Friday, May 7, 2010

कौन मिटाएगा 26/11 का तिलक?

ताज होटल के क्रिस्टल रूम में 26/11 पर फैसला आने के 36 घंटे पहले दो मिनट का मौन रखने के लिए जैसे ही सारे खड़े हुए, बगल में खड़े ताज के ही एक अधिकारी ने जानकारी दी कि यह सवा सौवीं श्रद्धांजलि है। मौन टूटा तो मैने पूछा कि क्या ताज के हर समारोह में यह होता है। जी,हर बैठक, हर सेमिनार, हर काँरपोरेट मीटिंग और हर काँकटेल पार्टी में भी। तो क्या अजमल कसाब पर फैसला आने के बाद श्रद्धांजलि का यह सिलसिला खत्म हो जाएगा? जबाब मिला-कह नहीं सकते, लेकिन 26/11 का मतलब मुम्बई के लिए क्या है, यह कसाब के फैसले पर नहीं 26/11 पर ही जा टिका है।

ताज में एक मई की यह शाम एनबीसी यानी न्यूजमेकर ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन के अवार्ड समारोह की शाम थी। जिसमें कमोवेश हर क्षेत्र के लोग मौजूद थे। विनिता कामटे से लेकर कश्मीर के जीएच खालु तक। डिप्टी सीएम छगन मुजबल से लेकर डिप्टी पुलिस कमिश्नर रहे वाइ पी सिंह तक। तबस्सुम से लेकर मोहन आगाशे तक। मेरे 26/11 का जिक्र करने पर, किसी ने भी कसाब का नाम नहीं लिया। लेकिन हर किसी ने 26/11 की टीस को देश की कमजोरी से जुडा हुआ जरुर महसूस किया। यहां तक की ताज के कमरा नं 309 में ही ग्रेनेड से ब्लास्ट हुआ..यह जानकारी मुझे रुम सर्विस वाले ने यह कहकर दी, वह कमरा आपके बगल वाला है । और अब की सुरक्षा सरीखी व्यवस्था तब होती तो 26/11 नहीं होता। ताज के गुबंद के ठीक नीचे खड़े होकर हरे-नीले रंग के शीशे को चमकता देखते वक्त भी ताज के एक कर्मचारी ने झटके में बताया-यह ब्लास्ट से उड़ा दिया गया था। नक्काशीदार शीशे का रंग तो वहीं है, लेकिन खूबसुरती वह नहीं। और पहली मंजिल की तरफ जाती इन्हीं सीढ़ियों से उस वक्त के मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के पीछे रामगोपाल वर्मा उतर रहे थे। और उसके बाद रामगोपाल वर्मा ताज में दिखायी नहीं दिये। लेकिन ताज से निकल कर 36 घंटे बाद जब 26/11 के फैसले का वक्त आया तो कमोवेश हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर झूलते फांसी के फंदे ने संवाद सीधा किया कि कसाब को फांसी ही होनी है, और उसी के बाद हिसाब पुरा हुआ माना जायेगा।

लेकिन न्याय और हिसाब के बीच 26/11 के घायल मझगांव के अब्दुल शेख, जाकिया रोड के हामिद और सीएसटी पर गोली खाई साढे दस साल की देविका जब अपनी कहानी बताने लगे, तो अचानक 26/11 एक नई पहचान लिए उभरा। 26/11 की रात अब्दुल शेख की टैक्सी में ब्लास्ट हुआ। अब्दुल के शरीर में बारूद और कांच के छर्रे चले गए। आंखों में भी बारूद गया। अब आखें 15-20 सेकेंड में भी नहीं खुल पाती हैं। माथा घूमने लगता है। अब्दुल न तो बहुत देर खड़ा हो पाता है और न ही एक जगह पर बहुत देर तक बैठ पाता है। आँपरेशन होना है, लेकिन पैसा नहीं है। कमाई का जरिया बंद हो चुका है। टैक्सी के अलावा दूसरा धंधा करने का हुनर है नहीं। बीते 17 महीनों में जो भी परिचित या नया शख्स मिला, सभी ने पहला संबोधन यह किया- ‘ये हैं अब्दुल शेख 26/11 वाले’! न कोई सरकारी मदद, न ही इलाज। वह कहता है, ‘बस जेजे अस्पताल के डाँक्टर इस बिल पर देख लेते हैं, क्योंकि 26/11 मेरे साथ जुड़ा है। अन्य मरीजों के बीच मेरी पहचान 26/11 वाली है, जो मुझे वीआईपी बना देती है। ’

