अमेरिका में 9/11 के बाद करीब तीन हजार लोगों को संदेह के आधार पर एफबीआई ने पकड़ा। जिसमें अस्सी फीसदी से ज्यादा मुस्लिम थे। इनमें से किसी के भी खिलाफ आंतकवादी होने का कोई सबूत एफबीआई को नहीं मिला। लेकिन जिन्हें भी पकड़ कर पूछताछ की गयी, रिहायी के बाद अधिकतर मानसिक तौर पर विक्षप्त सरीखे हो गये। ओबामा ने सत्ता में आने के बाद पहला काम यही किया कि यातना गृह ग्वातामालो को बंद करा दिया। फिल्म न्यूयार्क के आखरी सीन में जब स्क्रीन पर यह बयान छपे हुये उभरते हैं तो लगता है फिल्मकार जार्ज बुश के दौर की काली यादों को ओबामा के जनादेश से भुलाना चाह रहा है।
ओबामा जिस तरह मुस्लिम समाज के घावों पर मरहम लगा रहे हैं और दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, उससे यह सवाल फिल्म न्यूयार्क के अंत को देखकर लगता है कि 9/11 के बाद आंतकवाद के खिलाफ जार्ज बुश की हर पहल आंतकवाद पर नकेल कसने की जगह आंतकवादियो की एक नयी खेप तैयार कर रही थी। जिनके जहन में अमेरिका की दादागिरी का आक्रोष इस हद तक बढ़ा कि बदले की भावना में वह आंतकवाद के हाथ में खिलौना होना ज्यादा पंसद करने लगे। यातना गृह से निकलने के बाद इनकी जिन्दगी का मकसद सिर्फ अपने खिलाफ हुये अत्याचार को याद रखना भर नहीं था बल्कि परेशानी का सबब यही था कि जिस राज्य के भरोसे उन्हें अपने होने का गुमान था उसी राज्य के आंतक के सामने वो अपाहिज हो गये।
जाहिर है ऐसे में जीने का कौन सा रास्ता चुना जाये, यह सवाल अगर 9/11 के बाद कोई मुस्लिम अमेरिकी नागरिक भी महसूस कर रहा था, तो यही सवाल भारत में माओवादी प्रभावित इलाकों में ग्रामीण-आदिवासियों के सामने हैं। सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों के सामने सबसे बडा संकट यही है कि उनकी भाषा, सस्कृति और जरुरतो को सरकार समझती नहीं है। जबकि उनकी जमीन पर पूंजी के माध्यम से कब्जा करने वालो के साथ सरकार की नीतिया खड़ी है। यह ग्रामीण अपने हक के लिये और जीने के लिये भी विरोध करते हैं तो इन्हे माओवादी मान लिया जाता है । वहीं माओवादी अपनी विचारधारा को जिस रुप में इन ग्रामीणों के सामने रखते है, उसमें ग्रामीणो के हक की बात होती है। शुरुआती दौर में माओवादी या तो बाहर से आते हैं या फिर ग्रामीणो के विरोध की क्षमता उन्हें बनी बनायी जमीन दे देती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे धीरे यह ग्रामीण और फिर इलाके ही माओवादी करार देने में सरकार भी देर नही लगाती। क्योंकि यहीं से नीतियों के आंतक को ढक कर राज्य मानवीय चेहरा देना शुरु करते है। नीतियों का आंतक माओवादियों के आंतक तले ना सिर्फ दब सकता है बल्कि सभ्य समाज में बंदूक की थ्योरी के सामने हर नीति विकासपरख लगेगी, इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता है। लेकिन माओवादी प्रभावित इलाको में ग्रामीण आदिवासियो के नजरिये से अगर सामाजिक-आर्थिक हालात पर गौर पर करे तो राहुल गांधी के दो देश का नजरिया सामने आ सकता है। आंध्रप्रदेश के तेलागंना से लेकर बंगाल के मिदनापुर,बांकुडा,पुरुलिया तक के बीच महाराष्ट्र का विदर्भ,छत्तीसगढ का बस्तर,मध्यप्रदेश और उडिसा के बारह सीमायी जिलो में प्रतिव्यक्ति आय तीन हजार रुपये सालाना भी नहीं है जबकि देश के प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा सरकारी तौर पर करीब तीन हजार रुपये महिने का है।
