कामरेड ज्योति बसु...लाल सलाम । मुट्ठी भिची हुई और हाथ हवा में उठाकर लाल सलाम कहने की ताकत कितने वामपंथी नेताओ में है..लगातार टेलीविजन स्क्रीन पर इसे ही देखने के लिये बैठा रहा। फोन पर ज्योति बाबू के बारे में पहले दो घंटे कमेन्ट्री करते वक्त और बाद में एंकरिंग करते वक्त वामपंथियों की नयी पीढी को पढ़ने की कोशिश कर रहा था । नयी पीढ़ी...सीपीएम की नयी पीढ़ी...नेताओ की नयी पीढ़ी...जिसकी आंखें नम थी लेकिन जोश ढीला था। कोई पहला और आखिरी कामरेड नहीं मरा था। सीपीएम को बनाने वाली पहली पोलित ब्यूरो के नौ रत्नो में से आठ की मौत कामरेड ज्योति बसु के जीते जी हुई। हर को कामरेड बसु ने लाल सलाम कहा। कामरेड बसु की आंखें नम जरुर हुईं लेकिन कामरेड कभी टूटे हुये नहीं लगे। लेकिन कैमरे पर कामरेड ज्योति बसु को याद करते वक्त किसी वामपंथी नेता के मुंह से लाल सलाम नहीं निकला...क्यों?
सीपीएम के पहले पोलित ब्यूरो सदस्य ए के गोपालन की मौत 1977 में हुई । 1983 में कामरेड ज्योति बसु के सबसे करीबी पोलित ब्यूरो सदस्य प्रमोद दासगुप्ता की मौत हुई...लेकिन लाल सलाम कह कामरेड बसु जुटे रहे । फिर 1985 में पी सुदरय्यै, 1987 में पी रामामूर्त्ति, 1990 में बीटी रणदिवे, 1992 में एम वासवापुनैया, 1998 में ईएमएस नंबूदरीपाद और 2008 में कामरेड सुरजीत की मौत के बाद कामरेड बसु कितने अकेले हो गये होंगे...इसका अहसास 1964 में पहली पोलित ब्यूरो के उन सभी सदस्यों के निधन के बाद अकेले बचे कामरेड ज्योति बसु को जरुर हुई होगी। सीपीआई के कामरेड डांगे से वैचारिक तौर पर दो-दो हाथ करने के लिये जब कोई सोच भी नहीं सकता था तब कामरेड बसु एक नया राजनीतिक प्रयोग करना चाहते थे । सीपीआई नेशनल काउंसिल में शामिल होने के लिये दिल्ली से तेनाली यात्रा के दौरान, जो ट्रेन की तीसरे दर्जे में बैठकर कामरेड बसु ने अपने उन साथियो के साथ की थी, जो सीपीएम की पहली पोलित ब्यूरो के सदस्य बने....उनके सामने कामरेड डांगे की उस सोच को रखा जो भारतीय या कहे शायद बंगाल के परिपेक्ष्य में कामरेड बसु को ठीक नहीं लगी। डांगे जिस तरह वर्ग सहयोग की नीतियों को अपनाते और पैसे का इस्तेमाल कर अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करते...कामरेड बसु इसे 1962-63 में ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे और ट्रेड यूनियन के साथ साथ राजनीतिक तौर पर जनता को साथ लेने के सवाल को उन्होंने दिल्ली से तेनाली यात्रा के दौरान हर किसी को समझाया....असर यही हुआ कि 11 अप्रैल 1964 को सीपीआई नेशनल काउंसिल से 32 सदस्यों ने विद्रोह किया। और तीन महीने बाद ही सीपीएम बना कर पहली बार उस सरोकार को कामरेडशीप के साथ जोडने की कोशिश की जिसकी आग में तपकर ज्योति बसु कामरेड बने ।
40 के दशक में बंगाल और देश ने एक तरफ अगर हर मुश्किल हालात को देखा तो कामरेड बसु हर घटना से जुड़ते और लोगों को जोड़ते चले गये। चाहे वह महाअकाल हो या विभाजन और उससे पनपे दंगे या फिर शरणार्थियों के सवाल । हर परिस्थिति से कामरेड बसु ने खुद को जोड़ा और संयोग से उस दौर के वह सभी कामरेड जो ज्योति बसु को दिशा दे रहे थे या ज्यति बसु से जो जो दिशा ले रहे थे, 2010 में कोई बचा हुआ नहीं है । कामरेड ज्योति बसु ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1940 में उत्तर 24 परगना जिले में स्थित कांचरापाडा रेलवे वर्कशाप के गेट पर 30-35 मजदूरों के सामने भोंपू पर बोलते हुये की और आखिरी सलामी में समूचा बंगाल लाल सलाम कहने उमड़ा।
