Monday, October 5, 2009

अमिताभ से राज ठाकरे...असल ‘बिग बॉस’ कौन ?

मुंबई की सड़कों पर रफ्तार से दौड़ती कार के बाहर नज़रे अचानक कहीं टिकी तो दिखा-जरा सोचिये पर। एक लाइन में लगातार में छह होर्डिंग्स और हर की शुरुआत में खासे बड़े अक्षरों में लिखा-जरा सोचिये......और उसके नीचे कुछ छोटे अक्षरो में....अगर 24 घंटे कोई लगातार आपको देख रहा है। और हर क्षण रंग बदल रहा है । तो......जी गिरगिट की फोटो जो रंग बदलने का एहसास भी कराती है। लेकिन, इस होर्डिंग्स के एक किनारे करीब पच्चीस फीसदी हिस्से में अमिताभ बच्चन की लगी तस्वीर...जो बिग बॉस का इंतजार खत्म होने और कुछ नायाब होने का अंदेशा दे रही थी।

वर्ली से लेकर चर्च गेट तक एक दर्जन से ज्यादा बिग बॉस की इन होर्डिंग्स को देखते देखते अचानक दिमाग में यही सवाल उभरा कि.... क्या बाजार के आगे महानायक हार चुका है। जो महानायक कल तक एक पूरी पीढ़ी की रगों में दौड़ता था । जिसके आसरे बाजार अपने आस्तित्व को महसूस करता था, जिसके कंधो पर सवार होकर मंदे पड़ते धंधों में चमक लायी जाती थी। जिसके जमीन तले संघर्ष की लौ का एहसास होता था। यानी अब रगों में महानायक नहीं बाजार दौड़ता है, जिसमें बाजार का महज एक हिस्सा भर ही हैं महानायक। बडे पर्दै का महानायक छोटे पर्दै पर इतना छोटा हो जायेगा, जहां उसका अतीत ही उसकी पहचान को ढोता हुआ सा लगेगा...यह किसने सोचा था।

लेकिन बिग बॉस की तस्वीर ने कुछ ऐसे एहसास को जगाया है। बहुत अर्सा नहीं हुआ है, कौन बनेगा करोड़पति के उस पहले खेल को, जिसके जरिए अमिताभ बच्चन की छोटे पर्दे पर एन्ट्री हुई थी । उस दौर की पीढी बूढ़ी हो चली हो और नयी पीढ़ी सामने खड़ी हो...ऐसा भी नहीं है । लेकिन याद कीजिये कौन बनेगा करोडपति की शुरुआत से पहले के प्रचार को। या कहें विज्ञापनों को । सिर्फ अमिताभ और कुछ नहीं। महानगरो में लगे बड़े बड़े होर्डिग्स में सिर्फ अमिताभ बच्चन नजर आते। यहां तक की चैनल का नाम और कार्यक्रम का वक्त भी अमिताभ की छाया में छिप जाता । अमिताभ की छवि में ही करोड़पति गुम हो चुका था । कौन बनेगा करोड़पति के दौर में हर घर का में यह छवि कुछ इस तरह रेंगती मानो रात नौ घर ड्राइंग रुम में अमिताभ बच्चन अतिथि हों। टीवी सेट से ही अमिताभ का सीधा संवाद ड्राइंग रुम में बैठे चार साल के चुनमुन से लेकर सत्तर साल के दादा जी से होता। लेकिन बिग बॉस में अमिताभ की छवि को भी शब्द चाहिये। कहें तो कन्टेन्ट चाहिये। जो तत्काल ही पढ़ने वालों को बिग बॉस के घर के भीतर के रहस्य को देखने-समझने के लिये अमिताभ से जोड़ दे।

तो क्या महानायक कमजोर पड़ गया है। यकीनन....महानायक की छवि खासी कमजोर पड़ गयी है....यह बात बिग बॉस के मुंबई के सडक किनारे लगे होर्डिग्स में अमिताभ की मौजूदगी भरी गैर मौजूदगी से जागी तो इस कार्यक्रम के पहले ही दिन मेहमानो की फेरहिस्त और महानायक के नॉस्टेलजिया से छलका भी और झलका भी । बिग बॉस की शुरुआत ने ही इस एहसास को जगा दिया कि बाजार कितनी सतही जमीन पर ग्लैमर का राग खड़ा कर पूंजी बनाना चाहता है और महानायक की छवि से घबराते हुये उसे भी अपने मिजाज में रंगने की अधूरी चाहत संजोना चाहता है । फिल्म ‘दीवार’ से लेकर ‘अग्निपथ’ के हर उस डायलॉग की गूंज बिग बॉस की शुरुआत में फुसफुसाहट से साथ उभरी जो 70 से नब्बे के दशक तक दर्शको को जीने का माद्दा देती थी । और सिल्वर स्क्रीन पर यह डायलॉग भी खुसफुसाहट भरे अंदाज में नहीं उभरे बल्कि हंगामे के साथ देखने वालो के सीने को पार कर आक्रोष और जोश की हदों को पार कर अकेले अपने बूते ही सबकुछ बदलने की एक हवा तैरा देते थे ।

