Wednesday, October 7, 2009

कहीं सावरकर की लीक पर तो नहीं हैं भागवत !

भोंसले मिलिट्री स्कूल से उठते सवालों के बीच..

नासिक के भोंसले मिलिट्री स्कूल में घुसते ही यह एहसास किसी को भी हो सकता है कि चुनावी राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता । चुनाव भ्रष्टाचार करने और अनुशासन तोड़ने वालों के लिये है। मिलिट्री और अनुशासन का पर्याय राजनीति हो नहीं सकती और राजनीति के लिये मिलिट्री और अनुशासन महज एक सुविधा का तंत्र है। यह विचार स्कूल की किसी दीवार पर नहीं लिखे बल्कि राजनीति और मिलिट्री को लेकर यह परिभाषा इसी स्कूल के तीसरे दर्जै के एक छात्र की है। सुबह दस बजे स्कूल की एसेम्बली खत्म होने के बाद स्कूल के मैदान से भागते दौड़ते बच्चों का झुंड जब कैरिडोर में आया तो एक तरफ सरस्वती की प्रतिमा और दीवार की दूसरी तरफ डा. बी.एस.मुंजे की तस्वीर को प्रणाम कर ही हर छात्र को क्लास में जाते हुये देखा। सरस्वती की प्रतिमा नीचे थी तो छोटे छात्र छू कर प्रणाम कर रहे थे तो डा. मुंजे की तस्वीर दीवार पर खासी ऊंची थी तो उन्हें देख कर हाथ जोड़कर छोटे-छोटे छात्र क्लास रुम की तरफ भाग रहे थे।

उन्हीं भागते दौड़ते छात्र में तीसरी कक्षा के एक छात्र ने जब रुककर पूछा-आप टेलीविजन पर आते हो न ! और बातचीत में मैने पूछा अब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले है , आपको पता है। इस पर राजनीति को लेकर छात्र की उक्त सटीक टिप्पणी ने मुझे एक साथ कई झटके दे दिये। सबसे पहले तो यही समझा की मिलिट्री स्कूल की ट्रेनिग राजनीति को खारिज करती है। फिर जेहन में आया कि यह वही मिलिट्री स्कूल है, जिसका नाम मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में सामने आया। कट्टर हिन्दुवादी संगठन अभिनव भारत से लेकर आरोपी लें. कर्नल प्रसाद पुरोहित के तार भोंसले मिलिट्री स्कूल से ही शुरुआती दौर में जोड़े गये थे । फिर नासिक के सामाजिक-आर्थिक विकास में राजनीति के हस्तक्षेप और जाति से ज्यादा धर्म के आधार पर टकराव और धर्म की धाराओं को लेकर भी टकराव को इसी नासिक ने राजनीतिक तौर पर भोगा है, यह भी समझा ।

स्कूल की दीवार पर डां मुंजे की तस्वीर के नीचे धर्मवीर डां बीएसमुंजे लिखे था । धर्मवीर की पदवी आरएसएस ने डां मुंजे को जीते जी दे दी थी । लेकिन संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर के दौर में लिखा जाना शुरु हुआ। असल में डां मुंजे वही शख्स हैं, जिन्होंने हेडगेवार के साथ मिलकर आरएसएस की नींव डाली थी। लेकिन हेडगेवार से ज्यादा डां मुंजे सावरकर से प्रभावित थे। सावरकर का घर भी नासिक शहर से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर भगूर में है । इसलिये नासिक सावरकर का पहली प्रयोगशाला रही। लेकिन सावरकर जिस तरह सीधे राजनीति के जरिए हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सवाल खड़े करते रहे डां मुंजे उससे थोड़े हटकर थे । वह राजनीति को महज रणनीति भर ही मानते और हिन्दू राष्ट्र के लिये हर तरह से अनुशासनबद्ध समाज की परिकल्पना उनके जेहन में थी। इसीलिये आरएसएस बनाने के बाद अगर हेडगेवार देश के भीतर संघ की जड़ों को मजबूत करने में लगे तो सावरकर ने उस दौर में दुनिया के कई देशो समेत इटली की यात्रा कर यह भी देखने का प्रयास किया की मुसोलेनी अपनी सेना को वैचारिक तौर पर राजनीति से आगे कैसे ले जाते हैं।

