Thursday, May 21, 2009

मनमोहन, सोनिया और राहुल की "दीवार"

1975 की प्रसिद्द फिल्म ‘दीवार’ का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीं पैसा बनाने के इस धंधे में अपराध करते अमिताभ को रोकने के लिये उसी का भाई शशि कपूर सामने आता है। न्याय और अपराध के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ मारा जाता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर अमिताभ पर गोली दागता है।

कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।

मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है।

सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा।

जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे।

वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है ।

राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है।

सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है।

सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।

9 comments:

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

jeetane ke baad aisa lagta hai ki desh me jitna sab kuchh ho raha hai aur hua hai wo sab unake theory kaa hi parinaam hai. Jab kuchh seat kum milta to lagta ki saara theory fail ho gaya. Pura chunav me Kandhar, Babri Masjid, Narendra Modi, Parliament attack ka mudda par chillate rahe maai beta. chunav khatam hote hi wo sab kachada ke dher me aur baaki saab baahar. Vikas shabd ko to jaise chhua naa ho oon logo ne. Thoda bahut vikas shabd hota tha to wo bhi Manmohan singh ke Narsimha rao ke kaaryakaal ke dauran kaa. Abhi to aisa lagega ki desh me ho rahe har kaarya me Rahul ki soch nazar aati ho.
Kabhi aise kaside Nitish/BJP ke sarkar jo kaam kar rahi hai Bihar me ooske liye padhate. :)

श्यामल सुमन said...

मनमोहन के सामने राहुल नहीं दीवार।
भूख गरीबी मूल है पूरा देश बीमार।।

साथ ही-

टी०वी० पर जब देखता बना आपका फेन।
आप बहुत ऊँचे ऊठे हम तो कामन मेन।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Sarita Chaturvedi said...

KAHNA NAHI CHAHIYE PAR WAQUI BHARAT KI JANTA APNI AADAT SE BBAZ KABHI NAHI AAYEGI.KYA MATLAB CONGRESS YA BJP? ITNI JALDI AISA VISLESAR....?

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

पुण्य प्रसून जी........
मै नियमित रूप से आपके लेखो का पाठक रहा हूँ...
लेकिन मेरा आपके ब्लॉग के साथ परिचय पहली बार हुआ है.....

वर्तमान में बनी भारत की नई सरकार के ये तीनो स्तंभों ने भारत की राजनीति को एक नई दिशा दी है.... जिसका प्रमाण भी आज करूणानिधि को मिली चेतावनी से मिलाता है.... जो यह भी दिखा रहा है की अब यहाँ अवसरवादियों के दिन ख़त्म हो रहें हैं.....
बात अगर राहुल गाँधी के नेतृत्व की जाये तो वो अब वो उस सफलता और परिपक्वता के साथ बढ़ रहे हैं की आगे आने वाले समय में भारत को उनके रूप में अच्छा अगुआ मिलेगा......

अमिताभ said...
This comment has been removed by the author.
"MIRACLE" said...

Namaskaar sir,Bharat ki jata ke bare mai kuch nahi kaha ja sakta.mujhe to aapke post ka intjaar rehta hai.

अमिताभ said...

sorry boss !!!
दीवार फिल्म का रूपक समझ से परे हैं . आपकी पॉलिटिकल दीवार में सोनिया तो निरुपमा रॉय समझ आती है . लेकिन अमिताभ और शशि आपके मुताबिक कौन है . फिल्म में एक भाई जुर्म के रास्ते पर चल पड़ता है और एक सच्चाई के रास्ते पर ...आपकी कहानी में जुर्म के रास्ते पर कौन है ???

vipin dev tyagi said...

मनमोहन सोने-चांदी और हरे-हरे गांधी बाबा के नोटों,एफडीआई,इंफ्रास्ट्रक्चर के जरिये,देश को तरक्की की राह पर आगे बढ़ाना चाहते हैं,उनकी नीयत और ईमानदारी पर पहले भी किसी को कोई शक नहीं था,अब भी नहीं है...लेकिन जिस युवा राहुल के जरिये आप देश के आम आदमी के दुख दूर होने,भूखों को दाना-पानी,तन पर कपड़ा,सिर पर छत,खाई को पांटने ,खुद पर भरोसा होने के अहसास की उम्मीद जता रहे हैं.क्या राहुल के लिये ये सामाजिक,आर्थिक जंग जीत पाना आसान होगा...क्या उनके लिये सत्ता और सरकार की असल राजनीति की चादर उतार पाना संभव है..सीटों,सहयोगी और सरकार के बीच राहुल के सपनों को क्या अमली जामा पहनाया जा सकता है... ये सही है कि इस बार राहुल की मेहनत और मनमोहन की नीयत के चलते कांग्रेस 200 से ज्यादा सीटें अपने दम पर हासिल कर चुकी है..समर्थन देने वालों की लिस्ट इस बार बहुत लंबी है..लेकिन सवाल यही है कि क्या राहुल वास्तव में आम हिंदुस्तानी तक पहुंच पायें हैं..?..पहुंच सकते हैं.?..उन्हें समझ सकते हैं..? मिसाल के तौर पर युवाओं का दिल जीतने और देश के युवाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले राहुल गांधी के जितने युवा साथी जीतकर संसद पहुंचे हैं...उनमें से कितने आम हैं.?..कितने जमीनी हैं ?..कितने अपने दम पर..बिना राहुल की सिफारिश और जान-पहचान और कांग्रेस के मठाधीशों की पैरवी और परिवार के बिना कांग्रेसी सांसद, संसद पहुंचने में कामयाब हुए हैं...राहुल की कोशिशें यकीनन पाक लगती हैं..उम्मीद देती हैं..भरोसा होता है... कि देश के लिये वो अच्छा करेंगे..लेकिन चिंता इस बात की है देश का आम युवा...गरीब गुरबा..आदिवासी....राहुल के चारों तरफ मौजूद खास,रसूखदार,हाईफाई,इलिट,मौके के हिसाब से कपड़ों का स्टाइल बदलने वाले नेताओं के होते हुए....क्या उन तक पहुंच सकता है....अपनी बात रख सकता है..
कल यकीनन अच्छा होगा..इस बात का भरोसा पक्का है

kumar Dheeraj said...

क्रांग्रेस को अगर इस बार जनादेश मिला है तो लोग इसका सेहरा राहुल और सोनिया के सर दे रहे है । लेकिन सर जी इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है कि सोनिया गांधी की राजनीति इंदिरा और राजीव के आगे नही निकाल और वे इसी को आगे बढ़ाते रहे । बात रही राहुल की तो सवाल यह है कि क्या राहुल इस मिथक को तोड़ पाएगे । अगर विकास का पैसा आम जनता तक नही पहुंच पाती है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है । पिछली सरकार तो कांग्रेस की ही थी फिर राहुल ने ऐसा रोकने का प्रयास तो नही किया । क्या वे इस वार ऐसा कर पाएगे ये सोचने का विषय है केवल कहने से काम नही चलेगा । अगर राहुल को देश में विकास करना है तो उस मिथक से तो निकलना ही होगा ।