लेकिन वक्त कितना बदल चुका है या महानायक के दौर ने कितना छला है और अब बाजार दौर को हवाई जहाज के शोर तले कैसे दबाना चाहता है ....इसे दिखाने में कोई परहेज बिग बॉस में नहीं हुई । संघर्ष और विद्रोह की परिकल्पना में रचे 70 और 80 के दशक के डायलॉग, जो जिन्दगी की पथरीली जमीन पर रेंगते....उनके बीच हवाई जहाज से उतरते अमिताभ यानी बिग बॉस । महानायक का बिग बॉस में ट्रांसफॉरमेशन । यह मिजाज बिग बॉस से ज्यादा वक्त का है और बिग बॉस को महानायक पर नहीं अपने प्रचार तत्व पर ही ज्यादा भरोसा है, जहा पैसे वालो के बीच पैसे का खेल खेला जा रहा है । सवाल यह नहीं है कि बिग बॉस का हर मेहमान महानायक की गढ़ी छवि से कोसों दूर है । या यह कहे किसी भी मेहमान ने महानायक की उस छवि में कभी अपना अक्स देखा भी नहीं है जिसे सलीम जावेद रचते चले गये।

सवाल है कि खुद महानायक को यह क्यों लगने लगा कि बिग बॉस के घर में उन्हीं मेहमानो का स्वागत किया जाये, जिनकी जमीन महानायक की छवि को तोड़ती है या पूजती है। हर मेहमान अमिताभ का प्रशंसक निकला । लेकिन हर किसी को वही 70-80 के दशक का अमिताभ ही याद आया, जो नंगे पांव संघर्ष के रास्ते रंग-रोगन की उसी दुनिया के खिलाफ खड़ा होता, जिसके साथ बिग बॉस में महानायक खड़ा था । यानी जिन चरित्रो ने अमिताभ को महानायक बनाया...वही महानायक अब असल चरित्र को जीते हुये बिग बॉस बना है। ऐसा नही है बिग बॉस के दौर में जमीन का खुरदुरापन खत्म हो गया है या चरित्र गढ़ने और बनने का सिलसिला खत्म हो चुका है । मुंबई की सड़क पर तेज रफ्तार से दौड़ती कार के बाहर झांकने पर एक होर्डिग्स पर और नजर खिंचती है .....जिसमें कुछ राजनीतिक स्लोगन लिखे है लेकिन एक तस्वीर के आगे सब कुछ मौन है । और यह तस्वीर राज ठाकरे की है । सिर्फ चेहरा । आंखों पर पुराने या कहे किसी बुजुर्ग सरीखे की पसंद का चश्मा । लेकिन उस पुराने स्टाइल के चश्मे के पीछे से मुंबई को भेदती आंखें। इस होर्डिग के आगे पीछे खान बंधुओं सेलेकर रितिक रोशन तक किसी खास ब्रांड का उत्पाद बेचते नजर आते है । लेकिन राज ठाकरे का पुरातनपंथी चेहरा सब पर भारी पड़ता है । यह खुरदुरी जमीन का बिग बॉस है जो मेहमानो को आमंत्रित नही करता ।

अब तय आप कीजिए कि किस बिग बॉस को पसंद करेंगे आप। एक बिग बॉस अपने घर में 13 मेहमानों को आमंत्रित करता है और उसमें आपको शामिल करने के लिए टेलीफोन की लाइन खोल देता है। नंबर बताता है। और अगले छह दिनों में चैनल से तकरीबन 50 से 100 करोड़ का धंधा करने का अनकहा वायदा कर देता है। वहीं दूसरे बिग बॉस के घर की लाइनें खुली हुई है। आप जब चाहें तब फोन कर सकते हैं। टीवी के बिग बॉस के घर जाकर आप मिल नहीं सकते। सड़क का बिग बॉस घर खोलकर इंतजार कर रहा है कि कोई तो आए। मिलने या दो दो हाथ करने। वक्त बदल चुका है। महानायक की छवि बिग बॉस में बिकने को तैयार है। और सड़क का बिग बॉस खुद को बेचने के लिए तैयार है। मै अपने ड्राइंग रुम में तो बिग बॉस को जगह दे नहीं सकता लेकिन मुंबई की सडक के बिग बॉस से दो-दो हाथ करने की सोच जरुर सकता हूं। क्योंकि मुझे सड़क का बिग बॉस पंसद है।

9 comments:

Khushdeep Sehgal said...