माना जाता है कि मुसोलेनी के वैचारिक प्रयोग से प्रभावित होकर ही डां मुंजे ने 1937 में नासिक में भोंसले मिलिट्री स्कूल की स्थापना की। भगूर में सावरकर की लीक पर चलने वालों की मानें तो आज भी सब यही मानते हैं कि मिलिट्री स्कूल का सपना सावरकर का था। और हेडगेवार सामाजिक शुद्दीकरण के जरिए हिन्दू राष्ट्र की ट्रेनिंग समाज को देना चाहते थे और इन दोनों के बीच पुल की तरह डां मुंजे और उनका यह मिलिट्री स्कूल था। यानी उस दौर में नासिक में यह भावना बेहद प्रबल थी कि हिन्दू महासभा के अनुकूल जब देश निर्माण का स्थिति आ जायेगी तो मिलिट्री स्कूल के जरिए वैचारिक सेना का नायाब प्रयोग भी होगा। जिसमें संघ के स्वयंसेवक सहायक की भूमिका निभायेंगे ।

लेकिन मिलिट्री स्कूल बनने के 72 साल बाद भी नासिक की जमीन पर राजनीति के जरिए राष्ट्र निर्माण एक वीभत्स सोच है, यह तीसरे दर्जे के छात्र के कथन से ही नही उभरता बल्कि नये दौर में भी जो राजनीति पसर रही है, उसकी जमीन भी कमोवेश वैसी है। आरएसएस के स्वयंसेवकों में ठीक वैसा ही अंतर्द्वन्द 2009 में भी है जो 1937 में था । अभिनव भारत के गठन को लेकर पहली बैठक नासिक में ही हुई । उसमें हिन्दू महासभा से ज्यादा संघ के स्वयंसेवक इकठ्ठा हुये । नादेंड ब्लास्ट को लेकर जिन दस लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, उसमें आठ के संबंध संघ के संगठन से ही है। लक्ष्मण राजकोंडवार संघ का कार्यकर्ता माना जाता है। उनके दोनों बेटे नरेश और हिमांशु जो बम बनाते वक्त मारे गये, वीएचपी से जुडे थे। महेश पांडे और गुन्नीराज ठाकुर बंजरंग दल से जुड़े थे । मालेगांव और नांदेड ब्लास्ट में आरोपी लें कर्नल प्रसाद पुरोहित को भी बनाया गया । प्रज्ञा ठाकुर को भी शिकंजे में लिया गया। यानी साधु-संत से लेकर संघ और सेना। इसी दौर में भोंसले मिलिट्री स्कूल की भूमिका को लेकर राजनीति में सवाल उठे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद नासिक के सामाजिक मिजाज में बडा अंतर भी आ गया । नासिक जिले में ही मालेगांव भी आता है । लेकिन दोनों दो अलग अलग संसदीय सीट भी है । दोनों ही सीटों पर वोट बैंक का ध्रुवीकरण जिस तरीके से होता रहा है, उसमें हिन्दुत्व शैली का राष्ट्रवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण का सेक्यूलरवाद कुछ इस तरह घुमड़ता है कि जीत-हार में वोटों का अंतर कभी ज्यादा नहीं हो पाता। यहां सिर्फ वोट हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर ही नहीं बंटता बल्कि अभी भी हिन्दुत्व की कौन सी शैली सही है, उसको लेकर बहस होती है।

लेकिन यह बहस हिन्दुत्व को लेकर एक बार फिर आजादी से पहले की स्थिति को जिला रही है, यह सावरकर और गोलवरकर के जरिए अभी के सरसंघचालक को घेर रही है। अचानक ऐसी दो किताबे नासिक में दिखायी देने लगी हैं, जिसे संघ ने खारिज कर दिया था । 1920 में सावरकर की लिखी किताब "हिन्दुत्व" अचानक दिखायी देने लगी है । इस किताब को संघ ने कभी मान्यता नहीं दी। क्योंकि हेडगेवार उस दौर में कांग्रेस से जुड़े थे और सावरकर ने किताब में साफ लिखा था कि जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, वह हिन्दुत्व के साथ नहीं चल सकते और राष्ट्रीय नहीं हो सकते। यानी हिन्दुओं को छोड़ कर हर किसी की राष्ट्रीयता पर सीधा सवाल उठाया। यह किताब नासिक में हिन्दुत्व मिजाज को अचानक भा रही है। वहीं सावरकर के बड़े भाई बाबा राव सावरकर ने भी एक किताब "वी" लिखी थी, जिसका मराठी,हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद और किसी ने नहीं बल्कि गुरु गोलवरकर ने किया था। गोलवलकर ने 1963 में इस किताब को यह कह कर खारिज किया कि भारतीय समाज अब नये परिवेश में है, इसलिये इस किताब के दोबारा प्रकाशन की जरुरत नही है ।