माओवादी प्रभावित इलाको में न्यूनतम जरुरत की लड़ाई कितनी पैनी है, इसका अंदाजा विकास की लकीर तो दूर जीने की पहली जरुरत की उपलब्धता से समझा जा सकता है। इन इलाकों में पीने का साफ पानी महज चार फीसदी उपलब्ध हैं। जबकि सरकारी तौर पर देश में यह आंकडा 35 फीसदी का है। शिक्षा के मद्देनजर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उन इलाकों में 17 फीसदी है, जो राष्ट्रीय तौर पर 58 फीसदी है । वहीं उच्च शिक्षा इन इलाको में सिर्फ 2 फीसदी है, जबकि पूरे देश का सरकारी आंकडा 41 फीसदी का है। हालात स्वास्थय सेवा को लेकर क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि माओवादी प्रभावित इलाको में अगर एनजीओ का कामकाज को हटा दिया जाये तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा दशमलव में आ जायेगी यानी एक फिसदी से भी कम।
लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि न्यूनतम भी मुहैया अभी तक सरकार इन इलाकों में नहीं कर पायी है । मुश्किल सरकार का अपना नागरिकों को लेकर जीने देने के नजरिये का है । सरकार विकास की जो लकीर इन इलाको में खींचने को तैयार हो उससे न तो वह उसी जंगल-जमीन को खत्म कर देने पर आमादा है, जिसके भरोसे ग्रामीण-आदिवासी न्यूनतम न मिलने के बावजूद जीये जा रहे है । लेकिन माओवादी प्रभावित रेड-कारिडोर को लेकर पिछले दो दशको में यानी 1991 में आर्थिक सुधार की लकीर देश में खिंचने के बाद से नब्बे लाख करोड डॉलर से ज्यादा की पूंजी कई योजनाओ के जरीये लगाने के लिये बेताब है। जिसमें से सत्तर लाख करोड डॉलर का मामला निजी क्षेत्र का है । लेकिन इन योजनाओ का मतलब प्रकृतिक संपदा की ऐसी लूट है जिससे जंगल खत्म होगे । प्रकृतिक पानी के स्रोत सूख जायेगे । खेती से लेकर हर वह आधार खत्म हो जायेगे जो रोजगार ना मिलने के बाबजूद करोडों ग्रामिण-आदिवासियो को पीढियों से जिलाये हुये है । लेकिन सरकार की योजनाओं को अर्थव्यवस्था के जरीये राष्ट्हीत के नजरिये से भी परखे तो वह राष्ट्रविरोधी ही लगता है । क्योंकि एक आंकलन के मुताबिक नब्बे लाख करोड डॉलर की योजनाये जो पावर प्लांट से लेकर स्टील,सिमेंट, माइनिंग लेकर एसइजेड का खाका तैयार करेगी उसमें इन इलाको में मौजूद जो प्रकृतिक संसाधन लगेगे या नष्ट्र होगे , अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी कीमत कम से कम नब्बे लाख करोड डालर से दुगुनी होगी । वही यह माल योजनाओ के लिये कौडियो के मोल यानी 40 से 50 लाख डालर ही आंकी जा रही है । चूंकि रेड-कारिडोर को लेकर सरकारे पार्टियो से लेकर मंत्रालयो तक में बंटी हुई है इसलिये नीजि कंपनियो को सरकार को चूना लगाने में कोई दिक्कत भी नहीं आती । छत्तिसगढ,मध्यप्रदेश,बिहार,बंगाल में जिन पार्टियो की सरकारे हैं, वह केन्द्र सरकार से मेल नही खाती हैं। फिर केन्द्र के ही छह मंत्रालय जो रेड कारिडोर में विकास का खंचा खिंचने के लिये किसी को भी लाइसेंस देगे उनमें तालमेल नहीं है। पर्यावरण, खनन, उघोग, वाणिज्य, आदिवासी कल्याण मंत्रालय की समझ ही जब रेड-कारीडोर को लेकर अलग-अलग है नीतियों के लागू ना हो पाने का अंत कानून-व्यवस्था के दायरे में ही होगा । और आखिरी में गृह मंत्रालय की नीतिया यही से योजनाओ को मानवीय जामा पहनाने की पहल शुरु करती है । जिसमें रेड-कारीडोर में रहने वाला कोइ भी शख्स अगर अपने हक का सवाल खड़ा करता है तो वह पहले माओवादी करार दिया जाता था और अब आंतकवादी करार दिया जायेगा।
चूंकि गृह मंत्रालय की समझ रेड-कारीडोर को लेकर माओवाद और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को ही समझते हुये शुरु होती है तो इन इलाको में किसी भी योजना को अमली जामा पहनाने की पहली और आखरी पहल अर्धसैनिक बल से लेकर सेना के फ्लैग मार्च तक पर ही जा कर टिकती है । इसलिये सरकार योजनाओ के पूरा ना होने को ही रेड-कारीडोर के पिछडेपन से जोडती है । जबकि गौर करने वाली बात यह भी है कि बारह राज्यो से लेकर केन्द्र सरकार ने 1991 के बाद से लेकर अभी तक माओवादियो पर नकेल कसने के लिये सत्रह लाख करोड से ज्यादा का सीधा खर्च कर चुकी है । जो सुरक्षाबलो के आधुनिकी करण से जुडी है । लेकिन इसी दौर में गृहमंत्रालय की ही रिपोर्ट कहती है कि माओवादियों के प्रभावित उलाके में पचास फीसदी तक की बढोतरी हुई और तीस फीसदी ग्रमीण आदिवासियों ने हथियार उठाये। