरे हुये होंगे, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने खुद को घर में बंद कर लिया होगा । हो सकता है राजीव गांधी की हत्या से उठे भावनात्मक वोट की जमीन पर बनी नरसिंह राव सरकार के दौर में राहुल ने हर क्षण यही महसूस किया हो कि राजनीतिक सत्ता मुद्दों से नहीं भावनाओं से चलती है । उसी दौर में बाबरी मस्जिद का सवाल अयोध्या के राम मंदिर के नारे तले भवनाओं का ऐसा आतंक खडा कर सकता है, जिसके तले देश की राजनीति न सिर्फ बंट जाये बल्कि सत्ता भी दिला दे, यह एहसास राहुल के लिये कांग्रेस से ज्यादा देश को समझने वाला हो।
जाहिर है 19 से 39 साल के दौरान यानी बीस सालों तक जिस शख्स के सामने यह सारे राजनीतिक दृश्य घूमते रहे होंगे और वह शख्स यह समझ रहा हो कि उसे एक न एक दिन राजनीतिक पटल पर अपनी भूमिका निभाने के लिये आना ही होगा तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी । राहुल गांधी की राजनीतिक समझ को परिभाषित करना मुश्किल इसलिये भी है, क्योकि जो राजनीतिक किरदार अभी मंच पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वह उस बीस साल के दौर की उपज है, जिसे राहुल गांधी अपने लिये फिट नहीं मानते हैं। इसका दूसरा जबाब यह भी हो सकता है कि जो राजनीति बीस साल से चली आ रही है, उसमें राहुल गांधी भी फिट नहीं बैठते है। जाहिर है यही से राहुल गांधी की असल राजनीति शुरु होती है, जिसमें टकराव के बाद चुनाव परिणाम चाहिये । इस राजनीति में बिहार या उत्तर प्रदेश या फिर महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिये जमीन बनाना भर नहीं है । बल्कि उस राजनीति से टकराना है, जिसे लालू यादव,मुलायम यादव या शरद पवार ने शह दी है। यहां राहुल की राजनीतिक समझ सतही लग सकती है क्योंकि पिछडे वर्ग की राजनीति के चैम्पियन होने के बावजूद मुलायम , मायावती और लालू क्रमश लोहियावादी, अंबेडकरवादी और मध्यमार्गी पिछड़ा वर्ग राजनीति के सिरों पर खडे हुये है। लेकिन राहुल की हिम्मत की वजह अंबेडकरवादी मायावती की वह सोशल इंजिनियरिंग है, जिसे अंबेडकर ने जीते जी दलितो के खिलाफ माना, लेकिन मायावती ने उसे सत्ता का सफल समीकरण करके दिखा दिया।
वहीं लोहियावादी मुलायम उसी कल्याण की थ्योरी को अपने घेरे में आजमाने लगे, जिसे कल्याण सांप्रदायिकता की राजनीति के जरीये पिछडे वर्गो और सवर्णो के गठजोड की अपील करते। मुलायम उसे मुसिलम-यादव-लोघ में जोड़ने मे जुटते । वही लालू यादव की थ्योरी यादव-पासवान-मुसलमान के रंग में कांग्रेस को धमकाने से नहीं कतराते। इस दौर में ठाकरे ब्राह्ममणवाद विरोधी हिन्दुत्वादी के तौर पर खुद को जमाते हैं, जो जयललिता द्रविड राजनीति और तमिल फिल्मो के संयोग पर टिकती हैं।
लेकिन इन नेताओ की चमक के पीछे सत्ता और आर्थिक लाभ उन तबकों और जातियो तक भी पहुंचना भी है, जो आजादी के बाद सामाजिक श्रेणी में पहले से जमी बैठी जातियो तक ही सीमित थीं। राहुल गांधी की राजनीतिक समझ यानी 1989 से पहले जो दलित या गैर ब्रह्मण नेता उभरे भी वह अपने अपने तबके में अपेक्षाकृत संपन्न पृष्ठभूमि वाले ही थे। मसलन जगजीवन राम हो या चरण सिंह । खास बात े भी है कि उस दौर में इस तरह के नेताओ में जुझारु जाति चेतना थी भी नहीं और ये जाति चेतना को राष्ट निर्माण के खिलाफ भी मानते थे। कह सकते है कि उस दौर में सेक्यूलर अथवा धर्म-जाति निरपेक्ष समाज की परिकल्पना में ही सभी जीते थे ।
