माओवादी संकट कहीं राजनीति के अतर्विरोध को उभार तो नहीं देगा ? माओवादी संकट कहीं विकास की लकीर पर ही सवाल तो खड़ा नहीं कर देगा ? माओवादी संकट कहीं राजनीतिक मुनाफे के आगे नपुंसक होते संस्थानों के दर्द को विस्फोटक तो नहीं बना देगा ? यह सवाल खासे तेजी से उठने लगे हैं। दिल्ली में चिदंबरम चाहे माओवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई का ऐलान करे लेकिन राजनीतिक सत्ता के मुनाफे का टकराव हर लड़ाई को हवा-हवाई बना देगा। राजधानी एक्सप्रेस को पांच घंटे अपने कब्जे में कर अगर माओवादियों ने छत्रघर महतो की रिहायी की मांग की तो उसका दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक है। जिस वक्त जंगल में राजधानी एक्सप्रेस फंसी तो राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में राजधानी उलझ गयी, जब हजारों यात्रियों के जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि सरकार और सुरक्षा बंदोबस्त हैं कहां तो दिल्ली में रेल मंत्री ममता बनर्जी सीपीम को घेरने में लगी रहीं। एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बंगाल के मुख्यमंत्री से वह बात कर रही हैं, उनकी जुबान पर उड़ीसा के सीएम का नाम तो आया लेकिन बंगाल के सीएम का जिक्र करना तक उन्होंने सही नहीं समझा।
पॉलिटिकली करेक्ट रहने के लिये सीपीएम ने भी ममता बनर्जी को ही इस मौके पर घेरेने का प्रयास किया। हर कोई भूल गया कि राज्य की जिम्मेदारी क्या है और केन्द्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की भूमिका संकट के वक्त क्या होनी चाहिये। जाहिर है पॉलिटिकली करेक्ट रहने की समझ हर राजनीतिक सत्ता की जरुरत है, इसलिये दिल्ली में अगर कभी माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई पर दिल्ली में ठप्पा लग भी जाये तो भी राज्यों की भूमिका राज्यों की सीमा-दर-सीमा बदलगी क्योंकि सीमा बदलते ही राजनीतिक सत्ता भी बदलती है। पॉलिटिकली करेक्ट होने की होड़ पुलिस-सुरक्षाबलो को कैसे तोड़ सकती है इसका अंदाजा बंगाल के पुलिसकर्मियों के टूटते मनोबल से समझा जा सकता है। असल में जिस पुलिसकर्मी की रिहायी माओवादियों ने छाती पर युद्दबंदी का पोस्टर लगाकर मीडिया के हंगामे के बीच की। उस रिहायी के 14 घंटे पहले लालगढ़ में सुरक्षाबलों ने माओवादी किशनजी को घेर लिया था। किशनजी वही शख्स हैं, जो लालगढ की हर माओवादी कार्रवाई का अगुवा है। अपने घेरेबंदी की जानकारी किशनजी को भी थी। लेकिन उसी वक्त माओवादी नेता ने न्यूज चैनलों के जरिए सीधे कहा कि अगर तैनात फोर्स ने किसी भी तरह गोलिया चलायी या कार्रवाई की तो अपहर्त पुलिसकर्मी की हत्या कर दी जायेगी।
बुद्धदेव सरकार ने तत्काल फैसला किया कि लालगढ़ में तैनात सुरक्षाकर्मी कार्रवाई नहीं करेंगे। कार्रवाई रोकी गयी और उसके बाद देश में अपनी तरह का पहला युद्दबंदी रिहा हुआ। रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी ने ना सिर्फ मीडिया के सामने इलाके में विकास का सवाल उठाकर माओवादियों को सही ठहराया बल्कि पुलिस को किस रुप में सत्ता देखती है और प्रचार प्रसार के जरीये उसे हर मामले में शहीद होने का तमगा लगा कर राजनीति पल्ला झाड लेती है, इसने रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी के उस तर्क के सामने सबकुछ खारिज कर दिया जब रिहायी के बाद पुलिसकर्मी ने ड्यूटी संभालना तो दूर सीधे कह दिया कि नयी परिस्थियों में वह पहले अपने परिवार से बात करेंगे।
