Saturday, January 23, 2010

क्यों मुंबई में है सभी की जान

दुनिया के नक्शे पर जिस शहर की पहचान सबसे बड़े वित्ताय शहर के तौर पर हो और जिस शहर में दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति हों, क्या उस शहर को सिर्फ मराठी मानुस के नाम पर अलग किया जा सकता है। असल में मराठी मानुस की राजनीति तले मुंबई का मतलब वह आर्थिक नीति भी है जिसके सरोकार आम मुंबईकर से नही हैं। मुंबई की भागीदारी देश के जीडीपी में 5 फीसदी है। यह वह शहर है, जहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का दफ्तर भी है और फॉरच्यून ग्लोबल 500 कंपनियो में से कई के दफ्तर हैं। देश के टाप दस वित्तीय संस्थान आरबीआई,एसबीआई,एलआईसी,रिलायंस,गोदरेज टाटा ग्रुप,से लेकर एलएंडटी तक का मुख्यालय है।

इतना ही नहीं सिर्फ मुंबई से 33 फीसदी इनकम टैक्स बटोरा जाता है। 20 फीसदी सैन्ट्रल एक्साइज टैक्स, 40 फीसदी विदेशी व्यापार यही होता है और साठ फीसदी कस्टम ड्यूटी यहीं से वसूली जाती है । चालीस बिलियन रुपया कारपोरेट टैक्स के तौर पर मुबंई से ही आता है। और तो और बालीवुड से लेकर सैटेलाइट नेटवर्क और बडे पब्लिशिंग हाउस के हेडक्वाटर भी मुंबई में हैं। और इन सभी बड़े धंधों को चलाने में अधिकतर गैर महाराष्ट्रीयन ही जुड़े रहे हैं।

लेकिन यहीं से मुंबई को लेकर एक दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि जिन धंधों पर मराठी मानुस की राजनीति तले निशाना साधा जा रहा है, वह हमेशा से गैर-महाराष्ट्रीयन ही करते रहा है। टैक्सी चालन हो या ऑटोचालन या फिर हॉकर का धंधा हो या धोबी या दूध बेचने का, महाराष्ट्रीयन ने यह काम कभी किया नहीं। फिर क्या वजह है कि इन कामों को लेकर भी मराठी मानुस ठाकरे परिवार की राजनीति तले खड़ा हो जाता है। असल में मुंबई समेत समूचे महाराष्ट्र के रोजगार के हालातों की स्थिति बीते दो दशकों में सबसे बुरी हुई है। मराठी मानुस सबसे ज्यादा टैक्सटाइल मिलों में काम करता रहा है। लेकिन मुबंई की सभी और राज्य के नब्बे फिसद टैक्सटाइल मिले बंद हो चुकी हैं। सोलापुर सरीखा शहर जिसकी पहचान एकवक्त मनचेस्टर के तौर पर होती थी, आज वह शहर मजदूरों के लिये मरघट हो चुका है। मिलो की जमीन पर रियल स्टेट का कब्जा है। राज्य के 27 जिलों में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बीमार है। करीब नौ लाख से ज्यादा मजदूर इस दौर में बेरोजगार हुये हैं। जो पीढ़ी मिलों में काम कर बड़ी हुई है, अब उनके बेटो के पास काम नहीं बच रहा तो ऐसे में पहली और आखिरी मंजिल मुंबई पलायन ही हो चली है। खासकर दलित, पिछडा और ओबीसी तबके का पास रोजगार के कोई साधन नहीं है। वहीं इन परिस्थितियो के बीच मंदी के दौर ने रोजगार के और लाले पैदा किये हैं। क्योकि मंदी में हीरे की सफाई से लेकर आईटी और हेल्थकेयर से जुडे महाराष्ट्रीयन कामगारो की सबसे ज्यादा नौकरी गयी है। जो मुंबई एक वक्त देश के कुल कामगारों में सबसे ज्यादा 15 फीसदी रोजगार देता था, अब वह घटकर 7 फीसदी पर आ पहुंचा है ।

जाहिर है इस तबके से जुड़ा कोई भी सवाल कोई भी राजनीतिक उठाये, उनकी नजरों में वह नायक सरीखा होगा ही । यहा याद करना होगा साठ के दशक में बाला साहेब ठाकरे की राजनीति । उस दौर में बाला साहेब ने लुंगी को पुंगी बनाने का नारा देकर दक्षिम भारतीयों पर निशाना साधा था। तब मोरारजी देसाई से लेकर मधु दंडवते और जार्ज से लेकर कांग्रेस के मुख्यमंत्री तक ने ठाकरे की राजनीति को लुंपन और प्रजातंत्र के खिलाफ करार दिया था। लेकिन 1968 के बीएमसी चुनाव में ही ठाकरे को सफलता मिली और शिवसेना की राजनीतिक जमीन बन गयी।