लेकिन जबसे मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने है और अपने पहले भाषण से उन्होंने हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाना शुरु किया है, उसमें अचानक 46 साल बाद दुबारा यह "वी "नामक किताब भी सतह पर आ गयी है । खास बात यह हा कि "वी" नामक किताब को लेकर दोबारा वही बात कही जा रही है जो 1939 से 1963 तक कही गयी । यानी उस दौर में संघ के स्वयंसेवक मानते थे कि यह किताब गुरु गोलवरकर ने ही लिखी है। जबकि 2005 में गोलवरकर के शताब्दी समारोह में शेषाद्री ने इस किताब को गोलवरकर से अलग करते हुये किताब के मूल लेखक बाबाराव सावरकर के बारे में जानकारी दी थी। असल में मालेगांव और नादेड में हुये विस्फोट के बाद जिस तर्ज पर पुलिस प्रशासन ने कार्रवाई शुरु की और घेरे में कट्टर हिन्दुवादी संगठनों को लिया, उसमें अचानक सावरकर की सोच को संघ की धारा में लपेटकर वर्तमान राजनीति की कमजोरियो को जिस तरह उठाया जा रहा है, उसमें यह बहस भी शुरु हुई है कि भाजपा को भी भविष्य में उसी दिशा को पकड़ना होगा । यह धारा आरएसएस को भी अंदर से कैसे हिला रही है, इसका अंदाज सरसंघचालक को लेकर भी नये सवालो के जरिए उभरा है। सरसंघचालक मोहनराव भागवत छठे नहीं सातवें सरसंघचालक है। यानी पहली बार नासिक,पुणे से होते हुये नागपुर में भी डां परांजपे को याद किया जा रहा है। डां परांजपे एक साल के लिये 1930 में सरसंघचालक बने थे। उस साल डा. हेडगेवार नमक सत्याग्रह की तर्ज पर जंगल सत्याग्रह के आरोप में जेल में बंद थे। हेडगेवार के जेल में होने की वजह से डा. परांजपे को सरसंघचालक बनाया गया था । लेकिन डा. परांजपे हिन्दु महासभा के भी नेता थे और 1937 में संघ और हिन्दु महासभा में खटास इतनी बढ़ी कि इस साल हुये चुनाव में हिन्दु महासभा के खिलाफ आरएसएस ने कांग्रेस का साथ दिया। और इसी के बाद से डा. परांजपे का नाम भी संघ में हर कोई भूल गया । ले्किन 79 साल बाद संघ के भीतर ही अगर डा. पराजंपे को याद कर हिन्दुत्व की उस धारा की तर्ज पर मोहनराव भागवत को देखा जा रहा है, जो धारा सावरकर ने खींची थी तो इसका मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि संघ बदल रहा है या फिर संघ के भीतर संघ को लेकर ही नये सवाल खड़े हो रहे हैं।