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा से सटे महाराष्ट्र के माओवादी प्रभावित चन्द्रपुर,गढचिरोली जिले को लेकर सरकार का नजरिया देखने लायक है। नक्सलियों पर नकेल कसने के लिये 80 और नब्बे के दशक में यहां के पांच सौ से ज्यादा आदिवासियो पर आंतकवादी कानून टाडा लगा दिया गया। इन्हें नक्सलियों का हिमायती बताया गया। जिनपर टाडा लगाया गया उसमें 7 साल की बच्ची से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग आदिवासी तक भी शामिल थे । 1995 में टाडा कानून निरस्त होने का बाद जब इन आदिवासियों के केस अदालतो में पहुंचे तो किसी में कोई सबूत पुलिस विशेष अदालतो में नहीं रख पायी।
हालांकि 69 आदिवासियो पर अब भी टाडा के 80 केस चल रहे हैं, लेकिन पांच से पन्द्रह साल तक जेल में गुजारने के बाद जब यह आदिवासी जेल से निकले तो माओवादी प्रभाव पूरे इलाके में इस कदर बढ चुका था कि नक्सल निरोधी अभियान के तहत कोई भी पुलिसवाला इस इलाके में आया तो उसने सबसे पहले नक्सलियो की मुखबिरी करने के लिये उन्ही आदिवासियो को फुसलाया जो पुलिस की ही गलत पहल की वजह से सालो साल जेल में रह चुके थे । नक्सलियो की मुखबरी ना करने पर दोबारा माओवादी करार देकर ठीक उसी तरह जेल में बंद करने की घमकी जी जाती है जैसे फिल्म न्यूयार्क में नील मुकेश को आंतकवादी जान अब्राहम के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये यह कहते हुये धमकाया जाता है कि ना करने पर उसे आंतकवादी करार दिया जायेगा । और सारी जिन्दगी उसे जेल के अंधेरे बंद कमरे में यातना सहते हुये काटनी होगी ।
छत्तीसगढ में सलवा-जुडुम आंतक के खिलाफ आंतक की एक नयी परिभाषा भी है । लेकिन वहा भी संकट उसी ग्रामीण आदिवासी का है कि अगर वह सलवा-जुडुम का हिस्सा बनने से इंकार कर दे तो वह माओवादी करार दिया जायोगा और उसे एनकाउंटर में मरना ही होगा । अपनी कमजोरियों की वजह से सरकार आदिवासियों की जिन्दगी से किस तरह खिलवाड़ कर रही है, यह आदिवासी इलाकों में माओवादियों से निपटने के नाम पर आदिवासियो की पूरा जिन्दगी चक्र बदलना भी है । यूं ग्रामीण आदिवासियों को माओवादियों की मुखबरी अब सरकारी तौर पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ में सुविधा की पोटली दे कर भी उकसाया जाता है तो छत्तीसगढ,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,उडिसा और झारखंड में आदिवासियो को बंदूक की नोंक पर रखकर माओवादियों के बारे में जानकारी लेने जबरदस्ती की जाती है। अगर बहुत पहले की स्थिति को छोड़ भी दे, तो नंदीग्राम और लालगढ़ का प्रयोग सामने है। शुरुआती दौर में नंदीग्राम को पुलिस और सुरक्षाबलों ने जिस तरह यातना गृह में तब्दील किया उसका असर लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने से तो दिखा ही । वहीं नंदीग्राम में बलात्कार की शिकार महिलाओं ने लालगढ़ में जाकर महिलाओं को नंदीग्राम में जो हुआ जब उसे बताना शुरु किया तो वहां की महिलाओं के सामने संघर्ष के अलावे कोई दुसरा रास्ता नहीं बचा।
14 से 16 जून को लालगढ की कई सार्वजनिक सभाओ में नंदीग्राम की सकीना और नसीफा {नाम बदला हुआ } 6-7 नबंबर 2008 को उनके साथ जो हुआ उसे मंच से खुलकर कहा । नसीफा के ने जो कहा,वह इस तरह था , ''मै उन लोगो को अच्छा तरह पहचान सकती हूं,..वो लोग सीपीआईएम के हौरमण वाहिणी के लोग थे । और इसी गांव के लड़के है । मैं नाम भी बता सकती हूं...उनके नाम बच्चू, कानू है । मुझे रेप किया बच्चू ने और मेरी मझली बेटी को रेप किया कानू ने...और दूसरी बेटी को रेप किया कोनाबारी ने ..