चालीस साल बाद कुछ इसी तरह राज ठाकरे ने भईया यानी उत्तर भारतियों पर निशाना साधा । जिसपर संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इसे अलोकतांत्रिक करार दिया और राज्य सरकार ने भी इसे घातक करार दिया। लेकिन विधानसभा चुनाव में जिस तरह परिणामों को ही राज ठाकरे की राजनीति ने उलट-पुलट दिया, उससे राज की राजनीतिक जमीन बन कर खड़ी हो गयी। सवाल है सत्ताधारी कांग्रेस-एनसीपी ने पहली बार उसी लुंपन-अलोकतांत्रिक और गैर प्रजातंत्रिक सोच को राज्य की नीति का हिस्सा बनाने की पहल शुरु की तो इसका सीधा मतलब सत्ता पहली जरुरत का फार्मूला ही निकल कर आया। सवाल है बिहार-उत्तर प्रदेश से अगर महाराष्ट्र की इस राजनीति का विरोध होता है तो फिर इससे कैसे इंकार किया जा सकता है कि उनकी जरुरत तो विरोध की ही होगी। क्योंकि बिहार में अगर 54 फीसदी तो उत्तरप्रदेश में 77 फीसदी आबादी खेती पर टिकी है और बीते जिन 20 वर्षो में महाराष्ट्र के 30 लाख से ज्यादा औगोगिक मजदूरों के सामने रोजगार का संकट आया कमोवेश इतनी ही संख्या में बिहार-यूपी के खेत-मजदूर और किसान बेरोजगार और बेजमीन हो गया। जबकि ओधोगिक धंधे भी खत्म हुये मिलो में ताले लगे और जमीन की कीमत ही आखरी उपाय जीने का बचा।

इन परिस्थितियों में समाधान के लिये अगर महाराष्ट्र की राजनीति पर निशाना साध कर कोई समाधान चाह रहा है तो मुश्किल है। क्योकि रास्ता उस अर्थव्यवस्था से होकर ही गुजरता है, जिसने आर्थिक सुधार के बाद आम आदमी से सरोकार खत्म कर लिये हैं। यह मनमोहन इक्नामिक्स का ही खेल है कि जिस मुबंई में दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं, उसी मुंबई शहर में सबसे ज्यादा गरीब भी रहते है । इतना ही नहीं जिस महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पलायन हुआ है वहां दुनिया के सबसे ज्यादा शहरी गरीब रहते हैं। आंकड़ों के लिहाज से मुंबई में कुल 68 हजार 459 टैक्सी चालकों में से 24 हजार उत्तर भारतीय है और सवा लाख ऑटो चालक में से 54 हजार उत्तर भारतीय हैं। वहीं उत्तर भारत में करीब तीन लाख मराठी रोजगार कर रहे हैं। इसलिये सवाल राजनीति से आगे का है। राजनीति का सच तो देश के सामने है और ठाकरे की राजनीति हो या मायावती की या फिर लालू की वह तो हमेशा पारदर्शी ही रहेगी। लेकिन सवाल है जो आथिक नीतियां अपनायी जा रही हैं, उसमें समाज के भीतर ही खाई इतनी चौड़ी होती चली जा रही है कि एक तबका यह मान चुका है कि दूसरा तबका उसके जीने में खलल डालता है। विकास की यह सोच मराठी मानुस की राजनीति से कही आगे का फलसफा है। इसे रोक सकते हैं तो रोकें।

3 comments:

शरद कोकास said...

राजनीतिज्ञों को यह चिंतन करने की आवश्यकता है । इसलिये कि अब भौगोलिक सीमाओं जैसी कोई बात नही रह गई है इस सोच को व्यापक करन होगा ।

prabhat gopal said...

मुंबई को लेकर जो बहस आपने शुरू की है, वह गौर फरमाने लायक है। बहस और परेशानी की असल नब्ज भी यही है। लेकिन विडंबना ये है कि राजनीतिक से लेकर आम जन तक देश के स्तर से नहीं सोचकर स्थानीय और राज्य स्तर पर ही मामले को देखते हैं। चाहे वह नक्सलवाद का मामला हो, रोजगार का या आर्थिक का। जरूरत देश के स्तर से सोचने की है।

RISHIKESH said...

नक्सल जिस विकल्प की बात करता है वह वर्त्तमान खाई को पाटता नजर आता है..पर हिन्सा उसे सिरे से नकारने पर मजबुर करती है..मनमोहनोमिक्स रोजगार नही पैदा कर रही है या पैदा कर भी रही है तो अन्ग्रेजी बोलने वालो के लिए..