हामिद का भी दर्द यही है। ग्रनेड से निकले छर्रों ने इनके चेहरे को दागदार बना दिया है। जाकिया रोड पर तीन लोग मारे गए थे और 19 घायल हुए थे हामिद उन 19 में से एक हैं। इलाज तो दूर, जो कामकाज था वह भी छिन गया। शरीर इजाजत नहीं देता मेहनत से जुड़ा कोई काम करने के लिए। हर जगह कुछ मांगने से पहले बोलना पड़ता है, ‘मी 26/11 चे भुक्तभोगी आहे’ ( मै 26/11 में घायल हुआ हामिद हूं)। रोजगार से इलाज तक के दस्तावेज मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक भेजे गए और हर पत्र में ‘हामिद’ से ज्यादा बार ‘26/11’ लिखा गया आज 17 महीने बाद भी हालात 26/11 जैसे ही हैं। आखिर यह फैसले का दिन किसके लिए था?

कसाब का हिसाब कौन ले रहा था या कौन दे रहा था?

यह सवाल 26/11 के हामिद का है। इसी 26/11 ने कैसे देविका को बच्ची से मशीन बना दिया है, यह भी टीवी स्क्रिन पर उभरा। देविका वही लड़की है जिसने विशेष अदालत में तीन लोगों में से अजमल आमिर कसाब को यह कह कर पहचाना था कि यही वह आतंकवादी है, जिसने सीएसटी स्टेशन पर गोलियां चलाई। देविका के पांव में गोली लगी। उसके बाद उसका बचपन ही 26/11 में तब्दील हो गया। 27 दिसंबर को देविका 11 साल की होगी। यानी 26/11 के वक्त नौ साल की देविका के साथ 26/11 कुछ इस तरह जुडा की गरीबी और तंगहाली में उसका जीवन ही अब 26-11 की कहानी में जा सिमटा है । मै पहले खूब खेलती थी । हर खेल खेलती थी । सहेलियो के साथ खेलती थी । लेकिन 26-11 के बाद कुछ भी नहीं खेल पाती हूं । कसाब को फांसी मिलनी चाहिये । तभी मुझे संतोष होगा । मै पढना चाहती है । मुझे अंग्रेजी स्कूल में पढना है । पढ लिख कर मै पुलिस आफिसर बनना चाहती हूं जिससे फिर कोई आंतकवादी 26/11 की तरह हम पर हमला ना कर सके । मै सबसे लडूगी । 26-11 से पहले मै अपनी सहेलियो जैसी ही थी । लेकिन 26/11 ने मुझे बदल दिया । कसाब को फांसी होगा तो मुझे संतोष होगा । मै भी अच्छा जीवन जीना चाहती हूं । मुझे मदद मिले तो खूब पढू । देविका का नया सच यही है। कि अगर वह 26/11 या कसाब का नाम नहीं ले, तो उसकी कोई दूसरी पहचान नहीं है। 26/11 को बार-बार कहकर जीना उसकी जिंदगी की हकीकत इसलिए भी है, क्योंकि गरीब परिवार की देविका को बीते 17 महीनों में यही बताया गया कि 26/11 उसकी जिंदगी की असल पाठशाला है, जिसका जिक्र होने पर ही मुम्बईकर या मीडिया जुड़ेगें अन्यथा वह भी साढे तीन सौ से ज्यादा घायलों में गुम हो जाएगी। लेकिन सच यह भी है कि पांव गंवा चुकी देविका की हर गुहार जिंदगी जीने के लिए है, जिसकी जिम्मेदारी राज्य को 26/11 के दिन ही उठा लेनी चाहिए थी। कम से कम देविका का बचपन तो बच जाता।