सावरकर ने 1937 में कर्णावती अधिवेशन में पहली बार द्वि-राष्ट्र की बात कही थी और कहीं ज्यादा जोर देकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत यह कहते हुये कही थी कि जो यहां है वह खुद को हिन्दू राष्ट्र का हिस्सा माने। अगर मोहनराव भागवत के हर सार्वजनिक भाषण को उनके सरसंघचालक बनने के बाद से सुनें तो सभी में इसी हिन्दू राष्ट्र की प्रतिध्वनि सुनायी देगी । लेकिन दशहरा के दिन अपने नागपुर भाषण में उन्होंने हिन्दू राष्ट्र शब्द का भी प्रयोग नहीं किया । असल में जो आग आरएसएस के भीतर सुलग रही है, उसकी सबसे बड़ी वजह वैचारिक और राजनीतिक तौर पर शून्यता का आ जाना है। इसलिये सवाल भोंसले मिलिट्री स्कूल से निकल रहे हैं और रास्ता भाजपा के बदले आरएसएस के जरिए देखने की कश्मकश हो रही है । मिलिट्री स्कूल के जिस कारिडोर में डा. मुंजे की तस्वीर लगी है, उसके ठीक समानांतर पांच तस्वीरे और भी है । जो इसी स्कूल के छात्र रहे है। इसमें पहली तस्वीर कांग्रेस के नेता वसंत साठे की है। उसके बाद रिटा. मेजर प्रकाश किटकुले, रिटा. लेफ्टि. जनरल वाय डी शहस्त्रबुद्दे, रिटां लेफ्टि.जनरल एस सी सरदेशपांडे और रिटां लेफ्टि. जनरल एम एल छिब्बर की है । यानी चार फौजी और एक नेता, वह भी कांग्रेसी । लेकिन भोंसले मिलिट्री स्कूल से लेकर मालेगांव तक राजनीति की जो महीन लकीर विचारधारा के आधार पर राष्ट्र की परिकल्पना किये हुये है, उसमें बंटा हुआ हर तबका इस बात पर एकमत जरुर है कि राजनीति उन्हें चला रही है। उनकी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं है। मालेगांव धमाके के बाद इलाके के तीस फीसदी मुसलमानों का अगर ध्रुवीकरण हुआ है तो खानदेशी, मराठा, दलित, माली से लेकर उत्तर भारतीयो की बड़ी तादाद का भी ध्रुवीकरण हो गया है। यानी जो ज्यादा उग्र है, उसके लिये राजनीति के रास्ते दोनों तरफ से खुले हैं। यही हाल नासिक का भी है । इसलिये सवाल सिर्फ भोंसले मिलिट्री स्कूल के तीसरी कक्षा के छात्र का नहीं है जो राजनीतिक पर टिप्पणी कर राजनीति से आगे का रास्ता चाहता है। राजनीति के पारंपरिक सारे सवाल नासिक की युवा पीढ़ी के सामने किस रुप में बेमानी है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि सावरकर के मोहल्ले का नीतिन मोरघडे बीएससी का छात्र है लेकिन वह साधु-संत से लेकर संघ-अभिनव भारत और सेना को भी एक ही तश्तरी में रखकर इतना ही कहता है कि यह सभी राजनीति के मोहरे भर हैं। इससे आगे सोच कर राजनीति को जो मोहरा बनायेगा असल बदलाव यहीं होगा। नयी परिस्थितियों में इस पूरे इलाके में यह समझ राजनीतिक तौर पर भी दलों में आयी है। इसलिये शिवसेना से आगे बढ़ते महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उग्र तेवर युवा पीढ़ी को भा रहे हैं राजनीति में पूंजी का लेप उस पुरानी धारा को भा रहा है जो अभी तक कांग्रेस और भाजपा में अपना अक्स देखते थे। लेकिन मालेगांव विस्फोट के बाद हिन्दुत्व की जिस लड़ी को आरएसएस के भीतर स्वयंसेवक ही सुलगाना चाह रहे है, अगर वह सुलगी तो राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दुत्व का तत्व अयोध्या से कहीं आगे का होगा ।

4 comments:

Unknown said...

"गुरु गोलवरकर"(?) लिखा है, वह भी दो-तीन बार…। नाम तो ठीक से लिखिये… तब आपको गम्भीरता से पढ़ने के बारे में कुछ सोचें…। वैसे भी संघ विरोधियों की बात भी (बल्कि बात ही) सुनी जाती है अधिकतर… :)

सागर said...

यह खोजी खबर आप ही दे सकते थे... तलाश पूरी हुई... रोज़मर्रा के अनुभवों से दो-चार होते हुए काम की बात... राजनीति क्या होती है? कैसे हावी होती है? इसके बीज कहाँ होते हैं... और यह कैसे-कैसे जीवन को प्रभावित करती है ? चाह कर भी इससे नहीं बच पाना ... यह ऐसे सवाल है साथ ही राजनीति ही इनका जवाब है... इससे मुह भी नहीं मोडा जा सकता...

Razi Shahab said...

behtareen lekh

anurag said...

lekh jansatta mein pada tha punaya bhai. aapki rss aur left dono ki samajh ko daad deta hoon. lekin claas 3rd ke us ladke se lekar naxals tak chunav aur chunav ki rajniti ko bekar maan rahe hai. maovadiyon ke kilaph sarkar sakhat ho rahi hai rss bhi swarkar ki disa mein chal raha hai jo pake taur par advani ki rathyatra se khatanak hai. to phir desh ki waam aur ram rajniti aakhir kis karwat bathegi