इसीलिये गांधी परिवार के लिये नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में वह संकट नहीं आया जो राहुल गांधी के सामने है । मसला सिर्फ इतना नही है कि महाराष्ट्र में ब्राह्ममण बनाम गैर ब्राह्मण के बदले मराठा बनाम महार और गुजरात में बनिया बनाम ब्रह्ममण की जगह पट्टीदार बनाम क्षेत्रिय शुरु हो गया। असल में संकट कहीं गहरा इसलिये है क्योकि राहुल गांधी के दौर में सत्ता की आकांक्षा और आर्थिक लाभों की मांग उपलब्ध संसधानो से कहीं ज्यादा हो चुकी है। कांग्रेस इस राजनीति में चूकी इसलिये भी जाति समूह के भीतर भी स्पर्धा शुरु हुई है, जिसमें राहुल जातिगत राजनीतिक उम्मदवारो के जरीये तो सेंध लगा सकते है लेकिन जाति समूहो की अगुवाई संभव नहीं है। कह सकते है कि जातिगत स्पर्धा भी है, जो राहुल की राजनीति को फिट बैठने नहीं देगी।
जाहिर है राहुल जिस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये तार छेड़ रहे हैं, उसमें नेहरु से इंदिरा युग की याद भी आ सकती है, जिसमें नेताओ की छवि चमकदार, आमतौर पर इमानदार, विवादो से परे, और राजनीति से उपर उठकर राष्ट्र निर्माण की चिंताओ में खोये रहने रहने वाले थी। आजादी के बाद की इस राजनीति को अपना चक्र पूरा करने में करीब चालीस साल लग गये । लेकिन अब राहुल इसके संकेत देना चाह रहे हैं कि राजनीति का दूसरा चरण जो 1989 में शुरु हुआ, उसका चक्र 2009 में यानी बीस साल में पूरा हो चुका है । लेकिन सवाल है कि वंशवाद जब कांग्रेस से निकलकर हर पार्टी का मूलमंत्र बन चुका हो । गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुका हो । मार्क्सवादी खुद ही क्रांति की बातों से बोर हो चुके हो । और राष्ट्रीय पार्टियां आंकडों के खेल में कथित बन चुकी हों, तब राहुल के राजनीतिक तार में से कौन सा संगीत निकलेगा, यह भविष्य नहीं वर्तमान में मौजूद है, जिसमें राहुल मैराथन दौडते हुये सौ मीटर की रणनीति अपनाते हैं, और कांग्रेस सौ मीटर दौड़ने के लिये मैराथन की रणनीति अपनाना चाहती है ।
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Wednesday, May 13, 2009
राहुल गांधी की मैराथन राजनीति में सौ मीटर की रणनीति
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:38 AM
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कांग्रेस,
राजनीति,
राहुल गांधी
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6 comments:
पूरी पोस्ट पढ़ गया लेकिन समझ में नहीं आया कि आप कहना क्या चाहते हैं....
Behad sateek parakh aur vishleshan!!
GEND CHAHE KITNI KHARAB KYO N HO LEKIN BALLEBAJ KI TIMING ACHHI NAHI HO TO KHARAB SE KHARAB GEND PAR BHI WO OUT HO JATA HAI AUR YAHI HAAL RAHUL JI KA HAI . VISWAS SE BHARE HUYE PAR UNHE YAHI NAHI MALOOM HOTA KI KAB KYA KAHA JAY. PAHLI BAAR NAHI HAR BAAR UNKI TIMING KHARAB HO JATI HAI.
यूपी में कांग्रेस का विजय क्रम शूरू होते ही राहुल देश के उन नेताओ में शुमार होने लगे है जो दूर की सोच रखता हो । पांच दिन पहले जब राहुल ने नीतिश कुमार के बारे में कहा था तो लोगो ने शायद इसे बचकाना राजनीति घोषित किया था लेकिन यूपी ने राहुल को हीरो बना दिया है । शायद यह राहुल की बहादुराना पारी थी जिसमें उसने फैसला लिया कि विहार में लालू और यूपी में मुलायम से दूर रहकर ही चुनाव लड़ना है । इसी का फायदा आज कांग्रेस को मिला है । इसलिए राहुल को दूरदर्शी नेता का मुहर लगता जा रहा है
verry good writing and good subject Hindi News
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