प्रसून जी,
देश भले ही 62 साल पहले आज़ाद हो चुका है, लेकिन गुलामी के जीन्स हमें विरासत में मिले हैं...ये हममें इतने रचे-बसे हैं कि चाह कर भी उनसे हम अलग नहीं हो सकते...हम दमनकारी व्यवस्था का खुद विरोध नहीं कर सकते...लेकिन चाहते हैं कि कोई राबिनहुड आए और हमारी लड़ाई लड़े...अब बेशक उसका व्यवस्था से लड़ने का तरीका हीरो सरीखा न होकर एंटी हीरो सरीखा हो...अब ये एंटी हीरो पर्दे पर सिस्टम से लड़े या असल जिंदगी में हम उसके लिए तालियां पीटते हैं...1973 में ज़ंजीर से अमिताभ के एंग्री यंगमैन का उदय 1975 में दीवार तक आते आते चरम पर पहुंच गया...ये ठीक वही दौर था जब लोकनायक जेपी इंदिरा-संजय के निरंकुश सिस्टम के खिलाफ अलख जगा रहे थे...लोगों को असल जिंदगी में जेपी और पर्दे पर अमिताभ के विजय में ही सारी उम्मीदें नज़र आईं...लेकिन आज 35 साल बाद लोगों को 68 साल के अमिताभ में विजय नहीं अशक्त बिग बॉस ही नज़र आता है...जो व्यवस्था से लड़ नहीं सकता बल्कि व्यवस्था का खुद हिस्सा ही बना नज़र आता है...ऐसे में अगर कोई एंग्री यंगमैन की तलाश में निकलता है तो उसे राज ठाकरे ही सबसे मुफीद लगता है...वो राज ठाकरे जो सिस्टम से लड़ता नहीं बल्कि खुद ही सिस्टम बनाता है...करन जौहर को एक धमकी मिलती है तो पुलिस के पास नहीं राज ठाकरे की चौखट पर नाक रगड़ने पहुंच जाते हैं...शायद इसीलिए कहा जाता है कि खुद गब्बर से भी बड़ा होता है गब्बर का खौफ़...और आज लोगों की मजबूरी है कि उन्हें राज ठाकरे के गब्बर में ही अपना खोया विजय नज़र आ रहा है...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सहगल साहब की बात से पूरी तरह से सहमत ! हां इतना और जोडूंगा कि महानायक. सदा महानायक ही रहेगा और चंद संकीर्ण दृष्ठि वाले मराठी सदा संकीर्ण ही रहेंगे, चाहे बाला साहेब का दौर हो, राज का दौर हो अथवा बालासाहेब के पोते-परपोतों का !

Kulwant Happy said...

शब्दों और सोच भी क्या चीज है। जब दोनों मिल जाते हैं तो कुछ खास निकाल कर लाते हैं। कभी कभी मुझे सोच और शब्द में सलीम-जावेद की जोड़ी नजर आती है। जिनके लिए संवाद आज भी लोगों के जेहन में उतरे हुए हैं। आज लेखकों की लम्बी चौड़ी फौज है, लेकिन कलम में वो लोहा नहीं, जो सलीम जावेद की कलम में था। शब्द और सोच अलग अलग..ऐसे ही बेअसर हो जाएंगे जैसे अब जावेद और सलीम अलग होने के बाद

सागर said...

पढने को मिला की १ करोड़ ४० लाख प्रति एपिसोड मिल रहे हैं... अब इस हरियाली में तो अच्छे-अच्छे अंधे हो जाएँ... किरण बेदी जब उत्पाद बेचने लगी तो ....

सागर said...

खुशदीप जी ने करण जौहर के बारे में जो लिखा है वो कल हिंदुस्तान में शशि शेखर के लेख में भी पढने को मिला...

RAJNISH PARIHAR said...

असल में सारा खेल पैसे का हो गया है!तभी तो बिग बी जैसे महान कलाकार आज टी वी पर इस तरह से नाचते गाते फिर रहे है!इससे उनकी बरसों से बनाई इमेज छिन्न भिन्न हो गई है!अब किरण बेदी को ही देखिये ,हर लड़की का सपना थी वे!और अब वे प्रोडक्ट बेच रहीं है!क्या सीखें इनसे?

Sarvesh said...

amitab bachhan ek kalakar hain. Aur oonki kala ko parakhni chahiye naa ki wo film me villain ko maarte hain yaa phone line kholkar phone karne ko bolte hain yaa kuchh mitha ho jaaye karne ko bolte hain.

Dhamender Yadav said...

राज ठाकरे तो सभी जगह है (पुरे देश में ) वो अपने हित साधने के लिए खुल के खेल रहा है और बाकि छुप के राज ने सिस्टम की नब्ज को पकड़ लिया है और खुले मैदान में है जो खुल के खेलता है वो ही नायक होता है

Mukesh hissariya said...

भैया ,आज के दिन जो दीखता है वही बिकता है ऐसा लोग सोचते हैं लेकिन आपकी बात का सार हर आदमी समझने लगे तो हमारी दुनिया नही बदल जायेगी क्या ?कमेन्टस बहुत अच्छा लगा .