लेकिन कसाब के हिसाब का हंगामा इतना ज्यादा हुआ कि देविका भी ‘26/11 की देविका’ में बदल गई और हर घायल भी इसी पहचान के साथ न्यूज चैनलों की स्क्रीन पर उभरा, जिससे लगे कि सभी कसाब का हिसाब लेने पहुंचे हैं। मुझे ताज की समारोह वाली शाम में कश्मीर से आए जीएच खालु की वह बात याद आ गई, जो श्रद्धांजलि देने के बाद उन्होने कही थी-‘घाटी में रूबाइया सईद के अपहरण के दिन ही हम समझ गए थे कि अब हमारी पहचान भी इसी अपहरण से जुड़ चुकी है, क्योंकि भावनाओं के आसरे भावनाओं से खेलना राजनीति का शउर होता है। इसमें समाधान नहीं देखे जाते।’ कसाब के हिसाब के बाद ताज में अब शायद ही 26/11 पर कोई दो मिनट मौन रख श्रद्धांजलि दे। और शायद ही कोई घायलों के माथे पर लगे 26/11 के तिलक को मिटाने में भी जुटे।

11 comments:

पश्यंती शुक्ला. said...

यहां आने से हमेशा कुछ ज्ञान ही मिलता है और बहुत सी बाते जिन्हे हम लोग चाहकर भी शब्द नही दे पाते उन्हे शब्दों में गढा देखते हैं तो ये बातें दिल को छू जाती हैं और सोचने को मजबूर कर देती हैं....

पश्यंती शुक्ला. said...

घाटी में रूबाइया सईद के अपहरण के दिन ही हम समझ गए थे कि अब हमारी पहचान भी इसी अपहरण से जुड़ चुकी है, क्योंकि भावनाओं के आसरे भावनाओं से खेलना राजनीति का शउर होता है। इसमें समाधान नहीं देखे जाते।’


ये सच है लेकिन समाधान तो दूर हममे से कोई इस सच से शायद रुबरु भी नही होना चाहता है सर.

योगेश गुलाटी said...

वाकई हमने इतिहास रच दिया! हम इस बात पर खुश हो सकते है कि हमने महज़ एक साल में एक बड़े आतंकी मुकदमे का फैसला कर दिया! क्योंकि हमारी अदालते साधारण विवादों का फैसला करने में भी दशको का समय लेती है! हम इस बात पर भी खुश हो सकते हैं कि इस संवेदनशील मामले में दो भारतीय आरोपीयों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया ! हमारे विद्वान इसे न्यायालय की निष्पक्षता से जोड़ कर देख रहे हैं! और वो कसाब को मिली फांसी की सज़ा पर जश्न मना रहे हैं! लेकिन जश्न किस बात का? आतंक की इस शतरंज में कसाब महज़ एक प्यादा है! इस खेल के असली खिलाड़ी तो हमारी पहुंच से बाहर हैं! क्या हम अमेरिका की तर्ज़ पर पकिस्तान और पाक- कश्मीर में चल रही आतंक की फेक्त्रीयो को ख़त्म करने की हिम्मत रखते हैं अगर नहीं ...तो एक कसाब को फांसी पर लटकाने से कुछ नहीं होने वाला! क्योंकि महज़ चंद लाख रुपयों के लालच में भारत पर हमला करने को कितने ही कसाब तैयार बैठे है! हमारे पड़ोसी मुल्कों में इतनी गरीबी है कि वहां भारत पर हमला करने के लिए मानव बम तैयार करना कोइ मुश्किल काम नहीं है!

सतीश पंचम said...

यह 26/11 भुनाने की प्रवृत्ति असल पीड़ितों को धकिया कर अलग कर दे रहा है। मीडिया भी तो 'जो सिके वही बिके' का अंदाज मान बैठा है इसलिए ढूँढ ढूँढ कर 26/11 की आँच में सिक चुके लोगों को बता रहा है, उन्हें पेश कर रहा है लेकिन उनकी माली हालत पर चुप्पी साधे है।

बढ़िया पोस्ट।

anoop joshi said...

dhnyabad sir. aabhar gyan dene ke liye

सम्वेदना के स्वर said...