यह सवाल मुश्किल है कि मौजूदा सीपीएम की नयी पीढ़ी....15 सदस्यीय पोलित ब्यूरो या 92 सदस्यीय सेन्ट्रल कमेटी , जो अपने को सबसे समझदार मानती समझती है, उससे पूछा जाये कि लाल सलाम की खामोशी के पीछे राज क्या है। सभी वामपंथी नेता श्रद्धांजलि देने कोलकत्ता पहुंचे थे। 18 जनवरी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिल्ली के सीपीएम मुख्यालय में कामरेज बसु को श्रद्धांजलि देने पहुंचे । उनके सामने मौजूदगी दिखाने के लिये सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सीतीराम येचुरी हवाई जहाज पकड़कर कोलकत्ता से दिल्ली आये । मनमोहन सिंह ने कामरेड बसु की तस्वीर के सामने गुलाब के फूल की पंखुडियों को डाला। किताब में लिखा...ज्योति बसु महान नेता थे । फिर सीताराम से गुफ्तुगू कर लौट गये। सीताराम येचुरी भी हवाई जहाज पकड़कर कोलकत्ता वापस लौट गये। कामरेड ज्योति बसु के जीवित रहते कई मौके आये जब किसी कामरेड की मौत उन्हें अंदर से हिला गयी और कामरेड बसु ने निर्णय लिया कि वक्त और धन की जरुरत देशवासियों को ज्यादा है तो कामरेड बसु ने कोलकत्ता नहीं छोड़ा।
असल में कामरेड बसु जब 1977 में पहली बार राइटर्स बिल्डिंग पहुंचे तो सामने पड़ी फाइलों में बंगाल की माली हालत का ही सरकारी आंकड़ा देखा । 18 में से 14 जिले देश के सबसे गरीब जिलों में से थे । और जो पहला निर्णय बतौर सीएम राइटर्स बिल्डिग में 21 जून 1977 को लिया गया वह राजनीतिक बंदियो की रिहायी का आदेश था। यह वही बंदी थे, जिन्हें नक्सलवादी कह कर कांग्रेस की सिद्धार्थ शंकर रे की सरकार ने जेलों में बंद किया था। नयी पीढ़ी...सीपीएम की नयी पीढ़ी जो माओवादियों से घबरायी हुई है...कामरेड बसु कभी घबराये नहीं । 1967 में जब कामरेड बसु डिप्टी सीएम बने तो तीन महीने बाद ही नक्सलबाडी कृषक संग्राम समिति का गठन किया गया तो कामरेड ने लाल सलाम ठोंका। लेकिन दिसबंर 1970 में जब यादवपुर विवि के उपकुलपति गोपाल सेन की हत्या नक्सलियों ने कर दी तो कामरेड बसु ने खुला विरोध किया। अगस्त 1976 में कांग्रेस सरकार ने स्टार थियेटर पर हमला करके उत्पल दत्त के दु:स्वप्नेर नगरी के नाटक के मंचन को रोका तो कामरेड बसु ने सरकार की खुली आलोचना की। नक्सलवाद के खिलाफ सरकार में आने के बाद बसु ने दो तरफा पहल की और चारु मजूमदार से लेकर कानू सन्याल की गिरफ्तारी हुई तो उस जनता के बीच भी कामरेड बसु पहुंचे जहा सबसे घना अंघेरा था । भूमि सुधार , पंचायती राज और ईमानदारी ने कामरेड बसु का रास्ता खुद ब खुद साफ कर दिया। बुद्धदेव की तरह कामरेड बसु को नक्सलियों के खिलाफ पुलिस या केन्द्र के अर्दद्सैनिक बलो की जरुरत कभी नहीं पड़ी। जनता कैडर बनी और कैडर सुरक्षाकर्मी। लेकिन कामरेड ज्योति बसु फिसले भी । 1962 में माओ की खुली तरफदारी कामरेड बसु ने ही की...फिर इंदिरा गांधी से करीबी कामरेड बसु की ही रही। यहां तक की साल्टलेक के जिस इंदिरा भवन में कामरेड बसु आकर बीस साल रहे, वह इंदिरा गांधी ने ही भेंट किया था। यह वही कांग्रेस थी, जो कामरेड बसु को प्रधानमंत्री बनता देखना नहीं चाहती थी। 1996 में जब संयुक्त मोर्चा सरकार बनाने की राह पर था तो सभी वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने चाहते थे। वीपी सिंह ने ही उस समय कामरेड ज्योति बसु का नाम लिया था। उस दौर में संयुक्त मोर्चे की तरफ से असल पहल मेनस्ट्रीम के संपादक निखिल चक्रवर्ती कर रहे थे । और उपराष्ट्रपति एम के नारायणन के लगातार संपर्क में थे। लेकिन कांग्रेस की तरफ से उस समय कामरेड बसु के नाम पर चुप्पी साधी गयी थी और जो कहा गया था उसका मतलब यही था कि कामरेड बसु नहीं चलेंगे....क्योकि दक्षिण का एक ऐसा नेता कांग्रेस चाहती थी जो सीएम भी रहा हो। तभी देवगौडा का नाम सामने आया था।