महत्वपूर्ण है इसी दौर में राज्य और केन्द्र सरकार सुरक्षाकर्मियों को माओवादियो के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिये लगातार जोर दे रही हैं। ऐसे में बंगाल के पुलिसकर्मियो के सामने एक साथ कई सवाल खड़े हुये हैं कि जिन माओवादियों ने एक पुलिसकर्मी को बंधक बनाया उन्हीं माओवादियों ने उससे ठीक पहले दो एएसआई दीपांकर भट्टाचार्य और साकोल राय की हत्या भी की। फिर रिहायी के वक्त बंधक पुलिसकर्मी, जिन माओवादियों से हाथ मिला रहे थे उन्हीं माओवादियो ने थाने पर हमलाकर दो पुलिसकर्मियों को मारा था ।
जाहिर है इसके बाद सुरक्षाकर्मियों ने जब माओवादियों को घेरा और ऊपरी निर्देश पर कार्रवायी रोक दी, उनके सामने सवाल है कि कल फिर राजनीतिक सत्ता की मजबूरी उन्हें ना रोके इसकी गारंटी कौन लेगा। वहीं तीसरा सवाल भी ‘राजधानी’ के जंगल में फंसने पर उठा। भुवनेश्वर से आने वाली राजधानी को रुकवाने के बाद वहां के ग्रामीण माओवादियो ने दो ही काम सबसे पहले किये। पहला तो रेलगाड़ी के डिब्बो पर छत्रघर महतो की रिहायी की मांग को लाल रंग से लिख डाला और उससे कहीं ज्यादा तेजी से पेन्ट्री कार और कंबल लूटने के लिये हमला किया। एक बांग्ला न्यूज चैनल के रिपोर्टर ने हिम्मत दिखाकर कुछ फर्लांग दूर वंशतोल और झारग्राम के बीच एक झोपडी में जाकर कैमरे से तस्वीरे लीं तो विकास के सवाल ने पाषाण काल की तस्वीर सामने ला दी। क्योंकि उस झोपड़ी में पेन्ट्री कार से लूटे गये खाने और उसकी चमकीली चिमनी के अलावा लूटा गया कंबल था, जो एक डोरी पर झूल रहा था। इसके अलावा कमरे में चटाई, बांस के डंडे, तेन्दू पत्तों की पोटली, मिट्टी का चूल्हा और लोहे की दो कड़ाई पड़ी थी। ओसारे पर मटमैली साड़ी,धोती और फटे हुये कुछ कपडे जरुर थे । इसके अलावा पूरी झोपड़ी में कुछ नहीं था। राजधानी मे यह सारे सामान फेंकने वाले होंगे, जिसकी कीमत लगाना बेमानी है लेकिन झारग्राम के इलाके का यही सच है। जाहिर है यह सारे सवाल उसी माओवाद से जा जुड़े हैं, जिनके प्रभावित इलाको में राजधानी की कोई योजना पहुंचती नहीं और राजधानी एक्सप्रेस फंस जाये तो राज्य और देश की राजधानी में राजनीतिक ब्रेक लग जाता है।
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Thursday, October 29, 2009
राजधानी की योजनाओं से दूर जंगल में 'राजधानी' फंसने का मतलब
Posted by Punya Prasun Bajpai at 7:59 AM
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नक्सलवादी,
माओवाद,
राजधानी एक्सप्रेस
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4 comments:
पांच घंटे बेबस बंधक रहने और कुल आठ घंटे के हाईजैक ड्रामे के बाद 'राजधानी' राजधानी पहुंच गयी...सभी मुसाफिर सुरक्षित आये..इस बात से राहत मिली...लेकिन माओवादियों के कब्जे से छुट्टी राजधानी अपने साथ सुख,सत्ता,सिर्फ और सिर्फ शासन की लालायित सरकारों और सियासतदानों की नाकामी का इंजन और ड्रामेबाज माओवादियों का चेहरा,रास्ते में असल भूख से तड़पते आदिवासियों की जमीन की धूल समेत कई अनसुलझे सवालों वाले डिब्बे भी'राजधानी' के साथ दिल्ली पहुंचे हैं...लेकिन किसी के पास ना तो वो चश्मा है और ना ही वो लालटेन जो लाल होते गढ़ों से गुजरकर आयी असल "राजधानी" को देख सकें,समझ सकें
नपुंसकतावाद जोर पकड़ रहा है !
राजधानी जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है वे कभी नहीं समझ सकते कि जंगल का आदिवासी भी इस देश का वासी है।
MAI NE KAYA KYA NAHI DEKHA
DIL DARU DAVA TAK DEKHA
MARTI JITI JINDGI DEKHI
ISHAK YE MEHBUBA
MA KI DU TAK DEKHA
LEKIN PET SE GHARA..PET SE BARA
KUCH NAHI DEKHE.. KUCH NAHI DEKHA
YE NAXLI PET KE LIYA FIGHT KAR RAHE HAI,
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