26/11 ?????
अमेरिकी 9/11 जैसा उधार का शब्द बताता है कि यह इंडिया का डर है, भारत तो विभाजन से ही यह सब झेल रहा है.

"ताज होटल", इंडिया के निवासीयों का दूसरा घर था (माफ करना प्रसून भाई!) क्या इसी कारण मीडिया ने हाथों हाथ लिया इस प्रकरण को? पूंजीं के ढेर पर बैठे इस मीडिया ने कसाब पर क्या हंगामा बरपा किया है, काश! इतनी ही फिक्र रोज़ रोज़ मर रहे इस भारत की भी करी होती?

राजू श्रीवास्तव के चुटकुले सा है ये सब खेल....

....लिखते रहिये! ताकि सनद रहे!!!

डॉ .अनुराग said...

अजीब बात है ना एक ऐसा अपराध जो इतनी आँखों के सामने होता है ...दुनिया भर का मीडिया इकट्ठा होता है....हम उसके अपराधी को फांसी की सजा सुनाये जाने पर ऐसे खुश होते है .जैसे.......बस इतना सोचता हूँ के फिर आम अपराधी को सजा मिलना कितना मुश्किल काम होता होगा .....
सबसे ज्यादा दुःख की बात तब होती है .जब कोई न्यूज चैनल ऐसी मसले पर चार बुद्धिजीवियों को बिठा कर ये सवाल पूछता है कसाब पर फांसी से भारत -पकिस्तान के संबंधो पर क्या असर पड़ेगा ?

BANZAARA............. said...

बाजपेयी जी,हमें आप जैसे पत्रकारों से बड़ी उम्मीदें हैं.२६/११ की घटना ने वास्तव में बहुतों की ज़िन्दगी बदल दी हैं,उनकी ज़िन्दगी से बहुत कुछ छिन गया है.कसाब की फांसी तय तो कर दी गयी है लेकिन अभी तो असली खेल होना बाकी है.उसे फांसी थोड़े ही होगी,वह तो अभी वी.आई.पी सुरक्षा में जिन्दा रहेगा.इन मासूमों ने,जिन्होंने असल में अपनी ज़िन्दगी खो दी है,जो जिंदा रहकर भी मौत से बड़ी सजा झेल रहे हैं,हमारा मीडिया उनके लिए कब लड़ना सीखेगा?कसाब के नाम पर जो खेल जनता के साथ खेला जा रहा है वह कब तक चलता रहेगा?मैं तो अभी-अभी इस क्षेत्र में आया हूँ, लेकिन जिस प्रकार से आज का मीडिया व्यापार का साधन बन चुका है,जहाँ पर हर एक खबर दर्शक खींचने के लिए रह गयी है,वहां पर आप जैसे स्थापित लोगों को ही पहल करनी होगी.इस काम में जो भी मदद आप को हम युवाओं से चाहिए उसके लिए हम तैयार हैं लेकिन कुछ तो करना ही होगा.

suresh mahapatra said...

bajpai ji mai apka murid hoon. jis chainal me aap jate hain. use dekhata hoon. rahi bat 26/11 ki to is angle se ab tak kisi ne kasab aur uske sathiyon ki kali kartot ko ab tak dekhane ki koshish nahi ki. aapka main shukragujar hoon.

प्रीतीश बारहठ said...

आप पत्रकार हैं आपके लिये आसान था कि तीन पीडितों की माली हालत के बरअक्स कसाब पर किये गये खर्च का विवरण रखते उतने में शायद ३०० पीडितों की जिंदगी के घावों पर मरहम लग जाती।
कसाब की फाँसी एक अलग आर्टिकल की माँग करती है उसे इतने में ही मत समेटिये। आपका आर्टिकल इसकी विवेचना तो करता है कि सरकार जिंदगियों को संभालती नहीं है लेकिन जिंदगियों को खराब करने वाले आतंकवाद की विवेचना नहीं हुई है।

इस विषय पर आपके और आर्टिकलस् का इंतजार रहेगा।

Parul kanani said...

anuraag ji baat gaur karne layak hai..sawaal bhi mushkil hai aur jawaab bhi shayad!