उस वक्त सवाल यह नहीं था कि सीपीएम की सेन्ट्रल कमेटी या पोलित ब्यूरो कामरेड बसु के नाम पर सहमति दिखा देती। बड़ा सवाल था कि कामरेड बसु के नाम पर सहमति के बाद जब कांग्रेस इस नाम को खरिज करती तो क्या असर होता। मुश्किल यह नहीं है कि सीपीएम की नयी पीढ़ी इन स्थितियों से वाकिफ नहीं है और वह ऐतिहासिक भूल का मतलब शायद देश के राजनीतिक हालात बेहतर बनाने से कामरेड बसु को जोडकर अपनी वर्तमान स्थिति बेहतर बनाने की जुगत में जुटे हैं। मुश्किल यह है कि आम बहुसंख्यक लोगों से जुड़ना और आम लोगों को पार्टी से जोड़ने का मिजाज पूरी तरह खत्म ही नहीं किया गया बल्कि उस सपने की भी हत्या कर दी गयी, जिसे अनजाने में ही हर युवा नब्बे के दशक तक लेफ्ट सोच के साथ विद्रोही तेवर लिये अपने कालेज से लेकर हर सड़क-चौराहे पर नजर आता था। वामपंथी होने के लिये पोलित ब्यूरो या सेन्ट्रल कमेटी या कैडर बनने की आवश्यकता नही है, यह तो बंगाल ने कामरेड ज्योति बसु को लाखों की तादाद में जमा होकर लाल सलाम कहकर जतला दिया कि वह अभी वामपंथी है....लेकिन लाल सलाम पर सीपीएम की खामोशी ने जरुर दिखला दिया कि वही वामपंथी नहीं रही। और यह उस सपने की मौत है जिसे जगाने में कामरेड ज्योति बसु ने जिन्दगी के साठ साल लगा दिये। इसलिये शहर में दिया गया वह आखिरी लाल सलाम था जो कामरेड बसु की मौत के साथ फुर्र हो गया...अब सवाल गांव और जंगल का है।
7 comments:
उम्दा लेखन के लिए आपको मिलता है। मेरी ओर से।
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ज्योति बाबु बारे इतनी तथ्यपरक जानकारी के लिए धन्यवाद...
यह ज्योति बाबू ही थे जिन्होंने सम्यवादिओन की सुभाषजी के प्रति सोच को बदला और उनके प्रति गद्दार की टिपण्णी को वापिस लिया। २४ परगना के २१ खूंखार अप्राधिओं को पार्टी में ले कर और प्रभात दस गुप्ता तो गृहमंत्री बना कर राजनीति के अपराधीकरण का रास्ता साफ़ किया। २५ साल में बंगाल को क्या बना दिया किसी से छुपा नहीं। लालू ने भी ऐसे ही १५ साल बिहार पर राज किया । फर्क सिर्फ यह था की ज्योति बाबू परिवारवाद और भ्रष्टाचार से बच कर निकल गए.
माकपा से अलग होकर भाकपा(मा-ले) के गठन को आपने तफ़सील से नहीं बताया । ज्योति बसु ने तब सिर्फ़ बनहुगली की एक गली में सैंकड़ों नौजवानों की हत्या करवाई थी। बनहुगली मोहल्ला बराह्नगर इलाके में है जिस विधान सभा क्षेत्र से १९७२ में उन्हें भाकपा के उम्मेदवार के हाथों मुँह की खानी पड़ी थी। लाल सलाम को इस स्टालिनवादी दल ने तब ही दफ़न कर दिया था।
उत्तम और बेबाक जानकारी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। ज्योति बसु का 23 साल तक पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बने रहना ही राज्य में उनकी राजनीतिक स्वकृति का सबसे बड़ा प्रमाण है। गहरी पीड़ा होती है जिस आवाज़ को व तीन दशक तक बड़ी बेबाकी से उठाते रहे, वही आवाज़ उनकी ही अंतिम यात्रा के दौरान धीमी पड़ गई।
अब सीपीआई एम क्या मार्क्सवादी रह गई है? आप ने अच्छा सवाल उठाया।
Thanks keep it up dear,
SaTiK aur sharp hai Prasun Bhaai... Jai ho!
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