अब्दुल भी साथ था । '' कुछ इसी तरह से अपने साथ हुये हादसे को सकीना ने भी बताया । लेकिन हर सभा में यही सवाल उठा कि बलात्कार और लूटपाट की अधिकतर घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई और सात महिने बाद भी सजा किसी को नहीं हुई है तो न्याय कैसे मिलेगा । वहीं नंदीग्राम के सीपीएम समर्थक ग्रामीणो को पुलिस कैडर और पुलिस दोनो ने उकसाया कि लह लालगढ जाकर वहा की मुखबरी करे । असल सवाल राज्य को लेकर यही से खडा होता है । माओवाद के नाम पर करोडो लोगो के अपने तरीके से जीने के हक को कैसे छिना जा सकता है । और राज्य की भूमिका ही जब माओवादियो के खिलाफ ग्रामिण-आदिवासियो को अपना प्यादा बनाकर आंशाका पैदा करने वाली हो तब आम ग्रामिण-आदिवासी क्या करें । सबसे बडी मुश्किल यही हो चली है कि रेड कारीडोर में रहने वालो को ढकेलते ढकेलते उस दीवार से सटा दिया गया है, जहां से और पीछे जाया नहीं जा सकता है और आगे बढने पर पहले उसे माओवादी कहा जाता अब आंतकवादी माना जायेगा । ऐसे में किस रास्ते इस ग्रामिण आदिवासी को जाना चाहिये जहां वह सम्मान के साथ जिन्दा रह सके । इसका रास्ता ना तो सरकार बता रही है ना ही माओवादियो का संघर्ष रास्ता बना पा रहा है ।
फिल्म न्यूयार्क के आखिरी डायलाग जब नील मुकेश एफबीआई अधिकारी को जब यह कहता है कि जान अब्राहम गलत नहीं था । तो एफबीआई अधिकारी कहता है , सभी सही थे...शायद वक्त गलत था । जिसमें मुल्क ने भी गलत रास्ता चुना । लेकिन अब हालात बदल चुके है । वहां बदले हालात से मतलब ओबामा के सत्ता में आने का था । तो क्या भारतीय परिस्थितयो में भी रेड-कारिडोर फिल्म तभी बन पायेगी, जब यहां भी कोई ओबामा सत्ता में आ जायेगा। और फिल्म में नायक यह कहने की हिम्मत जुटा पायेगा कि शायद वह वक्त गलत था, जिसमें मुल्क भी गलत रास्ते पर था।
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Monday, July 6, 2009
फिल्म "न्यूयॉर्क" से रेड-कॉरिडोर तक
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:01 AM
Labels:
फिल्म,
राजनीति,
रेड कारिडोर
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5 comments:
अच्छा लेख
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चर्चा । Discuss INDIA
आदिवासियों की मूल समस्या को सरल शब्दों में समझा दिया। आप इस प्लेटफार्म से आम आदमी की समस्याओं की जमीनी हकीकत को हम सबके सामने लाते है।
हमेशा की तरह सटीक विश्लेषण। आप ब्लॉग के माध्यम से बहुत अच्छे मुद्दे उठाते हैं। अच्छा लगता है ये देखकर कि कोई सामाजिक सरोकार रखने वाली बात करता है।
माओवादी समस्या पर आपका आलेख सटीक और सही है। लेकिन ये बात सरकार की समझ में नहीं आती और वो केवल अपने नजरिए से इस समस्या का हल ढूढंती है। सरकार इसे आतंकवाद मानती है जबकि यह आतंकवाद नहीं बल्कि एक सामाजिक समस्या है। आकडों के अनुसार जिन इलाकों में गरीबी, बदहाली, बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा चरम पर है वहीं यह समस्या है। इसका समाधान मिल बैठकर, उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाकर और उनको जल, जंगल और जमीन का हक प्रदान कर सॉल्व किया जा सकता है।
प्रमोद वैष्णव, जयपुर।
bhai prasun jee ! asal mein aaj sattadhishon ke pas "bharat" ke liye samay nahi hai . are,pichhde bharat ko bar -bar sanjiwni pilane se kya hoga ! jo aage badh rha hai (india) us par dhyan do .
rahul ho ya maya sab ka dalit-aadiwasi prem natak bhar hai . maya ki maya to aap dekh hi chuke hain . kis tarh janta ke dhan se apni murtiyan lagwa rhai hai .
aaj ek nai raajnitik takat ki jarurat hai jisme majbut ichchhashakti aur bharat se pyar ho .................
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